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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Monday, August 15, 2016

ओलम्पिक खेल संस्कृति भारत की परंपराओं से एकदम अलग-हिन्दी लेख (Olympic Sports culture difrent with Indian Tredition-Hindi Article on Rio2016)

अगर हम ओलंपिक को देखें तो एक तरह से अलग तरह की खेल संस्कृति है जिसने अनेक रूप  बदले हैं और प्राकृतिक की बजाय वहां कृत्रिम मैदानों का निर्माण हुआ है। हम अपने देश के खिलाड़ियों के प्रदर्शन पर निराश अवश्य होते हैं पर यह कभी नहीं सोचते कि पश्चिम जैसी व्यवसायिक स्पर्धा की सोच हमारे देश के लोगों की खेलों में तो नहीं है। हो भी तो वैसा वातावरण खिलाड़ियों को नहीं मिलता जैसा कि पश्चिम के लोगों के पास होता है। पश्चिम की खेल संस्कृति हमारे भारत की स्वाभाविक परंपरा से मेल नहीं खाती जिसमेें प्रकृतिक मैदान ही मिल सकते हैं।  जब तक हॉकी प्राकृतिक मैदान पर होती थी हमारे यहां बच्चे इसे खेलते थे।  अब कृत्रिम मैदान ने जनमानस को इससे विरक्त कर दिया। बैटमिंटन, टेनिस तथा अनेक खेल कृत्रिम मैदानों पर खेले जा रहे हैं-जो कि सहजता से उपलब्ध नहीं होते। कृत्रिम मैदानों ने खेलों को अकादिमक रूप दिया है जिसमें सामान्य जनमानस एक दर्शक भर रह गया है।  पहले खिलाड़ी सहजता से आगे बढ़ता था पर अब उसे अकादिमक होना पड़ता है-पहले तय करना पड़ता है कि वह कौनसे खेल में शामिल होगा फिर उसे अकादमी ढूंढनी पड़ती है।
हमें इस पर आपत्ति नहीं है पर जब हमारे देश के अज्ञानी लोग अपने देश के खिलाड़ियों को हारता और दूसरों को जीतता देखते हैं तो आत्मग्लानि को बोध दिखाते हैं तब उन्हें समझाना पड़ता है। हम चीन की बात करते हैं जो खेलों मेे अमेरिका को चुनौती दे रहा है पर सवाल यह है कि उस जैसी हमारे यहां तानाशाही नहीं है। उसने खेलों में अकादिमक रूप को सहजता से अपनाया है पर उसका श्रेय वहां के राज्य प्रबंध को है जिसकी मानसिकता पश्चिम को हर कीमत पर चुनौती देने की है। वहां की जनता के क्या हाल हैं-इसका विश्व में किसी को पता नहीं। हमारे यहां लोकतंत्र है इसलिये जबरन अकादिमक होना सहज नहीं है।
आज श्रीकांत को बैटमिंटन में खेलते देखा।  जिस मैदान पर वह खेल रहा था उसके बारे में बताया गया कि खिलाड़ी के पसीने की बूंद अगर गिरने पर उसे साफ न किया जाये तो वहां उसी का ही जूता इस तरह चिपक जाता है कि वह गिरकर घायल भी हो सकता है। अनेक बार खिलाड़ी अपना पसीना गिरने पर मैदान साफ कराते हैं। श्रीकांत  ने अकादिमक प्रशिक्षण भी लिया है पर यह सभी नहीं कर सकते। ऐसे में हम सामान्य बच्चों को यह भी तो नहीं कह सकते कि सामान्य मैदानों पर बैटमिंटन न खेलकर अकादमी में जाओ। अतः खेल जीवन में रोचकता तथा रोमांच पैदा करने के लिये हैं-हमेशा विश्व चैंपियन का सपना लेकर खेला नहीं जाता।  ऐसे में जो भी भारतीय ओलंपिक में खेलते हैं उनकी इस बात के लिये ही प्रशंसा की जाना चाहिये कि वह अपनी विपरीत खेल संस्कृति में जाकर भी नाम कमा सके।
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