ऊंचा चढि़ कर देखता, केतिक दूर विमान
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य अपने जीवन में तमाम तरह के अपराध और चालाकियां कर धन कमाता है पर उसके अनुपात में नगण्य धन दान कर अपने मन में प्रसन्न होते हुए फिर आसमान की ओर दृष्टिपात करता है कि उसको स्वर्ग में ले जाने वाला विमान अभी कितनी दूरी पर रह गया है।
आंखि न देखि बावरा, शब्द सुनै नहिं कान
सिर के केस उज्जल भये, अबहुं निपट अजान
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं आंखों से देख नहीं पाता, कानों से शब्द पर रहे जाते हैं और सिर के बाद सफेद होने के बावजूद भी मनुष्य अज्ञानी रह जाता है और माया के जाल में फंसा रहता है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-बिना अफरातफरी के कोई भी धनी नहीं बन सकता है-ऐसा मानने वाले बहुत हैं तो हम स्वयं देख भी सकते हैं। धनी होने के बाद समाज में प्रतिष्ठा पाने के मोह से लोग दान करते हैं। कहीं मंदिर में घंटा चढ़ाकर, पंखे या कूलर लगवाकर या बैंच बनवाकर उस पर अपना नाम खुदवाते हैं। एक तीर से दो शिकार-दान भी हो गया और नाम भी हो गया। फिर मान लेते हैं कि उनको स्वर्ग का टिकट मिल गया। यह दान कोई सामान्य वर्ग के व्यक्ति नहीं कर पाते बल्कि जिनके पास तमाम तरह के छल कपट और चालाकियों से अर्जित माया का भंडार है वही करते हैं। उन्होंने इतना धन कमाया होता है कि उसकी गिनती वह स्वयं नहीं कर पाते। अगर वह इस तरह अपने नाम प्रचारित करते हुए दान न करें तो समाज में उनका कोई नाम भी न पहचाने। कई धनपतियों ने अपने मंदिरों के नाम पर ट्रस्ट बनाये हैं। वह मंदिर उनकी निजी संपत्ति होते हैं और वहां कोई इस दावे के साथ प्रविष्ट नहीं हो सकता कि वह सार्वजनिक मंदिर है। इस तरह उनके और कुल का नाम भी दानियों में शुमार हो जाता है और जेब से भी पैसा नहीं जाता। वहां भक्तों का चढ़ावा आता है सो अलग। ऐसे लोग हमेशा इस भ्रम में जीते हैं कि उनको स्वर्ग मिल जायेगा।
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शब्दयोग सारथी-पत्रिका
2 comments:
भूल गये रुप को, भूले निज पहचान.
भीख माँगकर जगत से, कभी ना मिलता मान.
कभी ना मिलता मान,आत्म-विस्मृत को भैया.
तुम भारत के अंश,संभालो इसको भैय्या.
कह साधक कवि,भूमि-संश्कृति-धर्म का नाता.
पुनः संवारो संत कबीर- राम का नाता.
सही व्याख्या है, आभार.
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