समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Wednesday, September 30, 2009

कौटिल्य दर्शन-कभी कछुआ तो कभी साँप बन जाएँ (kautilya niti-kabhi saanp kabhi kashuaa bane)

मतप्रमतवत् स्थित्वा ग्रसदुत्पलुत्य पण्डितः।
अपरिभश्यमानं हि क्रमप्राप्ते मृगेन्द्रवत्।।
हिंदी में भावार्थ-
बुद्धिमान व्यक्ति को मत्त और प्रमत्त के समान दिखावे में स्थित होकर शत्रु पर ऐसे ही प्रहार करते हैं जैसे सिंह करता है। उसका वार कभी खाली नहीं जाता।
कौमे संकोचभास्य प्रहारमपि मर्धयेत्।
काले प्रापते तु मतिमानुत्तिश्ठेत्क्रूरसर्पवत्।।
हिंदी में भावार्थ-
अपने समय के अनुसार जीवन में रणनीति बनाते हुए कछुए के समान अंग समेटकर शत्रु का प्रहार भी सहन करें तो और उचित अवसर देखकर सांप के समान प्रहार भी करें।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में कई बार ऐसा अवसर आता है जब हमें दूसरे के शब्दिक और शारीरिक आक्रमण को झेलना पड़ता है। उस समय हमें अपनी स्थितियों और शक्ति का अवलोकन करते हुए इस बात को भी देखना चाहिये कि हमारे सहयोगी कौन है? अगर समय हमारे अनुकूल न हो तो अपनी सहनशक्ति को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि उस समय क्रोध या निराशा में उठाया गया कदम आत्मघाती होता है।
इसके विपरीत जब हमारा समय अनुकूल हो और लगता हो कि हमारे मित्र और सहयोगी साथ देने के लिये तैयार हैं और शत्रु या विरोधी को दबाया जा सकता है तब उस पर शाब्दिक या शारीरिक आक्रमण किया जा सकता है। वैसे आजकल के सभ्य युग में शारीरिक कम शाब्दिक संघर्ष अधिक होते हैं। चाहे किस प्रकार का भी आक्रमण हो उसकी तैयारी विवेक से करना चाहिये। कहीं कहीं हम पर शाब्दिक आक्रमण भी होता है और अगर लगता है कि वहां  प्रत्युत्तर देने का उचित समय नहीं है तो मौन रहना ही बेहतर है परंतु यदि लगता है कि उससे सामने वाले को अनावश्यक लाभ मिल रहा है तो स्थिति देखकर उस पर पलटवार करना बुरा नहीं है। कहने
 का तात्पर्य यह है कि समय के अनुसार अपना व्यवहार और कार्य करना चाहिए।  ........................................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग ‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। मेरे अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख-पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्द योग
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Monday, September 28, 2009

मनुस्मृति-अन्य लोगों की सुविधाओं का उपयोग न करें ((manu smriti-no use thing of other parson)


यानाश्य्यासनान्यस्य, कूपोद्यान ग्रह्यणि च।
अदत्तान्युपयु´्जानः एनसः स्वात्तुरीभाक्।।
            हिंदी में भावार्थ-वाहन, शैय्या, आसन, कुआं, उद्यान और भवन आदि का उपभोग कुछ दान कर ही करना लाभदायक होता है।


परकीयनियानुषु न स्नायाद्धि कदाचन।
नियानकत्र्तुः स्नात्वा तु दुष्कृतांशेन लिप्यते।।
                हिंदी में भावार्थ-अन्य व्यक्तियों द्वारा बनवाये गये स्नान के लिये बनाये गये स्थानों-स्नानगृहों,सरोवरों और कुऐं आदि-पर नहाना नहीं चाहिए। वह स्नानगृह अगर पापों के धन से बनाये गये हैं तो उसमें नहाने वाला भी उसका भागी बनता है।

                            वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आजकल की व्यस्त एवं दीर्घसूत्रीय जिंदगी में यह देखना कठिन काम है कि हम कहीं बाहर जाकर रुक रहे हैं तो वहां का स्थान किस प्रकार के धन से बनाया गया है। वैसे भी आजकल बिना काले धन के यह कैसे संभव है कि समाज का भौतिक विकास इतनी तीव्र गति से हो। ऐसे में भ्रष्ट और अनैतिक रूप से कमाये गये धन से बने आवास और स्नानगृहों में रहने और नहाने का प्रतिबंध स्वीकार करना संभव नहीं लगता। बड़े बड़े शहरों में बड़े और आलीशान होटल बन गये हैं जिनमें स्वीमिंग पूल भी होते हैं। अब यह कैसे कहा जा सकता है कि वह भ्रष्ट या अनैतिक धन से बने हैं या सात्विक धन से। वैसे तो आजकल धर्नाजन के कई ऐसे साधन  पवित्र माने जाते हैं जिनको पहले अपवित्र माना जाता था। अतः इस बारे में अपने विवेक से विचार करना चाहिये।

                    मगर सच तो यह है कि जिस प्रकार हम अपने जीवन में जिस प्रकार के व्यक्ति या वस्तु के संपर्क में आते हैं उसके पाप पुण्य का प्रभाव हम पर होता है। कहा जाता है कि ‘जैसे खायें अन्न वैसा हो मन’। इसका आशय यह तो है ही कि जिस प्रकार की वस्तु का हम उपभोग करेंगे वैसे ही प्रभाव हमारी देह के साथ ही हमारे मन और विचारों पर होगा। साथ ही यह भी कि उसके आने का सात्विक मार्ग है या असात्विक इस बात का प्रभाव भी उसके उपभोग करने वाले पर होता है। तात्पर्य यह है कि अगर हमें लगता है कि कोई व्यक्ति या वस्तु-जिसके बारे में यह यकीन हो कि वह असात्विक प्रकृत्ति की है तो उससे अपने आपको दूर रखना चाहिये। यह ठीक है कि आजकल की भागम भाग जिंदगी में यह कहना कठिन है कि किसका धन एक नंबर का है या दो नंबर का पर थोड़ा विवेक का इस्तेमाल करें तो सभी समझ में आ जाता है। दूसरा सच यह भी कि हम किसी बड़े शहर में जाकर अपने लिये सस्ता और अच्छा स्थान रहने के लिये ढूंढते हैं पर तब यह देखने का न तो समय होता है न जरूरत कि वह किस प्रकार के धन से बना है। हालांकि अनजान रहने पर किसी वस्तु का उपभोग करने पर उसके पाप का भागी नहीं बनते यह भी हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है।
.......................................
         यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग ‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। मेरे अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख-पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्द योग
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Sunday, September 27, 2009

चाणक्य नीति-अपनी आस्था और धर्म परिवर्तन दु:खदायी होता है (chankya niti-dharam parivartan)


नीति विशारद चाणक्य कहते हैं
------------------------------------


आत्मवर्ग परित्यन्य परवर्गे समाश्रितः।
स्वयमेव लयं याति यथा राजात्यधर्मतः।।

                   हिन्दी में भावार्थ कि अपना समूह,समुदाय वर्ग या धर्म त्याग कर दूसरे का सहारा लेने वाले राजा का नाश हो जाता है वैसे ही जो मनुष्य अपने समुदाय या धर्म त्यागकर दूसरे का आसरा लेता है वह भी जल्दी नष्ट हो जाता है।

                    वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- अक्सर लोग धर्म की व्याख्या अपने ढंग से करते हैं। अनेक लोग निराशा, लालच या आकर्षण के वशीभूत होकर धर्म में परिवर्तन कर दूसरा अपना लेते हैं-यह अज्ञान का प्रतीक है। दरअसल मनुष्य के मन में जो विश्वास बचपन में उसके माता पिता द्वारा स्थापित किया जाता है उसी को मानकर वह आगे बढ़ता जाता है। कहा भी जाता है कि माता पिता प्रथम गुरू होते हैं। उनके द्वारा मन में स्थापित संस्कार,आस्था तथा इष्ट के स्वरूप में बदलाव नहीं करना चाहिये। इसका कारण यह है कि बचपन से ही मन में स्थापित संस्कार और आस्थाओं से आदमी आसानी से नहीं छूट पाता-एक तरह से कहा जाये कि पूरी जिंदगी वह उनसे परे नहीं हो पाता।
                  कहा भी जाता है कि आदमी में संस्कार,नैतिकता और आस्था स्थापित करने का समय बाल्यकाल ही होता है। ऐसे में कुछ लोग निराशा, लालच,भय या आकर्षण की वजह से से अपने धर्म या आस्था में बदलाव लाते हैं पर बहुत जल्दी ही उनमें अपने पुराने संस्कार, आस्थाऐं और इष्ट के स्वरूप का प्रभाव अपना रंग दिखाने लगता है पर तब उनको यह डर लगता है कि हमने जो नया विश्वास, धर्म या इष्ट के स्वरूप को अपनाया है उसको मानने वाले दूसरे लोग क्या कहेंगे? एक तरफ अपने पुराने संस्कार और आस्थाओं की खींचने वाला मानसिक विचार और दूसरे का दबाव आदमी को तनाव में डाल देता है। धीरे धीरे यह तनाव आदमी की देह और मन में विकार पैदा कर देता है। इसलिये अपने अंदर बचपन से स्थापित संस्कार,आस्था और इष्ट के स्वरूप में में कभी बदलाव नहीं करना चाहिये बल्कि अपने धर्म के साथ ही चलते हुए सांसरिक कर्मों में निष्काम भाव से लिप्त होना चाहिये। भगवान श्रीकृष्ण ने भी श्रीगीता में कहा भी है कि अपना धर्म गुणहीन क्यों न हो पर उसका त्याग नहीं करें क्योंकि दूसरे का धर्म कितना भी गुणवान हो अपने लिये डरावना ही होता है। धर्म परिवर्तन करने वाले कभी सुखी नहीं रहते है और आस्था बदलने वालों का भटकाव कभी ख़त्म नहीं होता यह  अंतिम सत्य है।
 .................................

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग ‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। मेरे अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख-पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्द योग
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Saturday, September 26, 2009

विदुर नीति-पाप से परे होकर ही प्रकृति को जानना संभव (gyan sandesh-paap aur prukriti)

यस्यात्मा विरतः पापाद कल्याणे च निवेशितः।
तेन स्र्वमिदं बुद्धम् प्रकृतिर्विकृतिश्चय वा।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर कहते हैंेकि जिसकी बुद्धि पाप से परे होकर कल्याण के मार्ग पर आ जाये वह इस संसार में हर वस्तु कि प्रकृतियों और विकृतियों को अच्छी तरह से जान लेता है।

अर्थसिद्धि परामिच्छन् धर्ममेवादितश्चरेत्।
न हि धर्मदपैत्यर्थः स्वर्गलोकादिवामृतम्।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर कहते हैं कि जिस मनुष्य के हृदय में अर्थ प्राप्त करने की इच्छा है उसे धर्म का दृढ़तापूर्वक पालन करना चाहिए। जिस तरह स्वर्ग से अमृत दूर नहीं होता उसी प्रकार धर्म से अर्थ को अलग नहीं किया जा सकता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह कहना गलत है धर्म के मार्ग पर अर्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती। धर्म-ईमानदारी, सहजता, परमार्थ, और अपने कर्तव्य से प्रतिबद्धता-का परिणाम ही अर्थ की प्राप्ति ही है। यह अलग बात है कि जल्दी अमीर बनने या आवश्यकता से अधिक धनार्जन के के लिये लोग अपने जीवन में आक्रामक और बेईमानी की प्रवृत्ति अपना लेते हैं। इस संसार में ऐसे लोग भी है जो बेईमानी से धन कमाकर कथित रूप से प्रतिष्ठा अर्जित करते हैं। ऐसे लोगों के व्यक्तित्व का आकर्षण समाज के युवाओं को आकर्षित करता है पर उनको यह समझ लेना चाहिये कि बेईमान और भ्रष्ट लोगों को धन, प्रतिष्ठा और बाहुबल की शक्ति की वजह से सामने कोई कुछ नहीं कहता पर पीठ पीछे सभी लोग उनके प्रति घृणा का भाव दिखाने से नहीं चूकते। फिर भ्रष्ट और बेईमान लोग का धन जिस तरह बर्बाद होता है उसे भी देखना चाहिये।

नीति विशारद विदुर जी के अनुसार जिस व्यक्ति ने ज्ञान प्राप्त कर लिया वह इस संसार में व्यक्तियों, वस्तुओं और स्थितियों की प्रकृतियों और विकृतियों को अच्छी तरह समझ जाते हैं। इस ज्ञान से वह विकृतियेां से परे रहने में सफल रहते हैं और प्रकृतियां उनका स्वतः ही मार्ग प्रशस्त करती हैं।
.................................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Thursday, September 24, 2009

मनु स्मृति-विकलांग को अंगदोष से पुकारना ठीक नहीं (viklang ka majak theek nahin)

मातरं पितरं जायां भ्रातरं तनयं गुरुम्।
आक्षारयच्छत दाप्यः पन्थानं चाददद्गुरोः।।

हिंदी में भावार्थ-मनु महाराज के अनुसार जो व्यक्ति माता पिता, पत्नी, और भाई को अपशब्द कहता है तथा अपने गुरु के आने पर उसे सम्मान नहीं देता उसे भी दंडित किया जाना चाहिये।
काणं वाप्यथवा खंजमन्यं वाणि तथाविधम्।
तथ्येनापि ब्रुपन्दाप्यो दण्डं कार्षापणा वरम्।।

हिंदी में भावार्थ-मनु महाराज के अनुसार किसी विकलांग व्यक्ति को उसके अंगदोष से पुकारने वाले को-काना या लंगड़ा कहकर बुलाने वाला- दंडित किया जाना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे समाज में जन्मजात अंगदोष वाले व्यक्ति को घृणित दृष्टि से देखने की बहुत बुरी भावना है। मनु महाराज इसका विरोध करते हैं। होता यह है कि अंगदोष वाले व्यक्ति कहीं बैठते हैं और किसी की बात का प्रतिकार करते हैं तो सामने वाला व्यक्ति हाल ही उसे अंगदोष से पुकारने लगता है। यह पापकर्म और अपराध है। देखा तो यह गया है कि इस तरह अंगदोष वाले लोग समाज से हमेशा अपमानित होने के कारण हीनभावना से भर जाते हैं। कहने को तो हमारा देश संस्कारवान लोगों से संपन्न कहा जाता है पर गांव हो या शहर अंगदोष वाले व्यक्तियों से कई बार बदतमीजी की जाती है। ऐसे लोगों की निंदा करने के साथ मनुमहाराज के अनुसार उनको आर्थिक दंड भी देना चाहिये।
वर्तमान विश्व समाज का एक वर्ग अपशब्दों के प्रयोग में अपने को सभ्य समझने लगा है। अभी हाल ही में प्रचार माध्यमों में आए एक विश्लेषण के अनुसार आजकल के युवक युवतियां वार्तालाप में अपशब्द बोलना फैशन की तरह अपनान लगे हैं। तय बात है कि वह कोई अपने से ताकतवर या समकक्ष व्यक्ति के प्रति ऐसा अपराध करने का साहस नहीं कर सकते और उनकी अभद्रता का शिकार उनसे छोटे वर्ग और सज्जन प्रकृति के लोग होते हैं। ऐसे लोगों की भी निंदा करने के साथ मनु महाराज के अनुसार दंड की व्यवस्था करना चाहिये।
वैसे यहां इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि अधिकतर देशों में अंगदोष का उल्लेख कर बुलाना या अपशब्दों का प्रयोग करना कानूनी अपराध है। यह अलग बात है कि पीड़ित लोग झमेले में फंसने की बजाय खामोश रहना पसंद करते हैं पर उनके मन की पीड़ा से निकली हाय अपराधी को कभी न कभी लगती ही है। विकलांग आदमी की आत्मा अंग दोष से पुकारने पर दु:खी होती है और उसकी हाय का परिणाम बोलने वाले को भुगतना पड़ता है. 
......................................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग ‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। मेरे अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख-पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्द योग
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Wednesday, September 23, 2009

मनु स्मृति-जिस काम से अच्छा फल नहीं मिले, उसे करना व्यर्थ (manu smruti-kam aur fal)

न कुर्वीत वृथा चेष्टां न वार्य´्जलिना पिबेत्।
नौत्संगे भक्षयेद् भक्ष्यानां जातु स्यात्कुतूहली।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुमहाराज कहते हैं कि जिस कार्य को करने से अच्छा फल नहीं मिलता हो उसे करने का प्रयास व्यर्थ है। अंजली में भरकर पानी और गोद में रखकर भोजन करना ठीक नहीं नहीं है। बिना प्रयोजन का कौतूहल नहीं करना चाहिए।

न नृत्येन्नैव गायेन वादित्राणि वादयेत्।
नास्फीट च क्ष्वेडेन्न च रक्तो विरोधयेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुमहाराज कहते हैं कि नाचना गाना, वाद्य यंत्र बजाना ताल ठोंकना, दांत पीसकर बोलना ठीक नहीं और भावावेश में आकर गधे जैसा शब्द नहीं बोलना चाहिये।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब आदमी तनाव रहित होता है तब वह कई ऐसे काम करता है जो उसकी देह और मन के लिये हितकर नहीं होते। लोग अपने उठने-बैठने, खाने-पीने, सोने-चलने और बोलने-हंसने पर ध्यान नहीं देते जबकि मनुमहाराज हमेशा सतर्क रहने का संदेश देते हैं। अक्सर लोग अपनी अंजली से पानी पीते हैं और बातचीत करते हुए खाना गोद में रख लेते हैं-यह गलत है।
जब से फिल्मों का अविष्कार हुआ है लोगों का न केवल काल्पनिक कुतूहल की तरफ रुझान बढ़ा है बल्कि वह उन पर चर्चा ऐसे करते हैं जैसे कि कोई सत्य घटना हो। फिल्मों की वजह से संगीत के नाम पर शोर के प्रति लोग आकर्षित होते हैं।
मनुमहाराज इनसे बचने का जो संदेश देते है उनके अनुसार नाचना, गाना, वाद्य यंत्र बजाना तथा गधे की आवाज जैसे शब्द बोलना अच्छा नहीं है। फिल्में देखना बुरा नहीं है पर उनकी कहानियों, अभिनेताओं, अभिनेत्रियों को देखकर कौतूहल का भाव पालन व्यर्थ है इससे आदमी का दिमाग जीवन की सच्चाईयों को सहने योग्य नहीं रह जाता।

नाचने गाने और वाद्य यंत्र बजाना या बजाते हुए सुनना अच्छा लगता है पर जब उनसे पृथक होते हैं तो उनका अभाव तनाव पैदा करता है। इसके अलावा अगर इस तरह का मनोरंजन जब व्यसन बन जाता है तब जीवन में अन्य आवश्यक कार्यों की तरफ आदमी का ध्यान नहीं जाता। लोग बातचीत में अक्सर अपना प्रभाव जमाने के लिये किसी अन्य का मजाक उड़ाते हुए बुरे स्वर में उसकी नकल करते हैं जो कि स्वयं उनकी छबि के लिये ठीक नहीं होता। कहने का तात्पर्य यह है कि उठने-बैठने और चलने फिरने के मामले में हमेशा स्वयं पर नियंत्रण करना चाहिए।
........................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Monday, September 21, 2009

विदुर नीति-भेदभाव करने वाले धर्म का आचरण नहीं करते (bhedbhav aur dharm-hindu dharm sandesh)

न वै भिन्ना जातुं चरन्ति धर्म न वै सुखं प्राप्तनुतीह भिन्नाः।
न वै भिन्ना गौरवं प्राप्नुवन्ति न वै भिन्ना प्रशमं रोचवन्तिः।।
हिंदी में भावार्थ-
जो परस्पर भेदभाव रखते हैं वे कभी धर्म का आचरण नहीं करते जिसके कारण उनको कभी सुख नहीं मिलता। उनको कभी गौरव नहीं प्राप्त होता तथा कभी शांति वार्ता भी उनको अच्छी लगती।
स्वास्तीर्णानि शयनानि प्रपन्ना वै भिन्ना जातु निद्रां लभन्ते।
न स्त्रीषु राजन् रतिमाष्नुवन्ति न मागधैः स्तुवमाना न सूतैः।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर कहते हैं कि आपस में फूट रखने लोग अच्छे बिछौने से युक्त पलंग पाकर भी उस पर सुख की नींद नहीं सो पाते। सुंदर स्त्रियों के साथ रहने तथा सूत और मागधों द्वारा की गयी स्तुति भी उनको प्रसन्न नहीं कर पाती।
न वै भिन्ना जातुं चरन्ति धर्म न वै सुखं प्राप्तनुतीह भिन्नाः।
न वै भिन्ना गौरवं प्राप्नुवन्ति न वै भिन्ना प्रशमं रोचवन्तिः।।
हिंदी में भावार्थ-
जो परस्पर भेदभाव रखते हैं वे कभी धर्म का आचरण नहीं करते जिसके कारण उनको कभी सुख नहीं मिलता। उनको कभी गौरव नहीं प्राप्त होता तथा कभी शांति वार्ता भी उनको अच्छी लगती।
वर्तमान संदर्भ मं संपादकीय व्याख्या-आज के संदर्भ में हम देखें तो विदुर महाराज की इन पंक्तियों का महत्व है। परिवार हो या समाज किसी प्रकार का भेदभाव उसके सदस्यों के लिये हारिकारक होता है। अक्सर हमारे देश में जातीय एवं भाषाई भेदभाव को लेकर टीका टिप्पणी की जाती है और भारतीय धर्म ग्रंथों पर आक्षेप किये जाते हैं पर यह संदेश इस बात का प्रमाण है कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन किसी भी प्रकार के भेदभाव की इजाजत नहीं देता। छोटे बड़े और अमीर गरीब का भेद दिखाकर समाज में जो वैमनस्य का वातावरण बनाया जा रहा है उसका कारण यह है कि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान को सामान्य शिक्षा से इस तरह दूर किया गया है कि लोग नैतिक और व्यवाहारिक रूप से परिपक्व न हों जिससे उन पर बौद्धिक रूप से शासन किया जा सके।
समाज में स्त्री पुरुष, उत्तम निम्न , सवर्ण अवर्ण और अमीर गरीब का भेद भुलाकर सभी को अपनी योग्यता के अनुसार सम्मान मिलना चाहिये। समाज को सुव्यवस्थित ढंग से चलाने के लिये यह बहुत जरूरी है। पुरुष को अधिक सम्मान नहीं मिलना चाहिये पर स्त्री उत्थान के नाम पर बेकार और निरर्थक प्रचार भी व्यर्थ है। आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से कमतर वर्ग के लोगों के प्रति सामान्य सद्भाव दिखाना आवश्यक है पर अगर गरीब उसी तरह ऊंच, सवर्ण और अमीर के प्रति भी दिखावे का दुर्भाव या प्रचार करना बेकार की बात है जबकि सच बात तो यह है कि समाज में ऐसे भेद प्रचलित होने की बात कहकर बौद्धिक रूप से शासन करने वाले इन्हीं बड़े लोगों की सहायता लेते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि समाज निर्माण में सभी व्यक्तियों को समान मानते हुए ही कार्य करना चाहिये तभी  बाहरी शत्रुओं का मुकाबला किया  जा सकता है।
...................................................................... ................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Saturday, September 19, 2009

कौटिल्य दर्शन-अभिमानवश कोई काम शुरू न करें (kautilya ka arthshastra in internet)

सम्यगारभ्यमानं हि कार्ये यद्यपि निष्फलम्।
न तत्तथा तापयपि यथा मोहसनीहितम्।।
हिंदी में भावार्थ-
भली प्रकार प्रारंभ किया कोई काम या अभियान निष्फल भी हो जाये तो उससे मन को कष्ट नहीं होता जैसा कि मोह या अभिमान के वशीभूत होकर करने से होता है।

प्रारब्धानि यथाशास्त्रं कार्याण्यासनबुद्धिभिः।
बनानीय मनोहारि प्रयच्छन्त्यचिसत्फलम्।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस कार्य को शास्त्रों के अनुसार बुद्धिपूर्वक संपन्न करने का प्रयास किया जाता है वह शीघ्र फल दिलाने वाले होते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-अपने जीवन में कोई उद्देश्य निर्धारित करने से पहले उसका सही स्वरूप, अपने सामथ्र्य तथा उससे प्राप्त होने वाले फल पर विचार कर लेना चाहिए। कोई व्यक्तिगत कार्य बिना किसी उद्देश्य के केवल इसलिये नहीं प्रारंभ करना चाहिए कि उसके न करने से अपने परिवार, रिश्तेदार या मित्र समूह में प्रतिष्ठा खराब होगी। यह भ्रम हैं। अगर हमें कार नहीं चलाना आता तो केवल इसलिये दिखाने के लिये उसे चलाने का प्रयास नहीं करना चाहिए कि किसी व्यक्ति ने हमको चुनौती दी है या किसी के सामने अपनी कला का अनावश्यक प्रदर्शन करना है। अगर आप देश में दुर्घटनाओं का अवलोकन करें तो पायेंगे कि उसमें अधिकतर शिकार लोग अपने सामथ्र्य से अधिक कार्य करने के लिये प्रेरित होने के कारण कष्ट में आये।

तात्पर्य यह है कि अपना दिमागी संतुलन बनाये रखना चाहिए। किसी छोटे या बड़े काम को पूरी तरह से विचार कर प्रारंभ करना चाहिए। ऐसे काम में नाकाम होने पर भी दुःख नहीं होता। तब हमें इस बात का अफसोस नहीं होता कि हमने अपने कर्म में कोई कमी की। अगर बिना विचारे काम प्रारंभ किये जाते हैं तो उनमें शक्ति भी अधिक खर्च होती है और उनमें नाकामी मन को बहुत परेशान भी कर देती है। अपना कोई भी काम सहज भाव से शुरू करना चाहिए तभी उसमें सफलता मिल सकती है।
---------------------------------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Friday, September 18, 2009

संत कबीर वाणी-राम भक्त ख़ुशी और गम से होते दूर (khushi aur gam se door hote ram bhakt)

संत कबीर दास जी कहते हैं कि
------------------------------

दुखिया भूखा दुख कीं, सुखिया सुख कौं झूरि
सदा अजंदी राम के, जिनि सुख-दुख गेल्हे दूरि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि भूख के कष्ट के कारण दुखी आदमी मर रहा है तो ढेर सारे सुख के कारण सुखी भी कष्ट उठा रहा है किंतु राम के भक्त तो हर हाल में में मजे से रहते हैं क्योंकि वह दुःख सुख के भाव से परे हो गये हैं।

हैवर गैवर सघन धन, छन्नपती की नारि
तास पटेतर ना तुलै, हरिजन की पनिहारि

भगवान की भक्ति करने वाली गरीब नारी की बराबरी महलों में रहने वाली रानी भी नहीं कर सकती भले ही उसके राजा पति के पास हाथियों और घोड़ो का झुंड और बहुत सारी धन संपदा है।

दुखिया भूखा दुख कीं, सुखिया सुख कौं झूरि
सदा अजंदी राम के, जिनि सुख-दुख गेल्हे दूरि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि भूख के कष्ट के कारण दुखी आदमी मर रहा है तो ढेर सारे सुख के कारण सुखी भी कष्ट उठा रहा है किंतु राम के भक्त तो हर हाल में में मजे से रहते हैं क्योंकि वह दुःख सुख के भाव से परे हो गये हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-दुनियां में तीन तरह के लोग होते हैं-दुःखी,सुखी और भक्त। अभाव और निराशा के कारण दुःखी आदमी हमेशा परेशान रहता है तो सुखी आदमी अपने सुख से उकता जाता है और वह हर ‘मन मांगे मोर’ की धारा में बहता रहता है। विश्व के संपन्न राष्ट्रों के देश भारत के अध्यात्मिक ज्ञान की तरफ आकर्षित होते हैं तो भारत के लोग उनकी भौतिक संपन्नता प्रभावित होते हैं। पश्चिम में तनाव है तो पूर्व वाले भी सुखी नहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि लोग इस मायावी संसार में केवल दैहिक सुख सुविधाओं के पीछे भागते हैं। जिसके भौतिक साधन नहीं है वह कर्ज वगैरह लेता है और फिर उसे चुकाते हुए तकलीफ उठाता है और अगर वह चीजें नहीं खरीदे तो परिवार के लोग उसका जीना हराम किये देता है। सुख सुविधा का सामान खरीद लिया तो फिर दैहिक श्रम से स्त्री पुरुष विरक्त हो जाते हैं और इस कारण स्वास्थ बिगड़ने लगता है।

जिन लोगों ने अध्यात्म ज्ञान प्राप्त कर लिया है वह जीवन को दृष्टा की तरह जीते हैं और भौतिकता के प्रति उनका आकर्षण केवल उतना ही रहता है जिससे देह का पालन पोषण सामान्य ढंग से हो सके। वह भौतिकता की चकाचैंध में आकर अपना हृदय मलिन नहीं करते और किसी चीज के अभाव में उसकी चिंता नहीं करते। ऐसे ही लोग वास्तविक राजा है। जीवन का सबसे बड़ा सुख मन की शांति हैं और किसी चीज का अभाव खलता है तो इसका आशय यह है कि हमारे मन में लालच का भाव है और कहीं अपने आलीशान महल में भी बैचेनी होती है तो यह समझ लेना चाहिये कि हमारे अंदर ही खालीपन है। दुःख और सुख से परे आदमी तभी हो सकता है जब वह निष्काम भक्ति करे।  इसलिए जितना हो सके  अपना मन भक्ति में लगाना चाहिए, न कि सांसारिक कामों में ही अपना समय नष्ट करें।
......................... .................................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Thursday, September 17, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-चेतन पुरुष अपनी बेइज्जती नहीं सहते (chetan purush-bhartrihari shatak)


यद चेतनोऽपिपादैः स्पृष्टः प्रज्वलति सवितुरिनकान्तः।
तत्तेजस्वी पुरुषः परकृत निकृतिंक कथं सहते ।।
                 हिंदी में भावार्थ-सूर्य की रश्मियों के ताप से जब जड़ सूर्यकांन्त मणि ही जल जाती है तो चेतन और जागरुक पुरुष दूसरे के द्वारा किये अपमान को कैसे सह सकता है।


लांगल चालनमधश्चरणावपातं भू मौ निपत्य बदनोदर दर्शनं च।
श्चा पिण्डदस्य कुरुते गजपुंगवस्तु धीरं विलोकपति चाटुशतैश्चय भुंवते।।
                हिंदी में भावार्थ-श्वान भोजने देने वाले के आगे पूंछ हिलाते हुए पैरों में गिरकर पेट मूंह और पेट दिखाते हुए अपनी दीनता का प्रदर्शन करता है जबकि हाथी भोजन प्रदान करने वालो को गहरी नजर से देखने के बाद उसके द्वारा आग्रह करने पर ही भोजन ग्रहण करता है।

                      वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भले ही आदमी के पास अन्न और धन की कमी हो पर मनुष्य को स्वाभिमानी होना चाहिए नहीं तो अधिक धनवान, उच्च पदस्थ तथा बाहूबली लोग उसे गुलाम बनाये रखने के लिये हमेशा तत्पर रहते हैं। आजकल सुख सुविधाओं ने अधिकतर लोगों को शारीरिक और मानसिक तौर से सुस्त बना दिया है इसलिये वह उन्हें बनाये रखने के लिये अपने से अधिक शक्तिशाली लोगों की चाटुकारिता में लगना अपने लिये निज गौरव समझते हैं। यही कारण है कि निजी क्षेत्र में स्त्रियों और पुरुषों का शोषण बढ़ रहा है। हमारे यहां की शिक्षा कोई उद्यमी नहीं पैदा करती बल्कि नौकरी के लिये गुलामों की भीड़ बढ़ा रही है। कितनी विचित्र बात है कि आजकल हर आदमी अपने बच्चे को इसलिये पढ़ाता है कि वह कोई नौकरी कर अपने जीवन में अधिकतम सुख सुविधा जुटा सके। ऐसे में बच्चों के अंदर वैसे भी स्वाभिमान मर जाता है। उनका अपने माता पिता और गुरुजनों से अच्छा गुलाम बनने की प्रेरणा ही मिलती है।
ऐसी स्थिति में हम अपने देश और समाज के प्रति कथित रूप से जो स्वाभिमान दिखाते हैं पर काल्पनिक और मिथ्या लगता है। स्वाभिमान की प्रवृत्ति तो ऐसा लगता है कि हम लोगों में रही नहीं है। ऐसे में यही लगता है कि हमें अब अपने प्राचीन साहित्य का अध्ययन भी करते रहना चाहिये ताकि पूरे देश में लुप्त हो चुका स्वाभिमान का भाव पुनः लाया जा सके। व्यक्ति में  तभी स्वाभिमान की भावना रह सकती है जब उसमें अपने ज्ञान के प्रति विश्वास हो और वह तभी संभव जब उसने  भारतीय आध्यात्मिक ग्रंथों में वर्णित ज्ञान और विज्ञान का अध्ययन किया हो।
.................................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Wednesday, September 16, 2009

विदुर नीति-दूसरे परिवारों में भेद कराना ठीक नहीं(doosre gharon men vivad na karayen-vidur niti)

मद्यपापनं कलहं पुगवैरं भार्यापत्योरंतरं ज्ञातिभेदम्।
राजद्विष्टं स्त्रीपुंसयोर्विवादं वज्र्यान्याहुवैश्चं पन्थाः प्रदुष्टः।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर कहते हैं कि शराब पीना, कलह करना, अपने समूह के साथ शत्रुता, पति पत्नी और परिवार में भेद उत्पन्न करना, राजा के साथ क्लेश करने तथा किसी स्त्री पुरुष में झगड़ा करने सहित सभी बुरे रास्तों का त्याग करना ही श्रेयस्स्क है।

सामुद्रिकं वणिजं चोरपूर्व शलकाधूर्तं च चिकित्सकं सं।
अरि च मित्रं च केशलीचवं च नैतान् त्वधिकुवीत सप्तः।।
हिंदी में भावार्थ-
नीतिवेता विदुर कहते हैं कि हस्तरेखा विशेषज्ञ, चोरी का व्यापार करने वाला,जुआरी,चिकित्सक,शत्रु,मित्र और नर्तक को कभी अपना गवाह नहीं बनायें।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कभी अगर किसी मुकदमे का सामना करना पड़े तो ऐसे व्यक्ति को ही अपना गवाह बनाना चाहिये जो सत्य कहने के साथ अपना न तो आत्मीय मित्र हो न ही शत्रु। इसके अलावा कुछ व्यवसायों में कुशल लोगों-चिकित्सक,हस्तरेखा विशेषज्ञ,नर्तक,जुआरी, तथा चोरी का व्यापार करने वाले को भी अपना गवाह नहीं बनाना चाहिये। दरअसल मित्र जहां हमारे दोषों को जानते हैं पर कहते नहीं है पर जब वह कहीं गवाही देने का समय आये तो उनकी दृष्टि में हमारे दोष भी आते हैं इसलिये भावनात्मक रूप से हमारे हितैषी होने के बावजूद वह वाणी से हमारी दृढ़ता पूर्वक समर्थन नहीं कर पाते या वह लड़खड़ाती है।
शराब पीना तो एक बुरा व्यसन है पर साथ दूसरे घरों में पति पत्नी या परिवार के अन्य सदस्यों के बीच भी झगड़ा कराना एक तरह से पाप है। अनेक जगह लोग स्त्रियों और पुरुषों के बीच झगड़ा कराने के लिये तत्पर रहते हैं। इस तरह का मानसिक विलास भी एक बुरा काम है और इनसे बचना चाहिये।
.....................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग ‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। मेरे अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख-पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्द योग
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

 

Tuesday, September 15, 2009

कबीर के दोहे-सोच विचार कर किसी पर विश्वास करें (parakh kar yakin karen-kabir ke dohe)

संत शिरोमणि    कबीरदास  कहते हैं कि ------------
पहिले शब्द पिछानिये, पीछे कीजै मोल
पारख परखै रतन को,शब्द का मोल न तोल

पहले किसी की बात सुनकर उसके शब्द पर विचार करें फिर अपने विवेक से निर्णय ले। हीरे का मोल तो होता है इसलिये उसके  दाम  में   मोलभाव किया जाता है पर सच्चे शब्दों का कोई मोल नहीं होता-यानि दूसरे के जो शब्द हैं उनमें अगर कमी दिखाई दे तो उस पर यकीन न करें और केवल अच्छी संभावना को मानकर संपर्क न बढ़ायें।
कबीर देखी परखि ले, परखि के मुखा बुलाय
जैसी अन्तर होयगी, मुख निकलेगी आय 

जब कोई मिले तो उसे पहले अच्छी प्रकार देख परख के पश्चात् ही उससे मुख मिलाओ। जैसी उसके मन में बात होगी वैसी कहीं न कहीं मुंह से निकल ही आयेगी।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-प्रचार माध्यमों ने आदमी की मन बुद्धि पर अधिकार कर लिया है इसलिये लोगों की अपने विवेक से काम करने की शक्ति नष्ट हो गयी है। अभिनेता,कलाकार,लेखक और बुद्धिजीवियों को उनके सुंदर शब्दों पर ही योग्य मान लिया जाता है। फिल्मों में अभिनेता और अभिनेत्रियां दूसरे लेखकों द्वारा बोले गये शब्द बोलते हैं पर यह भ्रम हो जाता है कि जैसे वह स्वयं बोल रहे हैं। अनेक विज्ञापन आते हैं जिसमें सुंदर शब्दों के साथ प्रचार होता है और लोग मान लेते हैं। शब्दों के जाल मं किसी को भी फंसाना आसान हो गया है और जो एक बार किसी के जाल में फंस गया तो उसके हितैषी चाहें भी तो उसे नहीं निकाल सकते।
इस मायावी दुनियां में पहले भी कोई कम छल नहीं था पर अब तो खुलेआम होने लगा है। अनेक ऐसे लोग हैं जो बदनाम हैं पर वह पर्दे पर चमक रहे हैं क्योंकि वह बोलते बहुत सुंदर हैं। प्रचार माध्यमों में अपराधियों का महिमा मंडन हो रहा है और वह भी अपने को पवित्र बताते हैं। तब लगता है कि जब सभी लोग पवित्र हैं तब इस दुनियां में अपराध क्यों हो रहा है? यह सब समाज की विवेक शक्ति के पतन का परिचायक हैं क्योंकि हम दूसरें के शब्दों पर विचार नहीं करते जबकि होना यह चाहिये कि जब कोई दूसरा व्यक्ति बोल रहा है तो उसके शब्दों पर विचार करें। इतना ही नहीं जब तक किसी के शब्दों को परख न लें तब तक उस पर यकीन न करें। अपना किसी से संपर्क धीरज से बढ़ायें क्योंकि बातचीत में कहीं न कहीं आदमी में मूंह से सच निकल ही आता है। हमने कोनी दूसरा धोखा देर और हम उस पर बाद में विलाप करें उससे अच्छा है कि पहले से ही सतर्कता बरतें।
...........................................

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Monday, September 14, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-मतलबी को अच्छे बुरे का ज्ञान नहीं होता (hindi adhyatmik sandesh-matlabi ko achcha bura nahin pata hota)

महाराज भर्तृहरि के अनुसार
------------------------------- 
कृमिकुलचितं लालाक्लिन्नं विगन्धिजुगुप्सितम्,
निरुपमरसं प्रीत्या खादन्नस्थि निरामिषम्।
सुरपतिमपि श्वा पाश्र्वस्थं विलोक्य न शंकते
न हि गणयति क्षुद्रो जन्तुः परिग्रहफल्गुताम्।


हिदी में भावार्थ-कीड़ों,लार,दुर्गंध और देखने में गंदी रसहीन हड्डी को कुत्ता बहुत शौक से चबाता है। उस समय इंद्रदेव के अपने आने की परवाह भी नहीं होती। यही हालत स्वार्थी और नीच प्राणी की भी होती है। वह जो वस्तु प्राप्त कर लेता है उसे उपभोग में इतना लीन हो जाता है कि उसे उसकी अच्छाई बुराई का पता भी नहीं चलता।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह संसार स्वार्थ और परमार्थ दो तरह के मार्गों का समागम स्थल है। अधिकतर संख्या स्वार्थियों की है जो अपने देहाभिमान वश केवल अपना और परिवार का भरण भोषण कर यह संसार चला रहे हैं। उनके लिये परिवार और पेट भरना ही संसार का मूल नियम हैं। दूसरी तरफ परमार्थी लोग भी होते हैं जो यह सोचकर दूसरो कें हित में सलंग्न रहते हैं कि इंसान होने के नाते यह उनका कर्तव्य है। वही लोग श्रेष्ठ हैं। सच तो यह है कि हम अपने हित पूर्ण करते हुए अपना पूरा जीवन इस विचार में गुजार देते हैं कि यही भगवान की इच्दा है और परमार्थ करने का विचार नहीं करते। स्वार्थ या प्रतिष्ठा पाने के लिये दूसरे का काम करना कोई परमार्थ नहीं होता। निष्प्रयोजन दया ही वास्तविक पुण्य है। अगर हम सोचते हैं कि सारे लोग अपने स्वार्थ पूरे कर काम कर लें तो संसार स्वतः ही चलता जायेगा तो गलती कर रहे हैं। कई बार हमारे जीवन में ऐसा अवसर आता है जब कोई हमारी निष्प्रयोजन सहायता करता है पर हम अपना कठिन समय बीत जाने पर उसे भूल जाते हैं और जब किसी अन्य को हमारी सहायता की जरूरत होती है तब मूंह फेर जाते हैं। यह श्वान की प्रवृत्ति का परिचायक है। भगवान ने हमें यह मनुष्य यौनि इसलिये दी है कि हम अन्य जीवों की सहायता कर उसकी सार्थकता सिद्ध करें। यह सार्थकता स्वार्थ सिद्धि में नहीं परमार्थ करने में है।  अत: जहां तक हो सके दूसरों का भला भी  करें।
......................................


यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’

Sunday, September 13, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-किसी को अपनी योग्यता से अधिक पद भी मिल जाता है (ablity and post-kautilya ka arthshastra)

कौटिल्य महाराज के अनुसार
----------------------------
उच्चेरुच्चस्तरामिच्छन्पदन्यायच्छतै महान्।
नवैनींचैस्तरां याति निपातभयशशकया।।
हिंदी में भावार्थ-
जीवन में ऊंचाई प्राप्त करने वाला व्यक्ति महान पद् पर तो विराजमान हो जाता है पर उससे नीचे गिरने की भय और आशंका से वह नैतिक आधार पर नीचे से नीचे गिरता जाता है।
प्रमाणश्चधिकश्यापि महत्सत्वमधष्ठितः।
पदं स दत्ते शिरसि करिणः केसरी यथा।।
हिंदी में भावार्थ-
प्रमाणित योग्यता से अधिक पद की इच्छा करने वाला व्यक्ति भी उस महापद पर विराजमान हो जाता है उसी प्रकार जैसे सिंह हाथी पर अधिष्ठित हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समाज के सभी क्षेत्रों में शिखर पर विराजमान पुरुषों से सामान्य पुरुष बहुत सारी अपेक्षायें करते हैं। वह उनसे अपेक्षा करते हैं कि आपात स्थिति में उनकी सहायता करें। ज्ञानी लोग ऐसी अपेक्षा नहीं करते क्योंकि वह जानते हैं कि शिखर पर आजकल कथित बड़े लोग कोई सत्य या योग्यता की सहायता से नहीं पहुंचते वरन कुछ तो तिकड़म से पहुंचते हैं तो कुछ धन शक्ति का उपयोग करते हुए। ऐसे लोग स्वयं ही इस चिंता से दीन अवस्था में रहते हैं कि पता नहीं कब उनको उस शिखर से नीचे ढकेल दिया जाये। चूंकि उच्च पद पर होते हैं इसलिये समाज कल्याण का ढकोसला करना उनको जरूरी लगता है पर वह इस बात का ध्यान रखते हैं कि उससे समाज का कोई अन्य व्यक्ति ज्ञानी या शक्तिशाली न हो जाये जिससे वह शिखर पर आकर उनको चुनौती दे सके। उच्च पद या शिखर पर बैठे लोग डरे रहते हैं और डर हमेशा क्रूरता को जन्म देता है। यही क्रूरता ऐसे शिखर पुरुषों को निम्न कोटि का बना देती है अतः उनमें दया या परोपकार का भाव ढूंढने का प्रयास नहीं करना चाहिए।
यही हाल उन लोगों का भी है जिनको योग्यता से अधिक सम्मान या पद मिल जाता है। मायावी चक्र में सम्मान और पद के भूखे लोगों से ज्ञानी होने की आशा करना व्यर्थ है। उनको तो बस यही दिखाना है कि वह जिस पद पर हैं वह अपनी योग्यता के दम पर हैं और इसलिये वह बंदरों वाली हरकतें करते हैं। अपनी अयोग्यता और अक्षमता उनको बहुत सताती है इसलिये वह बाहर कभी मूर्खतापूर्ण तो कभी क्रूरता पूर्ण हरकतें कर समाज को यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि वह योग्य व्यक्ति हैं। ऐसे लोगों की योग्यता को अगर कोई चुनौती दे तो वह उसे अपने पद की शक्ति दिखाने लगते हैं। अपनी योग्यता से अधिक उपलब्धि पाने वाले ऐसे लोग समाज के विद्वानों, ज्ञानियों और सज्जन पुरुषों को त्रास देकर शक्ति का प्रदर्शन करते हैं। वह अपने मन में अपनी अयोग्यता और अक्षमता से उपजी कुंठा इसी तरह बाहर निकालते हैं। अतः जितना हो सके ऐसे लोगों से दूर रहा जाये। कहा भी जाता है कि घोड़े के पीछे और राजा के आगे नहीं चलना चाहिये।
आजकल हम जब किसी बड़े पदासीन व्यक्ति को देखते हैं तो यह भी नहीं समझना चाहिए कि वह कोई अधिक योग्य है क्योंकि अनेक ऐसे लोग जो अपनी योग्यता से अधिक का पद पाने  की कामना कहते हैं वह येनकेन प्रकरेन उस पद पर पहुँच जाते है,या  फिर दूसरे लोग मुखौटे की तरह उनको वहां बिठा देते हैं।
................................. 
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Saturday, September 12, 2009

चाणक्य नीति-भोजन के बाद अतिथि को गृहस्थ का घर छोड़ देना चाहिए (atithi aur grahsth-chankya niti)

निर्धनं पुरुषं वेश्या प्रजा भग्नं नृपं त्यजेत्।
नदी तीरे च ये वृक्षाः परगृहेषु कामिनी।
हिंदी में भावार्थ-
निर्धन पुरुष को वैश्या, पराजित और शक्तिहीन राजा को प्रजा, फलहीन वृक्ष को पक्षी जिस तरह त्याग देते हैं उसी तरह भोजन करने के बाद अतिथि को गृहस्थ का त्याग कर देना चाहिये।
मन्त्रिहीनश्चय राजानः शीघ्रं नश्चाननसंशयम्
खग चीतफल वृक्षं भुक्त्वा चाऽभ्यागता गृहम्।।
हिंदी में भावार्थ-
नदी के किनारे वृक्ष, दूसरे के घर रहने वाली स्त्री, मंत्री के बिना राजा शीघ्र नष्ट हो जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अपने जीवन के लक्ष्य और कार्य पर स्वयं ही निर्भर रहना चाहिये। यह सही है कि अपने अनेक कार्यों के लिये दूसरों की सहायता की आवश्यकता होती है पर उस समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि अपनी निर्भरता किसी एक व्यक्ति की बजाय अनेक पर हो ताकि एक अगर सहायता न तो दूसरा कर दे। अपने कार्य तथा उद्देश्य की पूर्ति के सदैव स्वयं ही विचार करते हुए सक्रिय रहना चाहिये। दूसरों निर्भर रहने से जीवन में असफलता की आशंका बलवती होती है।

परिवार समाज और राष्ट्र के मुखिया को सदैव अपनी शक्ति और अर्थ का संचय करते रहना चाहिये। जहां उसकी शक्ति में शिथिलता आने के साथ ही धनाभाव घेर लेता है वहां उसके अंतर्गत सक्रिय अन्य लोग ही नहीं वरन् स्वजन ही उसका त्याग कर देते हैं। अपनी शक्ति और संपन्नता बनाये रखने के लिये अपने गुणों और दुर्गुणों पर निरंतर दृष्टिपात करते हुए आत्म मंथन करते हुए नये प्रयोग करते रहने से शक्ति अर्जित होती है और साथ में अपने प्रति लोगों में नवीनता का भाव बनाये रखा जा सकता है। वैसे आयु अनुसार शक्ति और समयानुसार धन का हृास होता है पर गुणवान और ज्ञानी लोग अपने अभ्यास से इसका आभास किसी को नहीं होने देते जिससे उनकी शक्ति यथावत रहती है। जीवन में जहाँ तक हो सके सतर्क रहना चाहिए। छोट और बड़े अवसरों पर शिष्टाचार का ध्यान रखना चाहिए.
................................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग ‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। मेरे अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख-पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्द योग
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Friday, September 11, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-लालच आते ही सारे गुण नष्ट हो जाते हैं (bhartrihari shatak -lalach aur gun

भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
---------------------------------
तावन्महत्तवं पाण्डित्यं कुलीनत्वं विवेकता।
यावज्जवलति नांगेषु हतः पञ्वेषु पावकः।।

हिंदी में भावार्थ-हृदय में विद्वता, कुलीनता और विवेक का प्रभाव तब तक ही रहता है जब तक ही जब तक कामना, वासना और इच्छा की अग्नि प्रज्जवलित नहीं हो उठती है। मन में लोभ और लालच का भाव आते ही सब सदगुण नष्ट हो जाते है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में मनुष्य के जीवन व्यतीत करने के दो ही मार्ग हैं-एक है ज्ञान मार्ग और दूसरा मोहमाया का मार्ग। मनुष्य तो अपने मन का दास है जैसे वह कहता है उसकी पांव वही चलते जाते है। यह उसका भ्रम है कि वह स्वयं चल रहा है। कुछ मनुष्य अपना जीवन ज्ञान के साथ व्यतीत करते हैं। वह सासंरिक कार्य करते हुए भी धन और मित्र के संग्रह में लोभ नहीं करते। जितना धन मिल गया उसी में संतुष्ट हो जाते हैं पर कुछ लोगों की लालच और लोभ का अंत ही नहीं है। वह धन और मित्र संग्रह से कभी संतुष्ट नहीं होते हैं और मोहमाया के मार्ग पर चलते जाते हैं।
हां, कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अधिक अवसर न मिल पाने की वजह से धन और मित्र संग्रह सीमित मात्रा में कर पाते हैं। वह तब खूब ज्ञान की बातें सुनते और करते हैं। उनकी बातों ये यह भ्रम भी हो जाता है कि वह संत या साधु प्रवृत्ति के हैं पर ऐसे लोगों को जब धन और मित्र बनाने के अधिक अवसर अचानक प्राप्त होते हैं तब वह सारा ज्ञान भूलकर उसका लाभ उठा लेते है।। तब उनका सारा ज्ञान एक तरह से बह जाता है। फिर वह पूरी तरह से धन संपदा और अपने निजी संबंधों के विस्तार पर अपना ध्यान केंद्रित कर देते हैं और उनके लिये पहले अर्जित ज्ञान निरर्थक हो जाता है। अनेक लोग तो ऐसे भी हैं जिन्होंने अध्यात्मिक ज्ञान के ग्रन्थ इसलिए भी पढ़े ताकि ज्ञान का व्यापार कर सकें। कहने का तात्पर्य यह यह है कि मनुष्य में जब लालच और लोभ की प्रवृति उत्पन्न होती है तब उसके लिए ज्ञान भी विक्रय की वस्तु बन जाता है।
------------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। मेरे अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख-पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्द योग
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Thursday, September 10, 2009

संत कबीर के दोहे-अन्दर झाँका नहीं, बाहर करते हैं बयान (andar bahar-kabir ke dohe)

अन्धे मिलि हाथ छूआ, अपने अपने ज्ञान।
अपनी सब कहैं? किसको दीजै कान।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अंधे हाथी को छूकर अपना ज्ञान बखान करना शुरु कर जब केवल अपने ही दृष्टिकोण सत्य कहने लगें तो ऐसे में किस पर ध्यान दे सकते हैं।

भीतर तो भेदा नहीं, बाहर कथै अनेक।
जो पै भीतर लखि पर, भीतर बाहिर एक।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अंदर तो प्रवेश किया नहीं पर उस आत्ममय रूप के बाहर अनेक वर्णन किये जाते हैं। एक बार अगर हृदय में उस आत्मा रूप को समझ लें तो फिर अंदर बाहर एक जैसे हो जायेंगे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे देश में अनेक प्रकार के देव देवताओ की मान्यता है। कहने को तो कहा जाता है कि परमात्मा एक ही स्वरूप है पर फिर भी कुछ कथित साधु संत अपने अपने हिसाब से हर स्वरूप को श्रेष्ठ बताते हैं। कुछ तो ऐसे हैं जो हर स्वरूप बखान करते हैं। अध्यात्मिक ज्ञान बेचना एक तरह से व्यवसाय हो गया है। जिस तरह किताब बेचने वाला दुकानदार तमाम तरह की किताबें बेचता है पर उसे सभी किताबों का ज्ञान नहीं होता वह हाल इन धर्म बेचने वालों का है। ऐसे भी दुकानदार देखे जा सकते हैं जो स्वयं एक ही भाषा जानते हैं पर उनकी भंडार में बिकने के लिये अनेक भाषओं किताबें रहती हैं। यही हाल धर्म बेचने वाले कथित साधुओं का है। वह समय और पर्व के अनुसार भगवान के हर स्वरूप की व्याख्या करते हैं पर उसको जानते स्वयं भी नहीं है। उनको तो बस उस पर बोलना है और क्योंकि यह उनकी आय का जरिया है।
सच बात तो यह है कि जो सत्य स्वरूप आत्मा को समझ लेता है वह कोई छद्म रूप धारण नहीं करता। हमेशा अंदर और बाहर से एक जैसा ही होता है।
.................................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Wednesday, September 09, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-ब्रह्म ज्ञान से ही मोक्ष संभव (bhartrihari niti shatak-brahmgyan se hi mukti)

जीर्णाः कन्था ततः किं सितमलपटं पट्टसूत्रं ततः किं
एका भार्या ततः किं हयकरिसुगणैरावृतो वा ततः किं
भक्तं भुक्तं ततः किं कदशनमथवा वासरान्ते ततः किं
व्यक्तज्योतिर्नवांतर्मथितभवभयं वैभवं वा ततः किम्

हिंदी में भावार्थ-तन पर फटा कपड़ा पहना या चमकदार इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। घर में एक पत्नी हो या अनेक, हाथी घोड़े हों या न हों, भोजन रूखा-सूखा मिले या पकवान खायें-इन बातों से कोई अंतर नहीं पड़ता। सबसे बड़ा है ब्रह्मज्ञान जो मोक्ष दिलाता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव ने हमारे देश में भौतिकवाद को प्रोत्साहन दिया है और अब तो पढ़े लिखे हों या नहीं सभी सुख सुविधाओं को जाल में फंसते जा रहे हैं। भारतीय अध्यात्म ज्ञान के बारे में जानते सभी हैं पर उसे धारण करना लोगों को अब पिछड़ापन दिखाई देता है। नतीजा यह है कि समाज में आपसी रिश्ते एक औपचारिकता बनकर रहे गये हैं। अमीर गरीब की के बीच में अगर भौतिक रूप से दूरी होती तो कोई बात नहीं पर यहां तो मानसिक रूप से सभी एक दूसरे से परे हो जा रहे हैं। जिसके पास सुख साधन हैं वह अहंकार में झूलकर गरीब रिश्तेदार को हेय दृष्टि से देखता है तो फिर गरीब भी अब किसी अमीर पर संकट देखकर उसके प्रति सहानुभूति नहीं दिखाता। हम जिस कथित संस्कृति और संस्कार की दुहाई देते नहीं अघाते वह केवल नारे बनकर रहे गये हैं और धरातल पर उनका अस्तित्व नहीं रह गया है।

जिसके पास धन है वह इस बात से संतुष्ट नहीं होता कि लोग उसका सम्मान इसकी वजह से करते हैं बल्कि वह उसका समाज में प्रदर्शन करता है। धनी लोग अपने इसी प्रदर्शन से समाज में जिस वैमनस्य की धारा प्रवाहित करते हैं उसके परिणाम स्वरूप सभी समाज और समूह नाम भर के रहे गये हैं और उसके सदस्यों की एकता केवल दिखावा बनकर रह गयी है।

जिस तत्वज्ञान की वजह से हमें विश्व में अध्यात्म गुरु माना जाता है उसे स्वयं ही विस्मृत कर हम भारी भूल कर रहे हैं। शरीर पर कपड़े कितने चमकदार हों पर अगर हमारी वाणी में ओज और चेहरे पर तेज नहीं हो तो उसका कोई प्रभाव नहीं होता। काम चलने को तो दो रोटी से भी चल जाये पर जीभ का स्वाद ऐसा है कि अभक्ष्य और अपच भोजन को ग्रहण कर अपने शरीर में बीमारियों को आमंत्रित करना होता है। सोचने वाली बात यह है कि अपना पेट तो पशु भी भर लेते हैं फिर अगर हम ऐसा करते हैं तो कौनासा तीर मार लेते हैं। मनुष्य जीवन में भक्ति और ज्ञान प्राप्त करने की सुविधा मिलती है पर उसका उपयोग नहीं कर हम उसे ऐसे ही नष्ट कर डालते हैं। ऐसे में वह ज्ञानी धन्य है जो दाल रोटी खाकर पेट भरते हुए भगवान भजन और ज्ञान प्राप्त करने के लिये समय निकालते हैं।
----------------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Monday, September 07, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-ख़ुशी और गम से परे होते है ज्ञानी (khushi, gam aur gyani-bhartrihari shatak

वहति भुवन श्रेणिं शेषंः फणाफलक स्थितां कमठपतिना मध्ये पृष्ठं सदा स च धार्यते।
तमपि कुरुते क्रोडाधीनं पयोधिरनादरादहह! महतां निःसीमानश्चरित्रविभूतयः।।
हिंदी में भावार्थ-
महाराज भर्तृहरि कहते हैं कि भगवान शेष जी ने इस विशाल पृथ्वी को अपने सिर पर धारण कर रखा है तो उनको भी कच्छप जी ने अपनी पीठ पर धारण किया हुआ है। उन्हीं कच्छप जी को भी समुद्र ने अपनी गोद में स्थान दिया है। यही महापुरुषों का महिमागान करने योग्य चरित्र है।

चाण्डालः किमयं द्विजातिरथवा शूद्रोऽथ किं तापसः किं वा तत्तविवेकपेशलमतियोंगीश्वरः कोऽपि किम्।
इत्युत्पन्नविकल्पजल्पमुखरैराभाष्यमाणा जनैनं क्रुद्धाः पथि नैव तुष्टमनसो यांन्ति स्वयं योगिनः।।
हिन्दी में भावार्थ-
महाराज भर्तृहरि कहते हैं कि कोई चाण्डाल है अथवा ब्राह्मण, शूद्र है अथवा तपस्वी या फिर सत्य ज्ञान धारण करने वाला कोई योगी? जिन लोगों ने तत्वज्ञान प्राप्त कर लिया है वह सत्य के मार्ग पर चलते हुए किसी के द्वारा विद्वान कहने पर न तो प्रसन्न होते हैं न मूर्ख या दुष्ट कहने पर क्रोध में आते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपाकदीय व्याख्या-अपने कर्म करने के पश्चात् उस पर अहंकार न दिखाना ज्ञानी पुरुषों की पहचान है। इंसान ही नहीं बल्कि हर जीव इस धरती पर आने के बाद कर्म कर ही जीवित रहता है। अंतर यह है कि मनुष्यों में सामान्य प्रवृत्ति वाले जीवन भर केवल अपने लिये कर्म करते हुए इतराते है और कुछ ज्ञानी दूसरे के लिये कर्म कर भी उसका प्रचार नहीं करते।
आजकल तो अहंकार दिखाने वाले सभी जगह मिल जाते हैं। अपने लिये मकान बनाया, कार खरीदा, और बेटे या बेटी को अच्छी नौकरी लगी और उनका विवाह कराया-इसका प्रचार करते हुए लोग एसा अनुभव कराते हैं कि जैसे उन्होंने कोई महत्व्पूर्ण काम कर दिया। जीवन के यह कार्य तो स्वाभाविक रूप से होते हैं पर अज्ञानी लोगों का जनसमूह इनको ही जीवन की उपलब्धि मान लेता है। फिर भी कुछ लोग ऐसे हैं जो पूरे जीवन में अपना काम करते हुए परोपकार भी करते हैं फिर भी प्रचार नहीं करते-ऐसे लोग तो तो तत्वाज्ञनी होते हैं।
............................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Saturday, September 05, 2009

कबीर के दोहे-मांसाहार इंसानों के लिए नहीं (Meat not for humans-kabir ke dohe

यह कूकर को भक्ष है, मनुष देह क्यों खाय।
मुख में आमिष मेलहिं, नरक पड़े सो जाये।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मांस तो श्वान का भोजन है फिर मनुष्य की देह पाकर उसे क्यों खाये। यह जानते हुए भी जो मांस खायेगा वह नरक में जायेगा।
मांस मछलियां खात है, सुरा पान सों हेत।
ते नर जड़ से जाहिंगे, ज्यों मूरी का खेत।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो मनुष्य मांस और मछली खाना और शराब पीना पसंद करते हैं वह नराधम मूली के खेत के समान है जो जड़ से नष्ट हो जायेंगे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिस तरह समाज में मांस और मदिरा के सेवन की प्रवृत्ति बढ़ रही है वैसे ही अपराध और ठगी का पैमाना भी बढ़ा है। पहले तो यह स्थिति थी कि शराब पीने वाले को समाज में हेय और निकृष्ट समझा जाता था पर आज यह हालत है कि जो शराब या मांस का सेवन नहीं करता उसे पिछड़ा समझा जाता है। कहने को तो देश बहुत संस्कृतिनिष्ठ है पर अब परंपरागत कार्यक्रमों में शराब का सेवन खुलकर किया जाता है। कई बार तो यह देखा गया है कि शादी विवाह या अन्य अवसर पर आयोजित घरेलू धार्मिक कार्यक्रमों लोग शराब पीकर शामिल होते हैं। शराब के इस सेवन से लोगों की मानसिकता विकृत हो गयी है और हम भले ही यह दावा करते हैं कि हमारा देश धर्मनिष्ठ और संस्कृतिनिष्ठ है पर वास्तविकता यह है कि हम अपनी राह से भटक गये हैं। सच बात तो यह है कि अब हमें आत्ममंथन करना चाहिये कि हमारे अपने ही दावों में कितना दम है।
.................................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Friday, September 04, 2009

मनुस्मृति-अधिक खट्टे पदार्थ खाने योग्य नहीं (manu smriti-khatti shay khane yoggya nahin)

दधिभक्ष्यं च शुक्तेषु सर्वे च दधिसम्भवम्।
यानि चैवाभियूशयन्ते पुष्पमूलफलैः शुभैः।।
हिंदी में भावार्थ-
शुक्तों में दही तथा उससे बनने वाले पदार्थ-मट्ठा तथा छाछ आदि-तथा शुभ नशा न करने वाले फूल, जड़ तथा फल से निर्मित पदार्थ-अचार,चटनी तथा मुरब्बा आदि-भक्षण करने योग्य है।
आरण्यानां च सर्वेषां मृगानणां माहिषां बिना।
स्त्रीक्षीरं चैव वन्र्यानि सर्वशक्तुनि चैव हि।।
हिंदी में भावार्थ-
भैंस के अतिरिक्त सभी वनैले पशुओं तथा स्त्री का दूध पीने योग्य नहीं होता। सभी सड़े गले या बहुत खट्टे पदार्थ खाने योग्य नहीं होते। इस सभी के सेवन से बचना चाहिये।
वृथाकृसरसंयावं पायसायूपमेव च।
अनुपाकृतमासानि देवान्नानि हर्वषि च।।
हिंदी में भावार्थ
-तिल, चावल की दूध में बनी खीर,दूध की रबड़ी,मालपुआ आदि स्वास्थ्य के हानिकाकाकर हैं अतः उनके सेवन से बचना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-आजकल जिस तरह हमारा खानपान हो गया है उससे एक बात साफ लगती है कि स्वास्थ्य के प्रति हमारा बिल्कुल ध्यान नहीं है। लोग उन्हीं चीजों का सेवन कर रहे हैं जो स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयोग नहीं है। बहुत खट्टे तथा दूध से बनने वाले पदाथों के सेवन की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है जो कि स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। दूध से बना घी ही केवल स्वास्थ्य के लिये अच्छा है बाकी उससे बने अन्य पदार्थों के लिये यह बात नहीं कही जा सकती। रबड़ी खाने का शौक कई लोगों को होता है जबकि उसे मनुस्मृति में अच्छा नहीं माना जाता।
यह अजीब बात है कि अनेक धार्मिक कार्यक्रमों में दुग्ध से बने ऐसे ही पदार्थ ही प्रसाद के रूप में दिये जाते हैं जिनको स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छा नहीं माना जाता जबकि उनका आयोजन अपने ही धर्म के प्रचार के लिये करते हैं जिसकी पुस्तकों में ऐसी वस्तुओं को निषेध किया गया है।
सच बात तो यह है कि खानपान में ही अगर सावधानी बरती जाये तो स्वास्थ्य अच्छा रह सकता है और कभी अपनी देह लेकर पश्चिमी चिकित्सा पद्धति से काम करने वाले चिकित्सकों के पास उसे बिचारगी का भाव लेकर प्रस्तुत नहीं करना पड़ता। बीमार पड़ने के बाद तो हमारी देह चिकित्सकों के अधीन हो जाती है इसलिये अच्छा है कि पचने योग्य पदार्थ ही सेवना किये जायें।
...........................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की शब्दयोग सारथी-पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Thursday, September 03, 2009

कबीर के दोहे-जिस मार्ग से साहिब के दर्शन हों वही सच्चा प्रेम (kabir darshan-love and god)


प्रेम-प्रेम सब कोइ कहैं, प्रेम न चीन्है कोय
जा मारग साहिब मिलै, प्रेम कहावै सोय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि प्रेम करने की बात तो सभी करते हैं पर उसके वास्तविक रूप को कोई समझ नहीं पाता। प्रेम का सच्चा मार्ग तो वही है जहां परमात्मा की भक्ति और ज्ञान प्राप्त हो सके।
गुणवेता और द्रव्य को, प्रीति करै सब कोय
कबीर प्रीति सो जानिये, इनसे न्यारी होय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि गुणवेताओ-चालाक और ढोंगी लोग- और धनपतियों से तो हर कोई प्रेम करता है पर सच्चा प्रेम तो वह है जो न्यारा-स्वार्थरहित-हो।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-टीवी चैनलों और पत्र पत्रिकाओं में आजकल प्रेम पर बहुत कुछ दिखाया और लिखा जाता है। यह प्रेम केवल स्त्री पुरुष के निजी संबंध को ही प्रोत्सािहत करता है। हालत यह हो गयी है कि अप्रत्यक्ष रूप से विवाहेत्तर या विवाह पूर्व संबंधों का समर्थन किया जाने लगा है। यह क्षणिक प्रेम एक तरह से वासनामय है मगर आजकल के अंग्रेजी संस्कृति प्रेमी और नारी स्वतंत्रता के समर्थक विद्वान इसी प्रेम मेंें शाश्वत जीवन की तलाश कर हास्यास्पद दृश्य प्रस्तुत करते हैं। एक मजे की बात यह है कि एक तरफ सार्वजनिक स्थलों पर प्रेम प्रदर्शन करने की प्रवृति को स्वतंत्रता के नाम पर प्रेमियों की रक्षा की बात की जाती है दूसरी तरफ प्रेम को निजी मामला बताया जाता है। कुछ लोग तो कहते हैं कि सब धर्मों से प्रीति का धर्म बड़ा है। अब अगर उनसे पूछा जाये कि इसका स्वरूप क्या है तो कोई बता नहीं पायेगा। इस नश्वर शरीर का आकर्षण धीमे धीमे कम होता जाता है और उसके साथ ही दैहिक प्रेम की आंच भी धीमी हो जाती है।

वैसे सच बात तो यह है कि प्रेम तो केवल परमात्मा से ही हो सकता है क्योंकि वह अनश्वर है। हमारी आत्मा भी अनश्वर है और उसका प्रेम उसी से ही संभव है। परमात्मा से प्रेम करने पर कभी भी निराशा हाथ नहीं आती जबकि दैहिक प्रेम का आकर्षण जल्दी घटने लगता है। जिस आदमी का मन भगवान की भक्ति में रम जाता है वह फिर कभी उससे विरक्त नहीं होता जबकि दैहिक प्रेम वालों में कभी न कभी विरक्ति हो जाती है और कहीं तो यह कथित प्रेम बहुत बड़ी घृणा में बदल जाता है।
...................................

1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख-पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्द योग
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Wednesday, September 02, 2009

विदुर नीति-जब राजा दुष्ट की सलाह पर चले तो उससे दूर रहें (vidur niti-raja aur dusht ki salah)

न निह्यवं मन्त्र गचछेत संसृष्टमन्त्रस्य कुसंगतस्य।
न च ब्रूयात्रश्वसिमि त्वयीति संकारणं व्यपदेशं तु कुर्यात्
हिंदी में भावार्थ-
जब कहीं भरी सभा में राजा-वर्तमान संदर्भ में कहें तो अपने से शक्तिशाली व्यक्ति-दुष्ट सलाहकारों से सलाह ले रहा है तब उसकी किसी बात का खंडन नहीं करना चाहिये। साथ ही वहां उसके प्रति किसी प्रकार का अविश्वास भी नहीं प्रकाट करना चाहिये।

न विश्वासाज्जातु परस्य गेहे गच्छेन्नरश्चेतवानो विकालो।
न चत्वरे निशि तिष्ठिन्न्गिुडो राजकाययां योषितं प्रार्थचीत।।
हिंदी में भावार्थ-
सावधानी की दृष्टि से कभी भी किसी ऐसे व्यक्ति के घर सायंकाल नहीं जाना चाहिये जिस पर विश्वास न हो। रात में छिपकर चैराहे पर न खड़ा हो और राजा-वर्तमान संदर्भ में हम उसे अपने से शक्तिशाली व्यक्ति भी कह सकते हैं-जिस स्त्री को पाना चाहता है उसे पाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में सावधानी से चलना बहुत आवश्यक है। अगर हम अपने आसपास ऐसे लोगों को देखें जिन्होंने धोखा खाकर कष्ट उठाया या जीवन से हाथ धोया है तो उनकी स्वयं की असावधानी का परिणाम होता है। ऐसे में जीवन में कुछ सावधानी रखकर अगर आनंद उठाया जा सकता है तो उसमें कोई दोष नहीं है। जिस व्यक्ति के प्रति मन में अविश्वास हो उसके घर शाम को कतई नहीं जाना चाहिये। हमारे जीवन में कई ऐसे लोग हैं जिनके साथ हमारा सतत संपर्क रहता है पर हम उन पर विश्वास नहीं करते ऐसे लोगों के घर जाने पर ऐसी सावधानी जरूरी है।
उसी तरह कहीं ऐसी सभा हो रही हो जहां अपने से शक्तिशाली व्यक्ति मौजूद हो और वह मूर्ख तथा दुष्ट प्रकृत्ति के लोगों से सलाह ले रहा हो तो उसका प्रतिवाद नहीं करना चाहिये। शक्तिशाली व्यक्ति से तो हम वैसे ही लड़ सकते पर अगर दुष्ट अपने प्रतिवाद से उत्तेजित हो गया तो प्रहार भी कर सकता है और अपमान भी। शक्तिशाली व्यक्तियों को चाटुकारिता बहुत पंसद होती है और वह अपने चाटुकारों की रक्षा के लिये किसी भी सज्जन व्यक्ति पर शारीरिक या शाब्दिक आक्रमण कर सकते हैं।
............................................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग ‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। मेरे अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख-पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्द योग
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Tuesday, September 01, 2009

विदुर नीति-अमीर बंधु के पास जाना, मृग का शिकारी के पास जाने जैसा (vidur niti-amir rishtedar)

श्रीमन्तं ज्ञातिमासाद्य यो ज्ञातिरवसीदति।
दिग्धहस्तं मृग इव स एनस्तस्य विन्दति।।
हिंदी में भावार्थ
-जिस तरह मृग विषैला बाण हाथ में लिये शिकारी के पास पहुंचकर कष्ट पाता है वैसे ही मनुष्य अपने धनी बंधु के पास कष्ट पाता है। वह धन देने से इंकार कर दे तो कष्ट होता है और दे तो उसके पाप का भागी बनता है।
ज्ञातयस्यतारयन्तीह ज्ञातयो मज्जयन्ति च।
सुवृत्तास्तारयन्तीह दुर्वंतत्ता मज्ज्यन्ति च।।
हिंदी में भावार्थ-
इस संसार में अपने ही जाति बंधु जीवन की नैया पार भी लगाते हैं तो डुबोते भी है। जो सदाचारी है वह तो तारने के लिये तत्पर रहते हैं और जो दुराचारी है वह डुबा देते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-पता नहीं कब कैसे जातियां बनी पर मनुष्य के स्वभाव को देखते हुये तो यही कहा जा सकता है कि अपनी सुरक्षा के लिये उसने जाति, भाषा, क्षेत्र और धर्म के नाम पर समूह बना लिये। यह पक्रिया इतने स्वाभाविक ढंग से हुई कि पता ही नहीं चला होगा। बहरहाल प्रत्येक मनुष्य में अपने समाज या समूह के प्रति लगाव होता है भले ही वह स्वार्थ के कारण हों। इसका उसे लाभ भी मिलता है जब कोई शादी या गमी का अवसर आता है तब अनेक लोग एक दूसरे से जुड़ते हैं। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि अगर किसी व्यक्ति के यहां कोई दुर्घटना हो जाये और वह अगर उससे छिपाना चाहे तो भी नहीं छिप सकती। वजह! जाति भाई जाकर सभी जगह वैसे ही बता देंगे। अगर किसी व्यक्ति के घर या परिवार में कोई दोष हो तो अन्य समाज या समूह के लोग नहीं जान पाते पर सजातीय बंधु यह काम करने में चूकते नहीं है-मतलब यह कि सजातीय लोग ही बदनाम करने में लग जाते हैं।
सदाचारी जातीय बंधु तो जीवन नैया तार देते हैं और दुराचारी डुबो देते हैं पर आजकल यह भी देखना चाहिये कि इस धरती पर कितने सदाचारी और कितने दुराचारी लोग विचरण कर रहे हैं। सजातीय बंधुओं से खतरा इस कारण भी बढ़ता है कि हम उन्हें अपना समझकर अपने घर की बात या घटना बता देते हैं ताकि समय पर वह हमारी सहायता करे। इसकी बजाय वह उसका प्रचार कर बदनाम करते हैं। अगर उनके साथ घर के राज की चर्चा ही नहीं की जाये तो फिर वह ऐसा नहीं कर सकते।

वैसे आजकल तो रहन, सहन, और व्यवहार का स्वरूप एक जैसा ही हो गया है अतः सजातीय बंधुओं से सहयोग और संपर्क की अपेक्षा करने की बजाय समस्त मित्रों और पड़ौसियों से-जातीय भाव की उपेक्षा कर-व्यवहार रखना चाहिये। पहले सजातीय बंधुओं से संपर्क स्वाभाविक रूप से इसलिये भी होता था क्योंकि सभी लोग मोहल्लों और गलियों में जातीय समूह की अधिकता देखकर बसते थे। अब तो कालोनियां बन गयी हैं जिसमें विभिन्न जातियों और समुदायों के लोग रहते हैं। ऐसे मेें सजातीय बंधुओं से एक सीमा तक ही संपर्क रह पाता है।
.................................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

अध्यात्मिक पत्रिकायें

वर्डप्रेस की संबद्ध पत्रिकायें

लोकप्रिय पत्रिकायें