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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Sunday, April 28, 2013

विदुरनीति के आधार पर चिंत्तन-क्लेश से धन प्राप्त करने का विचार न करें (vidru neeti ke adhara par sandesh-klesh se dhan prapt karne ka vichar na karen)



          मनुष्य जीवन को धारण करने वालों के मन मस्तिष्क में  यह भ्रम रहता कि वह केवल धनर्जान करने के लिये ही पैदा हुए हैं।   संसार के अधिकतर मनुष्य  धन को ही सत्य मानते हैं।  धन कमाने के बाद  उसके व्यय का प्रदर्शन कर समाज में अपनी श्रेष्ठता साबित करने का मोह कोई नहीं छोड़ पाता। हमारे देश में धर्म तथा  समाज के नाम पर ऐसी परम्पराएं  बनायीं गयी हैं जिनका निर्वाह बिना धन के संभव नहीं हो सकता।  पुत्र  के लिये व्यवसाय तथा पुत्री के लिये वर ढूंढते हुए हमारे देश के अधिकतर लोगों का जीवन ही निकल जाता है।  हमारे देश के लोगों में धन संचय की प्रवृत्ति इतनी गहरी है कि आधुनिक समय में चालाक बुद्धिमानों के लिये उनके साथ  ठगी करना आसान हो गया है। 
         देश भर में अनेक चिटफंड कंपनियां यह काम इस तरह कर रही है कि लोग अपनी सारी जमा पूंजी उनके पास जमा कर आते हैं।  अधिक व्याज का लोभ लोगो के लिये संकट का कारण तब बनता है जब उनका मूल धन भी हाथ से निकल जाता है।  पीड़ित लोग अधिकतर अपने पृत्र के व्यवसाय या नौकरी तथा बेटी की शादी के लिये धन जमा करने की बात कहते है।  हमारे यहां विवाह तथा मृत्यु के अवसर पर जितनी नाटकबाजी होती है वह धन से ही संभव है।  यही कारण है कि भारत में लोग बच्चों के भविष्य के लिये अधिक से अधिक संचय करते हैं। इतना ही नहीं अपने बुजुर्गों की मृत्यु पर उनके दाह संस्कार के बाद भोज के प्रबंध का जिम्मा भी उन पर रहता है।  समाज में अपनी कथित छवि बचाये रखने के लिये भारत के लिये हर आम आमदी जूझता रहता है।  हमारे देश में सीध सच्चे धंधे में अधिक धनवान होने के अवसर करीब करीब बंद कर दिये गये हैं, जिसका परिणाम यह हुआ है कि अपने पास मौजूद धन की वृद्धि के लिये ऐसे ठगों के जाल में आमजन  आसान से फंस जाते हैं।
                      विदुरनीति में कहा गया है कि
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            अतिक्लेशेन येऽर्याः स्युर्धर्मस्यातिक्रमेश वा।
            अरेवां प्रणपातेन मा स्म तेषु मनकृथाः।।
        हिंदी  में भावार्थ-जिस धन को अर्जित करने में मन तथा शरीर को अत्यंत क्लेश हो, धर्म का उल्लंघन  करना पड़े या फिर शत्रु के सामने अपना सिर झुकाने की बाध्यता उपस्थित हो, उसे प्राप्त  करने का विचार ही त्याग देना श्रेयस्कर है।
                          
            सहस्त्राणिऽपि जीवन्ति जीवन्ति शतिनानथा।
            धृतराष्ट्र निमुंचेच्छां न कथंचिन्न जीव्यते।
       हिन्दी में भावार्थ-जिनके पास हजार है वह जिंदा रहते हैं पर जिनके पास सौ वह भी जिंदा  रहते हैं। धन का लोभ छोड़ने वाले लोग भी हर हालत में अपना जीवन धारण किये रहते ही  हैं।
        हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार  जिस जीव में परमात्मा ने प्राणवायु प्रवाहित की है माया उसकी सेवा करने के लिये बाध्य है। कहा भी जाता है कि जिसने पेट दिया है वह दाना भी देगा।  परमात्मा की दासी माया है न कि उसकी स्वामिनी।  यह भी कहा जाता है कि जिसके भाग्य में माया का जितना भाग आना लिखा है उतना ही मिलेगा। इसके बावजूद धर्मभीरुता का दावा करने वाले हमारे भारतीय समाज के अधिकांश लोगों  को इस पर विश्वास नहीं है। श्रीमद्भागवत गीता से कथित रूप से कर्मप्रेरणा मिलने का दावा करने वाले यहां अनेक लोग मिल जायेंगे पर यह कोई नहीं समझ पाया कि उसमें निष्कर्म की बात कही गयी है न कि सकाम कर्म का सिद्धांत स्थापित किया गया है।  स्थिति यह है कि लोग धन के लिये देह तथा मन को भारी संताप देने के लिये तैयार हो जाते हैं। अपने ही धन के शत्रुओं की चिकनी चुकडी बातों में आकर उसे सौंप देते हैं।  परिणाम यह है कि बाद में जब धोखा मिलता है तो सिवाय आर्तनाद करने के अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प् नहीं रहता। 
         अतः अपने नियमित स्वाभाविक कर्म करते हुए परमात्मा का स्मरण ही करते रहना चाहिये।  संसार के विषयों का चक्र माया की कृपा से चलता ही रहता है।  उसमें एक दृष्टा की तरह शामिल होना चाहिये। समय आने पर सारे काम हो जाते हैं यह विश्वास धारण कर जीवान आनंद से बिताना चाहिये।   

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Wednesday, April 24, 2013

मनुस्मृति से संदेश-केश श्वेत होने से कोई आदरणीय नहीं होता (manu smriti se sandesh-kesh shwet hone se koyee aadarniy nahin hota)

       जब भारत में कंप्यूटर का आगमन हो रहा था तब नयी पीढ़ी के अनेक युवक युवतियों ने इसमें महारथ  प्राप्त कर लिया।  इस कारण उन्हें रोजगार के नये अवसर मिले।  तब अपने से वरिष्ठ लोगों को काम सिखाने का दायित्व भी उन पर आया।  आज भी अनेक लोग ऐसे हैं जिन्हें अपनी से छोटी आयु के लोगों के सामने  मोबाइल, कंप्यूटर या गाड़ी चलाना सिखाने के लिये अपने से  सामने याचना करनी पड़ती है।
       एक बार एक सज्जन ने अपने बेटे की आयु वाले एक युवक से कंप्यूटर सीखना प्रारंभ किया। वह उस युवक को सरकहकर संबोधित करने लगे।   युवक ने इस संबोधन से अपने आपको असहज अनुभव करते हुए उनसे कहा-‘‘सर, आप मुझसे से आयु में बड़े हैं। कृपया मुझे नाम लेकर बुलायें।
       उन सज्जन ने जवाब दिया-‘‘आप मेरी आयु देखकर मुझे सर का संबोधन दे रहे हैं यही बहुत है पर मैं आपसे कंप्यूटर सीख रहा हूं इसलिये नाम लेकर कभी नहीं बुला सकता।  इस विषय में आप मेरे गुरु हैं। यह मेरे संस्कारों में नहीं है कि अपने गुरु का नाम लूं।  दूसरा यह कि कोई अगर आगे भी आयु में बड़ा आपको सरका संबोधन दे तो उसे रोके नहीं। आप कंप्यूटर के विषय में गुरु पद पर प्रतिष्ठत हैं।
        यह तो वर्तमान समय की बात है। पहले भी अनेक ऐसे लोग हुए हैं जिन्होंने छोटी आयु में ही तत्वज्ञान प्राप्त कर अपने से बड़ी आयु के लोगों में अपनी सम्मानीय छवि बनाई।  भगवान श्रीकृष्ण भीष्म पितामह, आचार्य द्रोणाचार्य, कृपाचार्य तथा विदुर से आयु में छोटे थे पर तत्वज्ञान होने के कारण उनकी दृष्टि में सम्मानीय थे।
न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिरः।
यो वै युवाऽप्यधीयास्तं देवाः स्थाविरं विदुः।।
       हिन्दी में भावार्थ-सिर के बाल श्वेत हो जाने से कोई बड़ा नहीं होता। अगर ज्ञान प्राप्त कर ले तो युवा व्यक्ति भी बुद्धिमान की तरह सम्मानीय हो जाता है।
अध्यापयामास पितृन शिशुङ्गिरसः कविः।
पुत्रका इति होवाच ज्ञानेन परिगृह्य तान्।।
  हिन्दी में भावार्थ-अङ्गिरस के वेदज्ञाता पुत्र ने अपनी आयु से भी बड़े रिश्तेदारों को विद्या का दान दिया और उन्हें हे पु़त्रकहकर संबोधित किया।
           कहने का अभिप्राय यह है कि सीखने की उम्र नहीं होती और सिखाने वाला व्यक्ति हमेशा ही आदर का पात्र होता है। आध्यात्मिक ज्ञान का अध्ययन करने का सुअवसर तथा सुसमय विरलों को ही मिलता है। जिनको मिलता है उनमें भी बहुत कम उसका सदुपयोग कर पाते हैं।  जो तत्वज्ञान में पारंगत होते हैं वह स्वयमेव गुरु पद पर प्रतिष्ठत हो जाते हैं।  उनके आचरण, व्यवहार, कर्म, वाणी तथा विचार स्वतः उनके ज्ञान का प्रमाण देते हैं। उन्हें प्रचार की आवश्यकता नहीं होती। सांसरिक विषयों में लिप्त रहना  हर मनुष्य का स्वभाव होता है।  उसे त्याग कर जो अध्यात्मिक ज्ञान की दीप जलाते हैं वही महान होते हैं।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Saturday, April 20, 2013

मनुस्मृति से संदेश-पैरों को गीला कर भोजन करना चाहिए (manu smriti se sandesh-pairon ko geela ka bhojan karna chahiye)

     
      जीवन में लंबे समय तक यदि प्राण धारण करने की इच्छा जिसके मन में हैं तो वह भले ही हमेशा साहस दिखायें पर कभी दुस्साहस न करे।  आजकल हम देख रहे हैं कि धन तथा सुविधाओं की प्रचुर उपलब्धता ने लोगों के  मन तथा मस्तिष्क का हरण लिया है।  अनेक बड़े शहरों में नई नई महंगी गाड़ियां खरीदने वाले अनेक युवक रात्रिकाल में आपसी प्रतियोगिता करते हुए तीव्र गति से उनको दौड़ाते हैं।  इस कारण अनेक दुर्घटनायें होती रहती हैं। इसमें कार चालक स्वयं दुर्धटनाग्रस्त होता है या मार्ग पर चल रहे राहगीर उनका शिकार हो जाते हैं।  इस तरह की दुर्घटनाओं के पीछे कोई तर्क ढूंढना व्यर्थ लगता है।  सीधी बात कहें तो माया हमेशा आदमी की मति भ्रष्ट करती है। ऐसी घटनायें  यह साबित करती है कि खाना पचाने का मंत्र तो है पर धन पचाने का मंत्र नहीं है। 
      मनुस्मृति में कहा गया है कि
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      आर्द्रपादस्तु भुञ्जोत नार्द्रपादस्तु संविशेत्।
      आर्द्रपादस्तु भुञ्जानोःदीर्घमायुरवाप्नुयात्।।
       हिन्दी में भावार्थ-पैरों को गीला करके भोजन करना चाहिये मगर गीले पैर कभी सोना नहीं चाहिये। गीले पैर करके भोजन करने वाला लंबी आयु प्राप्त करता है।
   अचक्षुर्विषयं दुर्ग न प्रपद्येत कर्हिचित्।
   न विण्मूत्रमुदीक्षेत बाहुभ्यां नदी तरेत्
           हिन्दी में भावार्थ-आंखों से न दिखने वाले स्थान पर कभी पांव नहीं रखना चाहिये। खप्पर, कपास की गुठली तथा भूसे के ढेर पर कभी नहीं बैठना चाहिये।  कभी भी बाहुबल से नदी पार करने का प्रयास भी नहीं करना चाहिये।
       पैरों को गीला कर भोजन ग्रहण करने से जीवन में आयु बढ़ती है। उनको गीला कर सोना नहीं चाहिये। कहने का अभिप्राय यह है कि हमारे पास भोजन के पचाने के अनेक उपाय हैं पर धन संपदा आने पर अपने मन तथा मस्तिष्क पर नियंत्रण रखने कोई भी सूत्र नहीं है। जिनके पास धन आता है  वह दुस्साहसी हो जाते हैं। मनोरंजन की भूख उनको अक्ल का अंधा बना देती है।  हमने अनेक ऐसी घटनायें भी देखी हैं कि वर्षा के दिनों में कुछ  लोग समूह बनाकर पिकनिक मनाने जाते हैं। उनको इस बात का अनुमान नहीं होता कि नदी  या तालाब में पानी कहां किस स्तर पर है पर वह उसमें कूद कर नहाते हैं।  वह अपने साथ गये लोगों में अपना प्रभाव दिखाने के लिये ऐसे जल स्त्रोतों में तैरने का प्रयास करते हुए अपने लिये संकट को  आमंत्रण देते हुए देखे जा सकते हैं।  इसमें केाई संदेह नहीं है कि लंबी आयु का मोह सभी को होता है पर इसके लिये संयम, संतोष, धैर्य के साथ तीक्ष्ण बुद्धि होना आवश्यक है।  यह तभी हो सकता है जब मनुष्य में आध्यात्म का ज्ञान हो। हमारे देश में मनुस्मृति को नये युग में अपठनीय मानकर तिरस्कृत कर दिया गया है।  उसमें अनेक दोष बताये गये हैं। हम उन पर यहां चर्चा नहीं करना चाहते क्योंकि इससे विवाद बढ़ता रहा है।  मूल बात यह है कि उसमें जो जीवन से सम्बंधित उचित संदेश है उन पर चिंत्तन और मनन करते रहना चाहिये।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Tuesday, April 09, 2013

विदुर नीति-दूसरों पर दोषारोपण करने वाला स्वयं भी सो नहीं पाता (vidur neeti-doosron par dosharopan karane wala swyan bhe so nahin paata)

    सामान्य मनुष्य को यह लगता जरूर है कि दुष्ट प्रकृति के लोग बहुत खुश रहते हैं पर यह सच नहीं होता। दूसरे को सताने वाला या अनावश्यक ही दूसरे पर  दोषारोपण करने  वाला कभी स्वयं भी सुखी नहीं रहता। जब कोई मनुष्य दूसरे पर दोषारोपण करते हुए उसके  अहित की बात सोचता है तब वह अपने अंदर भी बेचैनी का भाव लाता है।  अनेक बार देखा गया है कि जब कोई मनुष्य स्वयं  अपराध या  गलती करता है तब वह उसका दोष स्वयं न लेकर दूसरे पर मढ़ता है।  उसके झूठे दोष से पीड़ित व्यक्ति की जो आह निकलती है वह निश्चित रूप से उस पर दुष्प्रभाव डालती है। यह अलग बात है कि इस आह का दुष्प्रभाव तत्काल न दिखाई दे पर कालांतर में उसका परिणाम अवश्य प्रकट होता है।
विदुर नीति में कहा गया है कि
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न च रात्रौ सुखं शेते ससर्प वेश्मनि।
वः कोपयति निर्दोषं सदोषोऽभ्यन्तरे जनम्।।
    हिन्दी में भावार्थ-स्वयं दोषी होते हुए जो दूसरे पर दोषापरोपण करता है वह उसी तरह रात को चैन की नींद नहीं ले पाता जैसे सांप वाले घर में रहने वाला आदमी सो नहीं पाता।
येषु दृष्टेषु दोषः स्तद् योगक्षेमस्य भारत।
सदा प्रसादन तेषां देवतानामिवायरेतफ।।
       हिन्दी में भावार्थ- जिन पर दोषापरोपण करने से स्वयं के सुख में बाधा आती है उन लोगों को देवता की तरह प्रसन्न रखना चाहिये।
            सच बात तो यह है कि दूसरे पर दोषारोपण करने वाला व्यक्ति रात में उसी तरह नहीं सो पाता जैसे कि सांप वाले घर में रहने वाला नहीं सो पाता।  इतना ही नहीं जिन लोगों पर दोषारोपण करने से मन में कष्ट होता है उन्हें देवता की तरह मानते हुए  उनकी पूजा करना चािहये।  आजकल हम जो समाज के लोगों में बढ़ता मानसिक तनाव देख रहे हैं उसका कारण यह भी है कि लोग अपनी गल्तियों के लिये दूसरे पर दोष लगाते हैं।  इससे बचने का एकमात्र उपाय यही है कि समय समय पर आत्ममंथन करते रहें।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Saturday, April 06, 2013

चाणक्य नीति-कभी संकोच न करें (apnee bat kahane mein sankoch n karen-chanakya policy in hindi


           अनेक लोग सामान्य व्यवहार में अपनी बात कहने में संकोच करते हैं। उनमें संकोच इस कदर होता है कि वह सही समय पर भी सही बात नहीं कहते। मन ही मन उनको घुटन होती है पर बाहर कहने में संकोच के कारण व्यर्थ तनाव झेलते हैं।  इसके विपरीत स्पष्टवादी लोग भले ही झूठी प्रशंसा बटोरने की बजाय अपनी बात कह देते हैं। इसके लिये उनको आलोचना भी झेलनी पड़ती है मगर वह तनावमुक्त होकर जीवन व्यतीत करते हैं।  कहा भी जाता है कि अगर अपने मन में कोई बात हो वह कह देनी चाहिये।  इतना ही नहीं अगर कोई समस्या हो तो उसके हल के लिये लोगों को आवाज देना चाहिये।  यह सही है कि आजकल लोगों का स्वभाव मदद करने का नहीं रहा पर सभी एक जैसे हैं यह बात सोचना भी गलत है। अपने लोग भले ही मुंह फेर जायें पर संभव है कि शिकायत पर शोर करने से कोई मदद करने आ जाये।  अभी भी अगर संसार चल रहा है तो वह ऐसे लोगों की वजह से बना हुआ है तो अपने पराये का विचार किये बिना दूसरे की मदद करते हैं।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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धन-धान्यप्रयोगेषु विद्यासंग्रहणेषु च।
आहारे व्यवहारे च त्यक्तालजः सुखी भवेतु।।
                   हिन्दी में भावार्थ-धन और धान्य के व्यवहार, कहीं से विद्या प्राप्त तथा खाने पीने के साथ हिसाब में संकोच न करने वाला हमेशा सुखी रहता है।
            किसी से धन या अन्न का व्यवहार हो तो उसके सामने किसी प्रकार का संकोच नहीं करना चाहिये।  अपना उधार या वेतन मांगने में कभी शर्म अनुभव करना ठीक नहीं है।  जब प्रतिफल की आशा में कोई वस्तु या सेवा दी जाती है तो उस पर अपना अधिकार समझना गलत नहीं है।  अनेक लोग भूख लगने के बावजूद संकोच के कारण किसी अन्य स्थान पर भोजन करने से कतराते हैं।  ऐसा करना भी शरीर के साथ खिलवाड़ करना है।  सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि अगर कोई काम सीखना हो तो उसमें कभी संकोच नहीं करना चाहिये। सिखाने वाला व्यक्ति छोटा हो या बड़ा उससे काम सीखना चाहिये। कहने का अभिप्राय है कि संकोच करना अपने आप को कष्ट देना है।

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