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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Saturday, December 17, 2016

विचारधारा जब जमीन पर आती है तब ही उसकी शक्ति पता लगती है-है-नोटबंदी पर हिन्दी निबंध (Thought And Practical-Hindi Essay)

भारत के वर्तमान राष्ट्रवादी कर्णधार लगातार यह कह रहे हैं कि नोटबंदी का कदम उन्होंने कालेधन को समाप्त करने के लिये उठाया है।  अनेक बार उन्होंने यह भी कहा कि देश में व्याप्त आतंकवादियों का धन सुखाने के लिये यह कदम उठाया  है। अनेक अर्थशास्त्री इस पर व्यंग्य भी करते हैं पर हमारा विचार इससे अलग है। यह नोटबंदी सामाजिक रूप से ज्यादा प्रभावी होने वाली है भले ही नोटबंदी के समर्थक या विरोधी केवल आर्थिक परिणामों की व्याख्या अपनी अनुसार कर रहे हों।  सबसे बड़ी बात यह कि हमारे समाज में धन से मदांध लोगों का एक ऐसा समूह विचर रहा था जो मुद्रा की कीमत नहीं समझता था। उसे लगता था कि उसके वैभाव की स्थिति स्थाई है इसलिये चाहे जैसे व्यवहार कर रहा था। मुद्रा का अभाव उसे ऐसे अनेक सबक देगा जो अध्यात्मिक विद्वान देते रहे थे पर लोग उनको सुनकर भूल जाते थे।
नोटबंदी के दौरान टीवी और अखबारों पर चल रही बहसों मेें  हमने विद्वानों तर्कों में भारी भटकाव देखा।  सरकार ने पांच सौ, हजार और दो हजार के नोट बंद किये पर फिर दूसरे नये शुरु भी कर दिये।  इस पर कुछ लोगों ने कहा कि यह भ्रष्टाचार की दर दुगुनी कर देगा-यह सही बात अब लग रही है। हम जैसे लोग बड़े उद्योगपतियों, व्यापारियों अथवा साहुकारों के उस धन पर अधिक नहीं सोचते जो आयकर बचाकर उसे काली चादर पहनाते हैं।  हमारी दिलचस्पी उस सार्वजनिक भ्रष्टाचार से है जिसने देश का नैतिक चरित्र खोखला किया है।  हमने पश्चिमी अर्थशास्त्र के साथ देशी अर्थशास्त्र का-चाणक्य, विदुर, कौटिल्य तथा मनुस्मृति- अध्ययन किया है और इस आधार पर हमारा मानना है कि काले तथा भ्रष्ट धन में अब अंतर करना चाहिये।  हमारा मानना है कि करों की अधिक दरों तथा कागजी कार्यवाही की वजह से अनेक लोग आयकर बचाते हैं पर उनके व्यवसाय को अवैध नहीं कह सकते।  इसके विपरीत राजपद के दुरुपयोग, सट्टे तथा मादक पदार्थों के प्रतिबंध व्यवसाय से उपार्जित धन हमारी दृष्टि से भ्रष्ट होने के साथ ही देश के लिये बड़ा खतरा है।  कालाधन पर प्रहार के लिये दीवानी प्रयास हो सकते हैं पर भ्रष्ट धन बिना फौजदारी कार्यवाही के हाथ नहीं आयेगा। आप कालेधन के समर्पण के लिये प्रस्ताव दे सकते हैं पर भ्रष्ट धन के लिये यह संभव नहीं है।
सच बात तो यह है कि वर्तमान में राष्ट्रवादी कर्णधार अपने ही स्वदेशी विचार को लेकर दिग्भ्रमित हैं।  वह बात तो करते हैं अपने देश के महान दर्शन की पर अमेरिका, जापान, चीन और ब्रिटेन जैसा समाज बनाने का सपना देखते हैं। पश्चिमी और स्वदेशी विचाराधारा में फंसे होने के कारण उनके दिमाग में विरोधाभासी विचार पलते हैं। पश्चिमी अर्थशास्त्र में दर्शनशास्त्र को छोड़कर सारे शास्त्र शामिल होते हैं जबकि हमारा दर्शनशास्त्र ही अर्थशास्त्र सहित सारे शास्त्र समेटे रहता है। हमारे दर्शन में करचोरी और भ्रष्टाचार का अलग अलग उल्लेख मिलता है। मजे की बात यह कि हमारे अध्यात्मिक विद्वान ही मानते रहे हैं कि राजकर्मियों में राज्य के धन हरण की प्रवृत्ति रहती है। जब हम धन की बात करते हैं तो स्वच्छ, काले तथा भ्रष्ट धन के प्रति अलग अलग दृष्टिकोण स्वाभाविक रूप से बन जाता है। देश के वर्तमान राष्ट्रवादी कर्णधार नोटबंदी करने के बाद भारी दबाव में आ गये हैं। वह तय नहीं कर पा रहे कि करना क्या है और कहना क्या है? अभी तक राष्ट्रवादियों ने अनेंक आंदोलन चलाये थे जिसमें नारों के आधार पर ही उन्हें प्रतिष्ठा मिल गयी। बीच में उनकी अन्य दलों के सहारे साढ़े छह साल सरकार चली पर अन्य दलों के दबाव में अपने विचार लागू न कर पाने का बहाना करते रहे। अब अपनी पूर्ण सरकार है तो उनकी कार्यप्रणाली में जहां नयेपन का अभाव दिख रहा है तो वहीं सैद्धांतिक विचाराधारा का अत्यंत सीमित भंडार भी प्रकट हो रहा है।  उनका संकट यह है कि अपने समर्थकों को कुछ नया कर दिखाना है पर सत्ता का सुख तो केवल यथास्थिति में ही मिल सकता है।
राष्ट्रवादियों का यह संकट उनके लिये बड़ी चुनौती है पर यह लगता नहीं कि वह इसे पार हो सकेंगे।  नोटबंदी के प्रकरण को मामूली नहीं कहा जा सकता क्योंकि इस पर बरसों तक बहस चलेगी। राष्ट्रवादियों ने अपनी सरकार भी अपने प्रतिद्वंद्वियों की तरह धन के सहारे ही बनायी और उन्हें उनकी तरह ही धनपतियों को प्रसन्न करना था। राजपदों की गरिमा जो राष्ट्रवादियों में होना चाहिये वह धनपतियों के सामने धरी की धरी रह गयी। अगर अपने अध्यात्मिक दर्शन के प्रति वास्तव में समर्पण होता तो वह राजपद की उस गरिमा के साथ चलते जिसमें राजा हमेशा ही साहुकारों, जमीदारों और व्यापारियों से उपहार के रूप में राशि लेता है पर उनके आगे सिर नहीं झुकाता। इन लोगों को इतना ज्ञान नहीं रहा कि साहुकारों, जमींदारों तथा व्यापारियों की यह मजबूरी रहती है कि वह अपने राजा को बचायं रखें क्योंकि इससे ही उनका अस्तित्व बना रहता है। इसके विपरीत यह तो धनपतियों के आगे इसलिये नतमस्तक हो रहे हैं कि उनका पद बचा रहे।  हमने तो राष्ट्रवादियों की सुविधा के लिये यह लिखा है कि हमें उद्योगपतियों के कालेधन में नहीं वरन् अनिर्वाचित राजपदों पर-सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों-काम करने वालों के भ्रष्ट धन से मतलब है। लगता नहीं है कि राष्ट्रवादी यह भी कर पायेंगे क्योंकि वह भी अपने प्रतिद्वंद्वियों की तरह ही इन्हीं अनिर्वाचित राजपदासीन लोगों के सहारे सरकार चलाते है जो कि उन्हें राज्यसुख नियमित रूप से प्रदान कर अपनी स्थाई पद बचाये रहते हैं। हमारा तो सीधा कहना है कि राष्ट्रवादी अब नोटबंदी के बाद उस दौर में पहुंच गये हैं जहां उन्हें अपने वैचारिक धरातल पर उतरकर आगे बढ़ना ही होगा। पीछे लौटने या वहीं बने रहने का अवसर अब उनके पास नहीं बचा है।
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थकी संवेदनाओं के साथ आनंद की अनुभूति संभव नहीं-हिन्दी चिंत्तन लेख (Thaki Sanwedna ke saath Anand ki Anubhuti Sambhav nahin-HindiThoughtArticle)


                         एक सम्मेलन में आयोजक ने कहा कि ‘आजकल लोग कुछ भी बोलना चाहते हैं। उन्हें उस विषय की समझ नहीं है जिस पर बोलना है इसलिये अन्य विषयों को अनावश्यक रूप से उठाते हैं।’
         हम इस पर चिंत्तन करने लगे।  अनेक विचार आये पर हमें लगा कि उन्हें व्यक्त करना व्यर्थ है।  हमारे समझने से कोई समझेगा नहीं और जिसे समझाना है उसे आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह तो शिकायतकर्ता है।
            भौतिकता के जाल में आदमी ने अपना ही नहीं अपने परिवार का मन इस तरह फंसा दिया है कि उसमें बौद्धिक विलास की संभावना ही नहीं रहती।  लोग बाहर के विषयों में लिप्त हैं पर उस पर समझ अपनी आवश्यकतानुसार है। इस तरह अपनी आवश्यकता के अनुसार ही उनके विषय सीमित हो गये हैं जिनमें वह घूमते रहते हैं।  दूसरे के अनुसार अपनी समझ कायम करने की ताकत अब बहुत कम लोगों के पास रह गयी है। जिन विषयों से दैनिक संबंध नहीं है पर उससे जुड़ने की आवश्यकता होगी इसलिये उसका अध्ययन करना चाहिये-यह विचार कोई नहीं करता।  अपना दर्द ही सभी को दुनियां का सबसे बड़ा विषय लगता है।  हमें तो कभी कभी लगता है कि जब दो व्यक्ति आपस में संवाद करते दिखें तो यह समझना नहीं चाहिये कि दोनों एक दूसरे की सुन रहे हैं।  हमें यह अनुभव होने लगा है कि हम अगर किसी से बात कर रहे हैं तो लगता नहीं कि वह सुन रहा है क्योंकि हमारा वाक्य समाप्त नहीं होता सामने वाला शुरु हो जाता है।
        योग साधना के बाद हमने ध्यान तथा मौन की जो शक्ति देखी है उसका अनुभव भीड़ में जाकर करते हैं।  सभी को सुनते हैं। अपनी बात तब तक नहीं कहते जब तक कोई बाध्य न करे।  अब हमने फेसबुक तथा ब्लॉग को अपनी एकाकी अभिव्यक्ति का ऐसा माध्यम बना लिया है जहां हमें राहत मिलती है। लिखने से व्यक्ति की मनोदशा पता लग जाती है।  फेसबुक पर हमें पूरे देश के मनोभाव पता लग जाते हैं। सामान्य विद्वानों की सीमायें और गहन चिंत्तकों की व्यापकता भेद हमारे सामने आ जाता है।  सभी का अध्ययन करने के बाद हमारा निष्कर्ष तो यही निकला कि लोगों ने अपनी संवेदनाओं को बीमार बना दिया है। न वह सुख अच्छी तरह ले पाते हैं न ही दुःख से लड़ने का उनमें माद्दा रहा है। इन बीमार संवेदनओं के साथ अनुभूतियां ज्यादा समय तक जिंदा रखना संभव भी नहीं दिखता।
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Friday, December 02, 2016

राजसी विषयों के निष्पादन में सात्विक नीति नहीं चलती-नोटबंदी पर विशेष हिन्दीलेख (Satwik policy Not may Be apply for Rajsi karma-Hindi Editorial on demonetisation)


जब नोटबंदी का अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक ने समर्थन किया तो हमें आश्चर्य हुआ। इस मामले में जनवादियों से ऐसे तर्कों की उम्मीद कर रहे थे जिनमें तीसरा पक्ष होता। जनहित के विषयों में हमारा कुछ विषयों पर राष्ट्रवादियों तो कुछ पर जनवादियों से विचार मिलता है। हमारा विचार तो प्रगतिशीलों से भी मिलता है पर मूल रूप से हम भारतीय विचारवादी हैं जिसके संदर्भ ग्रंथों में अध्यात्मिक तथा सांसरिक विषयों पर स्पष्ट, सुविचारित तथा वैज्ञानिक व्याख्यान मिलते हैं। इन्हीं के अध्ययन से हमने यह निष्कर्ष निकाला है कि भारत के लिये न केवल अध्यात्मिक वरन् सांसरिक विषयों में भी जापान, अमेरिका, चीन या ब्रिटेन में से किसी एक या फिर आधा इधर से आधा उधर से विचार उधार लेकर राजकीय ढांचा बनाना एक बेकार प्रयास है। यहीं से हम प्रत्यक्ष अकेले पड़ जाते हैं पर हम जैसे सोचने वाले बहुत हैं-पर कोई एक मंच नहीं बन पाया जिसकी वजह से सब अकेले अकेले जूझते हैं।
अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक के समर्थन के बाद जनवादियों के लिये नोटबंदी के विरुद्ध चिंत्तन करने का रास्ता खुल गया था पर उन्होंने निराश किया। उनकी मुश्किल यह रही कि उनके आदर्शपुरुषों चीन के राष्ट्रपति शीजिनपिंग और रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने भी भारत की नोटबंदी का समर्थन कर दिया इस कारण उन्हें अपना चिंत्तन बंद कर दिया और जनता की तात्कालिक समस्याओं को ही मुद्दा बनाकर विरोध करने लगे। भारतीयवादी-कृपया इसे स्वदेशी न कहें-होने के कारण अंतर्जाल पर हमारा कोई समूह नहीं है मगर करीब करीब सभी समूहों के विद्वान हमसे जुड़े हैं। भ्रष्टाचार और आतंकवाद पर हमने जो आठ बरस पहले बातें लिखीं वह आज कही जा रही हैं। हमारे एक अंतर्जालीय मित्र ने हमसे कहा था कि आपके अंतर्जाल पर मित्र कम रहेेंगे पर आपको पढ़ने वाले बौद्धिक जरूर होंगे और आपके विचारों का अनुकरण इस तरह करेंगे कि आपको पता ही नहीं चलेगा। आतंकवाद पर सबसे पहले हमने लिखा था कि यह एक व्यापार है और यही आज सभी लोग कह रहे हैं। भ्रष्टाचार से देशभक्ति पर खतरे का प्रश्न हमने उठाया था जिसका बाद में अनेक लोगों ने अपने नाम से प्रचार करते हुए उठाया। आज नोटबंदी के दौर में ऐसे कई प्रश्न हमारे दिमाग में आ रहे हैं जिनका उत्तर मांगना है पर हमारी बात अपनी जगह तक पहुंचेगी उसमें समय लगेगा। हम जिन खतरों को अनुभव कर रहे हैं जनवादी उन्हें क्यों नहीं अनुभव कर रहे हैं? यह प्रश्न भी आता है।
नोटबंदी के बाद ऐसा कोई दिन नही रहा है जब एटीएम की लाईन में हम न लगे हों। एक दिन बैंक की लाईन में भी जाकर देखा। सभी दिन पैसा नहीं निकाला क्योंकि हमारा मुख्य लक्ष्य इन पंक्तियों में खड़े होकर उस जनमानस को देखना था जो बाद में एक समाज बन जाता है। हमें उनकी तात्कालिक मुद्रा की आवश्यकता नहीं देखनी थी क्योंकि वहां हर आदमी इसी कारण आया था। हमें देखना था कि आखिर उसकी मानसिकता क्या है? वह इस समस्या स जूझने बाद कौनसे परिणाम की कल्पना कर रहा है? यह भी बता दें कि हमने सड़कों पर ऐसे भी लोग देखे जिनको नोटबंदी की परवाह नहीं थी। उससे बात कर कोई निष्कर्ष नहीं निकलना था। सभी लोग इस पर खुश थे। हमें तो उन पंक्तियों में अपने लिये चिंत्तन सामग्री ढूंढनी थी। अखबार और टीवी के समाचार भी पढ़े और देखे पर हमें त्वरित समस्याओं से ज्यादा भविष्य की तरफ देखना है। हम इस दौरान प्रश्नों का उत्तर नहीं ढूंढ रहे थे क्योंकि वह तो समय देगा पर कुछ चेतावनियों का अनुभव हुआ और वह बहुत डरावनी लगी रहीं हैं।
हम भारतीय हैं। हमें विश्वगुरु कहा जाता है। यह पदवी केवल पूजा पाठ की वजह से नहीं वरन् एक ज्ञान विज्ञान से परिपूर्ण जीवन शैली के कारण मिली है। हमारे पास अपना अर्थशास्त्र है तब जापान, चीन, अमेरिका और ब्रिटेन के यशस्वी विचाराकों के सिद्धांतों को उधार लाने की जरूरत क्यों हैं? हम विकास का वह स्वरूप क्यों चाहते हैं जो जापान या चीन का है? जब हम चीन, जापान, अमेरिका या ब्रिटेन की तरह बनना चाहते हैं तो हमें यह भी क्या यह नहीं देखना चाहिये कि हमारा राज्य प्रबंध तथा समाज कैसा है? मूल बात यह कि हमारे देश के नागरिक क्या चाहते हैं?
नोटबंदी कर नागरिकों को सुखद भविष्य का सपना दिखाया गया है। सब जानते हैं कि इसके आगे भी काम किये बिना सार्थक परिणाम प्राप्त नहीं होगा। कहा गया कि आतंकवादियों के पास धन की कमी हो जायेगी। जिस तरह हमारे देश में भ्रष्टाचार है उसके चलते यह संभव नहीं लगता। जब मुद्रा वितरण से जुड़े लोगों पर ही काला धन सफेद करने को आरोप लग जायें तब क्या उनसे यह आशा कर सकते हैं कि वह आतंकवादियों को वही सुविधा नहीं देंगे? कश्मीर में कुछ दिन आतंक थमा रहा पर आतंकियो पास जब दो हजार के नोट पहुंच गये तो फिर वही क्रम शुरु हो गया है। नोटबंदी के बाद पंजाब में भी एक जेल टूट गयी जिसमें भ्रष्टाचार एक हथियार बना। मतलब आतंक और भ्रष्टाचार पर नकेल का दावा तो तात्कालिक रूप से निष्फल हो गया। अब जनमानस जैसे ही अपनी समस्या से निजता पायेगा तो वह सवाल करेगा। वह इधर उधर देखेगा। जब सब पूर्ववत मिलेगा तो उसके अंदर एक भारी निराशा पैदा होगी। यही निराशा क्रोध का रूप भी लेगी। उसके पास करने के लिये ज्यादा कुछ नहीं पर समय आने पर वह अपने मत से सब बता देगा। संभव है कि लोकप्रियता के शिखर पर जो लोग हैें उन्हें खलनायक करार दिया जाये। नोटबंदी के बाद कर्णधारों के पास पीछे लौटने का अवसर नहीं है और उन्हें आगे बढ़कर अपनी प्रहारशक्ति दिखानी होगी। खड़े या यहीं बैठे रहने का भी अवसर अब निकल गया है।
सबका साथ सबका विकास का नारा अच्छा है पर याद यह भी रखें कि जो साथ दें उनका ही विकास हो-जिन्हें नहीं चाहिये उन्हें दूध में मक्खी की तरह अपने पास से हटा दें। यह राजसी नीति है इसमें सात्विक सिद्धांतों को कोई मतलब नहीं है।
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नोट-इसी ब्लॉग पर नोटबंदी पर आगे भी लेख आयेंगे।


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