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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Friday, November 28, 2014

स्वयं खुद समझे नहीं दूसरों को ज्ञानी बनाते हैं-हिन्दी चिंत्तन लेख(swyan samajhe nahin doosron ko samjhate hain-hindi thought article)



            अभी हाल ही में शैक्षणिक जगत में संस्कृत को एच्छिक भाषा के रूप में पढ़ाने के  एक सरकारी निर्णय पर प्रचार माध्यमों ने बहुत शोर मचाया था।  दरअसल हमारे यहां आजादी के बाद प्रगतिशील तथा जनवादी लेखकों के प्रभाव के चलते बौद्धिक क्षेत्र में एक ऐसी विचाराधारा का निर्माण हुआ है जो मानती है कि मुगल, फ्रांसिसी और अंग्रेजों के आने से पहले यहां का समाज असभ्य था।  आज की सभ्यता विदेशी कृपा का परिणाम है। भारतीय अध्यात्मिक दर्शन को एकदम असभ्य तथा जंगली मान लेने की प्रवृत्ति के कारण हमारे देश के व्यवसायिक बौद्धिक क्षेत्र में ऐसे लोगों की बहुलता है जिनको अंग्रेजी, जर्मन, फ्रैंच महान भाषायें लगती हैं तो संस्कृत बीते समय की एक खंडहर लगती है।

            हमारे देश में समाज का बौद्धिक वर्ग दो भागों में बंटा है। एक तो जिसने आधुनिक शिक्षा प्राप्त की पर आज भी वह भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के आधारों पर चलना पसंद करता है दूसरा वह है जो पूरी तरह से अंग्रेेज दिखना चाहता है।  भारतीय बौद्धिक क्षेत्र में ऐसे ही लोगों की बाहुल्ता है। यही कारण है कि शिक्षा पद्धति में जहां भी प्राचीन भारतीय तत्व जोड़ने का विचार आता है वहां उसका विरोध प्रारंभ हो जाता है।
संत कबीर कहते हैं कि
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धरती अम्बर न हता, को पंडित था पास।
कौन मुहूरत था थापिया, चांद सूरज आकास।।
            हिन्दी में भावार्थ-जब न धरती थी न यह आकाश तब कौन सा पंड़ित था जब आकाश में सूरज और आकाश स्थापित किये गये।
पढ़ि पढ़ि और समुझावई, खोजि न आप सरीर।
आपहि संशय में पड़े, यूं कहि दास कबीर।।
            हिन्दी में भावार्थ-किताब पढ़कर स्वयंभू विद्वान दूसरों को समझाते हैं पर उन्हें अपने शरीर का ज्ञान नहीं रहता। वह तो स्वयं ही संशय में पड़े रहते हैं।

            हमारे देश में बौद्धिक क्षेत्र में सक्रिय पेशेवर लोग स्वयं को सिद्ध मानते हैं।  आधुनिक शिक्षा में संपन्न होने के बाद धनवान, उच्च पदस्थ तथा कुशल बौद्धिक प्रबंधकों के सानिध्य की वजह से उनको लगता है वह पश्चिमी तात्विक ज्ञान धारण करने में सक्षम हो गये हैं और भारतीय ज्ञान तो केवल उन पेशेवर संतों की पूंजी है जिन पर अक्सर वह सनसनी खेज सामग्री प्रसारित करने का अवसर पाते हैं। समाज सुधार के प्रति अपनी निष्ठ यह लोग इस तरह दिखाते हैं कि उनसे पहले कोई ऐसा प्रयास नहीं हुआ।  हमारे देश के ही अध्यात्मिक विद्वानों ने समय समय पर देश के अंधविश्वासों तथा रूढ़वादिता को निशाना बनाया है यह बात उनके समझ में नहीं आती।  यह अलग बात है कि इन बुद्धिमानों के सानिध्य में ही प्रचार माध्यम ज्योतिष के नाम पर अंधविश्वास का प्रचार करते हैं।  अपनी व्यवसयिक बाध्यताओं को वह छिपाते हैं पर अंततः वह बाहर दिख ही जाती हैं। एक तरफ समाज सुधार से कथित प्रतिबद्धता का पाखंड दूसरी तरफ विज्ञापनों प्रसारण की बाध्यता कि बीच इनका सतही ज्ञान सहजता से देखा जा सकता है।
            

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Saturday, November 22, 2014

कबीर पंथ पर फकीर ही चल सकते हैं-हिन्दी चिंत्तन लेख(kabir pant par faqir hi chal sakte hain-hindi thought article)




            हमारे देश में महापुरुषों के नाम पर बहुत सारे पंथ बन गये हैं। इसमें आजकल कबीर पंथ की बहुत चर्चा है।  संत कबीर दास जी ने हमेशा ही भक्ति तथा ज्ञान साधना को एकांत का विषय बताया है। इतना ही नहीं उन्होंने धर्म के नाम पर ठेकेदारी करने वाले कथित संतों पर भी तीखे कटाक्ष किये हैं।  हैरानी की बात यह है कि भगवान नाम स्मरण से ही संसार सागर को पार करने का संदेश देने वाले संत कबीर के नाम पर भी पंथ चलाकर भीड़ का एकत्रीकरण होता रहा है।  संत कबीर ने कभी कोई अपना संगठन या आश्रम बनाया  अथवा शिष्यों को दीक्षा देने का कोई नाटक किया हो इसका उदाहरण नहीं मिलता।  उनकी रचनायें भी शिष्यों की बजाय संपूर्ण समाज को संबोधित करती हैं।
            हरियाणा के एक कथित संत ने पूज्यनीय कबीर का जितना मखौल बनाया है उसका उदाहरण आज तक नहीं देखा गया। कानूनी प्रक्रिया से बचने के लिये उन्होंने अपने आश्रम के बाहर भक्तों और शिष्यों को एकत्रित कर लिया है ताकि वहां पुलिस प्रविष्ट न हो सके। हथियार बंद लोग न केवल अपने कथित गुरू को बचाने का प्रयास करते वरन् पुलिस पर हमले भी कर रहे थे।  संत के पकड़े जाने के बाद उनके महलनुमा आश्रम से अनेक प्रकार के हथियार तथा अन्य आपत्तिजनक वस्तुऐं बरामद होने के समाचार आ रहे हैं। इस पूरे घटनाक्रम का न तो अध्यात्मिक दर्शन और नही  उन महान संत कवि कबीर दास जी के संदेशों से संबंध है जिन्हें हमारा ज्ञानी समाज अपनी अनमोल धरोहर मानता है।

संत कबीर कहते हैं कि
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गुरुवा तो घर घर फिरै, दीक्षा हमरी लेहु।
कै बूड़ौं कै ऊबरौ, टका पर्दनी देहु।।
            हिन्दी में भावार्थ-गुरू तो घर घर फिर अपनी दीक्षा देने के लिये फिरते हैं। उनका केवल धन से मतलब होता है शिष्य उबरे या डूबे इससे उनका कोई मतलब नहीं होता।
सतगुरु ऐसा कीजिये, जाके पूरन मन्न।
अनतोले ही देत है नाम सरीखा धन्न।
            हिन्दी में भावार्थ-गुरु तो वही हो सकता है जिसका मन भरा हुआ है तथा वह बिना तोले ही नाम स्मरण जैसा धन देते हैं।

            कबीर ने संपूर्ण भारतीय समाज को एक इकाई माना है।  वह एक छोटे समूह का प्रतिनिघित्व नहीं करते थे वरन् उन्हें भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में एक ऐसा महापुरुष माना जाता है जिसकी चर्चा के बिना कोई ज्ञानी संत वाणी से से निकले शब्द समूह को अधूरा ही मानता है। आज हम जब कबीर पंथ के नाम पर चले ऐसे धार्मिक संगठनों या कथित संतों की क्रियायें देखते हैं तो लगता है कि वह दोहरे अपराध में लिप्त हैं-एक तो उनका नाम लेकर भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के सिद्धांतों की आड़ में भ्रम फैलाना दूसरा कानून से  अपने आप को बड़ा समझकर न्याय सिद्धांतों का अपमान करना।  इस दोहरे अपराध की सजा भी दोहरी होना चाहिये। जिस अपराध पर कानूनी कार्यवाही होनी है वह तो करना ही चाहिये साथ ही उन पर धर्म को अपमानित करने का मामला भी दर्ज किया जा सकता है। हालांकि इसी बची यह भी खबर आयी है कि जिस तरह आश्रम से पुलिस पर आक्रमण किया गया उससे उस कथित संत पर राष्ट्रद्रोह का मामला दर्ज किया गया है।  एक कथित कबीर पंथी अगर वास्तव में अपनी राह चला होता तो कभी भी ऐसी नौबत नहीं आती।  अब तो उनके भक्त भी उन्हें छोड़कर जाते हुए यह कह रहे हैं कि वह कभी इस आश्रम में नहीं आयेंगे।


दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
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Saturday, November 15, 2014

म्लेच्छ लोगों से सतर्क रहें-हिन्दी चिंत्तन लेख(mlechchha logon se satark rahen-hindi though article)



            आजकल हम अपने देश में एक खराब प्रवृत्ति देख रहे हैं कि अपनी समस्याओं, दुर्घटनाओं तथा बुरे व्यवहार से उपजे क्रोध का का लोग सार्वजनिक प्रदर्शन करते हैं-इस दौरान वाहनों को जलाने, प्रहरियों पर पत्थर फैंकने तथा राहगीरों का मार्ग अवरूद्ध कर उन्हें मारने पीटने तक के समाचार आते हैं।  अनेक ऐसे भी समाचार आये कि अनेक शहरों में सेना तथा पुलिस भर्ती के लिये आये युवकों ने अपनी  निराशा का आक्रामकता का प्रदर्शन  करते हुए  सार्वजनिक संपत्ति को न केवल हानि पहुंचाई वरन् राहगीर महिलाओं के साथ अभद्रता भी की।  अनेक बार ऐसे समाचार भी आते हैं कि किसी वाहन से कोई राहगीर कुचल जाता है तो वहां के स्थानीय निवासियों में शािमल कुछ असामाजिक तत्व वाहन जलाने, दुकाने लूटने और प्रहरियों पर पत्थर बरसाने लगते हैं। भारतीय अध्यात्मिक दर्शन इस तरह की प्रवृत्ति को म्लेच्छ प्रवृत्ति का मानता है। यह बात समझ लेना चाहिये।

चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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वापल-कूप-तडागानामारा-सुर-वेश्मनाम्।
उच्छेदने निराऽशङ्कः स विप्रो म्लेच्छ उच्यते।।
            हिन्दी में भावार्थ-बावडी, कुंआ, वाटिका तथा देवालय में तोड़ फोड़ करने पर जिसे डर नहीं उसे म्लेच्छ कहा जाता है।

            समाज के निराशा का वातावरण जो बना है उसके लिये लोगों का अति आशावाद भी जिम्मेदार है। सभी लोग यह चाहते हैं कि  वह धनी और सुविधासंपन्न हो जायें।  हर कोई नौकरी करना चाहता है।  स्वाभिमानी सभी दिखना चाहते हैं पर स्वामित्व की प्रवृत्ति बहुत कम लोग में पाई जाती है। दूसरे के सामान पर विलासिता मिल जाये या फिर चाहे जैसे भी हो हमारी सभी जगह तूती बोले, इस तरह की सोच ने लोगों का अन्मयस्क बना दिया है।  जैसा कि देखा गया है कि धनी तथा प्रसिद्ध लोगों प्रभाव राजकीय संस्थाओं पर है जिसका लाभ उन्हें मिलता है, वैसा स्वयं को न मिलने पर आमजन क्रुद्ध रहते हैं।  इसलिये स्वयं को शक्तिशाली दिखाने के लिये  अनेक असामाजिक तत्व सदैव तत्पर रहते हैं और जहां आमजन को उत्तेजत करने का अवसर मिले वह अपने साथ साफ करते हैं।  इस तरह के हिंसक प्रदर्शन को  जन उपद्रव का नाम दिया जाता है पर सच  यह है कि दुकानें लूटना और आग लगाने का काम अपराधी ही करते हैं जिनका लक्ष्य अपना हित साधना होता है।  हमें ऐसे म्लेच्छ प्रवृत्ति के लोगों की पहचान कर उनसे सतर्क रहना चाहिये।


दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Thursday, November 06, 2014

भारतीय अध्यात्मिक पंरपरा में श्रीगुरुनानक देव का महान योगदान अविस्मरणीय-प्रकाश पर्व पर विशेष हिन्दी लेख(bhartiya adhyatmik parampara mein shri guru nanak dev ka mahan yogadan avismarniy-prakash parva par visheh hindu lekh, A Specila hindi article on birth day of shri guru nanak dev prakash parva)



           
            आज श्री गुरुनानक देव जी का 546 वां प्रकाश पर्व मनाया जा रहा है। गुरूनानक देव जी ने भारतीय अध्यात्मिक परंपरा की रक्षा में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वैसे तो भारतीय अध्यात्मिक दर्शन प्रारंभ से ही तत्वज्ञान धारण कर उसक अनुसार जीवन जीने के संदेश देता है पर कथित विद्वान इसकी आड़ में कर्मकांडों के नाम पर समाज को अंधविश्वास की तरफ ढकेल देते हैं। श्रीगुरुनानक देव ने इन्हीं अंधविश्वासों पर प्रहार करते हुए हृदय से परमात्मा की भक्ति करने की जो प्रेरणा के साथ ही समाज के कमजोर तथा गरीब वर्ग की सहायता की जो प्रेरणा दी वह अनुकरणीय है।
            श्रीगुरुनानक देव जी ने स्वयं किसी धर्म की स्थापना नहीं की। उनके बाद आये गुरुओं ने अपने समय की संक्रमित स्थितियों  को देखकर सिख पंथ की स्थापना का भी  भारतीय धर्म और संस्कृति कि रक्षा के लिये ही  की थी। श्रीगुरुनानक देव जी का जीवन सदैव समाज चिंतन और सुधार में बीता। बहुत कम लोग हैं जो आज के सभ्य भारतीय समाज में उनकी भूमिका का सही आंकलन कर पाते हैं। उनके काल में भारतीय समाज अंधविश्वासों और कर्मकांडों के मकड़जाल में फंसा हुआ था। कहने को लोग भले ही समाज की रीतियां निभा रहे थे पर अपने धर्म और संस्कृति कि  रक्षा के लिये उनके पास कोई ठोस योजना नहीं थी। राजनीतिक रूप से विदेशी आक्रांता अपना दबाव इस देश पर बढ़ा रहे थे। इन्हीं आक्रान्ताओं  के  साथ आये कथित विद्वान सामान्य जनों  को अपनी विचारधारा के अनुरूप माया मोह की तरफ दौड़ाते दिखे। देश के अधिकतर राजाओं का जीवन प्रजा की भलाई की बजाय अपने निजी राग द्वेष में बीत रहा था। वह राज्य के व्यवस्थापक का कर्तव्य निभाने की बजाय उसके उपभोग के अधिकार में अधिक संलग्न थे। यही कारण था कि जन असंतोष के चलते विदेशी राजाओं ने उनको हराने का सिलसिला जारी रखा। इधर सामान्य लोग भी अपने कर्मकांडो में ऐसे लिप्त रहे उनके लिये कोई नृप हो हमें का हानिकी नीति ही सदाबहार थी।
      मुख्य विषय यह था कि समाज धीरे धीरे विदेशी मायावी लोगों के जाल में फंसता जा रहा था और अपने अध्यात्मिक ज्ञान के प्रति उसका कोई रुझान नहीं था। ऐसे में महान संत श्री गुरुनानक देव जी ने प्रकट होकर समाज में अध्यात्मिक चेतना जगाने का जो काम किया वह अनुकरणीय है। वैसे महान संत कबीर भी इसी श्रेणी में आते हैं। हम इन दोनों महापुरुषों का जीवन देखें तो न वह केवल रोचक, प्रेरणादायक और समाज के लिये कल्याणकारी है बल्कि सन्यास के नाम पर समाज से बाहर रहने का ढोंग करते हुए उसकी भावनाओं का दोहन करने वाले ढोंगियों के लिये एक आईना भी है| गुरुनानक देव और कबीरदास जी  के भक्त ही उनका ज्ञान धारण  कर इस असलियत को समझ  सकते हैं। इन दोनों महापुरुषों ने पूरा जीवन समाज में रहकर समाज के साथ व्यतीत किया। भारतीय अध्यात्मिक संदेश अपने पांवों पर अनेक स्थानों घूमते हुए सभी जगह फैलाया। श्री गुरुनानक देव जी तो मध्य एशिया तक की यात्रा कर आये।
श्री गुरुनानक देव जी के सबसे निकटस्थ शिष्य मरदाना को माना जाता है जो कि जाति से मुसलमान थे। आप देखिये गुरुनानक देव जी के तप का प्रभाव कि  उन्होंने अपना पूरा जीवन गुरुनानक जी के सेवा में गुजारा। इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता कि मरदाना ने कभी  अपना धर्म छोड़ने या पकड़ने का नाटक किया। दरअसल उस समय तक धर्म शब्द के साथ कोई संज्ञा या नाम नहीं था। मनुष्य यौनि मिलने पर संयम, परोपकार, दया तथा समभाव से जीवन व्यतीत किया जाये-यही धर्म का आशय था।
      आज धर्मों के जो नाम मिलते हैं वह पेशेवर धार्मिक ठेकेदारों एक सोचीसमझी साजिश के तहत समाज को बांटकर उस पर शासन करने की नीति का परिणाम है।
श्रीगुरुनानक देव जी के समय इस देश में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा धार्मिक दृष्टि से संक्रमण काल था। वह जानते थे कि भौतिकवाद की बढ़ती प्रवृत्ति ही इस समाज के लिये सबसे बड़ा खतरा है, जिसमें धार्मिक कर्मकांड और अंधविश्वास अपनी बहुत बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। इससे व्यक्ति की चिंतन क्षमता का ह्रास  होता है और वह बहिर्मुखी होकर दूसरे का गुलाम बन जाता है। भौतिक वस्तुओं की आवश्यकता मनुष्य को दास बना देती है। अधिक संचय की प्रवृत्ति से बचते हुए दान, सेवा और परोपकार करने से ही समाज समरसता आयेगी जिससे शांति और एकता का निर्माण होगा-यही उनके संदेशों का सार था। सबसे बड़ी बात उनका जोर व्यक्ति निर्माण पर था। हम अगर इस पर विचार करें तो पायेंगे कि व्यक्ति मानसिक रूप से परिपक्व, ज्ञानी और सजग होगा तो भले ही वह निर्धन हो उसे कोई भी दैहिक तथा मानसिक रूप से बांध नहीं सकता। यदि व्यक्ति में अज्ञान, अहंकार तथा विलासिता का भाव होगा तो कोई भी उसे पशु की तरह बांध कर ले जा सकता है। आज हम देख सकते हैं कि टीवी चैनलों पर कल्पित पात्रों पर लोग किस तरह थिरक रहे हैं। उसी में अपने नये भगवान बना लेते हैं। कई युवक युवतियों यह कहते हुए टीवी पर देखे जा सकते हैं कि हम तो अमुक बड़ी हस्ती को प्यार करते हैं। यह अध्यात्मिक ज्ञान से दूरी का परिणाम है। इसलिये आवश्यकता इस बात है कि बजाय हम इस बात पर विचार करें कि दूसरे धर्म के लोग हमारे विरोधी हैं इस बात पर अधिक जोर देना चाहिये कि हमारे समाज का हर सदस्य दिमागी रूप से परिपक्व हो। अध्यात्मिक रूप से अपरिपक्व युवक हो युवती समाज रक्षा में सहयोगी नहीं बन सकते।
      इस देश की मुख्य समस्या यह है कि मनुष्य ही मनुष्य का पशु रूप में दोहन करता है।

श्री गुरुनानक देव जी ने इसी तरफ इशारा करते हुए कहा है कि
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जो रतु पीवहि माणसा तिन किउ निरमलु चीतु।

     हिंदी में भावार्थ-जो मनुष्य का ही रक्त पीता है उसका चित कैसे निर्मल हो सकता है।

      खावहि खरचहि रलि मिलि भाई।
तोटि न आवै वधदो जाई।।;;

     हिंदी में भावार्थ- भाई, सभी मिलकर खर्च करो और खाओ। इससे टोटा नहीं पड़ता बल्कि वृद्धि होती है।
      ऐसे एक नहीं हजारों संदेश है जो आज के संदर्भ में ही उतने प्रासंगिक हैं जितने उनके इस धरती पर प्रकट रहते हुए थे। ऐस महान संत श्री गुरुनानक देव जी का स्मरण करने मात्र से हृदय प्र्फुल्लित हो उठता है। उनका जीवन इसलिये भी प्रेरक है क्योंकि उन्होंने उसे सामान्य मनुष्य की तरह बिताया। ऐसे महान संत को कोटि कोटि प्रणाम। वाहे गुरु की जय, वाहे गुरु की फतह।
दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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