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Saturday, May 31, 2014

लकड़ी और पत्थर में परमात्मा का निवास नहीं होता-चाणक्य नीति के आधार पर चिंत्तन पर लेख(lakdi aur patthar mein parmatma ka niwas nahin hota-A hindi religion thought based on chankya policy)



      हमारे देश में साकार तथा निरंकार दोनों प्रकार की भक्ति को मान्यता प्रदान की जाती है। यहां तक कि अनेक अध्यात्मिक विद्वान यह भी मानते हैं कि चाहे मूर्ति पूजा करें या नहीं पर परमात्मा के प्रति सहज भाव से की गयी भक्ति अध्यात्मिक शुद्धता प्रदान करती है। यही अध्यात्मिक शुद्धता जीवन में शांति के साथ ही अपनी समस्याओं का हल करने की शक्ति प्रदान करती है। यह अलग बात है कि साकार भक्ति की आड़ में हमारे यहां अनेक प्रकार के सिद्ध मंदिर बताकर वहां लोगों को पर्यटन के लिये प्रेरित करने का प्रयास किया जाता है। प्राचीन धर्मग्रंथों की कथाओं में वर्णित महापुरुषों से संबंद्ध स्थानों को पवित्र मानकर वहां अनेक प्रकार के कर्मकांडों की परंपरायें विकसित की गयी हैं।  इनसे धर्म के व्यापारियों के वारे न्यारे होते हैं।

चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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काष्ठापाषाणधातूनां कृत्वा भावेन सेवनम्।
श्रद्धया च तया सिद्धस्तब्ध विष्णुः प्रसीदति।।
     हिन्दी में भावार्थ-लकड़ी, पत्थर एवं धातु की बनी मूर्तियों भावना पूर्वक सेवा करनी चाहिए। ऐसा करने से भगवान विष्णु अपनी कृपा का प्रसाद प्रदान करते हैं।
न देवो विद्यते काष्ठे न पाषाणे न मृन्मये।
भावे हि विद्यते देवस्तस्माद् भावी हि कारणम्।।
     हिन्दी में भावार्थ-देव लकड़ी में विद्यमान नहीं है न ही पत्थर में विराजमान है न ही मिट्टी का प्रतिमा उसके रूप का प्रमाण है। निश्चय ही परमात्मा वहीं विराजमान है जहां हार्दिक भावना से भक्ति की जाती है।

      देखा जाये तो दिन का विभाजन प्रातः धर्म, दोपहर अर्थ, सांय मनोरंजन तथा रात्रि मोक्ष यानि निद्रा के लिये होता है। देखा यह जा रहा है कि कथित तीर्थों पर लोग जाकर एक तरह से पर्यटन करने जाते हैं। वहां स्थित धार्मिक ठेकेदार दान के नाम पर कर्मकांड कराकर उनका आर्थिक शोषण करते हैं। अज्ञान के अभाव के स्वर्ग की चाहत में लोग इन कर्मकांडों में व्यय कर अपने घर लौटकर आते हैं।  इससे न तो उनके मन की शुद्ध होती है न विचार पवित्र रहते हैं इसलिये उनका जीवन फिर पुराने ढर्रे पर चलता है जिसमें बीमारी, तनाव और अशांति के अलावा कुछ नहीं रह जाता।
      जिन लोगों को अपना जीवन सहजता और शांति के साथ बिताना है उन्हें प्रातकाल के समय का उपयोग योग साधना तथा उद्यानों के भ्रमण में बिताना चाहिये।  समय मिले तो मूर्तियों की पूजा करना चाहिये पर सच यह है कि पत्थर, लोहे, पीतल या मिट्टी की बनी प्रतिमाओं में परमात्मा नहीं होते वरन् हमारे अंदर के भाव से उनमें आभास रहता है।  इस भाव का आनंद तभी लिया जा सकता है जब अपना हृदय शुद्ध हो।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Wednesday, May 14, 2014

हृदय में पवित्रता न हो तो सत्संग में जाने से भी लाभ नहीं-रहीम दर्शन पर आधारित चिंत्तन लेखhridya mein pavitrata na ho to satsang mein jaane se labh nahin- A Hindi religion thought basedrahim darshan)



                      हमारे देश में धर्म पर व्याख्यान करना भी एक तरह से पेशा रहा है। यह अलग बात है कि कथित धर्म प्रचारक कभी प्रत्यक्ष रूप से अपने परिश्रम का प्रतिफल शुल्क या मूल्य के रूप में नहीं लेते देखे गये  पर दान दक्षिणा के नाम पर उन्हें इतना मिल जाता है कि वह अपना घर चला ही लेते हैं। अब तो यह देखा जा रहा है कि धार्मिक संगठनों के प्रमुख किसी पूंजीपति  से कम नहीं रह गये।  दवा, कपड़े, खानेपीने का सामान तथा पूजा सामग्री बेचने के अलावा अनेक धार्मिक संगठन तीर्थयात्राओं का भी इंतजाम करने लगे हैं। अनेक धार्मिक प्रमुखों के आश्रम राजमहल की तरह हैं तो उनके शिष्यों के आवास भी होटल से कम नहीं होते।
                      हम जिस धर्म को आचरण में लाने पर प्रमाणिक मानते हैं वही वस्तुओं के विक्रय तथा अनेक सेवाओं के लिये एक विज्ञापन की छाप बन गया है। एक तरह से बाज़ार स्वामियों  का एक बहुत बड़ा भाग धर्म की आड़ लेकर व्यापार कर रहा है। यही कारण है कि ऐसा लगता है जैसे हमारा पूरा देश ही धर्ममय हो रहा है पर इधर यह भी दिखाई देता है कि समाज में  नैतिक आचरण भी निरंतर पतन की तरफ जा रहा है। आर्थिक विकास दृष्टि से हम जहां आगे जा रहा है वहीं मानसिक रूप से हमारा समाज पिछड़ रहा है।

कविवर रहीम कहते हैं कि
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रहिमन जो तुम कहत थे, संगति ही गुन होय।
बीच उखारी रसभरा, रस काहै न होय।।
                   सरल हिन्दी में व्याख्या-यह कहना गलत है कि सत्संग का असर मनुष्य पर सदैव अच्छा होता है।  ईख के खेत में उगन वाला रसभरा पौध कभी रस से नहीं होता है।
                      कहने का अभिप्राय यह है कि हम भौतिक विषयों पर किसी एक सूत्र के आधार पर निर्णय नहीं कर सकते क्योंकि मनुष्य देह जहां प्रत्यक्ष दिखती है वहीं उसमें बैठा मन कभी दिखाई नहीं देता जो कि बंदर की तरह नाचता और नचाता है। मनुष्य मन को धर्म के नाम पर सहजता से भरमाया जा सकता है। वह कब किसी तरह गुलाटी मारेगा इसका कोई तयशुदा सूत्र नहीं है। यही कारण है कि जहां हमारे देश के ऋषि मुनि समाज को हमेशा ही अन्धविश्वास  से दूर रहने की प्रेरणा देते रहे हैं वहीं चालाक लोगों का एक वर्ग कर्मकांडों से समाज को स्वर्ग दिलाने की आड़ में भ्रमित करता रहा है।  आधुनिक समय में पैसे का खेल इस कदर हो गया है कि अनेक प्रकार के आकर्षक धार्मिक स्थान बन गये हैं जो जहां लोग श्रद्धा से कम पर्यटन करने अधिक जाते हैं।  अनेक पर्यटन स्थल तो सर्वशक्तिमान की दरबारों की वजह से ही प्रसिद्ध हैं। वहां भारी भीड़ जुटती है। करोड़ों का चढ़ावा आता है।  आने वाले सभी लोगों को श्रद्धालू और दानी माने तो हमारा पूरा समाज देवत्व का प्रमाण माना जाना चाहिये पर ऐसा है नहीं। देश में व्याप्त भ्रष्टाचारशोषण, महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध, नशेबाजी और सट्टेबाजी को देखें तब लगता है कि यहां असुरों की संख्या भी कम नहीं है।
                      कहने का अभिप्राय यह है कि कथित रूप से धर्म की संगत करने का कोई लाभ तब तक नहीं होता जब तक अपनी नीयत साफ न हो। श्रद्धा के बिना सत्संग में जाने से मन में विचार स्वच्छ नहीं होते और इसके अभाव में मनुष्य का व्यवहार अच्छा नहीं होता।



संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Friday, May 09, 2014

जीवन में संताप भोगने वाले ही आत्मप्रशंसा करते हैं-रहीम के आधार पर चिंत्तन लेख(jivan mein santap bhogne wale hi aatmprashasa karte hain-A hindi thought article on rahim darshan)



      आमतौर से आत्मप्रशंसा करने की प्रवृत्ति सभी इंसानों में स्वाभाविक रूप से  होती है पर जिन लोगों का व्यवहार असंतुलित तथा विचार संकीर्ण होते हैं उनके अंदर बिना कोई खास काम किये सम्मान पाने का मोह ज्यादा ही होता है।  अपने दुर्गुणों के कारण वह हमेशा संकट में रहते हैं पर दूसरों के सामने इस तरह प्रदर्शित करते हैं जैसे कि वह कोई विशिष्ट व्यक्तित्व के स्वामी हों।  यह अलग बात है कि एकांत में उनके चेहरे पर हवाईयां उड़ रही होती हैं।

कविवर रहीम कहते हैं कि
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ये रहीम फीके दुवौ, जानि महा संतापु।
ज्यों तिय कुच आपन गहे, आपु बड़ाई आपु।।
     हिन्दी में भावार्थ-यदि कोई व्यक्ति रूखा व्यवहार करे तो समझ लेना चाहिये कि वह अंदर किसी महा संताप का सामना कर रहा है। ऐसे लोग आत्मप्रवंचना करते हुए केवल अपनी बात ही कहते हैं।

      जिन लोगों के अंदर सद्गुणों का भंडार होता  है वह उसको दिखाने की बजाय उसका उपयोग करते हुए सभी से  न केवल अच्छे व्यवहार की नीति पर चलते हैं वरन् अपने विचारों को भी पवित्र रखते हैं। उनकी सांसरिक विषयों के साथ अध्यात्मिक ज्ञान में भी रुचि रहती है। जिन लोगों का संपूर्ण दिन सांसरिक विषयों में बीतता है उन पर केवल माया का प्रभाव रहता है।  अध्यात्मिक ज्ञान होने की बात तो दूर वह उसके श्रवण, अध्ययन और चिंत्तन से भी बचते हैं।  सच बात तो यह है कि बिना अध्यात्मिक ज्ञान के मन में शांति हो ही नहीं सकती इसलिये अज्ञानी लोग अपना तनाव दूसरों पर डालने का प्रयास करते हैं। अपने खालीपन को वह दूसरों के विषयों में दोष से भरना चाहते हैं।
      परनिंदा, ईर्ष्या, अहंकार तथा आत्मप्रवंचना से कभी किसी को प्रशंसा नहीं मिलती वरन् पीठ पीछे लोग मजाक बनाते हैं।  इसलिये जहां तक हो सके अपने अंदर अध्यात्मिक साधना की प्रक्रिया से ज्ञान का सृजन करना चाहिये।


संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Tuesday, May 06, 2014

भोजन करते समय मन सदैव प्रसन्न रखें-मनस्मृति के आधार पर चिंत्तन लेख(bhojan karte samaya man prasanna rakhen-A Hindu religion thought on manu smriti)



            मनुष्य भोजन, आवास तथा वस्त्र प्राप्त करने के बाद भी संग्रह करता है जबकि पशु पक्षी तथा अन्य जीव अपनी आवश्यकता पूरी होने पर शांत होकर विश्राम करते हैं। मनुष्य जहां के मन की भूख कभी शांत नहीं होती। इतना ही नहीं जब माया का प्रभाव उस पर बढ़ जाये तो वह भोजन तक आराम से नहीं करता।  कहा जाता है कि जब भोजन करें तो मन शांत रखें पर मनुष्य खुशी हो या दुःख अपने मन के भावों को भोजन के वक्त भी जाग्रत रखता है।  आमतौर से ज्ञान तािा योग साधक भोजन को औषधि की तरह ग्रहण करते हैं पर सामान्य मनुष्य भोजन के पेट भरने के साथ जीभ के स्वाद की तृप्ति भी करना चाहते हैं। आजकल तो जीभ के स्वाद के लिये ऐसे पदार्थों को उदरस्थ कर रहे हैं जो न केवल अपाचक हैं वरन् स्वास्थ के लिये हानिकारक भी होते हैं।

मनु स्मृति में कहा गया है कि
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पूजयेदशनं नित्यमद्याच्चैतदकुत्सन्।
दृष्टया हृध्येत्प्रसींदेच्च प्रतिनदेच्य सर्वेशः।

     हिंदी में भावार्थ-थाली में सजकर जैसा भी भोजन प्राप्त हो उसे देखकर अपने मन में प्रसन्नता का भाव लाना चाहिये। ऐसा अच्छा भोजन हमेशा प्राप्त हो यह कामना हृदय में करना चाहिए।
अनारोगयमन्तयुरूयमस्वगर्यं चारिभोजनम्।
अपुण्यं लोकविद्विष्टं तस्मात्त्परिर्जयेत्।।

     हिंदी में भावार्थ- भूख से अधिक भोजन करने से  देह के लिये अस्वास्थ्यकर है। इससे आयु कम होने के साथ ही पुण्य का भी नाश होता है। दूसरे लोग अधिक खाने वाले की निंदा करते या मजाक उड़ाते हैं।
     जब सामने थाली में भोजन आता है तो उसे देखकर हमारे मन में कोई न कोई भाव अवश्य आता है। सब्जी मनपंसद हो तो अच्छा लगता है और न हो तो निराशा घेर लेती है। भोजन पसंद का न होने पर परोसने वाला कोई बाहर का आदमी हो तो हम उससे कुछ नहीं कहते पर मन में उपजा वितृष्णा का भाव उस भोजन से मिलने वाले अमृत को विष तो बना ही देता है। घर का आदमी या पुरुष हो तो हम उसे डांटफटकार देते हैं और इससे उसी भोजन को विषप्रद बना देते हैं जो अमृत देने वाला होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि मन के भावों से भोजन से मिलने वाली ऊर्जा का स्वरूप निर्धारित होता है।
     भोजन खाते समय केवल उसी पर ध्यान रखना चाहिये। न तो उस समय किसी से बात करना चाहिये और न ही मन में अन्य विचार लाना चाहिये। इससे भोजन सुपाच्य हो जाता है। चिकित्साविज्ञान ने अब इस बात की पुष्टि कर दी है कि भोजन करते समय तनाव रहित व्यक्ति विकार रहित भी हो जाते हैं।
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