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Wednesday, December 31, 2008

चाणक्य संदेशः पैसे कमाने वाले धर्म नहीं बचा सकते

अर्थाधीतांश्च यैवे ये शुद्रान्नभोजिनः
मं द्विज किं करिध्यन्ति निर्विषा इन पन्नगाः


जिस प्रकार विषहीन सर्प किसी को हानि नहीं पहुंचा सकता, उसी प्रकार जिस विद्वान ने धन कमाने के लिए वेदों का अध्ययन किया है वह कोई उपयोगी कार्य नहीं कर सकता क्योंकि वेदों का माया से कोई संबंध नहीं है। जो विद्वान प्रकृति के लोग असंस्कार लोगों के साथ भोजन करते हैं उन्हें भी समाज में समान नहीं मिलता।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- आजकल अगर हम देखें तो अधिकतर वह लोग जो ज्ञान बांटते फिर रहे हैं उन्होंने भारतीय अध्यात्म के धर्मग्रंथों को अध्ययन किया इसलिये है कि वह अर्थोपार्जन कर सकें। यही वजह है कि वह एक तरफ माया और मोह को छोड़ने का संदेश देते हैं वही अपने लिये गुरूदक्षिणा के नाम भारी वसूली करते हैं। यही कारण है कि इतने सारे साधु और संत इस देश में होते भी अज्ञानता, निरक्षरता और अनैतिकता का बोलाबाला है क्योंकि उनके काम में निष्काम भाव का अभाव है। अनेक संत और उनके करोड़ों शिष्य होते हुए भी इस देश में ज्ञान और आदर्श संस्कारों का अभाव इस बात को दर्शाता है कि धर्मग्रंथों का अर्थोपार्जन करने वाले धर्म की स्थापना नही कर सकते।

सच तो यह है कि व्यक्ति को गुरू से शिक्षा लेकर धर्मग्रंथों का अध्ययन स्वयं ही करना चाहिए तभी उसमें हल ज्ञान उत्पन्न होता है पर यहंा तो गुरू पूरा ग्रंथ सुनाते जाते और लोग श्रवण कर घर चले जाते। बाबाओं की झोली उनके पैसो से भर जाती। प्रवचन समाप्त कर वह हिसाब लगाने बैठते कि कितने भक्त आये और धन कितना आया और फिर अपनी मायावी दुनियां के विस्तार में लग जाते हैं। कहीं आश्रम बनाते तो कहीं भक्तों के रहने के लिये फाइव स्टार आश्रम जिनकी बुकिंग ऐसे ही होती है जैसे होटलों की। जिन लोगों को सच में ज्ञान और भक्ति की प्यास है वह अब अपने स्कूली शिक्षकों या अपने आसपास रहने वाले ही ज्ञानी बुजुर्गों या मित्रों को ही मन में गुरू धारण करें और फिर वेदों और अन्य धर्मग्रंथों का अध्ययन शुरू करें क्योंकि जिन अध्यात्म गुरूओं के पास वह जाते हैं वह बात सत्य की करते हैं पर उनके मन में माया का मोह होता है और वह न तो उनको ज्ञान दे सकते हैं न ही भक्ति की तरफ प्रेरित कर सकते हैं। वह करेंगे भी तो उसका प्रभाव नहीं होगा क्योंकि जिस भाव से वह दूर है वह हममें कैसे हो सकता है।

भारतीय अध्यात्म ज्ञान है ही स्वर्ण की खान। हमारे देश के ही ऐसे लोग जिन्होंने शब्द ज्ञान प्राप्त कर लिया वह उनका अध्ययन उसके प्रचार के लिये नहीं बल्कि आत्म विज्ञापन के लिये करते हैं। समाज में धर्म की स्थापना का उनका ध्येय तो दिखावे का होता है बल्कि उनका मुख्य लक्ष्य धनार्जन करना ही होता है। वह धन कितना भी कमा लें धर्म की स्थापना नहीं कर सकते।
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Tuesday, December 30, 2008

संत कबीर वाणी:हीरे का होता है मोल, पर सुंदर शब्द कहलाते हैं अनमोल

शब्द बराबर धन नहीं, जो कोय जानै बोल
हीरा तो दामों मिलै, सब्दहिं मोल न तोल

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अगर कोई अपनी वाणी से शब्द बोलना जानता हो तो वास्तव में उचित शब्द के बराबर कोई धन नहीं है। हीरा तो फिर भी पैसा खर्च करने पर मिल जाता है पर दूसरे को प्रभावित करने वाले शब्द हर कोई नहीं बोल पाता।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-आज के भौतिक युग में लोगों के संवेदनशीलता कम होती जा रही है। किसी से प्रेमपूर्वक बोलना चमचागिरी कहा जाता है। सच तो यह है कि लोग उसी से प्रेम से बोलते हैं जिससे कोई काम निकलता है या किसी से डरते हैं। अपने से छोटे या निम्न व्यक्ति के साथ तो हर कोई शुष्क और कठोर व्यवहार करता है। इसका एक पक्ष यह भी है कि अगर किसी से प्रेमपूर्वक बात की जाये तो वह सामने वाले को कमजोर और डरपोक समझने लगता है। कुछ लोग तो ऐसे भी है जो प्रेम ओर मित्रता से बात करने पर मखौल उड़ाने लगते हैं। इसके बावजूद विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। हमें अपना व्यवहार साफ रखना चाहिए। जितना हो सके सुंदर और मधुर वाणी में बोलना चाहिए।

एक सच यह भी है कि मधुर और प्रेमपूर्ण वाणी भी तभी बोली जा सकती है जब अपना मन साफ हो। अगर मन में कुविचार रखकर किसी से मधुर वाणी में बोलेंगे तो उसका कोई प्रभाव नहीं होता। किसी से डरकर भी जब उससे मधुर शब्द बोलते हैं तो वह समझ जाता है। कई लोग तो मधुर शब्द बोलकर ठगते हैं और यह सब लोग समझ जाते हैं। अतः मन में स्वच्छता रखकर हम किसी से बात करेंगे तो हमारी वाणी से सुंदर और मधुर शब्द जरूर निकलेगें और उसका प्रभाव भी होगा।
इसके अलावा आजकल लोगों में सहज वार्तालाप के दौरान ही अनावश्यक रूप से गालियाँ देने की प्रवृति बढ़ती जा रही है जो कि ख़राब है. खासतौर से पढ़े लिखे लोग इसका शिकार हो रहे हैं. इससे व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों पर पानी फ़िर जाता है और छोटों की दृष्टि में बड़ों का सम्मान कम होता है. सबसे बड़ी बात यह है की हम इसके प्रभावों का अध्ययन नहीं करते. जब कोई दूसरा गाली देता हैं हमें स्वयं को अटपटा लगता है पर जब हम बोलते हैं तो यह नहीं सोचते कि दूसरे को भी बुरा या अटपटा लग सकता है.
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Monday, December 29, 2008

चाणक्य संदेश: साँप में विष न हो तो भी फन फैला ही देता है

१. राजा, बालक, दूसरे का कुत्ता, मूर्ख व्यक्ति, सांप, सिंह और सूअर इन सात जीवों को सोते हुए से कभी नहीं जगाना चाहिए, इन्हें जगाने से मनुष्य को हानि ही हो सकती है लाभ नहीं। इनके आक्रमण करने से अपनी रक्षा करना कठिन होगा। अत: अच्छा यही है यदि वह सो रहे हैं तो उन्हें सोता छोड़ आगे बढ जाना चाहिए।
२. जो व्यक्ति निस्तेज यानी प्रभावहीन है न तो उसके प्रसन्न होने पर किसी व्यक्ति को अर्थ की प्राप्ति होती है न ही नाराजगी पर किसी सजा का भय ही प्रतीत होता है। जिसकी कृपा होने पर पुरस्कार न मिलता हो और न ही जो किसी को दण्ड देने का अधिकारी हो ऐसा व्यक्ति रुष्ट भी हो जाये तो कोई उसकी चिंता नहीं करता।
३. आज के युग में आडम्बर का अपना अलग ही महत्व है। वह झूठ भी हो तो भी आदमी को कुछ न कुछ लाभ मिल ही जाता है। सर्प के मुख में विष न हो तो भी वह मुख तो फैला ही देता है जिससे लोग भयभीत होकर पीछे जाते हैं। उसकी फुफकार ही दूसरों को डराने और अपनी रक्षा करने में पर्याप्त होती है। यदि सर्प अपने फन भी न फैलाये तो कोई बच्चा भी मार डालेगा। इसलिये कुछ न कुछ आडम्बर करना हर प्राणी के लिए आवश्यक है

४. संसार के दुखों से दुखित पुरुष को तीन ही स्थान पर थोडा विश्राम मिलता है- वह हैं संतान, स्त्री और साधू
५. राजा की आज्ञा, पंडितों का बोलना और कन्यादान एक ही बार होता है।
६. एक व्यक्ति का तपस्या करना, दो का एक साथ मिलकर पढ़ना, तीन का गाना, चार का मिलकर राह काटना, पांच का खेती करना और बहुतों का मिलकर युद्ध करना
७. पक्षियों में कोआ, पशुओं में कुत्ता और मुनियों में पापी चांडाल होता है पर निंदा करने वाला सबसे बड़ा चांडाल होता है।
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Sunday, December 28, 2008

संत कबीर वाणी: हमारे देश पर प्रकृति की अत्यन्त कृपा है

हम वासी वा देश के,जहां पुरुष की आन
दुःख सुख कोई व्यापै नहीं, सब दिन एक समान

संत कबीरदास जी कहते हैं कि हम उस देश क निवासी है जहां परमात्मा रूपी पुरुश की मर्यादा रखी जाती है। यहां पर कोई दुःख सख नहीं है। एक दिन एक समान हैं।

हम वासी वा देश के, जहां ब्रह्म का कृप
अविनासी विनसै नहीं, आवै जाय सरूप


संत शिरोमणि कबीरदास जी का आशय यह है कि हमारा देश अन्य देशों से कही अधिक सौभाग्यशाली है जहां ब्रह्म की अत्यधिक कृपा है। जहां उस अविनाशी तत्व का कभी विनाश नहीं होता। देह का क्षय और मरण तो होता रहता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- आज से चार सौ वर्ष पूर्व ही श्री कबीरदास जी ने यह अनुभव कर लिया था कि प्राकृतिक दृष्टि से अपना देश अन्य देशों से कहीं अधिक संपन्न है और जो अध्यात्म ज्ञान है उस आभास भी यहीं के लोगों में हैं। अगर देखा जाये तो जलवायु,खनिज और कृषि संपदा से अपने यहां संपन्नता है जो अन्य कहीं नहीं है। इस देश को किसी अन्य देश से सहायता की आवश्यकता नहीं है। इसके साथ ही किसी प्रकार का विचार या अध्यात्म ज्ञान भी कहीं से नहीं चाहिये। संत कबीरदास जी ने अपने जीवन में इस बात की अनुभूति कर ली थी कि विदेशी लोग इस देश में अपना मायाजाल फैला रहे हैं क्योंकि उनकी दृष्टि इसी प्राकृतिक संपदा पर थी। उन्होंने देखा कि कहीं जाति तो कही गरीबी के नाम पर इस देश में भेद पैदा किया जा रहा है। इसलिये उन्होंने अपने देश के लोगों को चेताया कि किसी भी चक्कर में मत पड़ो।

इसके बावजूद उनकी बातों पर लोगों ने ध्यान नहीं दिया और परिणाम यह हुआ कि तात्कालिक लाभ की खातिर यहां के अनेक लोगों ने विदेशियों को यहां न केवल आने दिया बल्कि उनको सम्मान देने के साथ उनके विचारों का अनुकरण किया। आज हालत यह है कि न केवल अपनी प्राकृतिक संपदा निरंतर लुटती रही है और पश्चिमी सभ्यता और विचारा धारा को भी ढोना पड़ रहा है जबकि अपने देश का अध्यात्म ज्ञान का कहीं मुकाबला नहीं है।
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Saturday, December 27, 2008

भृतहरि संदेश:इस विश्व में सभी का लोगों स्वभाव एक जैसा नहीं होता

विरहेऽपि संगमः खलु परस्परं संगतं मनो येषाम्
हृदयमपि विघट्टितं चेत्संगी विरहं विशेषयति


हिंदी में भावार्थ-जिनके व्यक्तियों हृदय आपस मिले हों वह दैहिक रूप से एक दूसरे से परे होते हुए भी अपने को साथ अनुभव करते हैं। जिनसे हार्दिक प्रेम न हो तो वह कितने भी पास हो उनसे एक प्रकार से दूर बनी रहती है।

वैराग्ये सञ्चरत्येको नीतौ भ्रमति चापरः
श्रंृगाारे रमते कश्चिद् भुवि भेदाः परस्परम्


हिंदी में भावार्थ-इस विश्व में सभी व्यक्तियों का स्वभाव ऐक जैसा नहीं होता। सभी के हृदय में व्याप्त रुचियों भिन्न होती हैं। कोई वैराग्य धारण कर मोक्ष के लिये कार्य करता है तो कोई नीति शास्त्र के अनुसार अपने कार्य कर संतुष्ट होता है तो कोई श्रंृगार रस में आनंद मग्न है। यह भेद तो प्राकृतिक रूप से बना ही है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- वर्तमान समय में विकास का ऐसा पहिया घूमा है कि आत्मीय लोग अपने से दूर हो जाते हैं। अधिक धन और विकास की लालसा मनुष्य को अपनों से दूर जाने का बाध्य करती है पर इसे विरह नहीं मानना चाहिये। हालांकि अनेक शायर और गीतकार इसे विरह मानते हुए कवितायें, शायरी और गीत लिखते हैं पर उनको हृदय में धारण नहीं करना चाहिये। ऐसी रचनायें अध्यात्म ज्ञान से परे होती हैं। खासतौर से फिल्मों में काल्पनिक दृश्य गढ़कर ऐसे गीत रचे जाते हैं। एक देश से दूसरे देश पात्र भेजकर ‘चिट्ठी आई है’जैसे गीत लिखे जाते हैं जिसे सुनकर लोग भावुक हो जाते हैं। यह अज्ञान है। मनुष्य की पहचान उसके मन से है और अगर किसी के मन में बसे हैं और वह हमारे मन में बसा है तो उसे कभी दूर नहीं समझना चाहिये। ऐसे गीतों को सुनकर भूल जाना चाहिये। अरे जो मन में बसा है वह भला कभी दूर जा सकता है। विरह गीत रखने वाले दैहिक तत्व तक का सीमित ज्ञान रखते हैं और संगीत की धुनों से उनको लोकप्रियता मिलती है। अध्यात्म ज्ञान रखने वाले भी उनको सुनते हैं पर फिर भूल जाते हैं पर जिनको नहीं है वह भले ही कोई अपना दूर न हुआ हो फिर भी ऐसे गीतों को गुनगनाते हैं।
जीवन में विभिन्न अवसरों पर भिन्न प्रकार के लोगों से हमारा वास्ता पड़ता है। इनके कई तो अच्छा व्यवहार करते हैं और कई बुरा। जब कोई अच्छा व्यवहार करता है तो मन प्रसन्न होना स्वाभाविक है पर अगर कोई व्यक्ति बुरा बर्ताव करता है तो उस दुःखी नहीं होना चाहिए क्योंकि यह मानकर चलना चाहिये कि हर कोई व्यक्ति अपने मूल स्वभाव क अनुसार व्यवहार करता है। कई ऐसे लोग होते हैं जिनको दूसरे का दिल दुखाने में मजा आता है ऐसे लोगों से संपर्क रखना ठीक नहीं पर अगर कहीं धोखे में सामने आकर वह अपनी बदतमीजी दिखायें तो उसकी उपेक्षा करना ही ठीक है।
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Friday, December 26, 2008

संत कबीर वाणी: जीभ के स्वाद में जो फंसा है उसे साधू नहीं कहें

जीभ स्वाद के कूप में, जहां हलाहल काम
अंग अविद्या ऊपजै, जाय हिये ते नाम


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक जीभी स्वाद के गहरे कुऐं में है तब तक आदमी में अज्ञान रहेगा और वह परमात्मा के नाम से दूर ही रहेगा क्योंकि उसमें विष अपना काम करता है।


अहार करै मन भावता, जिभ्या केरे स्वाद
नाक तलक पूरन भरै, क्यों कहिये वे साध


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि आदमी जीभ के स्वाद में पड़कर अपने मन को पसंद आने वाले आहार की खोज में लगा रहता है। वह नाक तक खाना भर लेता है फिर उसे साधु कैसे कहा जा सकता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अगर देखें तो अब सामान्य आदमी केवल खाने के लिये ही अपना जीवन गुजार रहा है। लोग अपने घर के बने भोजन से कहीं अधिक बाहर के भोजन को पसंद करने लगे हैं। चटपटे मसालेदार व्यंजन जो खाने में स्वादिष्ट लगते हैं पर उनका प्रभाव स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छा नहीं माना जाता उनको उदरस्थ करने में जुटी भीड़ कहीं भी देखी जा सकती हैं। कितनी विचित्र बात है कि आदमी अपने घर में अपने खाने की सामग्री ढंक कर रखता है और अगर कहीं वह खुली छूट जाये तो उसको बाहर फैंक देता है क्योंकि उसमें कीड़ों के होने की आशंका हो जाती है पर वही बाहर दुकानों और होटलों पर खुले में रखे व्यंजन खाने में बहुत रुचि लेता है जिसके बारे में उस स्वयं पता ही नहीं होता कि कब से वह खुले पड़ें हैं। अधिकतर स्वास्थ्य विशेषज्ञ लोगों को बाहर की चीजें खाने से रोकने की राय देते हैं पर लोग उनकी अनदेखी कर विषैले पदार्थ स्वाद के ग्रहण करते है और फिर बीमार पड़ते हैं। आजकल जिस तरह बीमार लोगों की संख्या बढ़ रही है उसको देखकर यह चिंता का विषय है। अगर देह में विकार हों तो आदमी के मन में भक्ति और सत्संग की भावना पैदा नहीं होती यह समझ लेना चाहिए।
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Thursday, December 25, 2008

संत कबीर वाणी: बहिर्मुखी नहीं बल्कि अंतर्मुखी बने


सुमिरन सुरति लगाय के, मुख ते कछु न बोल
बाहर के पट देय के, अंतर के पट खोल


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मन का एकाग्र और वाणी पर नियंत्रण करते हुए परमात्मा का स्मरण करो। आपनी बाह्य इंदियों के द्वार बंद कर अंदर के द्वार खोलो।

संपादकीय व्याख्या-इससे पता चलता है कि कबीरदास जी ध्यान की चरम स्थिति प्राप्त कर चुके थे और यही उनकी भक्ति और शक्ति का निर्माण करता था। भगवान की भक्ति का श्रेष्ठ रूप भी ध्यान ही है। अक्सर लोग कहते हैं कि हमारा ध्यान नहीं लगता या थोड़ी देर लगता है फिर भटक जाता है। दरअसल हम लोग शोरशराबे से भक्ति करने के आदी हो जाते हैं इसलिये यह सब होता है। इसके अलावा ध्यान के लिये गुरू की आवश्यकता होती है वह मिलते नहीं है। अधिकतर गुरू सकाम भक्ति के लिए प्रेरित कर केवल अपने प्रति लोगों का आकर्षण बनाये रखना चाहते हैं।

ध्यान लगाना सरल भी है और कठिन भी। यह हम पर निर्भर करता है कि हमारे मन और विचारों पर हमारा नियंत्रण कितना है। इस संसार के दो मार्ग हैं। एक सत्य का दूसरा माया का। हमारा मन माया के प्रति इतना आकर्षित रहता है कि उसे वहां से हटाने के लिये दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है। अगर हमने तय कर लिया कि हमें ध्यान लगाना ही है तो दुनियां की कोई ताकत उसे लगने से रोक नहीं सकती और अगर संशय है तो कोई गुरू उसे लगवा नहीं सकता।
इन पंक्तियों का लेखक कोई सिद्ध पुरुष नहीं है पर ध्यान की विधि जो अनुभव से आई है उसे तो बता ही सकता है। कहीं शांत स्थान पर सुखासन में बैठ जाईये और आंखें बंद कर शरीर को ढीला छोड़ दें। अपने हृदय में चक्रधारी देव की कल्पना कर उसे पर अपनी दृष्टि रखें। अपना पूरा नाक के बीच में भृकुटि पर ही रखें। दुनियां के विचार आयें आने दीजिये। आप तो तय कर लीजिये कि मुझे ध्यान लगाना है। जो विचार आते हैं उनके बारे में चिंतित होने की बजाय यह सोचिये कि वह आपके जीवन के जो घटनाक्रम आपने देखे और अनुभव किये हैं उनसे उत्पन्न विकार है जो वहां भस्म हो रहे हैं। जिस तरह हम कोई पदार्थ मुख से ग्रहण करते हैं पर शरीर में वह गंदगी के रूप में बदल जाता है। हम मुख से करेला खायें यह क्रीमरोल उसका हश्र एक जैसा ही होता है। हम काढ़ा पियें या शर्बत वह भी कीचड़ के रूप में परिवर्तित हो जाता है। यही हाल आखों से देखे गये अच्छे बुरे दृश्य और कानों से सुने गये प्रिय और कटु स्वर का भी होता है। उसके विकार हम देख नहीं पाते पर वह हमारी देह में होते है और उसको वहां से निकालने के लिये ब्रह्मास्त्र का काम करता है ध्यान। जब ध्यान लगाते हैं और जो विचार हमारे दिमाग में आते हैं उनके बारे में यह समझना चाहिए कि वह विकार हैं जो वहां भस्म होने आ रहे हैं और हमारा मन शुद्ध हो रहा है। धीरे-धीरे हमारी बाह्य इंद्रियों के द्वार ध्यान के कारण स्वतः बंद होने लगेंगे। बस अपने अंदर दृढ़ इच्छा शक्ति की आवश्यकता है।
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Wednesday, December 24, 2008

मनु स्मृति: त्यागी ही होता है सबसे श्रेष्ठ

न जातु कामा कामानामुपभोगेन शाम्यति
हविपा कृष्णावत्र्मेव भूव एवाभिवर्धते

जिस प्रकार अग्नि में घी डालने से वह और अधिक जल उठती है उसी प्रकार आदमी सतत इच्छाओं की पूर्ति जैसे जैसा होती जाती है वैसे ही वह और अधिक बढ़ जातीं हैं।

यश्चैतान्प्राघ्नु यात्सर्वान्यश्चैतान्केवलांस्त्यजेत्
प्रापणात्सर्वकामानां परित्यागों विशिष्यते

एक व्यक्ति जो सब विषयों को प्राप्त कर ले और दूसरा जो सबका त्याग कर दे उनमें त्यागी को ही श्रेष्ठ कहा जा सकता है।

आज के संदर्भ में व्याख्या-मनुस्मृति के इन दोनों श्लोंकों का आशय यही है कि हमें अपनी इच्छाओं का दास बनने की बजाय उनका मालिक होना चहिए। जब हम अपने अंदर तमाम तरह की इच्छाएं पाल लेते हैं तो उनको पूरा करने के लिये इधर-उधर भटकने लगते हैं और तब हमारें सामने अनेक प्रकार के तनाव उपस्थित हो जाते हैं। हमारा काम कई चीजों के बिना भी चल सकता है पर हम उनको पाने की चेष्टा करते है। कई चीजें तो हमारे लिये क्षणिक काम या समय के लिये उपयोग में आतीं हैं और बाद में उनको कबाड़ में रख दिया जाता है पर हम उसे पाने में अपनी बेशकीमती समय और ऊर्जा नष्ट कर देते हैं। इसकी बजाय हम अपनी उन व्यर्थ की इच्छाओं और कामनाओं के स्वामी बनकर उन्हें रोंकें तो हम अपने जीवन में न केवल अपार आनन्द प्राप्त करेंगे बल्कि अपने आसपास ही दूसरे मनुष्यों के लिये आदर्श भी बन सकते है।

कुछ लोग भौतिक साधनों का संचय कर यह सोचते हैं कि उनको समाज में श्रेष्ठ माना जा रहा है तो यह उनका वहम है। अपने यहां दूल्हे की शादी में अधिक से अधिक दहेज प्राप्त करने का यह सोचकर प्रयास किया जाता है जिससे लोगों को लगे वह तथा उसका परिवार श्रेष्ठ है। इसकी प्रथा की आलोचना भी खूब होती है पर लोग फिर भी इसे नहीं छोड़ते क्योंकि उनको लगता है कि अगर दहेज नहीं लिया तो लोग परिवार और लड़के की योग्यता पर उंगली उठायेंगेे। अब इस भ्रम को त्याग देना चाहिये।
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नोट-उपरोक्त श्लोक कृतिदेव 10 में टंकित कर परिवर्तित टूल से युनिकोड में किये गये हैं अतः इसमें कुछ अलग के दिखाई दे रहे है। सुधि पाठक इसे अवगत हों।
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Tuesday, December 23, 2008

चाणक्य संदेश: शुद्ध आचरण ही कहलाता है धर्म

1.आज के युग में अर्थ की प्रधानता है और धन संचय प्रमुख आधार है। धन संचय हर मनुष्य के लिये आवश्यक है क्योंकि समय पड़ने पर कब उसकी जरूरत होती है पता ही नहीं पड़ता।
2.संसार में कौन ऐसा व्यक्ति है जिसके कुल में दोष नहीं है। अगर गौर से देखों तो सभी कुलों में कहीं न कहीं कोई दोष दिखाई देता है। उसी प्रकार इस भूतल पर ऐसा कौनसा प्राणी है जो कभी रोग से पीडि़त नहीं होता या उस पर विपत्ति नहीं आती। इस प्रथ्वी पर ऐसा प्राणीनहीं मिल सकता जिसने हमेशा सुख ही देखा हो
3.किसी भी व्यक्ति के कुल का अनुमान उसके व्यवहार से लग जाता है। उसकी भाषा से उसके प्रदेश का का ज्ञान होता है। उसके शरीर को देखकर उसके खानपान का अनुमान किया जा सकता है। इस तरह किसी भी व्यक्ति से बातचीत में उसके बारे में बहुत कुछ जाना जा सकता है।
4.वह भोजन पवित्र कहलाता है जो विद्वानों के भोजन करने पर शेष रह जाता है। दूसरे का हित करने वाली वृत्ति ही सच्ची सहृदयता है। श्रेष्ठ और बुद्धिमान पुरुष वही होता है जो पापकर्मों में प्रवृत्त नहीं होता। कल्याण क लिये वह धर्म और कर्म श्रेष्ठ है जो अहंकार के बिना किया जाये। छलकपट से दूर रहकर शुद्ध आचरण ही करना धर्म है।

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Monday, December 22, 2008

रहीम संदेश: अब इस बाग में घास के ढेर रह गए हैं

रहिमन अब वे बिरछ कहं जिनकी छांह गंभीर

बागन बिच बिच देखिअत, सेंहुड, कुंज करीर

कवीवर रहीम कहते हैं की अब इस संसार रुपी बाग़ में अब वह वृक्ष कहाँ है जो घनी छाया देते हैं। अब तो इस बगीचे में सेमल और घास फूस के ढेर या करील के वृक्ष ही दिखाई देते हैं।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-हम कहते हैं कि ज़माना बहुत खराब हैं पर देखें तो यह केवल हमारा एक नजरिया है। इस कलियुग में तो झूठे और लघु चरित्र के लोगों का बोलबाला है। रहीम जी के समय तो फिर भी सात्विक भाव कुछ अधिक रहा होगा पर अब तो स्थिति बदतर है।

पहले तो लोग दान -पुण्यके द्वारा समाज के गरीब तबके पर दया करते थे और अन्य भी तमाम तरह की समाज सेवा करते थे। आपने देखा होगा कि अनेक धर्म स्थलों पर तीर्थ यात्रियों के लिए धर्मशालाएं बनीं हैं जो अनेक तरह के दानी सेठों और साहूकारों ने बनवाईं पर आज उन जगहों पर फाईव स्टारहोटल बन गए हैं। कहने का तात्पर्य अब वह लोग नहीं है जो समाज को अपने पैसे, पद और प्रतिष्ठा से छाया देते थे। अगर कुछ लोग दानवीर या दयालू बनने का दिखावा करते हैं तो उनके निज स्वार्थ होते हैं। ऐसे लोगों से सतर्क रहने की जरूरत है।


मूल बात यह है कि इस समय भारत में ही नहीं वरन् विश्व में अमीर और गरीब के बीच धन की उपलब्धता को लेकर खाई बढ़ रही है। सभी जगह गरीबों की स्थिति दिन ब दिन खराब होती जा रही है पर हमारा भारत देश जो कि दान और सत्संग की द्वारा समाज में सामाजिक समन्वय स्थापित करने के लिये जाना जाता था वहां भी लोग पाश्चात्य संस्कृति की राह पर चल पड़े हैं और यह मान लिया गया है कि गरीब और कमजोर का कल्याण करना सरकार का ही काम है। इस भावना से मुक्त होना होगा।

Sunday, December 21, 2008

संत कबीर संदेश:कौवा किसका धन हरता और कोयल देती है

जिभ्या जिन बस में करी, तिन बस कियो जहान
नहिं तो औगुन ऊपजे, कहि सब संत सुजान

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जिन्होंने अपनी जिव्हा पर नियंत्रण कर लिया यह पूरा संसार ही उनका अपना हो गया। एसा करने से तन और मन में कोई विकास उत्पन्न होता है-यह संत लोग कह गये हैं।
कागा काको धन हरै, कोयल काको देत
मीठा शब्द सुनाय के, जग अपनी करि लेत

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने मन में यह विचार करें कि कौवा किसके धन का अपहरण करता है या कोयल किसको क्या देती है। कर्कश स्वर के कारण कौवा तिरस्कार झेलता है और कोयल लोगों का सम्मान पाती है।
जिहि शब्दे दुख ना लगे, सोई शब्द उचार
तपत मिटी सीतल भया, सोई शब्द ततसार

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जिन शब्दों से दूसरों को कष्ट न हो उनका ही उच्चारण करो। जिससे दुःखी मनुष्य का संतप्त मन भी प्रसन्न हो जाये ऐसी ही वाणी बोलें।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीभ पर नियंत्रण से दो आशय होते हैं एक तो बोलने में मीठी वाणी बोलना और दूसरा खाने में स्वाद की सुपाच्य भोजन को ग्रहण करना। यह दोनों बातें बहुत महत्व रखती हैं। देखा जाये तो कई बार हम अपने मुख से निकले शब्दों का परिणाम हम नहीं देख पाते पर वह होता है। कहा जाता है कि यही जीभ आदमी को धूप में बिठाती है और यही छाया में आसरा दिलाती है। कई बार ऐसा होता है कि पीठ पीछे किसी व्यक्ति की निंदा करते हैं और उसे पता लगता है तो वह फिर मुंह फेर लेता है पर हमें पता ही नहीं लगता। कई बार बोलना है इसलिये ऐसे वाक्य बोलते हैं जो दूसरे को विदीर्ण कर देते हैं और बाद में वही व्यक्ति हमारे प्रति नाराजगी का भाव रख लेतेा है। कई घटनायें ऐसी भी देख सकते हैं जब एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति में कभी न कभी काम पड़ना तय है पर वह वार्तालाप में उसकी निंदा कर उसे अपना बैरी बना लेता है।

उसी तरह खाने में नियंत्रण रखना भी जरूरी है। कई ऐसे पदार्थ हैं जिनके भक्षण से जीभ को स्वाद तो अनुभव होता है पर पेट के लिये वह सुपाच्य नहीं होती। आजकल तो बाजार में अनेक ऐसे पदार्थ बिक रहे हैं जो स्वाद में बहुत अच्छे लगते है। इसलिये पेट के विकारों से अधिकतर लोग त्रस्त हैं। बेहतर तो यही है कि जो पेट के लिये सुपाच्य भोजन हो वही ग्रहण करें।
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Saturday, December 20, 2008

भृतहरि सन्देश: रोजीरोटी की खोज इन्सान को अपने गुणों से परे कर देती है

हिंसाशून्यमयत्नलभ्यमश्यनं धात्रा मरुत्कल्पितं
व्यालानां पशवस्तृणांकुरभुजस्तुष्टाः स्थलीशायिनः
संसारार्णवलंधनक्षमध्यिां वृत्तिः कृता सां नृणां
तामन्वेषयतां प्रर्याति सततं सर्व समाप्ति गुणाः


हिंदी में भावार्थ- परमात्मा ने सांपों के भोजन के रूप में हवा को बनाया जिसे प्राप्त करने में उनको बगैर हिंसा और विशेष प्रयास किए बिना प्राप्त हो जाती है। पशु के भोजन के लिए घास का सृजन किया और सोने के लिए धरती को बिस्तर बना दिया परंतु जो मनुष्य अपनी बुद्धि और विवेक से मोक्ष प्राप्त कर सकता है उसकी रोजीरोटी ऐसी बनायी जिसकी खोज में उसके सारे गुण व्यर्थ चले जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आधुनिक समय में जितना विकास ने अपना बृहद स्वरूप दिखाया है वहीं विनाश भी उससे कम नहीं है। धन और भौतिक सुविधाओं की अतिउपलब्धता ने आदमी को न केवल शरीर बल्कि मस्तिष्क से भी आलसी बना दिया है। मनुष्य का मन उसे भटकाता है। अगर आदमी महल में है तो मन उसे झौंपड़ी की तरफ आकर्षित करता है और वह झौंपड़ी में है तो महल पाने का ख्वाब देखता है। कहने का तात्पर्य है कि मन असीमित विचारों वाला है और वही मनुष्य को इधर उधर घुमाता और भटकाता भी है। मगर आदमी ने अपने आपको सीमाओं में कैद कर लिया है। न वह केवल वैचारिक रूप से बल्कि शारीरिक रूप से भी कम मेहनत करता हैं।

इंसान बस धन,दौलत और प्रतिष्ठा के संचय में ही लिप्त हो गया है। उसका मन उसे कहंीं निष्काम कर्म या निष्प्रयोजन दया के लिये प्रेरित भी करे तो वह नहीं करता क्योंकि उसक मस्तिष्क की नस नाडि़या अब केवल सीमित दायरे में ही कार्य करती हैं। ऐसे में लोगों का मानसिक तनाव बढ़ रहा है पर जिन लोगों को ज्ञान है वह संतोषी सदा सुखी की नीति पर चलते हुए कुछ ऐसे काम भी करते हैं जिनसे मन को प्रसन्नता हो। संचय करने वालों की हालत यह है कि उन्होंने इतना कमा लिया है कि उनकी सात पीढि़यां भी बैठकर खायें पर वह जीवन में धनार्जन करने के अलावा उन्होंने कुछ सीखा ही नहीं है ऐसे में उनका मन उन्हें भटकाता है न कि घुमाता है। इस तरह उनके जो स्वाभाविक गुण होते हैं वह व्यर्थ हो जाते हैं। न वह अपने जीवन में भगवान की भक्ति कर पाते हैं न ही उनको कोई ज्ञान प्राप्त होता है। अध्ययन,चिंतन,श्रवण और मनन के जो गुण उनमें रहते हैं वह कभी उनका उपयोग नहीं कर पाते

Friday, December 19, 2008

संत कबीर सन्देश:पत्थर पूजकर जीवन नैया पर नहीं लगा सकते

पाहन करी पूतरी, करि पूजै करतार
याहि भरोसै मति रहो, बूड़ों काली धार

संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि पत्थर का पुतला बनाकर आदमी उसे पूजने लगता है। उसे अपने इस आडम्बर के सहारे नहीं रहना चाहिए कि वह उसकी सहायता से उस पार पहुंच जायेगा। अगर कहीं उसके भरोसे रहे तो बीच धार में डूब जाओगे।

पाहन को क्या पूजिये, जो नहिं देय जवाब
अंधा नर आशा मुखी, यौ ही खौवे आब


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि उस पत्थर का पूजने से क्या लाभ जो उत्तर नहीं देता। ज्ञान रहित उसे पूजकर जीवन में प्रसन्नता चाहते हैं पर यह व्यर्थ है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मूर्तियां को पूजना बुरा नहीं है पर जिस तरह उसकी पूजा कर यह सामान्य लोग मान लेते हैं कि वह बहुत बड़े भक्त हो गये तो यह उनकी अज्ञानता है। ऐसा लगता है कि मूर्ति पूजा संभवतः इसलिये शुरू की गयी कि सामान्य आदमी के लिये एकदम निराकार और निर्गुण की उपासना संभव नहीं है और वह इन मूर्तियों के रूप को अपने ध्यान में रखकर भक्ति करते हुए निरंकार को अपने मन में धारण करे। हुआ उसके विपरीत! लोग मूर्तियों को पूजकर अपने आपको भक्त समझने लगते है। यह उनकी अज्ञानता और अविवेक का प्रतीक है। जब तक हृदय से निरंकार और निर्गुण की उपासना नहीं की जायेगी तब तक अपने अंदर स्थापित विकार बाहर नहीं निकल सकते।
जब तक तन,मन और विचारों के विकार अंदर हैं तब तक हम जीवन में तनाव से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकते। मूर्तिपूजा का मतलब केवल इतना ही है कि उसका स्वरूप हृदय में रखकर हम ध्यान लगायें जो मानसिक और शारीरिक रूप से बहुत लाभदायक होता है।
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Thursday, December 18, 2008

रहीम सन्देश:किसी के कहने की फिक्र न कर अपनी राह चलें

कहते को कहिं जान दे, गुरू की सीख तू लेय
साकट जन और स्वान को, फेरि जवाब न देय


कविवर रहीम कहते है कि कहने वालों को कुछ भी कहने दो अपने गुरू की सीख लें और फिर अपने मार्ग पर चलें। अज्ञानी लोग और श्वान के भौंकने पर ध्यान न दें

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-लोगों का काम है कहना। सच तो यह है कि अपने जीवन में वह लोग कोई भी उपलब्धि प्राप्त नहीं कर पाते जो जो इस तरह कहने पर ध्यान देकर कोई कदम नहीं उठाते। अपने गुरू से चाहे वह आध्यात्मिक हो या सांसरिक ज्ञान देने वाला उसे शिक्षा ग्रहण कर अपने जीवन पथ पर बेखटके चल देना चाहिए। अगर उसके बाद अगर किसी के कहने पर ध्यान देते हैं तो अकारण व्यवधान पैदा होगा और अपने मार्ग पर चलने में विलंब करने से हानि भी हो सकती है। एक बात मान कर चलिए यहां ज्ञान बघारने वालों की कमी नहीं है। ऐसे लोग जिन्हें किसी भक्ति या सांसरिक क्षेत्र का खास ज्ञान नहीं होता वह खालीपीली अपनी सलाहें देते हैं और अपने अनुभव भी ऐसे बताते हैं जो उनके खुद नहीं बल्कि किसी अन्य व्यक्ति ने उनको सुनाये होते हैं।


इतना ही नहीं जब अपने माग पर चलेंगे तो दस लोग टोकेंगे। आपके कार्यो की मीनमीेख निकालेंगे और तमाम तरह के भय दिखाऐंगे। इन सबकी परवाह मत करो और चलते जाओ। यही जीवन का नियम है। हम देख सकते हैं जो लोग अपने जीवन में सफल हुए हैं उन्होंने अन्य लोगों की क्या अपने लोगों भी परवाह नहीं की। जिन्होनें परवाह की ऐसे असंख्य लोगों को हम अपने आसपास देख सकते हैं।
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Wednesday, December 17, 2008

कबीर सन्देश: सदगुणों को ही अपने मन में स्थान दें

माखी गहै कुबास को, फूल बास नहिं लेय
मधुमाखी है साधुजन, गुनहि बास चित देय


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मक्खी हमेशा दुर्गंध ग्रहण करती है कि न फूलों की सुगंध, परंतु मधुमक्खी साधुजनों की तरह है जो कि सद्गण रूपी सुगंध का ही अपने चित्त में स्थान देती है।

तिनका कबहूं न निंदिये, पांव तले जो होय
कबहुं उडि़ आंखों पड़ै, पीर धनेरी होय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कभी पांव के नीच आने वाले तिनके की भी उपेक्षा नहीं करना चाहिए पता नहीं कब हवा के सहारे उड़कर आंखों में घुसकर पीड़ा देने लगे।

जो तूं सेवा गुरुन का, निंदा की तज बान
निंदक नेरे आय जब कर आदर सनमान


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अगर सद्गुरु के सच्चे भक्त हो तो निंदा को त्याग दो और कोई अपना निंदा करता है तो निकट आने पर उसका भी सम्मान करो
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-लोग मंदिरोंे में जाते हैं तो वहीं दूसरों की निंदा करते हैं। अन्य बात तो छोडि़ये जो संत लोग प्रवचन करते हैं वह भी दूसरों की निंदा करते हुए कहते हैं कि परनिंदा मत करो।
दूसरों में दोष ढूंंढना मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है पर जो सच्चे मन से भक्ति करते हैं वह इस दोष से परे हो जाते हैं। परनिंदा का दोष जिनमें नहीं हैं वह भगवान का सच्चा भक्त है भले ही वह इसका दिखावा न करता हो। दूसरों में गुण देखना चाहिये तो वह स्वयमेव अपने अंदर आ जाते हैं। अगर हम किसी में दोष देखेंगे तो वह हमारे अंदर आयेंगे और जो भक्ति कर रहे हैं वह व्यर्थ होती जायेगी।
पंच तत्वों से बनी इस देह में मन, बृद्धि और अहंकार की प्रकृतियों के कारण गुण दोष तो सभी में रहते हैं। जो सामान्य लोग हैं वह दूसरों के दोष बताकर यह साबित करते हैं कि वह उनमें नही हैं। जिन्होंने भक्ति और ज्ञान प्राप्त करने में मन लगाया है वह इस परनिंदा से दूर रहते हैं।
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Tuesday, December 16, 2008

संत कबीर सन्देश:स्वार्थी का लोग सम्मान भी करते हैं

स्वारथ का सबको सगा, सारा ही जग जान
बिन स्वारथ आदर करै, सो नर चतुर सुजान


संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि इस संसार में स्वार्थ के कारण ही सब सगे बनते हैं, पर चतुर और बुद्धिमान व्यक्ति वह है जो बिना स्वार्थ के ही सभी को आदर देते हैं।

स्वारथ कूं स्वारथ मिले, पडि़ पडि़ लूंबा बूंब
निस्प्रेही निरधार को, कोय न राखै झूंब


संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि इस संसार में सभी लोग अपने स्वार्थ के कारण एक दूसरे से मिलते हैं और एक दूसरे की झूठी प्रशंसा करते हैं। जो मनुष्य इस बुराई से दूर रहते हुए बिना किसी प्रेरणा के स्वार्थ रहित व्यवहार करते हैं उनका कोई भी सम्मान नहीं करता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह इस संसार की विचित्र लीला है कि जो निष्काम भाव से दूसरों का कार्य करते हैं उनका कोई सम्मान भी नहीं करता। इसका कारण यह है कि वह किसी की चाटुकारिता नहीं करते। फिर लोग यह सोचते हैं कि यह तो हमारा काम वैसे ही करेगा फिर इसका सम्मान क्यों करें? यह तो दुनियां का काम करता है।
समाज ऐसे लोगों को ही सम्मान देता है जो स्वार्थी हो। जो अपना कार्य होने पर ही दूसरे का कार्य करता हो। तब लोग सोचते हैं कि इसका काम कर देना चाहिये ताकि कभी अपना काम करे तो वह उसको कर दे। इसी कारण लोग उस आदमी को सम्मान देते हैं जिससे समय पड़ने पर स्वार्थ सिद्ध हो क्योंकि ऐसा करने पर ही उससे कोई आशा रहती है।

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Monday, December 15, 2008

रहीम सन्देश:प्रीति और प्रतिष्ठा में धीरे-धीरे होती है वृद्धि

रहिमन अति न कीजिए, गहि रहिए निज कानि
सैंजन अति फूलै तऊ, डार पात की हानि

कविवर रहीम कहते हैं कि कभी भी किसी कार्य और व्यवहार में अति न कीजिये। अपनी मर्यादा और सीमा में रहें। इधर उधर कूदने फांदने से कुछ नहीं मिलता बल्कि हानि की आशंका बलवती हो उठती है

यही रहीम निज संग लै, जनमत जगत न कोय
बैर प्रीति अभ्यास जस, होत होत ही होय


कविवर रहीम कहते हैं कि प्रीति, अभ्यास और प्रतिष्ठा में धीरे धीरे ही वृद्धि होती है। इनका क्रमिक विकास की अवधि दीर्घ होती है क्योंकि यह सभी आदमी जन्म के साथ नहीं ले आता। इन सभी का स्वरूप आदमी के व्यवहार, साधना और और आचरण के परिणाम के अनुसार उसके सामने आता है।
वर्त्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में उपलब्धि प्राप्त करने का कोई छोटा या संक्षिप्त मार्ग नहीं होता। दूसरों का वैभव देखकर कुछ लोग अपना संयम खोने लगते हैं और सोचते हैं कि वह तत्काल उनको प्राप्त हो जाए। अनेक लोगों को कड़े संघर्ष करते हुए ही धन और प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। तब उनकी आयु भी बड़ी होती हैं पर युवा सोचते हैं कि वैसी ही प्रतिष्ठा और सुख तत्काल छोटे या संक्षिप्त मार्ग से प्राप्त हो जाए। जिन लोगों के माता पिता ही प्रतिष्ठित और धनवान हैं उन युवाओं के लिए यह संभव है पर जो छोटे और गर्गीब परिवारों के हैं उनके लिए तो यह संभव नहीं नहीं होता। अत: उनको संयम रखकर ही आगे बढ़ना चाहिये। संक्षिप्त और छोटे मार्ग के चक्कर में उन्हके जीवन में भटकाव भी आ सकता है।
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Sunday, December 14, 2008

संत कबीर सन्देश: पढ़लिख कर भी ज्ञानी नहीं बने तो क्या लाभ

पढ़ते गुनते जनम गया, आसा लागी हेत
बोया बीजहिं कुमतिन, गया जू निर्मल खेत


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि पढ़ते-लिखते जीवन व्यर्थ चला गया और हमेशा ही इच्छाओं और आशाओं के दास बने रहे। अपने अंदर कुमति का बीज बोया और इससे जीवन का पूरा खेत ही नष्ट हो गया।

चतुराई पोपट पढ़ी, पडि़ सो पिंजर मांहि
फिर परमोधे और को, आपन समुझै नांहि


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि तोते तो दुनियां भर की चतुराई सीख लेता है पर उससे क्या फायदा जो पिंजरे में ही पड़ा रहता है। वह दूसरों को तो उपदेश देता है पर स्वयं कुछ नहीं समझता।

संक्षिप्त संपादकीय व्याख्या-लोग पढ़लिख कर अपने को ज्ञानी समझते हैं पर वह भक्ति और जीवन के ज्ञान से परे होते हैं। वह किताबों से पढ़े हुए ज्ञान का प्रचार करते हुए लोगों को मोह माया से दूर रहने का उपदेश देते हैं पर वह स्वयं जीवन के बंधनों में पड़े हुए हैं। तनाव जीवन में अनेक बीमारियों का कारण है आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने वाले सभी लोग जानते हैं पर भला कोई उससे मुक्त हो पाया। यह जीवन माया है और चिंता करने का कोई कारण नहीं है पर क्या लोग उसे छोड़ पाते हैं। जिन्होंने आधुनिक शिक्षा प्राप्त की है वह और अधिक दिखावे के मोह में स्वयं को फंसा देते हैं। वह कहते हैं कि हम आधुनिक हैं पर उनका आचरण फिर भी पुरानी रुढि़यों और कुप्रथाओं से स्वतंत्र नहीं दिखता। भारत में दहेज प्रथा इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। जितना अधिक शिक्षित दूल्हा उतना ही अधिक दहेज मांग जाता है। देश में इतनी शिक्षा बढ़ गयी है पर फिर भी पुरानी कुप्रथाओं और रूढि़यों को लोग छोड़ने के लिये तैयार नहीं हैं। ऐसे मेंे लगता है कि इस शिक्षा का कोई लाभ नहीं है। कबीरदास जी सहित अनेक अपढ़ संतों ने अपने तपस्या से जो ज्ञान अर्जित किया और उसे सारे संसार को दिया। उन्होंने ऐसी कुरीतियों और कुप्रथाओं के साथ भक्ति के नाम पर ढोंग का जमकर विरोध किया पर आधुनिक शिक्षा में उनके संदेशों को पढ़कर बड़ी बड़ी उपाधियां लेने वाले फिर भी अपने अंदर सुधार नहीं लाते।
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Saturday, December 13, 2008

संत कबीर के दोहे:पाखंडी गुरूओं की शरण लेने से कोई फायदा नहीं


शब्द कहै सौ कीजिये, बहुतक गुरु लबार
अपने अपने लाभ को, ठौर ठौर बटपार

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो सत्य का शब्द हो उसी के अनुसार कार्य करो। इस संसार में कई ऐसे गुरू हैं जो पांखडी और प्रपंची होते हैं। वह अपने स्वार्थ के अनुसार कार्य करते हुए उपदेश देते हैं और उनसे कोई लाभ नहीं होता।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-इस संबंध में मेरे द्वारा एक आलेख अन्य ब्लाग पर लिखा गया था जो यहां प्रस्तुत है।

आज के कथित संत और भक्त प्राचीन गुरु-शिष्य परंपरा का प्रतीक नहीं
भगवान श्रीराम ने गुरु वसिष्ठ से शिक्षा प्राप्त की और एक बार वहाँ से निकले तो फिर चल पड़े अपने जीवन पथ पर। फिर विश्वामित्र का सानिध्य प्राप्त किया और उनसे अनेक प्रकार का ज्ञान प्राप्त किया। फिर उन्होने अपना जीवन समाज के हित में लगा दिया न कि केवल गुरु के आश्रमों के चक्कर काटकर उसे व्यर्थ किया। भगवान श्री कृष्ण ने भी महर्षि संदीपनि से शिक्षा पाई और फिर धर्म की स्थापना के लिए उतरे तो वह कर दिखाया। न गुरु ने उन्हें अपने पास बाँध कर रखा न ही उन्होने हर ख़ास अवसर पर जाकर उनंके आश्रम पर कोई पिकनिक नहीं मनाई। अर्जुन ने अपने गुरु से शिक्षा पाई और अवसर आने पर अपने ही गुरु को परास्त भी किया। आशय यह है कि इस देश में गुरु-शिष्य की परंपरा ऐसी है जिसमें गुरु अपने शिष्य को अपना ज्ञान देकर विदा करता है और जब तक शिष्य उसके सानिध्य में है उसकी सेवा करता है। उसके बाद चल पड्ता है अपने जीवन पथ पर और अपने गुरु का नाम रोशन करता है।

भारत की इसी प्राचीनतम गुरु-शिष्य परंपरा का बखान करने वाले गुरु आज अपने शिष्यों को उस समय गुरु दीक्षा देते हैं जब उसकी शिक्षा प्राप्त करने की आयु निकल चुकी होती है और फिर उसे हर ख़ास मौके पर अपने दर्शन करने के लिए प्रेरित करते हैं। कई तथाकथित गुरु पूरे साल भर तमाम तरह के पर्वों के साथ अपने जन्मदिन भी मनाते हैं और उस पर अपने इर्द-गिर्द शिष्यों की भीड़ जमा कर अपनी आध्यात्मिक शक्ति का प्रदर्शन करते हैं. यहाँ इस बात का उल्लेख करना गलत नहीं होगा की भारतीय जीवन दर्शन में जन्मदिन मनाने की कोई ऐसी परंपरा नहीं है जिसका पालन यह लोग कर रहे हैं.

भारत में गुरु शिष्य की परंपरा एक बहुत रोमांचित करने वाली बात है, पूरे विश्व में इसकी गाथा गाई जाती है पर आजकल इसका दोहन कुछ धर्मचार्य अपने भक्तो का भावनात्मक शोषण कर रहे हैं वह उसका प्रतीक बिल्कुल नहीं है। हर व्यक्ति को जीवन में गुरु की आवश्यकता होती है और खासतौर से उस समय जब जीवन के शुरूआती दौर में एक छात्र होता है। अब गुरुकुल तो हैं नहीं और अँग्रेज़ी पद्धति पर आधारित शिक्षा में गुरु की शिक्षा केवल एक ही विषय तक सीमित रह गयी है-जैसे हिन्दी अँग्रेज़ी, इतिहास, भूगोल, विज्ञानआदि। शिक्षा के समय ही आदमी को चरित्र और जीवन के गूढ रहस्यों का ज्ञान दिया जाना चाहिए। यह देश के लोगों के खून में ही है कि आज के कुछ शिक्षक इसके बावजूद अपने विषयों से हटकर शिष्यों को गाहे-बगाहे अपनी तरफ से कई बार जीवन के संबंध में ज्ञान देते हैं पर उसे औपचारिक मान कर अनेक छात्र अनदेखा करते हैं पर कुछ समझदार छात्र उसे धारण भी करते हैं.

यही कारण है कि आज अपने विषयक ज्ञान में प्रवीण तो बहुत लोग हैं पर आचरण, नैतिकता और अध्यात्म ज्ञान की लोगों में कमी पाई जाती है। इस वजह से लोगों के दिमाग में तनाव होता है और उसको उससे मुक्ति दिलाने के लिए धर्मगुरू आगे आ जाते हैं। आज इस समय देश में धर्म गुरु कितने हैं और उनकी शक्ति किस तरह राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में फैली है यह बताने की ज़रूरत नहीं है। तमाम तरह के आयोजनों में आप भीड़ देखिए। कितनी भारी संख्या में लोग जाते हैं। इस पर एक प्रख्यात लेखक जो बहुत समय तक प्रगतिशील विचारधारा से जुडे थे का मैने एक लेख पढ़ा था तो उसमें उन्होने कहा था की ''हम इन धर्म गुरुओं की कितनी भी आलोचना करें पर यह एक वास्तविकता है कि वह कुछ देर के लिए अपने प्रवचनों से तनाव झेल रहे लोगों को मुक्त कर देते हैं।''

मतलब किसी धार्मिक विचारधारा के एकदम विरोधी उन जैसे लेखक को भी इनमें एक गुण नज़र आया। यह आज से पाँच छ: वर्ष पूर्व मैने आलेख पढ़ा था और मुझे ताज्जुब हुआ-मेरा मानना था कि उन लेखक महोदय ने अगर भारतीय आध्यात्म का अध्ययन किया होता तो उनको पता लगता कि भारतीय आध्यात्म में वह अद्वितीय शक्ति है जिसके थोड़े से स्पर्श में ही आदमी का मन प्रूफुल्लित हो जाता है। मगर वह कुछ देर के लिए ही फिर निरंतर अभ्यास नो होने से फिर तनाव में आ जाते हैं।

एक बात बिल्कुल दावे के साथ मैं कहता हूँ कि अगर किसी व्यक्ति में बचपन से ही आध्यात्म के बीज नहीं बोए गये तो उमरभर उसमें आ नहीं सकते और जिसमें आ गये उसका कोई धर्म के नाम पर शोषण नहीं कर सकता।
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Friday, December 12, 2008

संत कबीर सन्देश:किसी को एक ही बार परखिये

संत कबीरदास जी के अनुसार
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जो जैसा उनमान का, तैसा तासो बोल
पोता का गाहक नहीं, हीरा गांठि न खोल


जिस तरह का व्यक्ति हो उससे वैसा ही व्यवहार तथा वार्तालाप करो। जो कांच खरीदने वाली भी नहीं है उसके सामने हीरे की गांठ खोलकर दिखाने का फायदा ही नहीं।

एक ही बार परिखए, न वा बारम्बार
चालू तौहू किरकिरी, जो छानै सौ बार


किसी व्यक्ति को उसके कृत्य से एक ही बार परखना चाहिए। बार बार किसी की परखने का कोई फायदा नहीं। बालू की रेत को सौ बार भी छाना जाये तो उसकी किरकिरी नहीं जा सकती।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में हमारा प्रतिदिन अनेक व्यक्तियों से संपर्क होता है। इनमें कुछ व्यक्ति केवल दिखावे के लिये हितैषी बनते तो कुछ वास्तव में होतेे भी है। हम कई बार अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों पर अधिक दृष्टिपात नहीं करते पर जिनके स्वार्थ होते हैं वह अपनी पैनी नजरें रखते हैं कि कब हम चूकें और वह अपना हित साधकर नजरों से ओझल हो जायेंं। ऐसा हो सकता है कि कोई व्यक्ति लंबे समय तक साथ हो और हमें लगता है कि वह तो वफादार होगा तो यह भ्रम नहीं पालना चाहिये-क्योंकि कि वह कोई बड़ा स्वार्थ सिद्ध करने के लिये आपके साथ चिपका हो और उसकी पूर्ति के बाद छोड़ जाये। फिर जिन लोगों ने छोटे मोटे अवसरों पर धोखा दिया हो तो उनसे बड़े अवसर पर वफादारी की उम्मीद करना व्यर्थ है। अगर किसी ने एक बार आपका काम न करने पर बहाना बना दिया है तो वह दूसरी बार भी न करने पर कोई बहाना बना देगा। इसलिये सोच समझकर ही लोगों से व्यवहार करना चाहिये। जिस पर विश्वास न हो उसे अपने मन की बात और उद्देश्य नहीं बताना चाहिये

इसी तरह कुछ लोग दिखावे के लिये प्रेम से व्यवहार करते हैं पर वास्तव में उनका हमारे लिये प्रति उनके हृदय में किसी प्रकार का मोह नहीं होता। इसका आभास उनके व्यवहार से लग भी जाता है। साथ ही यह भी लगता है कि उनसे हमारा संपर्क अधिक नहीं चलेगा फिर भी उनके साथ संबंध बनाने की चेष्ट हम लोग करते हैं और यह जानते हुए भी कि वह व्यर्थ हो जायेगी। सच तो यह है कि जिनसे संपर्क अधिक चलने की न आशा है और भविष्य में किसी अवसर पर सहायता न मिलने की आशा है उनके सामने अपने दिल का हाल बयान करने का कोई लाभ नहीं हैं।
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Thursday, December 11, 2008

रहीम के दोहे:प्रेम में जो त्याग न करे वह पशु समान

नाद रीझि तन देत मृग, नर धन हेत समेत

ते रहीम पशु से अधिक, रीझेहु कछु न देत

कविवर रहीम कहते हैं कि बंसी की धुन पर रीझकर हिरन शिकार हो जाता है उसी तरह मनुष्य भी प्रेम के वशीभूत होकर अपना तन, मन और धन न्योछावर कर देता है लेकिन वह लोग पशु से भी बदतर हैं जो किसी से खुशी तो पाते हैं पर उसे देते कुछ नहीं है।

आज के संदर्भ में व्याख्या-वैसे देखा जाये तो आज के युग भी यह सत्य है कि अधिकतर लोग मुफ्त में मजे करना चाहते हैं। किसी से बिना लिए-दिए काम करने में चतुराई समझी जाती है। कई सरल ह्रदय लोग प्रेमवश दूसरों का काम कर देते हैं तो उनको मूर्ख समझा जाता है। हालांकि चतुर लोग भी प्रेम में ही मूर्ख बनते हैं। आजकल आपने देखा होगा कि तमाम तरह के विज्ञापन आते हैं जिनमें बडे प्रेम से विनिवेश और अन्य लाभों के बारे में बताया जाता है और लोग उसके शिकार हो जाते हैं। अनेक पढी-लिखी लडकियां प्रेम में अपना सर्वस्व लुटा बैठतीं है और बाद में उनके पास पछताने का भी अवसर नहीं होता। हालात यह है कि अपने से बहुत अधिक आयु और अकमाऊ व्यक्ति के साथ घर से भाग कर विवाह कर अपना जीवन तबाह कर बैठतीं हैं।

कुछ लड़के भी ऐसे हैं जो सुन्दर और शिक्षित लडकी से प्रेम का ढोंग करते हैं पर विवाह के समय अपने परिवार वालों का वास्ता देकर नाता तोड़ लेते हैं। इतना ही नहीं कई माता-पिता भी लड़की के सुयोग्य होते हुए भी बिना दहेज़ के विवाह करने से इनकार कर देते हैं। कहते हैं कि हर माता-पिता अपने बच्चे से प्रेम करते हैं पर कई ऐसे लड़के हैं जो विवाह की आयु पार कर चुके हैं पर उनका दिल नहीं पसीजता कि उसका विवाह कम दहेज़ में कर दें। कुल मिलाकर प्रेम एक दिखावा हो गया है और कहा जाये तो अब मानव भेष में पशु होने लगे हैं। अत: समझदार लोगों को चाहिए कि अगर कोई उनको प्रसन्न करता है तो उसे भी कुछ दें तभी वह अपने इंसान होने की अनुभूति कर सकते हैं और यही ईश्वर भक्ति भी है।

Tuesday, December 09, 2008

रहीम सन्देश:गरीब का सच में भला करे वही है महान

जे गरीब पर हित करै, ते रहीम बड़लोग
कहाँ सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग


कविवर रहीम कहते हैं जो छोटी और गरीब लोगों का कल्याण करें वही बडे लोग कहलाते हैं। कहाँ सुदामा गरीब थे पर भगवान् कृष्ण ने उनका कल्याण किया।

आज के संदर्भ में व्याख्या- आपने देखा होगा कि आर्थिक, सामाजिक, कला, व्यापार और अन्य क्षेत्रों में जो भी प्रसिद्धि हासिल करता है वह छोटे और गरीब लोगों के कल्याण में जुटने की बात जरूर करता है। कई बडे-बडे कार्यक्रमों का आयोजन भी गरीब, बीमार और बेबस लोगों के लिए धन जुटाने के लिए कथित रूप से किये जाते हैं-उनसे गरीबों का भला कितना होता है सब जानते हैं पर ऐसे लोग जानते हैं कि जब तक गरीब और बेबस की सेवा करते नहीं देखेंगे तब तक बडे और प्रतिष्ठित नहीं कहलायेंगे इसलिए वह कथित सेवा से एक तरह से प्रमाण पत्र जुटाते हैं। मगर असलियत सब जानते हैं इसलिए मन से उनका कोई सम्मान नहीं करता।

जिन लोगों को इस इहलोक में आकर अपना मनुष्य जीवन सार्थक करना हैं उन्हें निष्काम भाव से अपने से छोटे और गरीब लोगों की सेवा करना चाहिऐ इससे अपना कर्तव्य पूरा करने की खुशी भी होगी और समाज में सम्मान भी बढेगा। झूठे दिखावे से कुछ नहीं होने वाला है।वैसे भी बड़े तथा अमीर लोगों को अपने छोटे और गरीब पर दया के लिये काम करते रहना चाहिये क्योंकि इससे समाज में समरसता का भाव बना रहता है।

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Monday, December 08, 2008

भृतहरि सन्देश:ज्ञानी से मिलने पर चलता है पता अपने अज्ञान का

वरं पर्वतदुर्गेषु भ्रान्तं वनचरैः सह
न मूर्खजनसम्पर्कः सुरेन्द्रभवनेष्वपि

हिंदी में अर्थ- बियावान जंगल और पर्वतों के बीच खूंखार जानवरों के साथ रहना अच्छा है किंतु अगर मूर्ख के साथ इंद्र की सभा में भी बैठने का अवसर मिले तो भी उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।
यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवम्
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिपतं मम मनः
यदा किञ्चित्किाञ्चिद् बुधजनसकाशादवगतम्
तदा मूर्खोऽस्मीति जवन इव मदो में व्यपगतः

हिंदी में अर्थ-जब मुझे कुछ ज्ञान हुआ तो मैं हाथी की तरह मदांध होकर उस पर गर्व करने लगा और अपने को विद्वान समझने लगा पर जब विद्वानों की संगत में बैठा और यथार्थ का ज्ञान हुआ तो वह अहंकार ज्वर की तरह उतर गया तब अनुभव हुआ कि मेरे समान तो कोई मूर्ख ही नहीं है।
संपादकीय व्याख्या-आदमी को अपने ज्ञान का अहंकार बहुत होता है पर जब वह आत्म मंथन करता है तब उसे पता लगता है कि वह तो अभी संपूर्ण ज्ञान से बहुत परे है। कई विषयों पर हमारे पास काम चलाऊ ज्ञान होता है और यह सोचकर इतराते हैं कि हम तो श्रेष्ठ हैं पर यह भ्रम तब टूट जाता है जब अपने से बड़ा ज्ञानी मिल जाता है। अपनी अज्ञानता के वश ही हम ऐसे अल्पज्ञानी या अज्ञानी लोगों की संगत करते हैं जिनके बारे में यह भ्रम हो जाता है वह सिद्ध हैं। ऐसे लोगों की संगत का परिणाम कभी दुखदाई भी होता है। क्योंकि वह अपने अज्ञान या अल्पज्ञान से हमें अपने मार्ग से भटका भी सकते हैं।
हम सभी के सामने कभी अपनी गलती नहीं स्वीकार करते पर कई पर यह अनुभव हमें होता है कि किसी विषय पर अपने को बहुत ज्ञानी समझते थे उससे संबंधित विद्वान से मिलने पर जब कोई नई जानकारी मिलती है तब पता लगता है कि हमारा ज्ञान अधूरा है पर उस समय भी अपने आपको धोखा देते हैं कि नहीं हम पूर्ण हैं। सच तो यह है कि आदमी जितना अहंकार दूसरों को दिखाता है उससे ज्यादा अपने आपको दिखाता है। सच बात तो यह है कि दिन प्रतिदिन नई तकनीकी आती जा रही है और कोई भी आदमी सभी तरह से अपने विषय में पारंगत नहीं हो सकता पर वह मानता नहीं है।
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Sunday, December 07, 2008

रहीम के दोहे:प्रेम की दुर्गम राह पर हर कोई नहीं चल सकता

फरजी सह न ह्म सकै गति टेढ़ी तासीर
रहिमन सीधे चालसौं, प्यादा होत वजीर

कविवर रहीम कहते हैं कि प्रेम में कभी भी टेढ़ी चाल नहीं चली जाती। जिस तरह शतरंज के खेल में पैदल सीधी चलकर वजीर बन जाता है वैसे ही अगर किसी व्यक्ति से सीधा और सरल व्यवहार किया जाये तो उसका दिल जीता जा सकता है।

प्रेम पंथ ऐसी कठिन, सब कोउ निबहत नाहिं
रहिमन मैन-तुरगि बढि, चलियो पावक माहिं


कविवर रहीम कहते हैं कि प्रेम का मार्ग ऐसा दुर्गम हे कि सब लोग इस पर नहीं चल सकते। इसमें वासना के घोड़े पर सवाल होकर आग के बीच से गुजरना होता है।

आज के संदर्भ में व्याख्या-आजकल जिस तरह सब जगह प्रेम का गुणगान होता है वह केवल बाजार की ही देन है जो युवक-युवतियों को आकर्षित करने तक ही केंद्रित है। उसे प्रेम में केवल वासना है और कुछ नहीं है। सच्चा प्रेम किसी से कुछ मांगता नहीं है बल्कि उसमें त्याग किया जाता है। सच्चे प्रेम पर चलना हर किसी के बस की बात नहीं है। प्रेम में कुछ पाने का आकर्षण हो तो वह प्रेम कहां रह जाता है। सच तो यह है कि लोग प्रेम का दिखावा करते हैं पर उनके मन में लालच और लोभ भरा रहता है। लोग दूसरे का प्यार पाने के लिये चालाकियां करते हैं जो कि एक धोखा होता है।
सच बात तो यह है कि लोग प्रेम करने की बात तो करते हैं पर उसका उनके हृदय मेंं कोई स्थान नहीं होता। वैसे तो आपस में दोस्ती और रिश्तेदारी होने से लोग एक दूसरे के संपर्क में रहते हुए प्रेम होने का दावा करते हैं पर जब एक दूसरे से स्वार्थ पूरा नहीं होता तो फिर उन्हीं संबंधों में कटुता आ जाती है। प्रेम में किसी से आशा नहीं करना चहिये पर लोग अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये किसी का ऐसी चालें चलते हैं कि कोई उनके प्रेमजाल में फंस जाये। आज की युवा पीढ़ी तो प्रेम का नारा लगाते नहीं थकती और चालाकियों से संपर्क बनाने का कोई उपाय नहीं छोड़ती।

अनेक कथित और गुरु प्रेम को लेकर तमाम तरह की बातें करते हैं पर वह स्वयं नहीं जानते कि वह होता क्या बला है? ऐसे कथित अध्यात्मिक गुरू बस अपने से ही प्रेम करते हैं और अपने शिष्यों के साथ उनका प्रेम एक तरह से ढोंग ही होता है।
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Saturday, December 06, 2008

रहीम सन्देश:किसी की परवाह न कर अपनी राह चलें

कहते को कहिं जान दे, गुरू की सीख तू लेय
साकट जन और स्वान को, फेरि जवाब न देय


कविवर रहीम कहते है कि कहने वालों को कुछ भी कहने दो अपने गुरू की सीख लें और फिर अपने मार्ग पर चलें। अज्ञानी लोग और श्वान के भौंकने पर ध्यान न दें

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-लोगों का काम है कहना। सच तो यह है कि अपने जीवन में वह लोग कोई भी उपलब्धि प्राप्त नहीं कर पाते जो जो इस तरह कहने पर ध्यान देकर कोई कदम नहीं उठाते। अपने गुरू से चाहे वह आध्यात्मिक हो या सांसरिक ज्ञान देने वाला उसे शिक्षा ग्रहण कर अपने जीवन पथ पर बेखटके चल देना चाहिए। अगर उसके बाद अगर किसी के कहने पर ध्यान देते हैं तो अकारण व्यवधान पैदा होगा और अपने मार्ग पर चलने में विलंब करने से हानि भी हो सकती है। एक बात मान कर चलिए यहां ज्ञान बघारने वालों की कमी नहीं है। ऐसे लोग जिन्हें किसी भक्ति या सांसरिक क्षेत्र का खास ज्ञान नहीं होता वह खालीपीली अपनी सलाहें देते हैं और अपने अनुभव भी ऐसे बताते हैं जो उनके खुद नहीं बल्कि किसी अन्य व्यक्ति ने उनको सुनाये होते हैं।


इतना ही नहीं जब अपने मार्ग पर चलेंगे तो दस लोग टोकेंगे। आपके कार्यो की मीनमीेख निकालेंगे और तमाम तरह के भय दिखाऐंगे। इन सबकी परवाह मत करो और चलते जाओ। यही जीवन का नियम है। हम देख सकते हैं जो लोग अपने जीवन में सफल हुए हैं उन्होंने अन्य लोगों की क्या अपने लोगों भी परवाह नहीं की। जिन्होनें परवाह की ऐसे असंख्य लोगों को हम अपने आसपास देख सकते हैं।

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Friday, December 05, 2008

रहीम सन्देश:जहां सदाचार न हो वहां नहीं ठहरें

रहिमन रहिबो वा भलो जो लौं सील समूच
सील ढील जब देखिए, तुरत कीजिए कूच


कविवर रहीम कहते हैं कि वही रहना ठीक है जहां लोगों में शील और सदाचार का भाव है। जहां इसमें कमी दिखाई दे वहां से हट जाना चाहिए।

रहिमन वित्त अधर्म को, जरत न लागे बार
चोरी करि होरी रची, भई तनिक में छार


कविवर रहीम कहते हैं कि अधर्म से प्राप्त धन को नष्ट हाने में समय नहीं लगता। होली के अवसर पर लोग चोरी की लकड़ी लाते हैं पर उसको जलकर रख होने में क्षण भी नहीं लगता।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-वैसे तो देखा जाय बुरे लोग तो रहीम जी के समय में ही रहे हैं इसलिये तो उन्होंने ऐसी बातें कहीं हैं जो आज भी प्रासंगिक लगतीं हैं। एक बात जरूर है कि उस समय आवागमन के साधन इतना तीव्र नहीं थे इसलिये आदमी अधिकतर अपने सीमित क्षेत्र में ही जीवन व्यतीत करता था। वर्तमान में कई कारणों से अपने मूल स्थान से दूर जाना पड़ता है और ऐसे में भले और बुरे दोनों प्रकार के लोगों का कार्यक्षेत्र भी विस्तृत हुआ है अतः दुष्ट लोग अपराध कर अपने क्षेत्र आसानी से बदलने लगते हैं ताकि दूसरी जगह उनकी पहचान न हो पाये। कई जगह तो उनकी बहुतायत हो जाती है और उससे लगता है कि इस दुनियां में भलाई और सदाचार नाम की कोई चीज नहीं है। यह हमारा एक भ्रम है। अगर इस दुनिया से बुराई को लोप नहीं हुआ है तो भलाई का भी नहीं हुआ है। हम अगर ऐसी जगह पहुंच जाते हैं जहां दुष्ट और निंदक प्रवृत्ति के लोगों का जमघट है तो हमें वहां से निकल जाना चाहिए। अगर वहां रहेंगे तो हमारे विचारों में दुष्टता का भाव और अधर्म से पैसा कमाने की प्रवृत्ति उत्पन्न होगी। अधर्म को धन वैसे भी अधिक देर नहीं ठहर जाता और कभी कभी तो वह अपने स्वामी को भी नष्ट कर देता है। अतः कुविचारों की बहुतायत वाले स्थान को त्यागने के साथ अधर्म से धन प्राप्त करने को मोह त्याग देना चाहिए।

Tuesday, December 02, 2008

संत कबीरदास सन्देश: आदमी की पहचान उसके गुणों से ही होती है

ऊंची जाति पपीहरा, पिये न नीचा नीर
कै सुरपति को जांचई, कै दुःख सहै सरीर

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि पपीहरा तो एक तरह से ऊंची जाति का दिखता है जो कभी भी नीचे धरती पर स्थित जल का सेवन न कर स्वाति नक्षत्र क जल के लिये याचना देवराज इंद्र से याचना करता है या अपना जीवन त्याग देता है।

पड़ा पपीरा सुरसर, लागा बधिक का बान
मुख मूंदै सुरति गगन में, निकसि गये यूं प्रान


संत शिरामणि कबीरदास जी कहते है शिकारी का बाण लगने से पपीहा नदी में जा गिरा पर इसके बावजूद उसने वहां का जल ग्रहण नहीं किया और उसने अपना मूंह बंद कर ऊपर आकाश में ध्यान लगाया और अपने प्राण त्याग दिये।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-देश में ऊंच और नीच को लेकर सदैव विवाद होते रहे हैं। लोग जन्म के आधार पर अपने को ऊंचा और दूसरे को नीचा समझते हैं। यह एक भ्रम होता है। सच बात तो यह है कि आदमी की पहचान गुणों से है। ऊंची जाति में जन्म लेने के अहंकार में लोग यह मान लेते हैं कि हम जो कर रहे हैं वह ठीक है और वह व्यसनों और अपराधों की तरफ बढ़ जाते हैं। जबकि आदमी के गुण ही उसके ऊंची और नीच होने के प्रमाण हैं। गुणवान, धैर्यवान और शीलवान लोग बड़ी से बड़ी विपत्ति आने पर भी अपने नैतिक आचरण और सिद्धांतों का त्याग नहीं करते जबकि निम्न कोटि के लोग थोड़ी लालच और लोभ में अपना धर्म तक बेचने को तैयार हो जाते हैं। अतः जन्म के आधार पर अपनी जाति का गर्व करने की बजाय आत्म मंथन करते हुए गुणों के आधार पर ही अपने जीवन पथ पर अग्रसर होना चाहिए।
कभी भी व्यक्ति को उसके चेहरे,पहनावे या बोलने के आधार पर उसे ऊंचा या नीचा नहीं समझना चाहिये बल्कि यह देखना चाहिये कि उसके कर्म क्या हैं? क्या वह समाज के हित के लिये काम करता है? क्या वह भगवान की भक्ति हृदये से करता है? क्या वह परोपकार और दार के कार्य में लिप्त रहता है?

अगर आदमी केवल अपने ही स्वार्थ में लिप्त है तो वह किसी काम का नहीं है। कई लोग ऐसे हैं जो काम करने का वादा करते हैं पर बाद में उससे मुकर जाते हैं। मतलब यह है कि आदमी को उसके गुणों के आधार पर पहचानना चाहिये।
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Sunday, November 30, 2008

संत कबीरदास सन्देश:जंग लड़ने वाले नहीं बल्कि मिलबांटकर खाने वाले हैं सच्चे योद्धा

कबीर तो सांचै मतै, सहै जू सनमुख वार
कायर अनी चुभाय के, पीछे झखै अपार


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहत हैं कि सच्चा वीर तो वह है जो सामने आकर लड़ता है पर जो कायर है वर पीठ पीछे से वार करता है।

तीर तुपक सों जो लड़ैं, सो तो सूरा नाहिं
सूरा सोइ सराहिये, बांटि बांटि धन खांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो अस्त्र शस्त्र से लड़ते है। उनको वीर नहीं कहा जा सकता है। सच्चे शूरवीर तो हैं जो आपस में मिल बैठकर खाते हैं। वह जो भी कमाते हैं उसे समान रूप से आपस में बांटते हैं।

वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-शूरवीर हमेशा उसे ही माना जाता है जो अस्त्र शस्त्र का उपयोग करता है। उनमें भी वही वीर है जो सामने से वार करता है पर जो कायर हैं वह पीठ पीछे वार करते हैं। वैसे अस्त्र शस्त्र से लड़ने में भी साहस की आवश्यकता कहां होती है। अगर अस्त्र शस्त्र हाथ में हों तो वेसे भी मनुष्य के मन में दुस्साहस आ ही जाता है और कोई भी उपयोग कर सकता है। कुछ लोग कहते हैं कि हथियार रखने से क्या होता है उसे चलाने के लिये साहस भी होना चाहिये-विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर लोहे से बना कोई हथियार मनुष्य के हाथ में हो तो उसमें आक्रामता आ ही जाती है।

असली साहस तो अपने कमाये धन का दूसरे के साथ बांटकर खाने में दिखाना चाहिये। आदमी जब धन कमाता है तो उसके प्रति उसका मोह इतना हो जाता है कि वह उसे किसी को थोड़ा देने में भी हिचकता है। मिलकर बांटने की बात तो छोडि़ये अपनी रोटी का छोटा टुकड़ा देने में भी आदमी की जान जाती है।

हमारे प्राचीन मनीषियों ने दान की महिमा को इसलिये प्रतिपादित किया कि समाज में सामाजिक समरसता का भाव रहे। हमारे अध्यात्म में इतना तक कहा गया है कि किसी को दान देते हुए आंखें नीची करना चाहिये ताकि दूसरे को हमारा अहंकार नहीं दिखाई दे और उसके अंदर अपने प्रति कुंठा भाव न उत्पन्न हो। मगर अब तो समाज कल्याण की बात राज्य के भरोसे छोड़ दी गयी है और वही लोग जन कल्याण के लिये मैदान में उतर रहे हैं जिनको उससे कुछ आर्थिक फायदा है। यह लोग कायर होते हैं क्योंकि दान और कल्याण क लिये प्राप्त धन का वह हरण करते हैं।

कलुषित तरीके से प्राप्त धन का भी वह दान करने का साहस नहीं कर पाते। अपने धन देने में सभी का हृदय कांपने लगता है। सच है कि जो दानी है वही सच्चा शूरवीर है। वह भी सच्चा वीर है जो अस्त्र शस्त्र लेकर कहकर सामने से प्रहार करता है पर आजकल तो कायरों की पूरी फौज है जो पीठ पीछे से वार करती है। चोर और डकैतों द्वारा किये गये और अपराध और निरंतर बम धमाकों की बढ़ती घटनायें इस बात का प्रमाण हैं।
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Saturday, November 29, 2008

संत कबीरदास सन्देश:कलियुग में होता है मसखरों का सम्मान

कबीर कलियुग कठिन हैं, साधू न मानै कोय
कामी क्रोधी मसखरा तिनका आदर होय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अब इस घोर कलियुग में कठिनाई यह है कि सच्चे साधू को कोई नहीं मानता बल्कि जो कामी, क्रोधी और मसखरे हैं उनका ही समाज में आदर होने लगा है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर हम कबीरदास जी के इस कथन के देखें तो हृदय की पीडा कम ही होती है यह सोचकर कि उनके समय में भी ऐसे लोग थे जो साधू होने के नाम पर ढोंग करते थे। हम अक्सर सोचते हैं कि हम ही घोर कलियुग झेल रहे हैं पर ऐसा तो कबीरदास जी के समय में भी होता था। धर्म प्रवचन के नाम पर तमाम तरह के चुटकुले सुनकर अनेक संत आजकल चांदी काट रहे हैं। कई ने तो फाईव स्टारआश्रम बना लिए हैं और हर वर्ष दर्शन और समागम के नाम पर पिकनिक मनाने तथाकथित भक्त वहाँ मेला लगाते हैं। सच्चे साधू की कोई नहीं सुनता। सच्चे साधू कभी अपना प्रचार नहीं करते और एकांत में ज्ञान देते हैं और इसलिए उनका प्रभाव पड़ता है। पर आजकल तो अनेक तथाकथित साधू-संत चुटकुले सुनाते हैं और अगर अकेले में किसी पर नाराज हो जाएं तो क्रोध का भी प्रदर्शन करते हैं। उनके ज्ञान का इसलिए लोगों पर प्रभाव नहीं पड़ता भले ही समाज में उनका आदर होता हो।
अनेक कथित संत और साधु अपने प्रवचनों के चुटकलों के सहारे लोगों का प्रभावित करने का प्रयास करते हैं। लोग भी चटखारे लेकर अपने दिल को तसल्ली देते हैं कि सत्संग का पुण्य प्राप्त कर रहे हैं। यह भक्ति नहीं बल्कि एक तरह से मजाक है। न तो इससे मन में शुद्धता आती है और न ज्ञान प्राप्त होता है। सत्संग करने से आशय यह होता है कि उससे मन और विचार के विकार निकल जायें और यह तभी संभव है जब केवल अध्यात्मिक ज्ञान की चर्चा हो। इस तरह चुटकुले तो मसखरे सुनाते हैं और अगर कथित संत और साधु अपने प्रवचन कार्यक्रमों में सांसरिक या पारिवारिक विषय पर सास बहु और जमाई ससुर के चुटकुले सुनाने लगें तो समझ लीजिये कि वह केवल मनोरंजन करने और कराने के लिये जोगी बने है। ऐसे में न तो उनसे लोक और परलोक सुधरना तो दूर बिगड़ने की आशंका होती है।
आदमी के मन को मनोरंजन की आवश्यकता होती है तो उसे कभी अध्यात्मिक भूख भी लगती है उस समय वह अपने आपको जानना चाहता है। कथित संत लोग एक साथ दोनों की कमी पूरी कर समाज में पुजते हैंं। मनोरंजन करने वाले तो केवल अपना काम करते हैं जबकि संत अपने लोगों को अध्यात्मक की आड़ में चुटकुले सुनाकर भटकाते हैं। अध्यात्मिक साधना का मतलब है एकांत में अपने आपसे सहजता से संपर्क कर अपने हृदय को शांत करना।
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Friday, November 28, 2008

चाणक्य नीति:शठ के साथ सख्ती कर ही अपनी रक्षा संभव

1-पाँव धोने का जल और संध्या के उपरांत शेष जल विकारों से युक्त हो जाता अत: उसे उपयोग में लाना अत्यंत निकृष्ट होता है। पत्थर पर चंदन घिसकर लगाना और अपना ही मुख पानी में देखना भी अशुभ माना गया है।
2-बिना बुलाए किसी के घर जाने की बात, बिना पूछे दान देना और दो व्यक्तियों के बीच वार्तालाप में बोल पडना भी अधम कार्य माना जाता है।
3-शंख का पिता रत्नों की खदान है। माता लक्ष्मी है फिर भी वह शंख भीख माँगता है तो उसमें उसके भाग्य का ही खेल कहा जा सकता है।
4-उपकार करने वाले पर प्रत्युपकार, मारने वाले को दण्ड दुष्ट और शठ के सख्ती का व्यवहार कर ही मनुष्य अपनी रक्षा कर सकता है।
5-धूर्तता, अन्याय और बैईमानी आदि से अर्जित धन से संपन्न आदमी अधिक से अधिक दस वर्ष तक संपन्न रह सकता है, ग्यारहवें वर्ष में मूल के साथ-साथ पूरा अर्जित धन नष्ट हो जाता है।
*इसका सीधा आशय यह है कि भ्रष्ट और गलत तरीके से कमाया गया पैसा दस वर्ष तक ही सुख दे सकता है, हो सकता है कि इससे पहले ही वह नष्ट हो जाय।
6- अर्थाभाव में मित्र, स्त्री, नौकर स्नेहीजन भी व्यक्ति का आदर नहीं करते, यदि वही व्यक्ति पुन: संपन्न हो जाये तो अनादर करने वाले फिर आदर करने लगते हैं।

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Wednesday, November 26, 2008

संत कबीरदास सन्देश:ह्रदय की तृष्णा भटकाती है

आस आस घर घर फिरै, सहै दुखारी चोट
कहैं कबीर भरमत फिरै,ज्यों चैसर की गोट

संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि अपने हृदय में आशा कर मनुष्य घर घर भटकता है पर पर उसे दूसरे के मुख से अपने लिये अपमान के वचन सुनने पड़ते हैं। केवल आशा पूरी होने के लिये अपनी अज्ञानता के कारण मनुष्य चैसर के गोट की तरह कष्ट उठाता है।
आशा तृस्ना सिंधु गति, तहां न मन ठहराय
जो कोइ आसा में फंसा, लहर तमाचा खाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं आशा और तृष्णा और समुद्र की लहरों के समान है हो उठती और गिरती हैं जो मनुष्य इसके चक्कर में फंसता है वह इसके तमाचा खाता रहता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अपना हर कार्य अपने ऊपर ही रखना चाहिए। इस सांसरिक जीवन में सारे कार्य अपने नियत समय पर होते हैं और मनुष्य को केवल निष्काम भाव से कार्य करते हुए ही सुख की प्राप्त हो सकती हैं। श्रीगीता में निष्काम भाव से कार्य करने का उपदेश इसलिये दिया गया है। यह संसार अपनी गति से चल रहा है और उसमें सब कर्मों का फल समय पर प्रकट होता। मनुष्य सोचता है कि मैं इसे चला रहा हूं इसलिये वह अपने ऐसे कार्यों के लिये दूसरों से आशा करता है जो स्वतः होने हैं और अगर मनुष्य उसके लिये अपने कर्म करते हुए परिणाम की परवाह न करे तो भी फलीभूत होंगे। जब अपने आशा पूर्ति के लिये आदमी किसी दूसरे घर की तरफ ताकता है तो उसे उसे अपना आत्मसम्मान भी गिरवी रखना पड़ता है। वैसे अपना कर्म करते जाना चाहिये क्योंकि फल तो प्रकट होगा ही आखिर वह भी इस संसार का एक ही भाग है। आशा और कामना का त्याग कर इसलिये ही निष्काम भाव से कार्य करने का संदेश दिया गया है।
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Thursday, November 20, 2008

संत कबीरदास सन्देश: जो गुरु भ्रम न मिटा सके उससे त्याग दें

गुरवा तो सस्ता भया, पैसा केर पचास
राम नाम धन बेचि के, शिष्य करन की आस

संत श्री कबीरदास जी के समय में भी गुरुओं की माया ऐसी हो गयी थी कि उनको कहना पड़े कि गुरु तो अब सस्ते हो गये हैं। पैसे के दम पर पचास गुरु कर लो। ऐसे गुरु राम नाम को बेच कर धन कमाते हैं और यह आशा करते हैं कि उनको शिष्य मिलें।

जा गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रांति न जिया की जाये
सो गुरु झूठा जानिए, त्यागत देर न जाए


संत शिरोमणि कबीरदास के अनुसार जिस गुरु के पास जाकर मन के भ्रम का निवारण नहीं होता उसे झूठा समझ कर त्याग दें। भ्रम के साथ जीवन जीना बेकार है और जो गुरु उसका निवारण नहीं कर सकता वह ढोंगी है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कितनी आश्चर्य की बात है कि सैंकड़ों वर्ष पूर्व संत कबीरदास जी द्वारा कही गयी बात आज भी प्रासंगिक लगती है। यही कारण है कि भारतीय अध्यात्म विश्व में किसी अन्य ज्ञान से अधिक सत्य के निकट है पर यहां सर्वाधिक भ्रम में लोग रहते हैं। सब जानते हैं कि माया मिथ्या है पर उसी के इर्द गिर्द घूमते हैं। मजे की बात यह है कि भारतीय अध्यात्म के कथित ढोंगी प्रचारक प्राचीन ग्रंथों में वर्णित केवल उन्हीं प्रसंगों को उठाते हैं जिससे लोगों का मनोरंजन हो पर तत्वाज्ञान से वह अवगत न हों। कहानियां और किस्से सुनाकर लोगों को मनुष्य जीवन का रहस्य समझाते है पर तत्व ज्ञान की चर्चा ऐसे करते हैं जैसे देह से ही उसका संबंध हो। कर्मकांडों और यज्ञों के लिये प्रेरित करते हैं ताकि उसकी आड़ में उनको गुरुदक्षिणाा मिलती रहे।

गुरुओं को शिष्य हमेशा यही कहते हैं कि ‘हमारा तो गुरू बैठा है’। मतलब यह है कि उनके लिये वही भगवान है।’

बलिहारी गुरु जो आपकी जो गोविंद दिया दिखाय-इस वाक्य का उच्चारण हर गुरु करता है पर वह किसी को गोविंद नहंी दिखा पाता। लोग भी बिना गोविंद को देखे अपने गुरु को ही गोविंद जैसा मानने लगते हैं। गोविंद को केवल तत्वज्ञान से ही अनुभव किया जा सकता है पर न तो गुरु उसको बताते हैं और न ही शिष्य उसका मतलब जानते हैं। गोल गोल केवल इसी माया के चक्कर में दोनों घूमते हैं। यही कारण है कि भारतीय समाज अपने ही देश में प्रवर्तित अध्यात्म ज्ञान से परे हैं जिसे आज पूरा विश्व मानता है।
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Sunday, November 09, 2008

भृतहरि शतक:बड़े लोगों को हमेशा प्रसन्न रखना संभव नहीं

दुरारध्याश्चामी तुरचलचित्ताः क्षितिभुजो वयं
तु स्थूलेच्छाः सुमहति बद्धमनसः
जरा देहं मृत्युरति दयितं जीवितमिदं
सखे नानयच्छ्रेयो जगति विदुषेऽन्यत्र तपसः


हिंदी में भावार्थ- जिन राजाओं का मन घोड़े की तरह दौड़ता है उनको कोई कब तक प्रसन्न रख सकता है। हमारी अभिलाषायें और आकांक्षायें की तो कोई सीमा ही नहीं है। सभी के मन में बड़ा पद पाने की लालसा है। इधर शरीर बुढ़ापे की तरह बढ़ रहा होता है। मृत्यु पीछे पड़ी हुई है। इन सभी को देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि भक्ति और तप के अलावा को अन्य मार्ग ऐसा नहीं है जो हमारा कल्याण कर सके।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-लोगों के मन में धन पाने की लालसा बहुत होती है और इसलिये वह धनिकों, उच्च पदस्थ एवं बाहुबली लोगों की और ताकते रहते हैं और उनकी चमचागिरी करने के लिये तैयार रहते हैं। उनकी चाटुकारिता में कोई कमी नहीं करते। चाटुकार लोगांें को यह आशा रहती है कि कथित ऊंचा आदमी उन पर रहम कर उनका कल्याण करेगा। यह केवल भ्रम है। जिनके पास वैभव है उनका मन भी हमारी तरह चंचल है और वह अपना काम निकालकर भूल जाते हैं या अगर कुछ देेते हैं तो केवल चाटुकारित के कारण नहीं बल्कि कोई सेवा करा कर। वह भी जो प्रतिफल देते हैं तो वह भी न के बराबर।

सच तो यह है कि आदमी का जीवन इसी तरह गुलामी करते हुए व्यर्थ चला जाता हैं। जो धनी है वह अहंकार में है और जो गरीब है वह केवल बड़े लोगों की ओर ताकता हुआ जीवन गुंजारता है। जिन लोगों का इस बात का ज्ञान है वह भक्ति और तप के पथ पर चलते हैं क्योंकि वही कल्याण का मार्ग है।
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Saturday, November 08, 2008

संत कबीर सन्देश:सुई बराबर धन दान कर स्वर्ग के विमान की तरफ देखते हैं

अहिरन की चोरी करै, करे सुई का का दान
ऊंचा चढि़ कर देखता, केतिक दूर विमान

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य अपने जीवन में तमाम तरह के अपराध और चालाकियां कर धन कमाता है पर उसके अनुपात में नगण्य धन दान कर अपने मन में प्रसन्न होते हुए फिर आसमान की ओर दृष्टिपात करता है कि उसको स्वर्ग में ले जाने वाला विमान अभी कितनी दूरी पर रह गया है।

आंखि न देखि बावरा, शब्द सुनै नहिं कान
सिर के केस उज्जल भये, अबहुं निपट अजान


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं आंखों से देख नहीं पाता, कानों से शब्द पर रहे जाते हैं और सिर के बाद सफेद होने के बावजूद भी मनुष्य अज्ञानी रह जाता है और माया के जाल में फंसा रहता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-बिना अफरातफरी के कोई भी धनी नहीं बन सकता है-ऐसा मानने वाले बहुत हैं तो हम स्वयं देख भी सकते हैं। धनी होने के बाद समाज में प्रतिष्ठा पाने के मोह से लोग दान करते हैं। कहीं मंदिर में घंटा चढ़ाकर, पंखे या कूलर लगवाकर या बैंच बनवाकर उस पर अपना नाम खुदवाते हैं। एक तीर से दो शिकार-दान भी हो गया और नाम भी हो गया। फिर मान लेते हैं कि उनको स्वर्ग का टिकट मिल गया। यह दान कोई सामान्य वर्ग के व्यक्ति नहीं कर पाते बल्कि जिनके पास तमाम तरह के छल कपट और चालाकियों से अर्जित माया का भंडार है वही करते हैं। उन्होंने इतना धन कमाया होता है कि उसकी गिनती वह स्वयं नहीं कर पाते। अगर वह इस तरह अपने नाम प्रचारित करते हुए दान न करें तो समाज में उनका कोई नाम भी न पहचाने। कई धनपतियों ने अपने मंदिरों के नाम पर ट्रस्ट बनाये हैं। वह मंदिर उनकी निजी संपत्ति होते हैं और वहां कोई इस दावे के साथ प्रविष्ट नहीं हो सकता कि वह सार्वजनिक मंदिर है। इस तरह उनके और कुल का नाम भी दानियों में शुमार हो जाता है और जेब से भी पैसा नहीं जाता। वहां भक्तों का चढ़ावा आता है सो अलग। ऐसे लोग हमेशा इस भ्रम में जीते हैं कि उनको स्वर्ग मिल जायेगा।
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शब्दयोग सारथी-पत्रिका

Friday, November 07, 2008

संत कबीर सन्देश:परनिंदा से बढ़ता है वैमनस्य

संत श्री कबीरदास जी के अनुसार
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काहू का नहिं निन्दिये, चाहै जैसा होय
फिर फिर ताको बन्दिये, साधु लच्छ है सोय


किसी भी व्यक्ति का दोष देखकर भी उसकी निंदा न करें। अपना कर्तव्य तो यही है कि जो साधु और गुणी हो उसका सम्मान करें और उसकी बातों को समझें

तिनका कबहू न निंदिये, पांव तले जो होय
कबहुं उडि़ आंखों पड़े, पीर घनेरी होय


आशय यह है कि दूसरे के दोष देखकर उसकी निंदा से बचने का प्रयास करना चाहिये। तिनके तक की निंदा भी नहीं करना चाहिये। पता नहीं कब आंखों में गिरकर त्रास देने लगे।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिसे देखो वही दूसरों की निंदा करने में लगा है। इसी प्रवृत्ति के कारण एक दूसरे से दूर हो जाते हैं। सब एक दूसरे की सामने तो प्रशंसा करते हैं पर पीठ पीछे निंदा पर आमादा हो जाते हैंं। यही कारण है कि किसी का किसी पर यकीन नहीं हैंं। अगर हम किसी की यह सोचकर निंदा करते हैं कि उससे क्या डरना वह कुछ नहीं कर सकता। यह भ्रम है। इस जीवन में पता नहीं कब किसकी आवश्यकता पड़ जाये-यही सोचकर किसी की निंदा नहीं करना चाहिये। दोष सभी में होते हैं। मानव देह तो दोषों का पुतला है फिर निंदा कर दूसरे लोगों से अपना वैमनस्य क्यों बढ़ाया जाये?

बजाय दूसरों की निंदा करने के ऐसे लोगोंे से संपर्क रखना चाहिये जो साधु प्रवृत्ति के हों। उनके सद्गुणों की चर्चा करना चाहिये। यह तय बात है कि हम अपने मूंह से अगर किसी के लिये बुरे शब्द निकालते हैं तो उसका हमारी मानसिकता पर ही बुरा प्रभाव पड़ता है। अगर किसी के बारे मे सद्चर्चा की जाये तो उसका सकारात्मक प्रभाव दिखता है।
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Tuesday, November 04, 2008

संत कबीर सन्देश:किसी निर्धन का तिरस्कार न करें

अहं अगनि हिरदै, जरै, गुरू सों चाहै मान
जिनको जम नयौता दिया, हो हमरे मिहमान


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब किसी मनुष्य में अहंकार की भावना जाग्रत होती है तो वह अपने गुरू से भी सम्मान चाहता है। ऐसी प्रवृत्ति के लोग अपने देह को कष्ट देकर विपत्तियों को आमंत्रण भेजते हैं और अंततः मौत के मूंह में समा जाते हैं।

कबीर गर्व न कीजिये, रंक न हंसिये कोय
अजहूं नाव समुद्र में, ना जानौं क्या होय


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपनी उपलब्धियों पर अहंकार करते हुए किसी निर्धन पर हंसना नहीं चाहिए। हमारा जीवन ऐसे ही जैसे समुद्र में नाव और पता नहीं कब क्या हो जाये।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अहंकार आदमी का सबसे बड़ा शत्रू होता है। कुछ लोग अपने गुरू से कुछ सीख लेकर जब अपने जीवन में उपलब्धियां प्राप्त कर लेते हैं तब उनमें इतना अहंकार आ जाता है कि वह अपने गुरू से भी सम्मान चाहते हैं। वैसे आजकल के गुरू भी कम नहीं है वह ऐसे ही शिष्यों को सम्मान देते हैं जिसके पास माल टाल हो। यह गुरू दिखावे के ही होते हैं और उन्होंने केवल भारतीय अध्यात्म ग्रंथों की विषय सामग्री को रट लिया होता है और जिसे सुनाकर वह अपने लिये कमाऊ शिष्य जुटाते हैं। गरीब भक्तों को वह भी ऐसे ही दुत्कारते हैं जैसे कोई आम आदमी। कहते सभी है कि अहंकार छोड़ दो पर माया के चक्कर में फंस गुरू और शिष्य इससे मुक्त नहीं हो पाते। ऐसे में यह विचार करना चाहिए कि हमारा जीवन तो ऐसे ही जैसे समुद्र के मझधार में नाव। कब क्या हो जाये पता नहीं। माया का खेल तो निराला है। खेलती वह है और मनुष्य सोचता है कि वह खेल रहा है। आज यहां तो कल वहां जाने वाली माया पर यकीन नहीं करना चाहिए। इसलिये अपने संपर्क में आने वाले व्यक्ति को सम्मान देने का विचार मन में रखें तो बहुत अच्छा।
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Monday, November 03, 2008

संत कबीर सन्देश:अपने गुण और रहस्य सभी जगह प्रकट न करें

हीरा तहां न खोलिए,जहां खोटी है हाट
कसि करि बांधो गठरी, उठि चालो बाट


संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि अगर अपनी गांठ में हीरा है तो उसे वहां मत खोलो जहां बाजार में खोटी मनोवृत्ति के लोग घूम रहे हैं। उस हीरे को कसकर अपनी गांठ में बांध लो और अपने मार्ग पर चले जाओ।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-संत कबीर दास जी ने यह बात व्यंजना विद्या में कही हैं। इसका सामान्य अर्थ तो यह है कि अपनी कीमती वस्तुओं का प्रदर्शन वहां कतई मत करो जहां बुरी नीयत के लोगों का जमावड़ा है। दूसरा इसका गूढ़ आशय यह है कि अगर आपके पास अपना कोई ज्ञान है तो उसे सबके सामने मत बघारो। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो आपकी बात सुनकर अपना काम चलायेंगे पर आपका नाम कहीं नहीं लेंगे या आपके ज्ञान का मजाक उड़ायेंगे क्योंकि आपके ज्ञान से उनका अहित होता होगा। अध्यात्म ज्ञान तो हमेशा सत्संग में भक्तों में ही दिया जाना चाहिए। हर जगह उसे बताने से सांसरिक लोग मजाक उड़ाने लगते हैं। समय पास करने के लिये कहते हैं कि ‘और सुनाओ, भई कोई ज्ञान की बात’।
अगर कोई तकनीकी या व्यवसायिक ज्ञान हो तो उसे भी तब तक सार्वजनिक न करें जब तक उसका कोई आर्थिक लाभ न होता हो। ऐसा हो सकता है कि आप किसी को अपने तकनीकी और व्यवसायिक रहस्य से अतगत करायें और वह उसका उपयोग अपने फायदे के लिये कर आपको ही हानि पहुंचाये।
अक्सर आदमी सामान्य बातचीत में अपने जीवन और व्यवसाय का रहस्य उजागर कर बाद में पछताते हैं। कबीरदास जी के अनुसार अपना कीमती सामान और जीवन के रहस्यों को संभाल कर किसी के सामने प्रदर्शित करना चाहिए।
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Wednesday, October 29, 2008

शायद तब सच ढूंढना कठिन होगा-संपादकीय

भारत के किसी भी भाग में जाकर वहां रह रहे किसी ऐसे आदमी से बात करिये जिस पर अपने परिवार के पालन पोषण और रक्षा का जिम्मा है। उससे सवाल करिये कि क्या वह अपने समाज से विपत्ति के समय सहायता की आशा करता है तो उसका जवाब होगा ‘‘नहीं’
उससे पूछिये कि ‘क्या वह अपने समाज के शीर्षस्थ लोगों से कभी किसी प्रकार के सहयोग या रक्षा की आशा करता है? तब भी उसका जवाब होगा ‘नहीं’’।

यह आश्चर्य की बात है कि इस देश में एक भी आदमी अपनी भाषा,धर्म,जाति,और क्षेत्र के नाम पर बने हुए समूहों के प्रति एक सीमित सद्भाव रखता है वह भी भविष्य में किसी प्रकार बच्चों आदि के विवाह के समय। सामान्य आदमी अपने कार्य के सिलसिले में प्रतिदिन अपने से पृथक समूहों और समुदायों के संपर्क में आता है पर उस समय उसका ध्यान केवल अपने काम तक ही सीमित रहता है न तो उसके दिमाग में अपने समूह का ध्यान रहता है न ही दूसरे का। शायद उसे कभी अपने समूहों या समाज याद भी न आये-क्योंकि लोग आपस बातचीत में भी किसी के समूह में रुचि नहंी दिखाते- पर कहीं न कहीं कुछ लोग ऐसे होते हैं जो इन समूहों को नाम लेकर चर्चा करते हैं क्योंकि उनके अपने स्वार्थ होते हैं।
आजकल तो दूसरी स्थिति है कि प्रचार माध्यमों मेें विभिन्न समूहों और समाजों के आपसी झगड़ों का जमकर प्रचार हो रहा है। अगर न ध्यान हो तो भी आदमी के सामने उनके नाम आ जाते हैं। कितनी मजे की बात है कि जितनी एकता की बात की जाती है उतनी समाजों के बीच विभाजन रेखा बढ़ती जाती है। अब यह समझना कठिन है कि यह विभाजन रेखा कहीं इसलिये तो नहंी बढ़ाई जा रही कि एकता की बात करते रहना चाहिये या वास्तव में एकता की बात इसलिये की जा रही है कि क्योंकि विभाजन रेखा बढ़ रही है।

पिछले एक डेढ़ वर्ष से विभिन्न समाजों, जातियों,भाषाओं,धर्मों और क्षेत्रों के बीच जिस तरह तनाव बढ़ रहा है वह आश्चर्य का विषय है। इधर भारत की प्रगति की चर्चा हो रही है-अभी भारत ने चंद्रयान छोड़ा है और उसके कारण विज्ञान जगत मं उसका रुतबा बढ़ा है-उधर ऐसे विवाद बढ़ते जा रहे हैं। पहले अनेक घटनाओं में विदेशी हाथ होने का संदेह किया जाता था पर अब तो ऐसा लगता है कि इस देश के ही कुछ लोग भी अब सक्रिय है। सबसे बड़ी बात यह है कि अब तो कोई विदेशी हाथ की बात अब कम ही हो रही है अंंदरूनी संघर्ष में कुछ लोग खुलेआम सक्रिय हैंं। विदेशी हस्तक्षेप की संभावना को तो अब नकारा भी नहीं जा सकता-क्योंकि भारत के बढ़ती ताकत कई अन्य देशों के लिये ईष्र्या का विषय है।

प्रसंगवश याद आया कि पाकिस्तान अभी विदेशी मुद्रा की कमी के कारण दिवालिया होने की हालत में था पर उसके संरक्षक अमेरिका ने उसे मदद नहीं दी। उसके राष्ट्रपति ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोश और विश्व बैंक से मदद मांगी तो उन्होंने कड़ी शर्तें रख दीं। इससे पहले वह अपने चीन से भी निराश होकर आये थे। फिर अचानक ही क्या हुआ कि चीन ने उसकी मदद करना स्वीकार कर लिया। उसने उसके 1.5 अरब डालर की मदद तत्काल रूप से दी और वर्ष 2009 तक के अंत तक चार अरब डालर वहां संचार क्षेत्र में विनिवेश करना स्वीकार कर लिया। इसी दौरान चीन के पत्रकारों का एक दल भी वहां गया और उसने एक सेमीनार में भारत के खिलाफ विषवमन किया। यह समाचार तो कई अखबारों ने दिया पर इस पर अपने विचार विस्तार रूप से नहीं लिखे गये। शायद यह पहला अवसर है कि चीन ने पहली बार पाकिस्तान को आर्थिक मदद दी है और इसकी वजह से जो राजनीतिक समीकरण बदल सकते हैं-क्योंकि अभी तक पाकिस्तान अमेरिका की शरण में था। वहां गये पत्रकारों ने नाईजिरिया और पाकिस्तान में चीनी इंजीनियरों की हत्या में भी किसी देश का हाथ होने की बात कही गयी पर उसमें किसी का नाम नहीं लिया गया।
चीन अपना वार खामोशी से करता है। पाकिस्तान को दिया गया पैसा हमेशा ही भारत में आतंक का वातावरण बनाने के काम आता है। अभी तक भारत अमेरिका से कहता था पर चीन से तो यह कहना भी संभव नहीं है। अमेरिका अभी तक विश्व का सर्वशक्तिमान राष्ट्र था इसलिये अपनी रक्षा के लिये इधर-उधर अशंाति फैलाता था। अब चीन भी इस श्रेणी में आ गया है और हो सकता है वह भी ऐसे काम करने लगे जिससे उसकी ताकत बनी रहे। पाकिस्तान को दिवालिया होने से बचाकर चीन ने अमेरिका के कम होते प्रभुत्व का संकेत दिया है। विश्व में चल रही आर्थिक मंदी को लेकर पहले ही यह आशंका बनी थी कि इससे विश्व में राजनीतिक समीकरण बदल सकते हैं और उसकी शुरुआत हो चुकी है। ऐसे में देश के बुंिद्धजीवी वर्ग को इस पर ध्यान रखना चाहिये था पर देश में इतने विवाद हो रहे है कि उससे उनका ध्यान ही नहीं हट रहा है।

वैसे तो पूरे विश्व में उथल पुथल है पर भारत में कुछ अधिक ही लग रही है। पहले कहा जाता था कि भारत में जाति,भाषा,धर्म,और क्षेत्रों के नाम बने समूहों के आपसी तनावों की वजह से विकास नहंीं हो रहा है क्योंकि लोग अपनी अशिक्षा के वजह से इन झगड़ों में फंसे रहते हैं पर अब तो उल्टी ही हालत लग रही है। जिन लोगों को हम अशिक्षित और गंवार कहते हैं वह तो चुप बैठे हैं पर जो पढ़े लिखे हैं वही ऐसे झगड़े का काम रहे हैं। आखिर यह शिक्षा किस काम की?
दरअसल हमारे देश की शिक्षा तो गुलाम पैदा करती है और नौकरी के लिये आदमी इधर से उधर भाग रहे हैं। इतनी नौकरियां हैं नहीं जितनी लोग ढूंढ रहे हैं और इसलिये बेरोजगार युवकों में कुंठा बढ़ रही है और वह उन्हीं समूहों और समाजों के आधार पर चल रहे संघर्षों में शामिल हो जाते हैं जिनसे वह स्वयं नफरत करते हैं।
सच तो यह है कि जाति,भाषा,धर्म,और क्षेत्रों के नाम पर बने समूहों का अस्तित्व शायद अभी तक समाप्त ही हो जाता पर लगता है कि कुछ लोग अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति पर चलते हुए उनको बनाये रखना चाहते हैं। यही कारण है कि वर्तमान युग में अस्तित्व हीन हो चुके समाज और समूह केवल नाम से चल रहे हैं। सभी लोग धन कमाने में लगे हैं-सभी को अपने लिये रोटी के साथ सुख साधन भी चाहिये-किसी को अपने समाज या समूह से कोई मतलब नहीं है पर कुछ लोग ऐसे हैं जो ऐसे द्वंद्वों से लाभ उठाते हैं। यह लाभ सीधे आर्थिक रूप से होता है या धुमाफिराकर यह अलग बात है पर उसी के लिये यह सब कर रहे है। ऐसे में भारत की प्रगति से चिढ़ने वाले अन्य देश भी अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूप से लाभ दे सकते हैं।

अक्सर विदेशी हाथ में पाकिस्तान का नाम लिया जाता है पर वह तो केवल मुहरा है। अभी तक पश्चिम देश उसकी पीठ पर हाथ रखे हुए थे और अब जिस तरह चीन इस तरफ बढ़ा है वह ध्यान देने योग्य है। ऐसे में देश के बुद्धिजीवी वर्ग को गहनता से विचार करना चाहिये कि देश की स्थिति में जो इस तरह के उतार-चढ़ाव हैं उसकी वजह क्या है? जबकि हो रहा है उसका उल्टा! सभी बुद्धिजीवी हमेशा की तरह अपने पक्षों की बात ही आंखें बंद कर रख रहे हैं। गहन चिंतन और मनन का अभाव है। वह अपने आसपास चल रही घटनाओं को अनदेखा करते हैं जबकि उनका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हमारे देश की स्थिति पर प्रभाव पड़ता है। अगर देश के अंदरूनी विषयों पर ही विचार करते हुए वादविवाद करते रहेंगे और बाहरी घटनाओं का अध्ययन नहीं करेंगे तो शायद तब सच ढूंढना कठिन होगा कि आखिर क्या कोई अन्य देश हैं जो हमारे देश को अस्थिर करना चाहते हैं। इसलिये बुद्धिजीवी वर्ग को देश में एकता और सद्भाव बनाये रखने के लिये काम करना चाहिये। शेष अगले अंक में।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

Monday, October 27, 2008

दीपावली पर जलाओ ज्ञान और ध्यान का दिव्य दीपक

सामने दिये जलता हुआ हो और आंखों से न दिखे तो फिर उसकी रोशनी किस काम की? प्रतिवर्ष दीपावली के अवसर पर लोग अपने घरों में दीपक जलाते हैं। अब तो रौशनी करने के अनेक नये सामान आ गये हैं पर फिर भी लोग तेल के दीपक जलाते हैं। अगर वह दीपक न भी जलायें तो भी अन्य सामानों से बहुत रौशनी होती है-इतनी के तेल का दीपक जलाने पर उससे हुई रौशनी में वृद्धि की अनुभूति ही नहीं होती। इसके बावजूद लोग परंपरा के निर्वाह के लिये जलाते हैं। नयेपन और पुरानेपन के बीच फंसा समाज अपने आपको भंवर में फंसा तो पाता है पर उससे बाहर निकलने का रास्ता नहीं ढूंढता। बाहर रौशनी के फैले बड़े बल्ब हैं और उसकी चकाचैंध ने आदमी के अंदर के ज्ञान के दीपक को प्रज्जवलित होने से रोक लिया है। जिसे देखो वह अपने जीवन को पद, वैभव और शक्ति की ऊर्जा से चमकते हुए देखना चाहता है।
जब केवल प्राक्रृतिक मिट्टी से बना तेल का दीपक रौशनी करता था तो लोगों की लालसायें और आकांक्षायें इतनी अधिक नहीं थी। जैसे रौशनी के लिये कृत्रिम सामान बनते गये वैसे वह उसकी आकांक्षायें और लालसायें बढाती गयीं।

बस आदमी को रौशनी चाहिये। पद,पैसा और प्रतिष्ठा में ही अपने जीवन की रौशनी ढूंढने वाला आदमी उनको पाकर भी संतुष्ट नहीं रह पाता। उसके मन में अंधेरा ही रहता है क्योंकि वह ज्ञान के दीपक नहीं जलाता। पहले यह चाहिये! वह मिल गया तो वह चाहिये। बस चाहिये। किसी को कुछ देना नहीं है। आदमी का सोच बस एक ही है कि ‘मुझे को खुश करे’ पर वह स्वयं किसी को खुश न तो करता और न देख पाता है। ज्ञान प्राप्त करने वालों ने तेल से जलते हुए दीपक में अपना काम चलाया और जिनको केवल माया प्राप्त करनी है उनका मन तेज रौशनी की ट्यूबलाईट में भी बुझा रहता है। जितना धन उतनी उसकी रक्षा की चिंता, जितना बड़ा पद वहां से नीचे गिरने का भय और जितनी अधिक प्रतिष्ठा उतनी अधिक बदनामी की आशंका आदमी को अंधेरे में डाल देती है। वह घबड़ाता हुआ रौशनी की तरफ भागता है। कभी टीवी देखता है कभी शराब पीता है तो कभी अन्य व्यसनों के सहारे अपने लिये खुशी जुटाना चाहता है। वह बढ़ता जाता है अंधेरे की तरफ।
पश्चिम की मायावी संस्कृति में अपनी सत्य संस्कृति मिलाकर जीवन बिताने वाले इस देश के लोगों के लिये दीपावली अब केवल रौशनी करने और मिठाई खाने तक ही सीमित रह गयी है। अंधेरे में डूबा आदमी रौशनी कर रहा है-वह आंखों से दिखती है पर उसका अहसास नहीं कर पाता। पर्यावरण प्रदूषण,मिलावटी सामान और चिंताओं से जर्जर होते जा रहे शरीर वाला आदमी अपनी आंखों से रौशनी लेकर अंदर कहां ले जा पाता है। अपने हाथों से आदमी ने काटा है अपने स्वस्थ और प्रसन्न जीवन का सामान।
मनुष्य के अपने मन के भटकाव को नहीं समझ पाता। वह उस आध्यात्म ज्ञान से घबड़ाता है जिसकी वजह से पश्चिम आज भी भारत को अध्यात्मक गुरु मानता है। इतनी संपन्नता के बाद भी वह अपने मन से नहीं भागता तो इस देश में व्यवसायी साधु,संतों,फकीरों और सिद्धों के दरवाजे पर भीड़ नहीं लगती। स्वयं ज्ञान से रहित लोग उनके गुरू बनकर उनका दोहन नहीं करते। अपने पुराने ग्रंथों में लिखी हर बात को पौंगापंथी कहने वाले लोग नहीं जानते कि इस प्रकृति के अपने नियम हैं। वह यहां हर जीव को पालती है। हर जीव अपने जीवन में विकास कर फिर दुनियां से विदा हो जाता है।

यहां के आदमी को सुना दिये गये हैं कुछ ऐसे श्लोक और दोहे जो अपने समय में प्रासंगिक थे पर अब नहीं। यह योजनापूर्वक किया गया ताकि वह आज भी प्रासंगिक ज्ञान से वंचित रहे। उसके सामने रख दी गयी हैं विदेशों से आयातित कुछ पंक्तियां जिन पर लिखी जा रही है आधुनिकता और विकास की नयी कहानियां। जीवन के सत्य नहीं बदलते पर उन्हें समझता कौन है? पूरा का पूरा समाज अव्यवस्था की चपेट में हैं। कहते हैं कि यह समाज पहले बंटा हुआ था इसलिये गुलाम रहा पर आज तो उसे और अधिक बांट दिया गया है। परिवारों में महिला,पुरुष,बालक और वृद्ध के विभाजन करते हुए उनकी रक्षा के लिये नियम बनाये गये। समाज को नियंत्रित करने के लिये राज्य से अपेक्षा की जा रही है-मान लिया गया है कि इस देश में अब भले लोग नहीं हैंं। इतना बड़ा विश्वास लोग स्वीकार कर रहे हैंं। डंडे के जोर पर आदमी को अपने परिवार से निर्वाह करने के प्रयास दर्शाते हैं कि देश के आदमी पर भरोसा नहीं रहा।

विज्ञान में प्रगति आवश्यक है यह बात तो हमारा अध्यात्म मानता है पर जीवन ज्ञान के बिना मनुष्य प्रसन्न नहीं रह सकता यह बात भी कही गयी है। जीवन का ज्ञान न तो बड़ा है न गुढ़ जैसा कि इस देश के कथित महापुरुष और विद्वान कहते हैं। वह सरल और संक्षिप्त है पर बात है उसे धारण करने की। अगर उनको धारण कर लो तो ज्ञान का ऐसा अक्षुण्ण और दिव्य दीपक प्रकाशित हो उठेगा जिसका प्रकाश न केवल इस देह के धारण करते हुए बल्कि उससे विदा होती आत्मा के साथ भी जायेगा। इस दिव्य दीपक की रौशनी से प्रतिदिन दीपावली की अनुभूति होगी फिर देख सकते हो कि किस तरह वर्ष में केवल एक दिन लोग दीपावली मनाते हुए भी उसकी अनुभूति नहीं कर पाते। फिर जाकर देखो वहां जहां सफेद और गेहुंऐ वस्त्र पहने उन ज्ञान के व्यापरियों को जो स्वयं अंधेरे में हैं और लोग उनसे रौशनी खरीद रहे हैं। देखो उनके सत्संग के उपक्रम को जो ऐसे स्वर्ग को दिलवाता है जो कहीं बना ही नहीं।

देखो जाकर सन्यासियों को्! इस धरा पर सन्यास लेना संभव है ही नहीं। हां, भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीगीता में इसको एक तरह से खारिज कर दिया है क्योंकि यह संभव नहीं है कि इस धरती पर रहते हुए आदमी अपनी इंद्रियों से काम न ले। सन्यास का अर्थ है कि आदमी अपनी सभी इंद्रियों को शिथिल कर केवल भगवान के नाम का स्मरण कर जीवन गुजार दे। मगर आजकल के सन्यासी कहते हैं कि आजकल यह संभव नहीं हैं कि केवल भगवान का स्मरण करने के लिये पूरा जीवन कंदराओं में गुजार दे क्योंकि समाज को मार्ग दिखाने का भी तो उनका जिम्मा है। वह झूठ बोलते हैं कंदराओं में केवल बुढ़ापे में जाया जाता है और उसे सन्यास नहीं बल्कि वानप्रस्थ कहा जाता है क्योंकि उसमें वन में आदमी अपनी इंद्रियों से कार्य करता है।
ज्ञान और ध्यान बेचने वाले व्यापारी ढोंग करते हैं। उनसे दीक्षा लेने से अच्छा है तो बिना गुरु के रहा जाये या फिर एकलव्य बनकर किसी गुरू की तस्वीर रखकर ज्ञान का अभ्यास किया जाये। गलत गुरु की दीक्षा अधिक संकटदायक होती है। यह गुरु मोह और मायाजाल के भंवर में ऐसा फंसे कि वहां से स्वयं नहीं निकल सकते तो किसी अन्य को क्या निकालेंगे। वहां जाकर देखो कि किस तरह शारीरिक और मानसिक विकारों से ग्रस्त लोग किस तरह वहां अपने लिये औषधि ढूंढ रहे हैं।

निष्काम भक्ति और निष्प्रयोजन दया ही वह शक्ति जो आदमी के अंदर प्रज्जवलित ज्ञान के दिव्य दीपक की रौशनी के रूप में बाहर फैलती दिखाई देती है। ज्ञान खरीदा नहीं जा सकता जबकि गुरु उसे बेच रहे हैं। कहते हैं कि हम कुछ देर के लिये आदमी के लिये आदमी का संताप कम कर देते हैं पर देखा जाये तो अगर थोड़ी देर के लिये ध्यान बंट जाये तो कुछ स्फूर्ति अनुभव होती है पर अगर यह ध्यान किसी प्रस्तर की प्रतिमा के सामने बैठकर स्वयं प्रतिदिन लगाया जाये तो वह पूरा दिन ऊर्जा देती है। जब भी कहीं मानसिक संताप हो तो भृकुटि पर दृष्टि कर बंद आखों से ध्यान किया जाये तो एकदम राहत अनुभव होती है। इसके लिये ज्ञान और ध्यान बेचने वालों के पास जाने की आवश्यकता नहीं क्योंकि वहां आप प्रतिदिन नहीं जा सकते। अगर गये तो वह अपनी फीस मांगेंगे या फिर उनके खास चेले आपत्ति करेंगे।

यह लेखक कोई सिद्ध नहीं है पर अपने अनुभव सुनाते हुए अच्छा लगता हैं। दीपावली पर ढेर सारे बधाई संदेश मिले। उनका यह जवाब है। यह लेखक देखना चाहता है ज्ञानी के दिव्य दीपक की रौशनी से ओतप्रोत लोगों का एक समूह जिससे पूरा समाज प्रकाशित हो। दिखावा कर तो एक दिन भी प्रसन्नता नहीं मिल सकती। अपने अंदर जला लो ज्ञान और ध्यान का दिव्य दीपक तो जीवन पर दीपावली की अनुभूति होगी। किसी एक दिन किसी की शुभकामनाओं की प्रतीक्षा नहीं रहेगी। बल्कि बाकी दिनों में मिलने वाला हर शुभकामना संदेश वैसा ही लगेगा जिससे दिल प्रसन्न हो उठेगा। अपने अंतर्मन में ज्ञान और ध्यान के जलते दीपक की रौशनी में देख सकते हो और खुलकर हंस भी सकते हो और सुख की अनुभूति ऐसी होगी जो अंदर तक स्फूर्ति प्रदान करेगी।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

Sunday, October 26, 2008

आतंकी हिंसा पर अपराध शास्त्र के अनुसार दृष्टि डालना जरूरी-आलेख

देश में आतंकी घटनाओं पर नित कोई नयी बात सामने आती है। अभी तक यह कोई नहीं समझा पा रहा है की क्या आतंकी हिंसा कोई अपराध शास्त्र से अलग विषय है कि नहीं। न ही कोई यह बता पा रहा है कि आखिर बिना लाभ के यह अपराध कैसे किया जा सकता है। इसके लिए आर्थिक मदद कौन करता हैयह सही है कि कई बार अपराधी आक्रोश या हताशा में किसी पर हमला करता है पर यह हिंसक प्रतिक्रिया किसी घटना के तत्काल बाद होती है। यह अपराध शास्त्रियों के शोध का विषय है कि क्या अब कोई योजनापूर्वक अपने क्रोध या निराशा की वजह से हिंसा करने की प्रवृति भी मनुष्यों में विकसित हो गयी है। जागरूक और बुद्धिजीवी जिस तरह आतंकी घटनाओं को लेकर जिस तरह बहस कर रहे हैं उसका कोई अर्थ नहीं है।
अपराध शास्त्र के अनुसार धन,स्त्री,और ज़मीन की वजह से अपराध होते हैं। जब आतंकी हिंसा पर देश के बुद्धिजीवी और जागरूक लोग आपस में बहस करते हैं तो इस तथ्य पर कोई दृष्टिपात नहीं करता। धर्मों,भाषाओं,विचारधाराओं और क्षेत्रों के नाम पर बने समूहों से ऐसी आतंकी हिंसा को जोड़ना अपने आप को धोखा देना है। इसी होता यह है कि आज एक समूह का नाम आया तो के दूसरे का आयेगा। उनमें जो सभ्य लोग होते हैं उनके मन में हताशा और निराशा घर कर जाती है।

अपने समूहों पर लोगों को निराशा होने की बजाय यह सवाल उठाना चाहिए कि "आखिर आतंकी हिंसा को कैसे अपराध शास्त्र से अलग रखा जा सकता है"? उन्हें यह भी सवाल उठाना चाहिए कि आखिर इसका भौतिक या अभौतिक तथा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष लाभ किसे होता है?
भले ही प्रचार माध्यम या बुद्धिजीवी कितने भी दावे या प्रतिदावे कर लें मगर सच यह है कि कुछ लोगों ने आतंकी हिंसा को व्यापार बना लिया है। यह काम सोच समझकर किया जा रहा है। भाषा,धर्म,विचारधारा और क्षेत्र के आधार पर बने समूहों के आम लोगों को इससे कोई लाभ नहीं है-यह सब जानते हैं। फिर जो ज्ञान और विज्ञानं से परिपूर्ण हैं और उनको समाज में वैसे ही सम्मान मिलता है वह ऐसा नहीं करते। अल्पज्ञानी और ढोंगी लोग हैं जो ऐसे काम करते हैं। इसलिए किसी भी समूह के लोगों को अपने अन्दर निराशा या हताशा पालने की आवश्यकता नहीं है। इस विषय पर दीपक भारतदीप का चिंतन ब्लॉग/पत्रिका पर लिखा गया लेख आज भी कितना प्रासंगिक है यह पढ़कर समझा जा सकता है।
क्या आतंकी हिंसा अपराध शास्त्र से बाहर का विषय है-संपादकीय
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एक शवयात्रा में दो आदमी पीछे जा रहे थे
एक ने कहा-‘बेकार आदमी था। किसी के काम का नहीं था’
दूसरे ने कहा-‘नहीं कैसी बात करते हो। वह दरियादिल आदमी था। मेरे तो दस काम किये। कभी काम के लिये मना नहीं किया।
दूसरे ने कहा-‘मेरे भी उसने दस काम किये पर एक काम के लिये मना लिया। इसलिये ही तो कहता हूं कि वह ठीक आदमी नहीं था। अगर होता तो एक काम के लिये मना क्यों करता?’

उनके पीछे एक आदमी चल रहा था। उसने पूछा‘-आप यह तो बताओ। उसका देहावसान कैसे हुआ। क्या बीमार थे? क्या बीमारी थी?’
दोनों ने कहा‘-हमें इससे क्या मतलब हमें तो शवयात्रा में दिखावे के लिये शामिल हुए हैं।’
वह तीसरा आदमी चुपचाप उनके पीछे चलता रहा।’
उसने देखा कि दोनों के साथ उनके समर्थक भी जुड़ते जा रहे थे। कोई मृतक की बुराई करता कोई प्रशंसा। तीसरा आदमी सबसे मृत्यु की वजह पूछता पर कोई नहीं बताता। एक ने तो कह दिया कि अगर हमारी चर्चा में शामिल नहीं होना तो आगे जाकर मुर्दे को कंधा दे। देख नहीं रहा हमारे उस्ताद लोग बहस में उलझे हैं।’
यह कहानी एक तरह देश में चल रही अनेक बहसों के परिणामों का प्रतीक है। देश में बढ़ती कथित आंतकी हिंसा घटनाओं के बाद प्रचार माध्यमों में अनेक तरह की सामग्री देखने को मिलती है। बस वही रुटीन है। ऐसी घटनाओं के बाद सभी प्रचार माध्यम रटी रटाई बातों पर चल पड़ते हैं। अखबारों में तमाम तरह के लेख प्रकाशित होते हैं। इन घटनाओं के पीछे ऐसी कौनसी बात है जो किसी की समझ में नहीं आ रही और इनकी संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है।
अभी दिल्ली में हुए हादसे के बाद अगर प्रचार माध्यमों-जिनमें अंतर्जाल पर ब्लाग भी शामिल हैं-में आये आलेखों को देखा जाये तो एक बात साफ हो जाती है कि लोगों की सोच वहीं तक ही सीमित है जहां तक वह देख पाते हैं या जो उनको बताया जाता है। न तो उनमें मौलिक चिंतन करने की क्षमता है और न ही कल्पना शक्ति।

वैसे तो तमाम तरह की खोजबीन का दावा अनेक लोग करते हैं पर इन आतंकी हिंसक घटनाओं के पीछे का राजफाश कोई नहीं कर पाता। नारों और वाद पर चलते बुद्धिजीवी भी गोल गोल घूमते हुए रटी रटाई बातें लिखते हैं। लार्ड मैकाले ने ऐसी शिक्षा पद्धति का निर्माण किया कि जिसमें भारतीय पढ़ खूब लेते हैं पर फिर भूल जाते हैं।
आतंकी हिंसा अपराध है और अपराध शास्त्र के अनुसार तीन कारणों से लोग गलत काम करते हैं-जड़ (धन), जोरु (स्त्री) और जमीन। वैसे तो अपराध शास्त्र के विद्वान बहुत होंगे पर हर आम आदमी को उसका मूल सिद्धांत पता है कि इन तीन कारणों से ही अपराध होते हैं।’

अब सवाल यह है कि आतंकी हिंसा क्या अपराध शास्त्र से बाहर हैं और लोग मानकर चले रहे हैं कि यह अपराध से अलग कोई घटना है। देखा जाये तो आतंकी हिंसा के विरुद्ध सब हैं पर बहसें हो रही हैं धर्म,भाषा और जाति के लेकर। इतिहास सुनाया जा रहा है और वाद और नारे लग रहे हैं। देश के बुद्धिजीवियों पर तरस आता है। आतंकी हिंसा में सबसे अधिक कष्ट उन लोगों का होता है जिनका नजदीकी मारा जाता है। उनसे हमदर्दी दिखाने की बजाय लोग ऐसी बहसें करते हैं जिनका कोई अर्थ नहीं है। और तो छोडि़ये लोगों ने इस आतंकी हिंसा को भी सभ्य शब्द दे दिया‘आतंकवाद’। फिर वह किसी दूसरे वाद को लेकर फिकरे कस रहे हैं?

ऐसी चर्चायें दो चार दिन चलतीं हैं फिर बंद हो जातीं हैं। जिनके परिवार का सदस्य मारा गया उनकी पीड़ा की तो बाद में कोई खबर नहीं लेता। इसी बीच कोई अन्य घटना हो जाती है और फिर शुरू हो जाती है बहस। कोई इस बात में दिलचस्पी नहीं लेता कि आख्रि इस हिंसा में किसका फायदा है? यकीनन यह फायदा आर्थिक ही है। सच तो यह है कि यह एक तरह का व्यवसाय बन गया लगता है। अगर नहीं तो इस सवाल का जवाब क्या है कि कोई इन घटनाओं के लिये कैसे पैसे उपलब्ध कराता है। जो लोग इन कामों में लिप्त हैं वह कोई अमीर नहीं होते बल्कि चंद रुपयों के लिये वह यह सब करते हैं। तय बात है कि यह धन ऐसे लोग देते हैं जिनको इस हिंसा से प्रत्यक्ष रूप से लाभ होता है। यह फायदा उनको ऐसे व्यवसायों से होता है जो समाज के लिये बुरे माने जाते हैं और उसे निरंतर बनाये रखने के लिये समाज और प्रशासन का ध्यान बंटाये रखना उनके लिये जरूरी है और यह आतंकी हिंसा उनके लिये मददगार हो।
कुछ जानकार लोगों ने दबी जबान से ही सही यह बात लिखी थी कि जब कश्मीर में आतंकवाद चरम पर था तब वहां से भारत और पाकिस्तान के बीच दो नंबर का व्यापार दोगुना बढ़ गया। कभी इस पर अधिक बहस नहीं हुई। कहीं ऐसा तो नहीं कि लोगों और सरकारों का ध्यान बंटाने के लिये इस तरह की घटनायें करवायीं जाती हों।
जहां तक किसी समूह विशेष से जोड़ने का सवाल है तो ऐसी हिंसा कई जगह हो रही है और उसमें जाति, धर्म, भाषा ओर वर्ण के आधार पर बने समूह लिप्त हैं। यह सच है कि जब कहीं ऐसी घटना होती है तो उसकी जांच स्थानीय स्तर पर होती है पर राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय अपराध विशेषज्ञों को अब इस बात पर दृष्टिपात करना चाहिये कि इसके लिये धन कौन दे रहा है और उसका फायदा क्या है?’

धर्म, जाति, और भाषा के नाम पर समूह बने भ्रम की राह पर चले रहे हैं और तय बात है कि इसी का लाभ उठाकर आर्थिक लाभ उठाने का प्रयास कई तरह से हो रहा है-यह अलग से चर्चा का विषय है पर ऐसे मामलों में हम उनका नाम लेकर अपराधियों का ही महिमा मंडल करते हैं। अगर इनके आर्थिक स्त्रोतो पर नजर रखते हुए काम किया जाये तभी इन पर नियंत्रण किया जा सकता है।
धर्म,जाति,भाषा और वर्ण के आधार पर कौन कितना अपने समूह का है सब जानते हैं। अमरीका ने पहले इस बात के प्रयास किये कि इनके इस प्रकार के हिंसातंत्र को प्रायोजित करने वाले आर्थिक स्त्रोतों पर ही वह हमला करेगा पर लगता है कि वह इराक युद्ध में उलझकर स्वयं भी भूल गया। यह धन अपने हाथ से कौन दे रहा है उसका पता लग जाये तो फिर यह पता लगाना भी जरूरी है कि उसके पास पैसा कहां से आया? इनके पास पैसा उन्हीं व्यवसायों से जुड़ लोगों से आता होगा जिनमें धर्म के दूने जैसा लाभ है। यह हो सकता है कि ऐसा व्यवसाय करने वाले सीधे आतंकी हिंसा करने वालों को पैसा न दें पर उनसे पैसा लेने वाले कुछ लोग इसलिये भी ऐसी हिंसा करा सकते हैं कि इससे एक तो उनको धन देन वाले चुपचाप धन देते रहें और दूसरा दो नंबर का काम करने वालों का धंधा भी चलता रहे।

जड़,जोरू और जमीन से अलग कोई अपराध नहीं होता। चाहे देशभर के बुद्धिजीवी शीर्षासन कर कहें तब भी वह बात जंचती नहीं। विचारधाराओं और कार्यशैली पर विभिन्न समूहों में मतभेद हो सकते हैं पर किसी में ऐसी ताकत नहीं है जो बिना पैसे कोई लड़ने निकल पड़े और पैसा वही देगा जिसका कोई आर्थिक फायदा होगा। कहीं कहीं आदमी डर के कारण चंदा या हफ्ता देता है पर वह इसलिये क्योंकि तब वह अपने अंदर शारीरिक सुरक्षा का भाव उत्पन्न होने के साथ उसका व्यापार भी चलता है। इधर यह भी हो रहा है कि अपराधियों का महिमा मंडन भी कम नहीं हो रहा। यही कारण है कि लोग प्रचार के लिये भी ऐसा करते हैं जो अंततः उनके आर्थिक लाभ के रूप में ही परिवर्तित होता है। जो अपराधी पकड़े जाते हैं उनके प्रचारकों को प्रचार माध्यम उनकी तरफ से सफाई देते हुए दिखाते हैं। सच तो यह है कि आतंकी हिंसा की आड़ में अनेक लोगों ने नाम और नामा कमाया है और यह सब पैसा कहीं न कहीं देश के लोगों की जेब से ही गया है। हालांकि इनके आर्थिक स्त्रोतों का पता स्थानीय स्तर पर नहीं लग सकता। इसके लिये आवश्यक है कि राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय लोग इसके लिये सक्रिय हों। इसके लिये जरूरी है कि देश में चल रहे दो नंबर के व्यवसायियों में कौन किस किस को धन देते हैं और उसका उनको क्या लाभ है यह देखा जाना जरूरी है। अनेक अपराधी पकड़ जाते हैं पर असली तत्व दृष्टिगोचर नहीं होते। हो सकता है कि हिंसा करने वाले कंपनियों के रूप में सक्रिय हों पर उनके कर्ताधर्ता का पता लगाना जरूरी है।

बुद्धिजीवी लोग इन हिंसक घटनाओं से उत्पन्न बिना मतलब के विषयों पर चर्चा के इस पर बहस क्यों नहीं करते कि आखिर इसका लाभ किसको कैसे हो सकता है। अगर यही बहसों का हाल रहा तो एक दिन देश को आतंकवाद के मसले पर विश्व में मिल रही सहानुभूति समाप्त हो जायेगी ओर यह यहां का आंतरिक मामला मान लिया जायेगा और विदेशों में देश के अपराधियों को शरण मिलती रहेगी। अगर कोई अपराध विशेषज्ञ इसे अलग प्रकार का अपराध मानता है तो फिर कुछ कहना बेकार है पर ऐसा कहने वाले बहुत कम मिलेंगे अगर मिल जाये तो लार्ड मैकाले की प्रशंसा अवश्य करें जिसने इस देश के लोगों की बुद्धि कोई हमेशा के लिये कुंठित कर दिया। ऐसे विषयों पर अपराध विज्ञानियों को चर्चा करना चाहिये पर यहां केवल विचारधाराओं के आधार चलने वाले बुद्धिजीवी बहस करते हैं तब यही लगता है कि वह केवल तयशुदा वाद और नारों पर ही चलते हैं।
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