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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Saturday, July 24, 2010

धर्म संदेश-संगीत सुनकर ही शयन करें (hindu dharma sandesh-sangeet sunkar shayan karen)

आजकल रेडियो या टेप में संगीत सुनने की बजाय टीवी और वीडियो पर उसका आनंद उठाने का प्रयास किया जा रहा है। सच तो यह है कि टीवी में हम आंख तथा कान दोनों को सक्रिय रखते हैं इसलिये मजा उठाने से अधिक कष्ट मिलता है। संगीत सुनने का आनंद तो केवल कानों से ही है। वैसे शायद यही वजह है कि टीवी पर हर शो में फिल्मी गानों को पृष्ठभूमि में जोड़कर दृश्य को जानदार बनाने का प्रयास किया जा रहा है। किसी धारावाहिक में अगर पात्र गुस्से में बोल रहा है तो भयानक संगीत का शोर जोड़कर उसे दमदार बनाने का प्रयास शायद इसलिये ही किया जाता है कि आजकल का अभिनय करने वाले पात्रों को न तो कला से मतलब है न उनमें योग्यता है। बहरहाल संगीत मानव मन की कमजोरी है और जहां तक मनोरंजन मिले वहां तक सुनना चाहिये। अति तो सभी जगह वर्जित है।
तत्र भुक्तपर पुनः किंचित्तूर्यघोषैः प्रहर्षितः।
संविशेत्तु यथाकालमुत्तिष्ठेच्च गतक्लमः।
हिन्दी में भावार्थ-
भोजन करने के बाद गीत संगीत का आनंद उठाना चाहिये। उसके बाद ही शयन के लिये प्रस्थान करना उचित है।
एतद् विधानमातिष्ठेदरोगः पृथिवीपतिः।
अस्वस्थः सर्वमेत्त्ु भृत्येषु विनियोजयेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
स्वस्थ होने पर अपने सारे काम स्वयं ही करना चाहिये। अगर शरीर में व्याधि हो तो फिर अपना काम विश्वस्त सेवकों को सौंपकर विश्राम भी किया जा सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-एक तरफ मनुस्मृति में प्रमाद से बचने का सुझाव आता है तो दूसरी जगह भोजन के बाद गीत संगीत सुनने की राय मिलती है। इसमें कहीं विरोधाभास नहीं समझा जा सकता। दरअसल मनुष्य की दिनचर्या को चार भागों में बांटा गया है। प्रातः धर्म, दोपहर अर्थ, सायं काम या मनोरंजन तथा रात्रि मोक्ष या निद्रा के लिये। जिस तरह आजकल चारों पहर मनोरंजन की प्रवृत्ति का निर्माण हो गया है उसे देखते हुए मनृस्मृति के संदेशों का महत्व अब समझ में आने लगा है।
आजकल रेडियो, टीवी तथा अन्य मनोंरजन के साधनों पर चौबीस घंटे का सुख उपलब्ध है। लोग पूरा दिन मनोरंजन करते हैं पर फिर भी मन नहीं भरता। इसका कारण यह है कि मनोंरजन से मन को लाभ मिले कैसे जब उसे कोई विश्राम ही नहीं मिलता। जब कोई मनुष्य प्रातः धर्म का निर्वहन तथा दोपहर अर्थ का अर्जन ( यहां आशय अपने रोजगार से संबंधित कार्य संपन्न करने से हैं) करता है वही सायं भोजन और मनोरंजन का पूर्ण लाभ उठा पाता है। उसे ही रात्रि को नींद अच्छी आती है और वह मोक्ष प्राप्त करता है।
शाम को भोजन करने के बाद गीत संगीत सुनना चाहिये। अलबत्ता टीवी देखने से कोई लाभ नहीं है क्योंकि उसमें आंखें ही थकती हैं और दिमाग को कोई राहत नहीं मिलती। इसलिये टेप रिकार्ड या रेडियो पर गाने सुनने का अलग मजा है। वैसे भी देखा जाये तो आजकल अधिकर टीवी चैनल फिल्मों पर गीत संगीत बजाकर ही गाने प्रस्तुत किये जाते हैं-चाहे उनके हास्य शो हों या कथित वास्तविक संगीत प्रतियोगितायें फिल्मी धुनों से सराबोर होती हैं। देश के व्यवसायिक मनोरंजनक प्रबंधक जानते हैं कि गीत संगीत मनुष्य के लिये मनोरंजन का एक बहुत बड़ा स्त्रोत हैं इसलिये वह उसकी आड़ में अपने पंसदीदा व्यक्तित्वों को थोपते हैं। प्रसंगवश अभी क्रिकेट में भी चौका या छक्का लगने पर नृत्यांगना के नृत्य संगीत के साथ प्रस्तुत किये जाते हैं। स्पष्टतः यह मानव मन की कमजोरी का लाभ उठाने का प्रयास है।
टीवी पर इस तरह के कार्यक्रम देखने से अच्छा है सीधे ही गाने सुने जायें। अलबत्ता यह भोजन करने के बाद कुछ देर तक ठीक रहता है। अर्थशास्त्र के उपयोगिता के नियम के अनुसार हर वस्तु की प्रथम इकाई से जो लाभ होता है वह दूसरी से नहीं होता। एक समय ऐसा आता है कि लाभ की मात्रा शून्य हो जाती है। अतः जबरदस्ती बहुत समय तक मनोरंजन करने का कोई लाभ नहीं है। सीमित मात्रा में गीत संगीत सुनना कोई बुरी बात नहीं है-मनोरंजन को विलासिता न बनने दें।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Saturday, July 17, 2010

श्री गुरुवाणी-कलह बहुत बुरी बात है (shri guruvani-kalak buri bat hai)

यह मनुष्य स्वभाव है कि वह अपनी निंदा या आलोचना अपने सामने सह नहीं पाता। स्थिति यह है कि आत्मीय मित्रों या परिवार के सदस्यों की आलोचना ही किसी से सहन नहीं होती। इसके अलावा संसार में कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनको दूसरों के दोष ढूंढकर उनका बखान करने में मजा आता है। कुछ ऐसे भी हैं जो दूसरे के दर्द या पीड़ा का मजाक सामने ही उड़ाते हैं। ऐसे लोग अज्ञान में जीते हैं अतः उनसे दूरी बनाये रखना ही ठीक है। अगर ऐसे लोगों से वाद विवाद करेंगे तो झगड़ा बढ़ेगा संभव है वह हिंसा में बदल जाये।
कलह बुरी संसारि।’
हिन्दी में भावार्थ-
संसार में कलह बुरी चीज है।
‘झगरु कीए झगरउ पावा।‘
हिन्दी में भावार्थ-
झगड़ा करने से झगड़ा ही हासिल होता है।
‘उना पासि दुआसि न भिटीअै जिन अंतरि क्रोधु चंडालु।’
हिन्दी में भावार्थ-
जिन मनुष्यों के हृदय में क्रोध रूपी चंडाल रहता है उनके पास कभी न जाओ।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर इस संसार की गतिविधियों का अवलोकन ध्यान से करें तो पायेंगे कि अधिकतर झगड़े बिना बात के होते हैं। संत कबीर दास जी भी कह गये हैं कि ‘ न सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठमलट्ठा।’ हमारे देश में मुकदमों की संख्या बहुत है। कई मुकदमे तो ऐसे हैं जिनको दायर करने वालों की तीन तीन और चार पीढ़ियां गुजर गयी हैं पर उनका निपटारा नहीं हुआ। इसका कारण यह है कि लोग जरा जरा सी बात पर लड़ पड़ते हैं और जिन विवादों का निपटारा बातचीत और आपसी सहयोग से हो सकता है उसके लिये झगड़ा करते हैं। अहंकार वश अपने आपको श्रेष्ठ और विजेता साबित करने के लिये वह किसी भी हद तक चले जाते हैं। नतीजा यह होता है कि झगड़ा बढ़ जाता है। जिसमें धन, समय, और ऊर्जा का व्यर्थ क्षय होता है।
इतना ही नहीं जिन लोगों की छबि बाहूबली होने के साथ अनाचारी और दुराचारी की है लोग अपनी संभावित सरुक्षा के लिये उनसे संपर्क बनाते हैं। जबकि होना यह चाहिये कि उनसे दूर रहा जाये क्योंकि ऐसे लोग अपने अहंकार वश क्रोध में आकर कभी भी किसी पर आक्रमण कर सकते हैं।
कहने का अभिप्राय यह है कि जहां तक धन, पद तथा बाहूबल से संपन्न लोगों से मानवता की अपेक्षा नहीं करना चाहिये जब तक व्यवहार से उनके उत्तम पुरुष होने की अनुभूति न हो। निम्न प्रकृत्ति के लोगों से दूर रहना ही श्रेयस्कर है।
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Saturday, July 10, 2010

हिन्दू धर्म संदेश-अज्ञानी के साथ किसी दरबार में बैठना भी ठीक नहीं (agyani ka sath uchit nahin-hindu dharma sandesh

भारतीय समाज की समस्या यह नहीं है कि सभी लोग अज्ञानी हैं बल्कि ज्ञान के अहंकार ने ही यहां वातावरण को विषाक्त किया है। हमारे समाज में हर व्यक्ति पौराणिक ग्रंथों के ज्ञान को जानते है। निष्काम भक्ति निष्प्रयोजन दया का मतलब सभी जानते हैं पर आचरण में कोई नहीं लाता। उस समय सभी लोग व्यवाहारिकता के नाम पर हर बुरा काम करने को तैयार हो जाते हैं। निंदा तथा दोष देखने की प्रवृति जाग जाती है। जिन लोगों को अपने धार्मिक तथा अन्य वैचारिक ज्ञान पर अहंकार है उनका तो कहना ही क्या? वह सशस्त्र संघर्ष के द्वारा धर्म स्थापना की बात करते हैं। ऐसे में किसी ज्ञानी की पहचान करना कठिन लगता है पर जिन लोगों ने अहिंसा तथा शांति का मार्ग अपनाया है और लालच तथा लोभ की वजह से दूसरे की हानि नहीं करते उनको ही ज्ञानी माना जा सकता है। कम से कम मनु स्मृति में तो यही सन्देश दिया गया है 
यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवम्
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिपतं मम मनः
यदा किञ्चित्किाञ्चिद् बुधजनसकाशादवगतम्
तदा मूर्खोऽस्मीति जवन इव मदो में व्यपगतः
हिंदी में भावार्थ -जब मुझे कुछ ज्ञान हुआ तो मैं हाथी की तरह मदांध होकर उस पर गर्व करने लगा और अपने को विद्वान समझने लगा पर जब विद्वानों की संगत में बैठा और यथार्थ का ज्ञान हुआ तो वह अहंकार ज्वर की तरह उतर गया तब अनुभव हुआ कि मेरे समान तो कोई मूर्ख ही नहीं है।
वरं पर्वतदुर्गेषु भ्रान्तं वनचरैः सह
न मूर्खजनसम्पर्कः सुरेन्द्रभवनेष्वपि
हिंदी में भावार्थ - बियावान जंगल और पर्वतों के बीच खूंखार जानवरों के साथ रहना अच्छा है किंतु अगर मूर्ख के साथ इंद्र की सभा में भी बैठने का अवसर मिले तो भी उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।
वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य की पंच तत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि तथा अहंकार स्वाभाविक रूप से रहते हैं। अच्छे से अच्छे ज्ञानी को कभी न कभी यह अहंकार आ जाता है कि उसके पास सारे संसार का अनुभव है। इस पर आजकल अंग्रेजी शिक्षा पद्धति लोग तो यह मानकर चलते हैं कि उनके पास हर क्षेत्र का अनुभव है जबकि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के बिना उनकी स्थिति अच्छी नहीं है। सच तो यह है कि आजकल जिन्हें गंवार समझा जाता है वह अधिक ज्ञानी लगते हैं क्योंकि वह प्रकृति से जुड़े हैं और आधुनिक शिक्षा प्राप्त आदमी तो एकदम अध्यात्मिक ज्ञान से परे हो गये हैं। इसका प्रमाण यह है कि आजकल हिंसा में लगे अधिकतर युवा आधुनिक शिक्षा से संपन्न हैं। इतना ही नहीं अब तो अपराध भी आधुनिक शिक्षा से संपन्न लोग कर रहे हैं।
जिन लोगों के शिक्षा प्राप्त नहीं की या कम शिक्षित हैं वह अब अपराध करने की बजाय अपने काम में लगे हैं और जिन्होंने अंग्रेजी में शिक्षा प्राप्त की और इस कारण उनको आधुनिक उपकरणों का भी ज्ञान है वही बम विस्फोट और अन्य आतंकवादी वारदातों में लिप्त हैं। इससे समझा जा सकता है कि उनके अपने आधुनिक ज्ञान का अहंकार किस बड़े पैमाने पर मौजूद है।
आदमी को अपने ज्ञान का अहंकार बहुत होता है पर जब वह आत्म मंथन करता है तब उसे पता लगता है कि वह तो अभी संपूर्ण ज्ञान से बहुत परे है। कई विषयों पर हमारे पास काम चलाऊ ज्ञान होता है और यह सोचकर इतराते हैं कि हम तो श्रेष्ठ हैं पर यह भ्रम तब टूट जाता है जब अपने से बड़ा ज्ञानी मिल जाता है। अपनी अज्ञानता के वश ही हम ऐसे अल्पज्ञानी या अज्ञानी लोगों की संगत करते हैं जिनके बारे में यह भ्रम हो जाता है वह सिद्ध हैं। ऐसे लोगों की संगत का परिणाम कभी दुखदाई भी होता है। क्योंकि वह अपने अज्ञान या अल्पज्ञान से हमें अपने मार्ग से भटका भी सकते हैं।
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Sunday, July 04, 2010

श्रीगुरुवाणी-जाति पर घमंड करना व्यर्थ (jati par ghamand karna vyarth-shri guruvani)

श्री गुरुनानक देव ने हमारे अध्यात्मिक ज्ञान के पुनरोद्धार में अनुकरणीय योगदान दिया है। उनके समय में अंधविश्वास और रूढ़िवादिता का अत्यंत बोलबाला था और उन्होंने समाज को इनसे दूर रखने के लिये महान प्रयास किया। भारत में जांतपांत को लेकर निरर्थक विवाद होते हैं और हैरानी की बात यह है कि आधुनिक शिक्षा के बढ़ते प्रभाव के साथ जातीय और धार्मिक विवाद भी बढ़ते जा रहे हैं। यही कारण कि समाज और देश दोनों ही पिछड़े हुए है। आज जरूरत इस बात की है कि उनकी शिक्षाओं को ग्रहण कर उसे जीवन में उतरा जाये।
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जाति का गरबु न करि मूरख गवारा।
इस गरब ते चलहि बहुतु विकारा।।
हिन्दी में भावार्थ-
गुरुवाणी में मनुष्यों को संबोधित करते हुए कहा गया है कि ‘हे मूर्ख जाति पर गर्व न कर, इसके चलते बहुत सारे विकार पैदा होते हैं।
‘हमरी जाति पाति गुरु सतिगुरु’
हिन्दी में भावार्थ-
गुरुग्रंथ साहिब में भारतीय समाज में व्याप्त जाति पाति का विरोध करते हुए कहा गया है कि हमारी जाति पाति तो केवल गुरु सत गुरु है।
‘भै काहू को देत नहि नहि भै मानत आनि।
कहु नानक सुनि रे मना गिआनी ताहि बखानि।।’
हिन्दी में भावार्थ-
गुरुग्रंथ साहिब के अनुसार जो व्यक्ति न किसी को डराता है न स्वयं किसी से डरता है वही ज्ञानी कहलाने योग्य है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-प्राचीनकाल में भारत में जाति पाति व्यवस्था थी पर उसकी वजह से समाज में कभी विघटन का वातावरण नहीं बनता था। कालांतर में विदेशी शासकों का आगमन हुआ तो उनके बौद्धिक रणनीतिकारों ने यहां फूट डालने के लिये इस जाति पाति की व्यवस्था को उभारा। इसके बाद मुगलकाल में जब विदेशी विचारधाराओं का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा था तब सभी समाज अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिये संगठित होते गये जिसकी वजह से उनमें रूढ़ता का भाव आया और जातीय समुदायों में आपसी वैमनस्य बढ़ा जिसकी वजह से मुगलकाल लंबे समय तक भारत में जमा रहा। अंग्रेजों के समय तो फूट डालो राज करो की स्पष्ट नीति बनी और बाद मेें उनके अनुज देसी वंशज इसी राह पर चले। यही कारण है कि देश में शिक्षा बढ़ने के साथ ही जाति पाति का भाव भी तेजी से बढ़ा है। जातीय समुदायों की आपसी लड़ाई का लाभ उठाकर अनेक लोग आर्थिक, सामजिक तथा धार्मिक शिखरों पर पहुंच जाते है। यह लोग बात तो जाति पाति मिटाने की करते हैं पर इसके साथ ही कथित रूप से जातियों के विकास की बात कर आपसी वैमनस्य भी बढ़ाते है।
भारत भूमि सदैव अध्यात्म ज्ञान की पोषक रही है। हर जाति में यहां महापुरुष हुए हैं और समाज उनको पूजता है, पर कथित शिखर पुरुष अपनी आने वाली पीढ़ियों को अपनी सत्ता विरासत में सौंपने के लिये समाज में फूट डालते हैं। जो जातीय विकास की बात करते हैं वह महान अज्ञानी है। उनको इस बात का आभास नहीं है कि यहां तो लोग केवल ईश्वर में विश्वास करते हैं और जातीय समूहों से बंधे रहना उनकी केवल सीमीत आवश्यकताओं की वजह से है।
जातीय समूहों से आम लोगों के बंधे रहने की एक वजह यह है कि यहां सामूहिक हिंसा का प्रायोजन अनेक बार किया जाता है ताकि लोग अकेले होने से डरें। इस समय देश में बहुत कम ऐसे लोग होंगे जो अपने जातीय समुदायों के शिखर पुरुषों से खुश होंगे पर सामूहिक हिंसक घटनाओं की वजह से उनमें भय बना रहता है। आम आदमी में यह भय बनाये रखने के लिये निंरतर प्रयास होते हैं ताकि वह अपने जातीय शिखर पुरुषों की पकड़ में बने रहें ताकि उसका लाभ उससे ऊपर जमे लोगों को मिलता रहे। मुश्किल यह है कि आम आदमी में भी चेतना नहीं है और वह इन प्रयासों का शिकार हो जाता है। इसलिये सभी लोगों को यह समझना चाहिए कि यह जाति पाति बनाये रखकर हम केवल जातीय समुदायों के शिखर पुरुषों की सत्ता बचाते हैं जो दिखाने के लिये हमदर्द बनते हैं वरना वह तो सभी अज्ञानी है। अपने से बड़े से भय खाने और और अपने से छोटे को डराने वाले यह लोग महान अज्ञानी हैं और हमारे अज्ञान की वजह से हमारे सरताज बन जाते है।
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