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Wednesday, August 31, 2011

श्री गुरु ग्रंथ साहिब से-सृष्टि का ज्ञान केवल परमात्मा के पास ही है (shri suru granth sahib-srishti aur parmatma)

         विश्व इतिहास में अनेक विद्वान हो गये पर वह इस बात का पता नहीं लगा सके कि इस सृष्टि का प्रारंभ कब और कहां से हुआ। सच तो यह है कि धर्म के ठेकेदार तमाम तरह के दावे करते हैं कि इस सृष्टि में तो बस एक ही आकाश, धरती और पाताल है जबकि पश्चिमी वैज्ञानिकों का मानना है कि अन्य जगह भी इस तरह की सृष्टि होने की संभावना हो सकती है। इस विषय पर अनेक शोध चल रहे हैं पर लगता नहीं है कि अभी निकट भविष्य में कोई वास्तविक रहस्य खोज पायेगा। यह बात अलग है कि इस विषय पर धर्म की आड़ लेकर अनेक बहसें होती हैं और कुछ लोग मानसिक विलास करते हैं। कोई कहता है कि परमात्मा एक है तो अनेक लोग कहते हैं कि परमात्मा तो अनंत है फिर कैसे माना जाये कि वह एक या अनेक।
गुरु ग्रंथ साहिब में कहा गया है कि
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थिति वारु न जोगी जाणै, रुति माह न कोई।
जा करता सिरठी कउ साजे, आपे जाणै सोई।।
          ‘‘बड़े बड़े ज्ञानी इस सृष्टि  का आदि और अंत नहीं जान सके। जिस समय इस सृष्टि की रचना हुई उस समय यहां क्या था यह केवल परमात्मा ही जान सकता है।
इह अंत जाणै कोई।
पाताला पाताल लख आगासा, आगास।
तिथे खंड मंडल चरभेंड।
             ‘‘इस सृष्टि के आदि और अंत को कोई नहीं जान सकता क्योंकि इसें आखों आकाश और पाताल हैं। इसकी रचना किसी कालखंड में हुई इसका ज्ञान तो केवल परमात्मा कोई ही हो सकता है।’’
         इन बहसों में उलझने से अच्छा है कि आदमी नाम स्मरण कर अपना जीवन बिताये। मुख्य बात यह है कि मनुष्य का मन एकरसता से ऊब जाता है। नियमित धनसंग्रह, परिवार का पालन पोषण तथा मनोरंजन करते हुए मनुष्य का मन कुछ विराम चाहता है जो केवल ध्यान की प्रक्रिया से ही संभव है। विश्व के स्वास्थ्य विशेषज्ञ मानते हैं कि सांसरिक विषय ये अलग हटकर एकांत में ध्यान करने से मनुष्य को नवीनता अनुभव होती है। भारतीय दर्शन भी ध्यान के इर्दगिर्द ही अपना लक्ष्य निर्धारित करने का संदेश देता है। चूंकि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के संदर्भ ग्रंथों में अनेक रुचिकर कथायें हैं तो लोग उनका श्रवण और अध्ययन मनोरंजन की दृष्टि से करते हैं इसलिये उनका ध्यान सांसरिक भोग पदार्थों से विरक्त नहीं हो पाता। कुछ लोग सृष्टि के निर्माण की चर्चा करते हैं तो कुछ उस पर अपने व्यख्यान देकर अपने आपको ज्ञानी सिद्ध करते हैं मगर सच यही है कि इस सृष्टि के सही स्वरूप का ज्ञान किसी को नहीं है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Friday, August 26, 2011

कबीर दास जी के दोहे-सत्संग में जाने से मन का संताप दूर हो जाता है (kabir das ke dohe-satsang se santap door ho jata hai)

        यह सही है कि हमारे अध्यात्मिक दर्शन में हर तरह की भक्ति को स्वीकार किया जाता है पर उसमें कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि कोई जगह सिद्ध है या कहीं जाने से अमुक लाभ होता है। साकार और निराकार भक्ति दोनों को हृदय से करने पर मनुष्य को लाभ होता है पर यह तभी संभव है जब वह निष्काम भाव से की जाये।
         हमारे अध्यात्मिक दर्शन में निराकार और निष्काम भक्ति की धारण को प्रतिपादित किया गया है पर यह केवल ज्ञानी लोगों के लिये ही संभव है। सामान्य लोगों के लिये यह कठिन है और शायद इसलिये मूर्तिपूजा के माध्यम से उसे ध्यान लगाने की कोशिश को मान्यता दी गयी। यह अच्छी बात है पर इससे हुआ यह कि कुछ लोगों ने अपनी व्यवसायिक सुविधा के लिये मूर्तियों मंदिरों और पहाड़ों की सिद्धि का प्रचार किया। जिससे देश में अनेक तीर्थकेंद्र बन गये और वहां जाना ही धर्म का निर्वाह घोषित किया गया। जैसे जैसे समाज भौतिकता के विकास में उलझा उसका विवेक सिकुड़ता गया। मगर मन तो मन है वह आदमी को नचाता है। जिनके पास धन है वह उसे खर्च कर सिद्ध स्थानों पर पर्यटन की दृष्टि से जाते हैं तो जिनके पास समय है वह भी कष्ट उठाकर वहां अपनी आस्थाओं निभाने जाते हैं। एक तरह से यह मान लिया गया है कि भक्ति रूपी यह मनोरंजन ही प्रसन्न रहने का साधन है। ज्ञान चर्चा और सत्संग को तो भक्ति का रूप ही नहीं माना जाता है जबकि मन और विचारों की शुद्धि के लिये यही आवश्यक है।
कबीरदास जी कहते हैं कि
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कबीर कलह रु कल्पना, सत्संगति से जाय।
दुख वासो भागा फिरै, सुख में रहै समाय।।
          मन की सभी प्रकार की कलह और कल्पनायें सत्संगति से परे होती हैं। ऐसे में दुख भी उससे भागा फिरता है और आदमी का मन सुखी रहता है।’’
मथुरा काशी द्वारिका हरिद्धार जगनाथ।
साधु संगति हरिभजन बिन, कछु न आवै हाथ।।
           ‘‘चाहे मथुरा हो या काशी, द्वारिका, हरिद्वार और जगन्नाथ हो उसे घूमने से कुछ हाथ नहीं आता। इससे अच्छा तो साधु संगति और हरिभजन में लिप्त होने से मन वैसे ही प्रसन्न होता है।’’
           जिन महापुरुषों ने मूर्तिपूजा को मान्यता दी होगी उनका उद्देश्य यही रहा होगा कि अभ्यास करते हुए कालंातर में लोग निराकार की कल्पना करने लगेंगे पर हुआ यह कि लोग केवल से ही भक्ति समझने लगे हैं। परिणाम यह है कि हमारे देश में भक्तिभाव के नाम पर धार्मिक स्थानों पर भारी भीड़ लगती है पर जब उसका प्रभाव देखते हैं तो आचरण में निरंतर आती गिरावट निराश करती है। लोग भक्ति करते हैं पर तनाव मुक्त नहंी दिखते। इसका मतलब साफ है कि सत्संग और ज्ञान चर्चा से जब तक विचार और मन की शुद्ध नहीं होगी तब मनुष्य शांति नहीं पा सकता।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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Saturday, August 20, 2011

भारतीय धर्म दर्शन-आत्महत्या करना धर्म विरुद्ध कार्य (sucide is anti religion-hindu dharma darshan)

            आमतौर से भारत की लंबे समय तक पूरे विश्व में एक अच्छी यह पहचान रही है कि यहां के लोग आत्महत्या जैसी वारदात से दूर रहते थे। इसका कारण यही था कि भारत में अधिकांश लोेग अपने आध्यात्मिक ग्रंथों के ज्ञान से परिपूर्ण थे। यहां तक कि उनका अध्ययन न करने वाले लोग भी इधर उधर प्रवचन सुनकर या चर्चाओं के माध्यम से इतने ज्ञानी तो हो ही जाते हैं कि सुख दुःख को जीवन का हिस्सा समझकर उनका सेवन और सामना करते हैं। भले ही भारतीय शिक्षा पद्धति में अध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन शामिल नहीं है पर लोग अपने परिवार के बड़े सदस्यों के माध्यम से इनकी विषय सामग्री से परिचित रहते हैं। अब स्थिति बदल रही है। अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के चलते आज की बुजुर्ग पीढ़ी भी अपने अध्यात्मिक ग्रंथ से दूर हो गयी है तो फिर नयी पीढ़ी से से कोई अपेक्षा करना व्यर्थ ही है।
         फिर जिस तरह पाश्चात्य सभ्यता, अर्थव्यवस्था और संस्कृति का अनुसरण किया गया है तो वहां के दुष्परिणामों का प्रकटीकरण भी हो रहा है। पहले यह खबरे आती थीं कि वहां त्यौहारों के अवसर अपने अनेक लोग आत्महत्या करते हैं। दुनियां के सबसे संपन्न देशों में जापान माना जाता है पर वहां के लोगों की हाराकिरी पद्धति प्रसिद्ध है जिसमें आदमी अपनी देह को त्याग देता है। भौतिकता की तरफ बढ़ चुके हमारे समाज मेें भी अब आत्महत्या की घटनायें बढ़ रही हैं। इसका कारण कारण यह है कि भौतिकता का पर्वत सभी नहीं चढ़ सकते पर लोगों  का मन केवल यही चाहता है कि उसे वह सारी सुविधायें मिलें जो दूसरे अमीरों को मिलती हैं। न मिलने पर आत्महत्या जैसी घटनायें हो जाती हैं।
भारतीय धर्मग्रंथों में कहा गया है कि
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आत्मत्यागनि पतिताश्च नाशौचोदकभाजः।
               ‘‘आत्म हत्या करने वाला तथा पतित जीवन बिताने वाले मनुष्य का न तो अशौच होता है न ही वह जलांजलि और श्राद्ध के भागी होते हैं।’’
          आत्महत्या करना प्रकृति के प्रति कितना बड़ा अपराध है इस बात से भी समझा जा सकता है कि ऐसा करने वालों को जलांजलि देना या उनका श्राद्ध करना भी धर्म से परे माना जताा है। मूल बात यह है कि समय के अनुसार सुख दुःख आते जाते हैं उनके लिये प्रसन्न होना या दुःखी होना अज्ञानियों का काम है। परमातमा के आस्था रखने वाले बड़ी दृढ़ता से स्थितियों का सामना करते हैं। हमारे देश के सामाजिक विशेषज्ञ देश में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति से चिंतित हैं पर उसके हल के लिये कोई उपाय नहीं सुझा जा सकता है। हमारा मानना है कि इसका सबसे अच्छा उपाय यह है कि भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों से उचित सामग्री इन पाठ्यक्रमों में शामिल करना चाहिए। हमारे देश के युवाओं में आत्महत्या की प्रवृत्ति तेजी बढ़ रही है। इसके कारणों की व्यापक खोज होना चाहिए। देश के अनेक समाज विशेषज्ञ और बुद्धिजीवी इससे चिंतित हैं पर इससे बचने के उपायों पर अधिक विचार नहंी किया जा रहा है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Monday, August 15, 2011

संत कबीरदास-कर्मकांडों में ही धर्म नहीं होता (karmkand aur dharma-sant kabirdas)

          मूलतः भारतीय समाज प्रगतिवादी माना जाता है। हालांकि कुछ विदेशी भारतवासियों की धर्मभीरुता का मजाक उड़ाते हैं पर जिस तरह हमारा समाज समय के अनुसार नई शिक्षा, विज्ञान तथा साधनों के उपयोग की तरफ प्रवृत्त होता है उससे यह प्रमाणित होता है कि रूढ़ता का भाव उसमें नहीं है पर इसके बावजूद फिर भी धर्म के नाम पर अनेक कर्मकांड हैं जिसे लोग केवल सामाजिक दबाव में इसलिये अपनाते हैं कि लोग क्या कहेंगे। आधुनिक शिक्षा से जीवन में आगे बढ़े लोग भी अंधविश्वास और कर्मकांडों पर इसलिये विश्वास करते दिखते हैं क्योंकि उन पर कहीं न कहीं से दूसरे लोगो का दबाव होता है। स्थिति यह है कि अनेक धार्मिक ठेकेदार तो इन्हीं कर्मकांडों को ही धर्म का आधार कहकर प्रचारित करते हैं।
            इस विषय पर संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि
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            ‘कबीर’ मन फूल्या फिरै, करता हूं मैं ध्रंम।
                कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रम।।
          "आदमी अपने सिर पर कर्मकांडों का बोझ ढोते हुए फूलता है कि वह धर्म का निर्वाह कर रहा है। वह कभी अपने विवेक का उपयोग करते हुए इस बात का विचार नहीं करता कि यह उसका एक भ्रम है।"
              संत कबीरदास जी ने अपने समाज के अंधविश्वासों और कुरीतियों पर जमकर प्रहार किये हैं। कितने आश्चर्य की बात है कि अनेक संत और साधु उनके संदेशों को ग्रहण करने का उपदेश तो देते हैं पर समाज में फैले अंधविश्वास और कर्मकांडों पर खामोश रहते हैं। आदमी के जन्म से लेकर मृत्यु तक ढेर सारे ऐसे कर्मकांडों का प्रतिपादन किया गया है जिनका कोई वैज्ञानिक तथा तार्किक आधार नहीं है। इसके बावजूद बिना किसी तर्क के लोग उनका निर्वहन कर यह भ्रम पालते हैं कि वह धर्म का निर्वाह कर रहे हैं। किसी कर्मकांड को न करने पर अन्य लोग नरक का भय दिखाते हैं यह फिर धर्म भ्रष्ट घोषित कर देते हैं। इसीलिये कुछ आदमी अनचाहे तो कुछ लोग भ्रम में पड़कर ऐसा बोझा ढो रहे हैं जो उनके दैहिक जीवन को नरक बनाकर रख देता है। कोई भी स्वयं ज्ञान धारण नहीं करता बल्कि दूसरे की बात सुनकर अंधविश्वासों और रूढ़ियों का भार अपने सिर पर सभी उसे ढोते जा रहे हैं। इस आर्थिक युग में कई लोग तो ऋण लेकर ऐसी परंपराओं को निभाते हैं और फिर उसके बोझ तले आजीवन परेशान रहते हैं। इससे तो अच्छा है कि हम अपने अंदर भगवान के प्रति भक्ति का भाव रखते हुए केवल उसी कार्य को करें जो आवश्यक हो। अपना जीवन अपने विवेक से ही जीना चाहिए।
लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',ग्वालियर
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Friday, August 12, 2011

कबीर दर्शन-शिष्य न समझे तो गुरु को दोष देना व्यर्थ (shisya n samajhe to guru ka dosh nahin)

                लोग एकदूसरे से पूछते हैं कि आज के गुरु भी भ्रष्ट और अज्ञानी हैं ऐसे में किससे ज्ञान प्राप्त किया जाये? देखा जाये तो ऐसे गुरुओं की उपस्थिति हर काल में रही है जो अध्यात्मिक दर्शन का व्यापार करते हैं। उनका लक्ष्य कोई धर्म का प्रचार करना नहीं होता बल्कि वह शिष्यों को ग्राहक बनाकर अपना रटा हुआ ज्ञान बेचते है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि हमारे देश में गुरु शिष्य की उच्च परंपरा रही है पर उसकी आड़ में ऐसे गुरुओं और शिष्यों की भरमार भी रही है जो पाखंड तथा ढोंग कर धर्म का दिखावा करते हैं। शिष्य जहां धर्म और अध्यात्म से इतर अपने अन्य लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये गुरु बनाते हैं तो गुरु भी अपने निकट ऐसे ही शिष्यों को आने देते हैं जो उनके धर्म के व्यापार में दलाल की भूमिका निभा सके हैं।
         संत कबीर कहते हैं कि
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        गुरवा तो सस्ता भया, पैसा केर पचास।
       राम नाम धन बेचि के, शिष्य करन की आस।।
        ‘‘गुरु का पद तो सस्ता हो गया है। पैसा हो तो पचास गुरु बन जाते हैं। यह गुरु स्वयं राम नाम का धन बेचते हैं और शिष्य से अपनी उदरपूर्ति की आशा करते हैं।
       गुरु बिचारा क्या करे, शब्द न लागा अंग।
        कहें कबीर मैली गजी, केसे लागे रंग।।
      ‘‘कोई गुरु भी क्या करे कि उसके शब्दों का प्रभाव शिष्यों पर नहीं होता। उनके मन उसी तरह मैले हैं जिस तरह गंदा कपड़ा होता है जिस पर रंग चढ़ाना व्यर्थ हो जाता है।’’
              योग्य गुरु तथा शिष्य का संयोग बड़े भाग्य से बनता है। अगर कोई गुरु योग्य है तो उसके शिष्यों में मन में ज्ञान प्राप्त करने की बजाय दिखावे की प्रवृत्ति अधिक है। वह उसके ज्ञान को केवल मनोरंजन का विषय मानकर सुनते है। प्रवचन और सत्संग के बाद उनका घर जाकर जस की तरह आचरण हो जाता है। उसी तरह अगर कोई गुरु ज्ञानी है पर उसके पास अच्छे प्रबंधक और प्रचारक शिष्य नहीं है तो उसे कोई नहीं पूछता। यही स्थिति उन जिज्ञासु लोगों की भी है जो अपने लिये आध्यात्मिक गुरु ढूंढते हैं पर व्यवसायिक गुरुओं की बहुतायत होने के कारण वह निराश हो जाते हैं। हालांकि ऐसे में श्रीमद्भागवत गीता तथा अन्य धर्मग्रंथों का नियमित अध्ययन किया जाये तो ऐसे पावन ग्रंथ स्वतः गुरु बन जाते हैं। महर्षि चाणक्य कहते हैं कि प्रतिदिन एक पाठ और वह भी नहीं तो एक दोहे या श्लोक का अध्ययन कर भी ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। वह भी नहीं तो आधे श्लोक या दोहे का अध्ययन करें। गुरु का अर्थ यह कदापि नहीं है कि वह सदेह हा सामने हो एकलव्य का अभ्यास इस बात की पुष्टि भी करता है। मूल बात संकल्प की है और वह धारण कर लिया तो फिर ज्ञानमार्ग का द्वार स्वतः खुल जाता है।
लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',ग्वालियर
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Tuesday, August 09, 2011

वेद शास्त्रों से-परिश्रम के प्रेरक है भगवान विष्णु नारायण (ved shastron se-prishram ke prerak bhagwan vishnu narayan)

       यह आश्चर्य की बात है कि प्रकृति ने मनुष्य को देह, बुद्धि और मन की दृष्टि से अन्य जीवों की अपेक्षा सर्वाधिक शक्तिशाली जीव बनाया है तो सबसे अधिक आलसी भाव भी प्रदान किया। अधिकतर लोग लोग अपने तथा परिवार के स्वार्थ सिद्ध करने के बाद आराम करना चाहते है और परमार्थ उनको निरर्थक विषय लगता है जबकि पुरुषार्थ का भाव निष्काम कर्म से ही प्रमाणित होता है। उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस देह से मनुष्य संसार का उपभोग करता है उसका ही महत्व नहीं समझता और भोगों में उसका नाश करता है। जिससे अंत समय में रोग उसके अंतिम सहयात्री बन जाते हैं और मृत्यु तक साथ रहते हैं।
      योग साधना, ध्यान, भजन और उद्यानों की सैर करने से जो देह के साथ मन को भी जो नवीनता मिलती है उसका ज्ञान अधिकतर मनुष्यों को नहीं रहता। सच बात तो यह है कि शरीर और मन को प्रत्यक्ष रूप से प्रसन्न करने वाले विषय मनुष्य को आकर्षित करते है और वह इसमें सक्रिय होकर जीवन भर प्रसन्न रहने का निरर्थक प्रयास करत है। वह अपनी इसी सक्रियता को पुरुषार्थ समझता है जबकि अप्रत्यक्ष लाभ देने वाले योगासन, ध्यान, भजन तथा प्रातः उद्यानों में विचरण करना उसे एक निरर्थक क्रिया लगती है। सीधी बात कहें तो इस अप्रत्यक्ष लाभ के लिये निष्काम भाव से इन कर्मो में लगना ही पुरुषार्थ कहा जा सकता है।
हमारे पावन ग्रंथ सामवेद में कहा गया है कि
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विष्णोः कर्माणि पश्चत यतो व्रतानि पस्पशे।
‘‘भगवान विष्णु के पुरुषार्थों को देखो और उनका स्मरण करते हुए अनुसरण करो।’
ऋतस्य पथ्या अनु।
‘‘ज्ञानी सत्य मार्ग का अनुसरण करते हैं।’’
‘प्रेता जयता नर।’
आगे बढ़ो और विजय प्राप्त करो।’’
      पुरुषार्थ करना मनुष्य का धर्म है और इसके लिये जरूरी है कि सत्य को मार्ग का अनुसरण किया जाये। आजकल जल्दी धनवान बनने के लिये असत्य मार्ग को भी अपनाने लगते हैं और उनको कामयाबी भी मिल जाती है पर जब उनको इसका दुष्परिणाम भी भोगना पड़ता है। यही कारण है कि ज्ञानी लोग कभी भी ऐसे गलत कार्य में अपना मन नहीं लगाते जिसका कालांतर में दुष्परिणाम भोगना पड़े।
      कर्म और पुरुषार्थ के विषय में भगवान विष्णु का स्मरण करना चाहिए। वह संसार के पालनहार माने जाते हैं। ऐसा महान केवल पुरुषार्थ करने वालों को ही मिल सकता है। भगवान विष्णु के चौदह अवतार माने जाते हैं और हर अवतार में कहीं न कहीं उनका पुरुषार्थ प्रकट होता है। हमारा देश हमेशा ही श्रम प्रधान रहा है इसी कारन भगवन विष्णु नारायण के भक्त अधिक ही देखे जाते हैं।
लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
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Saturday, August 06, 2011

मनुस्मृति-नारियों से बलात व्यवहार करने वालों के लिए मौत की सजा श्रेयस्कर (acording to manu smriti-death penaltiy for crime agaisnt women)

         हमारे देश के स्त्रियों के प्रति क्रूरतम अपराध की घटनायें तेजी से बढ़ रही हैं। इसका कारण यह है कि अपराधियों के मन में कठोर दंड का भय नहीं है। हमने पश्चिम के आधार पर अपनी दंड व्यवस्था को कथित रूप से मानवीय बना दिया है जिसमें प्राणदंड देना अपराध पर नियंत्रण करने का मार्ग नहीं माना जाता। यह मूर्खतापूर्ण राय है कि फांसी की सजा से अपराध नियंत्रित नहीं होता। देने वाले तो यह तर्क देते हैं कि हत्या की सजा फांसी है पर उससे क्या वह रुक रही हैं? इसका उत्तर यह है कि हमारे यहां कानूनी प्रक्रिया में लंबा समय लगता है। शनैः शनै अपराधी के अपराध की के प्रति लोगों का नजरिया ठंडा हो जाता है। फिर देखा यह भी जा रहा है कि अपराधियों को सजा दिलाना व्यवस्था से जुड़ी संस्थाओं के लिये कठिन होता जा रहा है इसी कारण अपराधियों के हौंसले बढ़ रहे हैं। इसके जवाब में यह सवाल भी है कि कितनी हत्याओं के लिये कितनों को प्राणदंड मिला। उससे भी ज्यादा यह बुरी बात है कि पद, प्रतिष्ठा और पैसे के दम पर अनेक लोग अपराध कर भी बच जाते हैं। वह समाज के अन्य तबकों के लिये अपराध कर सजा से बचने के मामले में प्रेरक बन जाते हैं। इसी कारण अपराध बढ़ रहे हैं।
मनुस्मृति में कन्याओं के प्रति अपराध के दंड पर कहा गया है कि
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योऽकामां दूषयेत्कन्यां स सद्यो वधमर्हति।
सकामा दूषयंस्तुल्यो न वधं प्राप्नुयान्नरः।।
        ‘‘जो कन्या संभोग की इच्छुक नहीं है उसे बलात संभोग करने वाले पुरुष को तुरंत मृत्युदंड देना चाहिए। स्वयं संभोग की इच्छुक कन्या से सहवास करने वाले व्यक्ति को मृत्युदंड के बजाय उसे कोई दूसरा दंड देना चाहिए।
अभिमह्य तु यः कन्या कुर्याद्दर्पेण मानवः।
तस्याशुकर्त्ये अंगल्यौ दण्डं चार्हतिष्ट्म्।।
         ‘‘जो पुरुष अपनी पौरुष के मन में आकर कन्या से बलात्कार कर उसे अपवित्र करता है उसकी तत्काल दो उंगलियां काट डालनी चाहिए तथा उस पर आर्थिक दंड लगाना चाहिए।
            अक्सर लोग सवाल यह करते हैं कि किसी भी कन्या से बलात संभोग करने वालों को ही क्या जिम्मेदार माना जा सकता है? इसके लिये कन्या को किसी पुरुष को उकसाने के लिये जिम्मेदार क्यों नहीं माना जाता। मनुस्मृति की दृष्टि से हर हालत में पुरुष ही जिम्मेदार है। अगर वह कन्या की इच्छा के खिलाफ जबरदस्ती करता है तो मृत्युदंड का अधिकारी है और अगर इच्छा के विरुद्ध वह नहीं करता तो भी उसे सजा मिलना चाहिए। कुछ घटनाओं में देखा गया है कि लड़कियों को शादी का झांसा देकर कुछ लोग उनके साथ शारीरिक संबंध कायम कर लेते हैं। मामला चलने पर वह दावा करते हैं कि यह सब लड़की की इच्छा से हुआ। वह प्रमाण भी पेश करते हैं तब लोगों की सहानुभूति पीड़ित कन्या की बजाय उसके साथ हो जाती है पर सच बात तो यह है कि वह फिर भी दंड का अधिकारी है।
           ऐसा लगता है कि कड़े दंडों की वजह से ही मनुस्मुति को जाति पाति समर्थक तथा स्त्री विरोधी कहकर प्रचलन से बाहर किया गया है जबकि उसमें वर्णित अनेक संदेश आज भी प्रासांगिक हैं। देश के सामाजिक विशेषज्ञ हमारे प्राचीन ग्रंथों से इसलिये मुंह चुराते हैं क्योंकि वह अंग्र्रेजी शिक्षा के कारण डरपोक हो गये हैं जिसमें अपराधों के लिये कड़े दंड की बजाय मानवीय प्रकार के दंड देने क बात कही गयी है। कहा जाता है कि भारतीय दर्शन में महिलाओं का सम्मानीय माना जाता है जबकि मनुस्मृति में  देखा जाये तो वह महिलाओं के प्रति अपराध को अक्षम्य माना गया है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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Wednesday, August 03, 2011

मनुस्मृति से संदेश-पानी के स्पर्श से आंखों की शुद्धि होती है (manu smriti-pani ke achman se akhon ki shuddhi)



          वायु तथा जल को न केवल जीवन का आधार माना गया है कि बल्कि उनको ओषधि भी कहा जाता है। जिस तरह प्रातः प्राणायाम से शुद्ध वायु के प्रवेश से शरीर और मन के आंतरिक विकार बाहर निकलते हैं उसी तरह नहाने के दौरान जल के उपयोग से बाहरी अंगों पर शुद्धता आती है। आधुनिक विज्ञान जल की उपयोगिता को लेकर अनेक अनुंसधान कर चुका है। हालांकि हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों में भी इस विषय पर अनेक बातें कही गयी है।
          मनु स्मृति में कहा गया है कि
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            कृत्वा मूत्रं पूरीपं वा खान्याचान्त उपस्पृशेत्।
            वेदमध्येध्माणश्च अन्नमश्नंश्च सर्वदा
       "मल मूत्र करने के बाद व्यक्ति को सदैव हाथ धोकर आचमन करने के साथ ही पानी का स्पर्श आंखों पर करना चाहिए। सदैव वेद पढ़ने तथा भोजन करने से पहले भी हाथ धोकर आचमन करना चाहिए।"
                आजकल कंप्यूटर का उपयोग बढ़ता जा रहा है पर उससे होने वाली हानियों से रोकने और बचने के उपाय बहुत कम  लोग जानते हैं। कुछ स्वास्थ्य विशेषज्ञ कहते हैं कि कंप्यूटर का उपयोग करने वालों को बीस मिनट से अधिक उस पर काम करने के बाद दो मिनट आंखें बंद रखना चाहिए। इसके अलावा कंप्यूटर से उठकर बाहर आसमान में ताकना चाहिए ताकि आंखों के उन सूक्ष्म तंतुओं का विस्तार होता है जो काम के दौरान सिकुड़ जाते है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कही गयी है कि कंप्यूटर पर काम करने वालों को अपनी आंखों में पानी की छींटें मारते रहना चाहिए। कंप्यूटर पर काम करते हुए आंखों में जल सूखने लगता है और आंखों में छींटे मारने से वहां ताजगी आती है। मनृस्मृति में भी कहा गया है कि वेद आदि का अध्ययन करने से पहले और बाद दोनों ही समय आंखों में जल का प्रवेश कराना चाहिए। यही बात हम कंप्यूटर पर काम करते समय भी लागू कर सकते हैं। ऐसे प्रयासों से बहुत सीमा तक कंप्यूटर से होने वाली हानियों से बचा जा सकता है।
लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',ग्वालियर
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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