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Thursday, December 25, 2008

संत कबीर वाणी: बहिर्मुखी नहीं बल्कि अंतर्मुखी बने


सुमिरन सुरति लगाय के, मुख ते कछु न बोल
बाहर के पट देय के, अंतर के पट खोल


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मन का एकाग्र और वाणी पर नियंत्रण करते हुए परमात्मा का स्मरण करो। आपनी बाह्य इंदियों के द्वार बंद कर अंदर के द्वार खोलो।

संपादकीय व्याख्या-इससे पता चलता है कि कबीरदास जी ध्यान की चरम स्थिति प्राप्त कर चुके थे और यही उनकी भक्ति और शक्ति का निर्माण करता था। भगवान की भक्ति का श्रेष्ठ रूप भी ध्यान ही है। अक्सर लोग कहते हैं कि हमारा ध्यान नहीं लगता या थोड़ी देर लगता है फिर भटक जाता है। दरअसल हम लोग शोरशराबे से भक्ति करने के आदी हो जाते हैं इसलिये यह सब होता है। इसके अलावा ध्यान के लिये गुरू की आवश्यकता होती है वह मिलते नहीं है। अधिकतर गुरू सकाम भक्ति के लिए प्रेरित कर केवल अपने प्रति लोगों का आकर्षण बनाये रखना चाहते हैं।

ध्यान लगाना सरल भी है और कठिन भी। यह हम पर निर्भर करता है कि हमारे मन और विचारों पर हमारा नियंत्रण कितना है। इस संसार के दो मार्ग हैं। एक सत्य का दूसरा माया का। हमारा मन माया के प्रति इतना आकर्षित रहता है कि उसे वहां से हटाने के लिये दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है। अगर हमने तय कर लिया कि हमें ध्यान लगाना ही है तो दुनियां की कोई ताकत उसे लगने से रोक नहीं सकती और अगर संशय है तो कोई गुरू उसे लगवा नहीं सकता।
इन पंक्तियों का लेखक कोई सिद्ध पुरुष नहीं है पर ध्यान की विधि जो अनुभव से आई है उसे तो बता ही सकता है। कहीं शांत स्थान पर सुखासन में बैठ जाईये और आंखें बंद कर शरीर को ढीला छोड़ दें। अपने हृदय में चक्रधारी देव की कल्पना कर उसे पर अपनी दृष्टि रखें। अपना पूरा नाक के बीच में भृकुटि पर ही रखें। दुनियां के विचार आयें आने दीजिये। आप तो तय कर लीजिये कि मुझे ध्यान लगाना है। जो विचार आते हैं उनके बारे में चिंतित होने की बजाय यह सोचिये कि वह आपके जीवन के जो घटनाक्रम आपने देखे और अनुभव किये हैं उनसे उत्पन्न विकार है जो वहां भस्म हो रहे हैं। जिस तरह हम कोई पदार्थ मुख से ग्रहण करते हैं पर शरीर में वह गंदगी के रूप में बदल जाता है। हम मुख से करेला खायें यह क्रीमरोल उसका हश्र एक जैसा ही होता है। हम काढ़ा पियें या शर्बत वह भी कीचड़ के रूप में परिवर्तित हो जाता है। यही हाल आखों से देखे गये अच्छे बुरे दृश्य और कानों से सुने गये प्रिय और कटु स्वर का भी होता है। उसके विकार हम देख नहीं पाते पर वह हमारी देह में होते है और उसको वहां से निकालने के लिये ब्रह्मास्त्र का काम करता है ध्यान। जब ध्यान लगाते हैं और जो विचार हमारे दिमाग में आते हैं उनके बारे में यह समझना चाहिए कि वह विकार हैं जो वहां भस्म होने आ रहे हैं और हमारा मन शुद्ध हो रहा है। धीरे-धीरे हमारी बाह्य इंद्रियों के द्वार ध्यान के कारण स्वतः बंद होने लगेंगे। बस अपने अंदर दृढ़ इच्छा शक्ति की आवश्यकता है।
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