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Sunday, December 27, 2015

राजा को किसान की तरह होना चाहिये-मनुस्मृत्ति के आधार पर चिंत्तन लेख (A King Should As Farmer-A Hindi Article based on ManuSmriti)


           भारतीय अध्यात्मिक दृष्टि प्रजा हित के लिये राज्य प्रमुख को किसान से सबक लेना वैसे हर मनुष्य को अपने आश्रितों की रक्षा के लिये संघर्ष करना चाहिये।  उसी तरह राजसी पदों पर कार्य करने वालों को अपनी कार्यप्रणाली किसानों की तरह ही अपनाना चाहिये जो अपनी फसल के उत्पादन के लिये जमकर मेहनत करने के बाद भी उसकी रक्षा के लिये प्रयास करते हैं।  खेतों में खड़ी फसल कोई पशु न खाये इसके लिये वह उसे भगा देते हैं। फसल के शत्रु कीड़ोें का नाश करते हैं।  राजसी पदों पर कार्य करने वाले लोगों को भी अपने क्षेत्र की प्रजा की रक्षा के लिये ऐसे ही प्रयास करना चाहिये।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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यथेद्धरति निदांता कक्ष धान्यं च रक्षति।
तथा रक्षेन्नृपोराष्ट्रं हन्याच्च परिपन्विनः।।
                           हिन्दी में भावार्थ-जिस प्रकार किसान अपने धन की रक्षा के लिये खरपतवार उखाड़ फैंकता है वैसे ही राजा को प्रजा के विरोधियों का समूल नाश करना चाहिये।
                           राजनीति में आजकल हिंसक प्रयासों से अधिक कूटनीति को भी महत्व दिया जाता है इसलिये राजसी पुरुषों को ऐसे प्रयास करना चाहिये जिससे अपराधी तथा प्रजाविरोधी तत्व सक्रिय न हों। जो राजसी पुरुष ऐसा नहीं कर पाते उनकी प्रजा भयंकर संकट में घिर जाती है। हम मध्य एशिया में जिस तरह के हालत देख रहे हैं उसका यही निष्कर्ष है कि वहां के राजसी पुरुषों ने ऐसा नहीं किया जिससे अब वहां तबाही का दौर चल रहा है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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Saturday, December 12, 2015

भारतीय धर्म ही पंथनिरपेक्ष है-हिन्दी चिंत्तन लेख (Indian relgion is natural panthnirpeksh-Hindu spritual thought article)

                           इस समय देश में धर्मनिरपेक्षता पर बहस चल रही है। कुछ पेशेवर विचारक कहते हैं कि हमारी संस्कृति धर्म निरपेक्ष है जबकि अध्यात्मिक चिंत्तकों का मानना है कि धर्म धारण करने का विषय है।
                           गीता में कर्म ही धर्म का पर्याय है जिससे मनुष्य निरपेक्ष नहीं रह सकता। उसमें भक्ति के तीन प्रकार पंथनिरपेक्षता का सटीक प्रमाण है। भारतीय ज्ञान के अनुसार कर्म ही धर्म रूप है जिससे निरपेक्षता संभव नहीं है पर भक्ति के किसी भी रूप से भेद न रखकर पंथनिरपेक्ष होना ही चाहिये।
                            भारतीय अध्यात्मिक दर्शन पर चलने वाले कर्म में ही धर्म देखते हैं इसलिये निरपेक्ष नहीं होते। भक्ति के प्रथक रूप स्वीकार करने कारण पंथरिनपेक्ष तो स्वाभाविक रूप से होते ही हैं।
                          विश्व में अकेला भारतीय ज्ञान ही कर्म निर्वाह ही धर्म मानता है तो भक्ति के अनेक रूप को स्वीकार कर पंथनिरपेक्ष रहने की प्रेरणा भी देता। आपकीबात आज भी आम भारतीय धर्मनिरपेक्षता शब्द से आत्मीय संबंध नहीं जोड़ पता क्योंकि वह स्वाभाविक रूप से पंथनिरपेक्ष होता ही है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Thursday, November 19, 2015

पश्चिम व पूर्व की अध्यात्मिक विचाराधाराओं को आधार प्रथक-हिन्दी चिंत्तन लेख(Pashchim Poorava ki Adhyatmik vichardharaon ko Adhar Prathak-Hindu Thought article)


                           एक अखबार में यह किस्सा पढ़ने को मिला कि एक कार्यक्रम में अमेरिका के राष्ट्रपति ने चीन के उद्योगपति से पूछा-जुनून की हद तक संघर्ष व्यवसाय में किस तरह मदद करता है?’
                           जेक मा ने कहा-यह जुनून नहीं दूसरों के लिये की गयी चिंता है।
                           यह एक सामान्य वार्तालाप है पर गौर से सवाल करने और जवाब देने वाले का व्यक्तित्व देखा जाये तो इसमें पूर्व पश्चिम के दृष्टिकोण दिखाई देंगे।  पश्चिमी विचाराधारा के अनुसार अपना कर्म अपनी निजता के लिये किया जाना चाहिये जबकि पूर्वी विचाराधारा के अनुसार अपना कर्म सभी के हित के लिये हो तो निजी लाभ स्वयं होता है। पश्चिमी में लोग अपना लक्ष्य अपने लिये तय करते हुए सक्रिय होते हैं जबकि पूर्व में युवक समाज, परिवार तथा अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिये अपना अभियान प्रारंभ करते हैं। चीन  भले ही राजनीतिक रूप से साम्यवादी विचाराधारा पर चलता हो पर वहां आज भी उस बौद्ध धर्म का प्रचलन है जो भारतीय अध्यात्मिक विचाराधारा से निकला है।  सच तो यह है कि एक तरह से साम्यवादी विचाराधारा और तानाशाही के कारण ही वहां बौद्ध धर्म संरक्षित है वरना तो पश्चिमी विचाराधाराओं ने उसे भी ध्वस्त कर दिया होता
                           भारतीय अध्यात्मिक विचाराधारा के अनुसार अपने मन, विचार और देह के विकार भक्ति, ज्ञान तथा योग के अभ्यास से निकालने के बाद सांसरिक विषयों में कार्य करने की सात्विक शैली स्वयं ही हो जाती है। प्रातः धर्म, दोपहर अर्थ, सांय काम या मनोरंजन तथा रात्रि मोेक्ष का समय होता है।  प्रातः अपने मन, विचार और बुद्धि के विकार निकालना ही धर्म है और दोपहर के अर्थ का विषय केवल जीवन निर्वाह के लिये न कि उस समय किये जाने वाले कर्म तथा लक्ष्य को हृदय से लगाकर उसमें चिपककर कर स्वयं को मानसिक संताप देने से हैं।
                           कोई भौतिक विषय, वस्तु तथा विषय किसी का माईबाप नहीं हो सकता।  सांसरिक विषयों में सफलता वह असफलता लगी रहती है उसे लेकर अधिक चिंता नहीं करना चाहिये। हमारा ध्येय अध्यात्मिक साधना से अपना ही मनोबल बनाये रखना हो तो सांसरिक विषयों से जूझने की कला भी आ ही जाती है। सबसे बड़ी बात यह कि उच्च पद, लंबे कद और धन के मद के आकर्षण का शिकार पूर्व का आदमी नहीं होता।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
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Wednesday, November 11, 2015

कामना अर्थ व रूप की कभी उपेक्षा भी करना चाहिये-हिन्दी चिंत्तन लेख(Kamna Arth Roop ki kabhi upeksha karna chahiye-Hindi thought article)


               भौतिक साधनों के नितांत उपभोग से जहां लोगों में बौद्धिक तीक्ष्णता का प्रमाण मिलता है वहीं सुविधा के संपर्क से मस्तिष्क के आलस्य से  आंतरिक चेतना शक्ति भी कम हो रही है।  प्रश्न यह नहीं है कि लोग उपभोग से विरक्त क्यों नहीं हो रहे वरन् समस्या यह है कि लोग अपने मस्तिष्क को विराम नहीं दे रहे। उपभोग की एकरसता के बीच उन्हें अध्यात्मिक रस का आनंद लेने की इच्छा होती है पर ज्ञान के अभाव में वह पूरी कर नहीं पाते। मन की कामनायें, अर्थ का अनर्थ से भरा मोह तथा आकर्षक वस्तुओं को देखने की नितांत इच्छा के बीच मनुष्य को थकाने वाला मनोरंजन मिल जाता हे पर उससे उबरने की इच्छा अंततः निराशा कर देती है।
अष्टावक्रगीता में कहा गया है कि
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विहाय वैरिणं काममर्थ चानर्थसङ्कुलम्।
धर्ममप्येतयोहेंतुं सर्वत्रानादरं कुरु।।
 
                                   हिन्दी में भावार्थ-वैर स्वरूप कामनायें तथा अनर्थ से भरे अर्थ का त्याग कर रूप धर्म को भी छोड़कर उनकी उपेक्षा करें।
                                   अध्यात्मिक चेतना के लिये कुछ समय सांसरिक विषयों की उपेक्षा करना होती है।  मन की चंचलता को नियंत्रित कर स्वयं में दृष्टा का भाव लाना हो्रता है।  उपभोग की तरफ केंद्रित प्रवृत्ति का निवृत्ति मार्ग अपनाये बिना दृष्टा होना सहज नहीं है।  हम मिठाई खायें या करेला वह पेट में अंततः कचड़ा ही बनता है जिसका निष्कासन हमें करना ही है।  उसी तरह दृश्यों का भी है। मनभावन हो या सताने वाला दृश्य आंखें देखती हैं पर दोनों ही अंततः मन में तनाव का कारण बन जाते हैं। उन्हें भुलाकर निष्पादन करना आवश्यक है। जो धन आया है उसमें से हम जितना व्यय करते हैं वही सार्थक है जो बचा रहा वह निरर्थक हैं।  जिसका हम उपयोग नहंी कर उस धन पर अहंकार करना व्यर्थ है।  हम धन का सेवक के रूप में उपभोग करते हैं न कि वह हमारा स्वामी है जिसे हम अपने मस्तिष्क पर धारणकर घूमें।  जीवन निर्वाह के लिये उपभोग सीमा के बाद कामना, अर्थ और रूप की उपेक्षा करना ही योग है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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Saturday, October 31, 2015

मोक्ष या स्वर्ग कहीं भौतिक रूप में निवास नहीं करते-अष्टावक्र गीता के आधार पर चिंत्तन लेख(Moksh ya Swarg kahin Niwas nahin karta-Hindi Spiritual Thoguht)

                                   हमारे देश में धर्म के नाम पर अनेक प्रकार के भ्रम फैलाये गये हैं। खासतौर से स्वर्ग और मोक्ष के नाम पर ऐसे प्रचारित किये गये हैं जैसे वह  देह त्यागने के बाद ही प्राप्त होते हैें।  श्रीमद्भागवतगीता के संदेशों का सीधी अर्थ समझें तो यही है कि जब तक देह है तभी तक इंसान अपने जीवन में स्वर्ग तथा मोक्ष की स्थिति प्राप्त कर सकता है। देह के बाद कोई जीवन है, इसे हमारा अध्यात्मिक दर्शन मनुष्य की सोच पर छोड़ता है। अगर माने तो ठीक न माने तो भी ठीक पर उसे अपनी इस देह में स्थित तत्वों को बेहतर उपयोग करने के लिये योग तथा भक्ति के माध्यम से प्रयास करने चाहिये-यही हमारे अध्यात्मिक दर्शन का मानना है।
अष्टावक्र गीता में कहा गया है कि
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मोक्षस्य न हि वासीऽस्ति न ग्राम्यान्तरमेव वा।
अज्ञानहृदयग्रन्थिनाशो मोक्ष इति स्मृतः।।
                                   हिन्दी में भावार्थ-मोक्ष का किसी लोक, गृह या ग्राम में निवास नहीं है किन्तु अज्ञानरूपी हृदयग्रंथि का नाश मोक्ष कहा गया है।
                                   जिस व्यक्ति को अपना जीवन सहजता, सरलता और आनंद से बिताना हो वह विषयों से वहीं तक संपर्क जहां तक उसकी दैहिक आवश्यकता पूरी होती है।  उससे अधिक चिंत्तन करने पर उसे कोई लाभ नहीं होता।  अगर अपनी आवश्यकताआयें सीमित रखें तथा अन्य लोगों से ईर्ष्या न करें तो स्वर्ग का आभास इस धरती पर ही किया जा सकता है। यही स्थिति मोक्ष की भी है।  जब मनुष्य संसार के विषयों से उदासीन होकर ध्यान या भक्ति में लीन में होने मोक्ष की स्थिति प्राप्त कर लेता है।  सीधी बात कहें तो लोक मेें देह रहते ही स्वर्ग तथा मोक्ष की स्थिति प्राप्त की जाती है-परलोक की बात कोई नहीं जानता।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
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Wednesday, October 21, 2015

प्राचीन ग्रंथों के संदेश समझने के बात ही उस पर लिखें-हिन्दी चिंत्तन लेख(PrachinGranthon ke sandesh samjhane ka baat hi us par likhe-Hindi Spiritual thought article)

                                   
                                   अभी हाल ही में एक पत्रिका में वेदों के संदेशों के आधार पर यह संदेश प्रकाशित किया गया कि गाय को मारने या मांस खाने वाले को मार देना चाहिये।  इस पर बहुत विवाद हुआ। हमने ट्विटर, ब्लॉग और फेसबुक पर यह अनुरोध किया था कि उस वेद का श्लोक भी प्रस्तुत किया गया है जिसमें इस तरह की बात कही गयी है। चूंकि हम अव्यवसायिक लेखक हैं इसलिये पाठक अधिक न होने से  प्रचार माध्यमों तक हमारी बात नहीं पहंुंच पाती। बहरहाल हम अपनी कहते हैं जिसका प्रभाव देर बाद दिखाई भी देता है।
बहुत ढूंढने पर ही अथर्ववेद सि यह श्लोक मिला
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आ जिह्वाया मूरदेवान्ताभस्व क्रव्यादो वृष्टबापि धत्सवासन।
हिन्दी में भावार्थ-मूर्खों को अपनी जीभ रूपी ज्वाला से सुधार और बलवान होकर मांसाहारी हिसंकों को अपनी प्रवृत्ति से निवृत्त कर।
                                   हमें संस्कृति शुद्ध रूप से नहीं आती पर इतना ज्ञान है कि श्लोक और उसका हिन्दी अर्थ मिलाने का प्रयास करते हैं।  जहां तक हम समझ पाये हैं वेदों में प्रार्थनाऐं न कि निर्देश या आदेश दिये गये हैं।  उपरोक्त श्लोक का अर्थ हम इस तरह कर रहे हैं कि हमारी जीभ के मूढ़ता भाव को आग में भस्म से अंत कर। अपने बल से हिंसक भाव को सुला दे।
                                   हम फिर दोहराते हैं कि यह परमात्मा से प्रार्थना या याचना है कि मनुष्य को दिया गया आदेश। यह भी स्पष्ट कर दें कि यह श्लोक चार वेदों का पूर्ण अध्ययन कर नहीं वरन एक संक्षिप्त संग्रह से लिया गया है जिसमें यह बताया गया है कि यह चारो वेदों की प्रमुख सुक्तियां हैं।
                                   हम पिछले अनेक वर्षों से देख रहे हैं कि अनेक वेदों, पुराणों तथा अन्य ग्रंथों से संदेश लेकर कुछ कथित विद्वान ब्रह्मज्ञानी होने का प्रदर्शन करते हैं। अनेक प्रचार पाने के लिये धार्मिक ग्रंथों की आड़ में विवाद खड़ा करते हैं।  जिस तरह पाश्चात्य प्रचारक यह मानते हैं कि पुरस्कार या सम्मान प्राप्त करने वाला साहित्यकार मान जायेगा वैसे ही भारतीय प्रचारक भी यह मानते हैं कि गेरुए या सफेद वस्त्र पहनकर आश्रम में रहने वाले ही ज्ञानी है।  उनके अनुसार हम दोनों श्रेणी में नहीं आते पर सच यही है कि ग्रंथों का अध्ययन श्रद्धा करने पर ही ज्ञान मिलता है और वह प्रदर्शन का विषय नहीं वरनृ स्वयं पर अनुंसधान करने के लिये होता है। हमने लिखा था सामवेद में कहा गया है कि ब्रह्मद्विष आवजहि अर्थात ज्ञान से द्वेष करने वाले को परास्त कर। हमारा मानना है कि बिना ज्ञान के धर्म रक्षा करने के प्रयास विवाद ही खड़ा करते हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
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Sunday, October 11, 2015

विशेष रविवारीय दीपकबापू वाणी (Super Sundya Deepak Bapu Wani)



अपने साथी का मनोबल बढ़ायें, कमजोर कंघे भी बोझ उठा लेंगे।
दीपकबापूअहंकार में जीते, लोग संकट में क्यों भीड़ जुटा लेेंगे।
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कोई अंडा चबाये या खाये हलवा, पेशेवर जरूर करेंगे बलवा।
दीपकबापूशेर की खायें जूठन, शातिर भेड़िये पेलते जलवा।।
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लिख लिख कागज किये काले, दूजा तुलसी भया न कोय।
दीपकबापू पाया मान चाकरी से, इतराये जैसे महाकवि होय।।
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पकड़े जायें  नाम होता चोर, छुपे रहे तो कहलाते साहूकार।
दीपकबापूबदनाम डरते हैं, नामी कुकर्म कर भरें हुंकार।।
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भारत की आबादी है जवान, झेले हंसकर सट्टे नशे के बान।
दीपकबापू न रखें बुरा हिसाब, चिंता छोड़ सोयें चादर तान।।
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सड़ा सामान सभी खा रहे, शुद्धता गा गाना भी बजा रहे।
दीपकबापूतन मैला मन छैला, सोई सोच समाज जगा रहे।।
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जिंदगी में बहुत विषय हैं, समझते जिंदगी निकल जायेगी।
दीपकबापूकरें ओम जाप, समझदानी चमक चमक जायेगी।।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Friday, October 02, 2015

स्वच्छता अभियान के एक वर्ष पूर्ण होने पर आंकलन जरूरी(One Year complite of SwaChchhata Abhiyan-A Report)

                                   आज गांधी जयंती पर 25 सितंबर से प्रारंभ स्वच्छता सप्ताह  का समापन हो रहा है।  पिछले 2 अक्टूबर को जो स्वच्छता अभियान प्रारंभ हुआ था उसका आंकलन करें तो परिणाम ठीकठाक रहे हैं। कम से कम राज्य प्रबंध के  स्तर पर संस्थायें स्वच्छता को एक आवश्यक विषय मान रही हैं जबकि पहले उनमें अधिक जागरुकता नहीं थी।  लोगों में भी चेतना आयी है पर जितनी अपेक्षित थी नहीं दिखाई दे रही।
                                   हम जब स्वच्छता की बात करते हैं तो यह बता दें कि बाह्य तथा आंतरिक स्वच्छता जीवन का अभिन्न हिस्सा है।  एक योग साधक तथा गीता ज्ञानाभ्यासी होने पर अगर हम लिखने बैठें तो पूरा ग्रंथ लिख जायें पर उससे समाज लाभान्वित होगा इसकी संभावना नहीं है।  जब हमारी देह, मन और विचार में अस्वच्छता होती है उसे हम स्वयं नहीं देख पाते।  स्वयं की दुर्गंध अनुभूति मनुष्य के चेतनभाव से संपर्क नहंी कर पाती वरन् दूसरे परेशान होते हैं। श्रीमद्भागवत गीता में स्वच्छ स्थान का चयन करने वाला ज्ञानी माना गया है। अब ज्ञानी को स्वच्छ स्थान नहीं मिलेगा तो वह स्वयं तो करेगा ही वरना वह अपने अंतर्मन में  आत्मग्लानि के बोध से ग्रस्त होगा। ज्ञानी का यह भी काम है कि वह जहां गंदगी करे वहां सफाई भी करे।  उसे इस बात की परवाह नहीं करना चाहिये कि उसके परिश्रम का दूसरे को लाभ मिलेगा।
                                   हमने देखा है कि प्रातःकाल ही नहा धोकर पूजा पाठ करने वालों के चेहरे पर एक अजीब प्रकार का आत्मविश्वास दिखता है।  जबकि देर से उठने और नित्य क्रिया करने वालों में वैसी ऊर्जा नहीं दिखाई देती।  बड़े बड़े शहरों के अनेक आधुनिक इलाके जरूर चमकते हैं पर उनके दूरदराज के इलाके छोटे शहरों की अपेक्षा अत्यंत गंदे होते हैं।  अनेक बड़े शहरों में तो श्रमजीवी इतने गंदे इलाके में रहते हैं कि वहां स्वस्थ जीवन की कल्पना करना ही निरर्थक लगती है।  अभी दिल्ली में डेंगू बुखार की चर्चा हो रही है पर हमारा अनुमान है कि उससे कई गुना तो मलेरिया सहित अन्य मौसमी बीमारियों के लोगों की संख्या अधिक होगी जिनके कीटाणु गंदगी पर ही ज्यादा पनपते हैं।
                                   बहरहाल हमारा मानना है कि स्वच्छता अभियान में निरंतर सक्रियता जरूरी है और इसमें राजकीय लोगों से अधिक निजी रूप से जनता को चेतना के साथ गंदगी का निपटारा करना चाहिये।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
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Friday, September 25, 2015

मन की बात से लोकप्रियता में निरंतरता एक कारण-हिन्दी लेख(Man Ki Baat se Lokpriyat mein nirantarta ek karan-Hindi lekh)

                                   एक अमेरिकी अनुसंधान संस्था के अनुसार भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता अभी भी बरकरार है। इस पर अनेक लोगों को हैरानी होती है। आमतौर से राजसी कर्म में लगे लोगों की लोकप्रियता समय के साथ गिरती जाती है जबकि श्रीनरेंद्रमोदी के मामले में यह लक्षण अभी तक नहीं देखा गया। अनुसंधान संस्था ने इस लोकप्रियता में निरंतरता के कारकों का पता नहीं लगाया पर हम जैसे अध्यात्मिक साधकों के लिये यह लोकप्रियता जनता से नियमित संवाद के कारण बनी हुई है।  खासतौर से वह नियमित रूप से रेडियो के माध्यम से जो मन की बात करते हैं उससे आमजन से उनकी करीबी अभी भी बनी हुई है।
कौटिल्य अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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वार्ता प्रजा सधयन्ति वार्त वै लोक संश्रय।
प्रजायां व्यसनस्थायां न किञ्चिदपि सिध्यति।।
हिन्दी में भावार्थ-वार्ता ही प्रजा को साधती है, वार्ता ही लोक को आश्रित करती है। यदि व्यसनी हो जाये तो कुछ भी सिद्ध नहीं हो सकता।
                                   राजसी कर्म एक ऐसा विषय है जिसमें सभी को एक साथ प्रसन्न नहीं रखा जा सकता है।  लोग आशा रखते हैं किसी की पूरी होती तो किसी को निराशा हाथ आती है।  ऐसी स्थिति से निपटने का एक ही उपाय रहता है कि गुड़ न दे तो गुड़ जैसी बात दे।  आमतौर जीवन निर्वाह के लिये राजसी कर्म करना ही पड़ता है। हर व्यक्ति अपने परिवार, समाज, या सार्वजनिक जीवन में राजसी पद पर होता ही है। ऐसे में उसे अपने पर आश्रित लोगों के साथ सदैव वार्ता करते रहना चाहिये।  किसी को उसकी सफलता पर बधाई तो देना चाहिये पर निराश व्यक्ति का भी मनोबल बढ़ाना भी आवश्यक है।  मनुष्य अपनी वाणी से न केवल अपने बल्कि दूसरे के भी काम सिद्ध कर सकता है पर अगर वह व्यसनी हो जाये तो सारे प्रयास निरर्थक हो जाते हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
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Wednesday, September 16, 2015

छिपाने के बहाने करते-हिन्दी कविता(Chhipane ke bahane karate-HindiPoem)


काम करना आता नहीं
अपनी कमजोरी
छिपाने के बहाने करते।

ज़माने के भले का ठेका लिया
कमजोर नीयत है
छिपाने के बहाने करते।

कहें दीपकबापू नकारा लोगों की
मधुर बातों से
कई बार धोखा खाया
अब तो डराती है
सभ्य चेहरे की भी छाया
होठों पर हंसी होती
वही दिल के कुटिल इरादे
छिपाने के बहाने करते।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
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Friday, September 11, 2015

हिन्दी में लिखना भी एक तरह से व्यसन है-14 सितंबर 2015 पर हिन्दी दिवस पर नया पाठ(Writting ih Hindi As Adiction-New post on hindi diwas, hindi day,specil hindi article)

                                    एक सप्ताह में अगर किसी ब्लॉग लेखक के पाठ अगर अंतर्जाल पर दो लाख से ज्यादा पाठकों के सामने दिखते हैं तो उसकी लोकप्रियता की कौनसी श्रेणी में रखना चाहिये?
14 सितम्बर हिन्दी दिवस मनाया जाता है। हम अंतर्जाल पर सन् 2007 से हिन्दी दिवस पर अनेक पाठ लिख चुके हैं। हमें यह पता नहीं है कि इंटरनेट पर अन्य हिन्दी लेखकों की क्या स्थिति है पर इतना जानते हैं कि अगर हिन्दी की बात हो तो कम से कम हमें प्रोत्साहित करने वाला एक भी शख्स नहीं मिला।  अगर स्वप्रेरणा और लेखन का व्यसन न होता तो शायद निरंतर नहीं लिख पाते।  आखिर हमने अंतर्जाल पर लिखते हुए क्या पाया? अगर अर्थ की बात है तो सब निरर्थक रहा पर अगर ज्ञान की बात है तो वह स्वर्णिम भंडार बढ़ता ही रहा है।  कबीर, चाणक्य, विदुर, भर्तृहरि, रहीम, मनु और कौटिल्य के अर्थशास्त्र पर जितना समझा उससे कम ही लिख पाये।  श्रीमद्भागवत गीता और गुरुग्रंथसाहिब के अभ्यास ने तो मानसिक रूप से इतना परिपक्व बना दिया है कि अपने लिखे पाठों की प्रतिक्रिया के इंतजार अब आंखें या मन नहीं थकाते। लिखने में परिश्रम बहुत होता है पर लेखन के व्यसन ने हमेशा ही साथ दिया।
                                   दरअसल हमने यह पाठ 14 सितंबर हिन्दी दिवस 2015 के अवसर पर अपने ब्लॉगों पर पाठक संख्या की बढ़ती संख्या को देखते हुए लिखा। कल सभी ब्लाग पर करीब 20 हजार पाठ पाठन पाठक संख्या थी।  13 सितंबर तक यह संख्या चालीस हजार तक पहुंच सकती है।  करीब एक सप्ताह में दो लाख से अधिक पाठक इस लेखक के पाठों के संपर्क में आयेंगे। असंगठित, स्वतंत्र और अध्यात्मिक लेखक होने के नाते इतनी संख्या अंतर्जाल पर जुटाना अपने आप में एक जोरदार अनुभव होगा। हिन्दी में लिखने के व्यसन का आनंद इसी हिन्दी सप्ताह में अधिक ही आता है।
इधर विश्व हिन्दी सम्मेलन हो रहा है इसमें इस बात पर अवश्य ध्यान दिया जाना चाहिये कि अगली पीढ़ी कागज पर नहीं वरन् कंप्यूटर अंतर्जाल के लिये लिखेगी। अंतर्जाल पर हिन्दी लिखने की स्वाभाविक सुविधायें जुटाने का विचार विश्वहिन्दीसम्मेलन में होना चाहिये। शेष लिखते ही रहेेंगे।
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Wednesday, September 02, 2015

आज ट्विटर पर चर्चा के विषयों पर संक्षिप्त लेख(today disscusion on Twitter public subject)


         मजदूर नेता निंरतर आंदोलन चलाने में दैहिक तथा मानसिक श्रम से बचने के लिये हड़ताल करवाते हैं। मजदूरनेता अब कमरे के अंदर और बाहर अलग रवैये के कारण श्रमजीवियों के विश्वासपात्र नहीं रहे। श्रम संगठनों के नेता भारतीय इतिहास में मजदूरों के हित के लिये हुए एक भी सफल आंदोलन का नाम नहीं बता सकते। हमारा मानना है कि प्रबंधक अगर श्रमिक वर्ग से से  सीधे संपर्क में रहकर उनकी समस्यायें हल करें तो मजदूर नेता बेकार हो जायेंगे। कथित श्रमिकनेता अधिकारी तथा कर्मचारी के बीच सेतु की बजाय दलाल बनकर अपना हित साधते हैं। उनकी विश्वसनीयता कम हुई है। हालांकि हमारा मध्यम तथा मजदूर वर्ग की खुशहाली के बिना देश खड़ा नहीं रह सकता इसलिये उस पर ध्यान देना चाहिये। बंद और हड़ताल से जनमानस में कर्मचारियों की छवि खराब होने के साथ सहानुभूति भी खत्म होती है।
          देश का प्रबंध दिल्ली से चले या नागपुर से आम आदमी को तो अपने हित से मतलब है। राष्ट्रीयस्वयंसेवकसंघ एक सामाजिक संगठन है। समाज निर्माण में राजसीकर्म आवश्यक है जो राजसी बुद्धि से ही होते हैं। वनरैंकवनपैंशन पर राष्ट्रीयस्वयंसेवक संध के प्रयासों से यह जाहिर हो गया है कि वह राष्ट्रवाद का पोषक है। आमभारतीय नागरिक की दृष्टि में राष्ट्रीयस्वयंसेवकसंघ में एक ऐसा संगठन है जो भारतीय ज्ञान, दर्शन और समाज की रक्षा के लिये काम करता है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Thursday, August 27, 2015

सरकारी सेवाओं में अब कुशल प्रबंध की योग्यता वाले होना चाहिये-हिन्दी चिंत्तन लेख(best menager apoint in Governement service of country devlopment-hindi article)


                                   किसी जाति, भाषा या धर्म के लोगों को सरकारी सेवाओें में आरक्षण दिलाने के नाम पर आंदोलनकारी लोग कभी अपने अपने समाज के नेताओं से यह पूछें कि क्या वास्तव में देश के सरकारी क्षेत्र  उनके लिये नौकरियां कितनी हैं? सरकार में नौकरियों पहले की तरह मिलना क्या फिर पहले की तरह तेजी से होंगी? क्या सभी लोगों को नौकरी मिल जायेगी।
                                   सच बात यह है कि सरकारी क्षेत्र के हिस्से का बहुत काम निजी क्षेत्र भी कर रहा है इसलिये स्थाई कर्मचारियों की संख्या कम होती जा रही है।  सरकारी पद पहले की अपेक्षा कम होते जा रहे हैं। इस कमी का प्रभाव अनारक्षित तथा आरक्षित दोनों पदों पर समान रूप से हो रहा है।  ऐसे में अनेक जातीय नेता अपने समुदायों को आरक्षण का सपना दिखाकर धोखा दे रहे हैं।  समस्या यह है कि सरकारी कर्मचारियों के बारे में लोगों की धारणायें इस तरह की है उनकी बात कोई सुनता नहीं।  पद कम होने के बारे में वह क्या सोचते हैं यह न कोई उनसे पूछता है वह बता पाते है।  यह सवाल  सभी करते भी हैं कि सरकारी पद कम हो रहे हैं तब इस  तरह के आरक्षण आंदोलन का मतलब क्या है?
                                   हैरानी की बात है कि अनेक आंदोलनकारी नेता अपनी तुलना भगतसिंह से करते है।  कमाल है गुंलामी (नौकरी) में भीख के अधिकार (आरक्षण) जैसी मांग और अपनी तुलना भगतसिंह से कर रहे हैं। भारत में सभी समुदायों के लोग शादी के समय स्वयं को सभ्रांत कहते हुए नहीं थकते  और मौका पड़ते ही स्वयं को पिछड़ा बताने लगते हैं।
             हमारा मानना है कि अगर देश का विकास चाहते हैं तो सरकारी सेवाओं में व्याप्त अकुशल प्रबंध की समस्या से निजात के लिय में कुशलता का आरक्षण होना चाहिये। राज्य प्रबंध जनोन्मुखी होने के साथ दिखना भी चाहिये वरना जातीय भाषाई तथा धार्मिक समूहों के नेता जनअसंतोष का लाभ उठाकर उसे संकट में डालते हैं। राज्य प्रबंध की अलोकप्रियता का लाभ उठाने के लिये जातीय आरक्षण की बात कर चुनावी राजनीति का गणित बनाने वाले नेता उग आते हैं। जातीय आरक्षण आंदोलन जनमानस का ध्यान अन्य समस्याओं से बांटने के लिये प्रायोजित किये लगते हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
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Saturday, August 22, 2015

निष्काम भाव ही आनंद से रहने का उपाय-हिन्दी चिंत्तन लेख(mishkam bhaw hi anand se rahane ka upay-hindi religion thought article)


                                   कर्म तीन प्रकार होता है-सात्विक, राजसी और तामसी। हम यहां राजसी कर्म  फल और गुण की चर्चा करेंगे।  अहंकार, क्रोध, लोभ, मोह तथा काम के वशीभूत ही राजसी कर्म होते हैं। अतः ज्ञानी लोग कभी भी राजसी कर्म में तत्पर लोगों से सात्विकता की आशा नहीं करते। आज के संदर्भ में देखा जाये तो प्रचार माध्यमों में राजसी कर्म में स्थित लोग विज्ञापन के माध्यम से सात्विकता का प्रचार करते हैं पर उनके इस जाल को ज्ञानी समझते हैं।  पंचसितारा सुविधाओं से संपन्न भवनों में रहने वाले लोग सामान्य जनमानस के हमदर्द बनते हैं।  उनके दर्द पर अनेक प्रकार की  संवदेना जताते हैं।  सभी कागज पर स्वर्ग बनाते हैं पर जमीन की वास्तविकता पर उनका ध्यान नहीं होता।  हमने देखा है कि अनेक प्रकार के नारे लगाने के साथ ही वादे भी किये जाते हैं पर उनके पांव कभी जमीन पर नहीं आते।
                                   इसलिये जिनका हमसे स्वार्थ निकलने वाला हो उनके वादे पर कभी यकीन नहीं करना चाहिये। सात्विकता का सिद्धांत तो यह है कि निष्काम कर्म करते हुए उनका मतलब निकल जाने दें पर उनसे कोई अपेक्षा नहीं करे। आजकल के भौतिक युग में संवेदनाओं की परवाह करने वाले बहुत कम लोग हैं पर उन पर अफसोस करना भी ठीक नहीं है।  सभी लोगों ने अपनी बुद्धि पत्थर, लोहे, प्लास्टिक और कांच के रंगीन ढांचों पर ही विचार लगा दी है।  मन में इतना भटकाव है कि एक चीज के पीछे मनुष्य पड़ता है तो उसे पाकर अभी दम ही ले पाता है कि फिर दूसरी पाने की इच्छा जाग्रत होती है।  जिन लोगों को लगता है कि उन्हें सात्विकता का मार्ग अपनाना ठीक है उन्हें सबसे पहले निष्काम कर्म का सिद्धांत अपनाना चाहिये।  किसी का काम करते समय उससे कोई अपेक्षा का भाव नहीं रखना चाहिये चाहे भले ही वह कितने भी वादे या दावा करे।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Saturday, August 15, 2015

सांसरिक विषय तथा अध्यात्मिक ज्ञान के सिद्धांत नहीं बदलते(sansrik vishay tathaa adhyatmik gyan ke siddhant nahin badalte)


                                   क्या कंप्यूटर पर काम करने से मस्तिष्क पर प्रभाव पड़ता है? पड़ता होगा हमें क्या? पिछले तेरह वर्ष से कंप्यूटर पर काम करते हुए हो गये पर हमें ऐसा नहीं लगा कि कोई मस्तिष्क पर हानि हो रही हो।  इसका कारण यह भी हो सकता है कि हमने कंप्यूटर पर सतत आंखें गढ़ाने का काम नहीं किया।  रचनात्मक काम करने वाले फालतू की साईटों पर दिमाग नहीं खपाते।  दूसरा यह कि जब हम कंप्यूटर पर पर टकण करते हैं तो मस्तिष्क शब्द चिंत्तन पर भी रहता है इसलिये आंखें पर्दे पर कम ही देखती हैं।  बहरहाल हमारा सवाल यह है कि कंपनियों के बासी फूड खाने से ज्यादा कंप्यूटर पर काम करना खतरनाक हैलोगों ने आजकल खाने पीने के साथ ही रहन सहन  का तरीका ही बदल दिया है जिससे देह में स्वास्थ्य का स्तर कम हो गया है जिसका मस्तिष्क पर दुष्प्रभाव पड़ना ही है ऐसे में कंप्यूटर पर काम करते हुए वह बढ़ भी सकता है।
                                   हमें कंप्यूटर से ज्यादा थकाने का काम तो स्मार्ट फोन से जूझना लगता है।  कंप्यूटर पर दोनों हाथों से काम करते हुए इतना दबाव नहीं रहता जितना स्मार्टफोन पर होता है।  इधर समस्यायें भी आ रही हैं। कुछ रचनात्मक मित्र ईमेल पर संदेश देते थे अब वह कहते हैं कि स्मार्टफोन पर व्हाटसअप पर देखो।  उनको तो बस फोटो भेजने हैं पर उनको देखना हमें कष्टप्रद लगता है।  इधर समाज में शिकायत है कि हम कंप्यूटर पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं और मनुष्य जाति के प्रति उपेक्षा का भाव हो गया है।  अनेक बार हम इससे हटकर सामाजिकता भी करने चले जाते हैं पर इधर योग साधना और श्रीगीता के अभ्यास ने हमें इतना एकाकी बना दिया है कि निरर्थक विषयों पर चर्चा करना अजीब लगता है। अनेक बार तो लगता है कि हमने सामूहिक वार्तालाप में समय व्यर्थ ही बरबाद किया। इससे तो अच्छा होता कि कंप्यूटर पर कविता लिख कर अपने रचनाधर्मी होने का भ्रम ही पाल लेते।  हालांकि जब हमें व्यंग्य की तलाश होती है तो वह समाज में सामूहिक जगह पर ही मिलता है। एकांत में चिंत्तन से निकले निष्कर्ष का प्रयोग भी भीड़ में करना अच्छा रहता है।
                                   हमने ज्ञान की साधना से यह निष्कर्ष तो निकाला ही है कि सांसरिक व्यवहार में चेहरे, रिश्ते और विषय समय के हिसाब से जरूर बदलते पर  हमेशा प्रकृति के निश्चित सिद्धांतों के अनुसार ही हमारे सामने वह आते हैं।  संसार का मूल रूप वही है जो हजारों वर्ष पहले था।  सांसरिक विषयों के सिद्धांत उसी तरह नहीं बदल सकते जैसे अध्यात्मिक ज्ञान के नहीं बदले।  जो दोनों विषयों के सिद्धांतों को समझ लेगा वह हमेशा ही आनंद में रहेगा।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
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