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Saturday, December 29, 2012

विदुर नीति-छह दोष आदमी को सौ वर्ष से पहले मारते हैं (vidur neeti-chhah dosh aadmi ko sau varsh se pahle maarte hain)

           भारतीय दर्शन के अनुसर प्रकृति आधार पर  मनुष्य की आयु सौ वर्ष निर्धारित है।  ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि आखिर मनुष्य अपनी आयु पूरी क्यों नहीं कर पाता? इसका उत्तर यह है कि जिस बुद्धि की वजह से मनुष्य प्रकृत्ति के अन्य जीवों से अधिक विकसित माना जाता है वही उसकी शत्रु भी बन जाती है।  मनुष्य अपनी बुद्धि और मन को स्वच्छ रखने का कोई उपाय नहीं करता बल्कि संसार के उन लुभावने विषयों में पूरी तरह से लिप्त हो जाता है जो कालांतर में उसके अंदर मानसिक तथा दैहिक दोष उत्पन्न करते हैं।
     महाराज धृतराष्ट्र ने महात्मा विदुर से प्रश्न किया कि ‘‘जब परमात्मा ने मनुष्य की आयु कम से कम सौ वर्ष निर्धारित की है तो वह कम आयु में क्यों देह त्यागने को बाध्य होता है?’’
इसके उत्तर में महात्मा विदुर ने कहा कि
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अतिमानोऽतिवादश्च तथात्यागो नराधिप।
क्रोधश्चात्मविधित्सवा च मित्रद्रोहश्च तानि षट्।।
एत एवासयस्तीक्ष्णः कृन्तन्त्यायूँषि देहिनाम्।
एतानि मानवान् धनन्ति न मृत्युर्भद्रमस्तृ।।
           हिन्दी में भावार्थ-अत्यंत अहंकार, अधिक बोलना, त्याग न करना, क्रोध करना, केवल अपने स्वार्थ की पूर्ति की चिंता में रहना तथा मित्रों से द्रोह करना यह छह दुर्गुण मनुष्य की आयु का क्षरण करते हैं। दुर्गुण वाले मनुष्य का मृत्यु नहीं बल्कि अपने कर्मो के परिणाम ही मारते हैं।
      आदमी की सौ वर्ष से पहले मृत्यु हो जाने पर अनेक लोग यह सवाल करते हैं कि आखिर मनुष्य अपनी आयु क्यों होती है? दरअसल उसका मुख्य कारण यह है कि मनुष्य उपभोग में इतना व्यस्त रहता है कि उसे लगता ही नहीं कि यह संसार कभी वह छोड़ेगा, इसलिये वह शारीरिक और मानसिक विकार एकत्रित करता रहता है।  अगर हम देखें तो प्राचीन काल में लोग अधिक समय तक जीवित रहते थे।  आज भी ग्रामीण क्षेत्र में श्रम करने वाले अनेक लोग शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक आयु तक जीवित रहते हैं।  शहरी क्षेत्रों में जहां आधुनिक आदमी सुविधाभोगी दुषित वातावरण में सांस ले रहा समाज रोगों का प्राप्त होता है वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में मेहनतकश लोग स्वच्छ हवा में सांस लेकर उन राजरोगों से दूर रहते हैं।  शहरी क्षेतों में तो अब साठ  साल तक आदमी शारीरिक दृष्टि  से लाचारी की स्थिति में आ जाता है, जबकि अभी भी  गाँवों  में मेहनत  की वजह से लोग हष्ट पुष्ट दिखते  हैं। इसके अलावा शहरों में धन संपदा की वृद्धि ने लोगों के अंदर अहंकार, गद्दारी तथा अधिक बोलने की ऐसी बीमारियां भर दी हैं जो अंततः आयु का क्षरण करती हैं।
         महात्मा विदुर एक महान विद्वान थे।  सच्चा विद्वान वह है जो जीवन के रहस्यों को जानता हो। इसलिये हमें उनके वचनों का अध्ययन कर जीवन बिताने का प्रयास करना चाहिए।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Thursday, December 27, 2012

यजुर्वेद के आधार पर चिंत्तन-प्रगतिशील मनुष्य को सभी लोग मानते हैं (yajurved ke aadhar par chittan-pragatishil manushya ko sabhi log mante hain)

                 इस संसार में अनेक महान विद्वान लोग हुए हैं जिनका सम्मान आज का मानव समाज करता है।  उन विद्वानों, विचारकों और वैज्ञानिकों को मनुष्य समाज कभी नहीं भूलता जो उसके दैहिक तथा मानसिक विकास के संवाहक रहे हैं।  इस संसार में अनेक राजा महाराजा हो गये पर समाज केवल उन्हीं लोगों को याद करता है जिन्होंने इस समाज के लिये चिंत्तन करने के साथ ही ऐसे अनुसंधान किये जिनसे मनुष्य का शारीरिक तथा मानसिक विकास हुआ।
      हम अगर थोड़ा ज्ञान प्राप्त कर देखें तो पता चलेगा कि यहां बोलने वाले बहुत हैं पर उनमें ज्ञान कितना है यह वह प्रमाणित नहीं कर पाते।  दरअसल इस संसार में अधिकतर लोग कुछ भी बोलने को आतुर हैं पर कोई किसी की सुनना नहीं चाहता।  श्रीमद्भागवत गीता में कहा गया है कि इंद्रिया ही विषयों में बरतती हैं। यह ज्ञान बघारने वाले कदम कदम पर मिल जाते हैं पर इसके बावजूद छोटी छोटी बातों पर मुंहवाद होते होते हिंसक वारदातें हो जाती हैं।  अनेक बार तो ऐसा भी होता है कि भारी भरकम हिंसा के बाद पता चलता है कि विषय इतना गंभीर नहीं था जितना संघर्ष हुआ। संत कबीरदास जी कह गये हैं कि ‘सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठमलट्ठा’।
यजुर्वेद में  कहा गया है कि
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इष्टं वीतमभिगूर्त वर्षट्कुतं देवासः प्रतिगृभ्णन्त्यश्वम्।
हिन्दी में भावार्थ-परिश्रमी तथा प्रगतिशील होने के साथ ही सभी को प्रिय लगने वाले व्यक्ति के प्रति सभी मनुष्य हृदय  में आस्था रखते हैं।

धिया विप्रो अजायत।
हिन्दी में भावार्थ-विद्वान उत्तम बुद्धि से युक्त होता है।
      समाज में रहते हुए छोटे छोटे  विवादों में फंसने  से अच्छा है कि समय समय पर चिंत्तन और मनन अवश्य कर अपना बौद्धिक विकास करें । मानसिक  और वैचारिक शुद्धता के लिये अपने दिन का कुछ समय सत्संग और अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने में लगायें।  मंदिर जाकर ध्यान लगायें।  यह सही है कि सभी जगह पत्थर की मूर्तियां हैं पर हमारे हृदय का भक्ति भाव उनमें भगवान की अनुभूति करता है जिससे हम मानसिक रूप से दृढ़ होते है।  भगवान है या नहीं इस बात पर तो विचार ही नहीं करना चाहिये।  न ही इस पर किसी से विवाद करना चाहिये। वह है और हमारे हृदय के अंदर स्थित है यह धारणा दूसरों पर थोपने की बजाय अपनी मानसिक स्थिति पर नियंत्रण करने में उपयोग करना चाहिये।  जब आदमी अपने मन पर नियंत्रण कर लेता है तब वह विद्वान तथा पराक्रमी होकर अन्य लोगों के लिये प्रेरक बनता है।  निरर्थक वार्तालाप, घूमना फिरना तथा अधिक मनोरंजन में समय बिताना मनुष्य को अत्यंत आकर्षक लगने के साथ सहज भी लगता है पर इससे बौद्धिक क्षरण होता है। जबकि विद्वान, पराक्रमी और परोपकारी समाज का नेतृत्व करते है। अन्य लोग उनके जीवन तथा व्यवहार शैली को अनुकरणीय मानकर सम्मानित करते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Monday, December 24, 2012

मनुस्मृति-अहिंसा के भाव से मन एकाग्र होता है (manu smriti-ahinsa ke bhav se man ekagra hota hai)

            जीवन में सुख पाने का सीधा मार्ग यही है कि दूसरे को प्रसन्नता प्रदान करो। यह सिद्धांत न केवल मनुष्य बल्कि पशु पक्षियों के प्रति भी अपनाया जाना चाहिये।  एक बात याद रखें कि मनुष्यों के अलावा भी अन्य जीवों में  वैसी ही आत्मा होती है।  मनुष्य बोल सकता है पर अन्य जीव मूक भाव से हमारी तरफ देखते हैं।  कहा जाता है कि भोजन, काम, तथा अन्य संवेदनशील प्रवृत्तियाँ  पशु पक्षियों में भी होती है।  जिस तरह सताये जाने पर मनुष्य का मन रंज होता है वैसे ही पशु पक्षियों में निराशा, कातरता तथा क्रोध के भाव आते हैं।  सताये जाने पर वह आर्त भाव से मनुष्य की तरफ देखते हैं। इसलिये मनुष्य को न केवल मनुष्य  बल्कि पशु पक्षियों के प्रति भी अहिंसक भाव रखना चाहिए।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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ये बन्धन्वधक्लेशान्प्राणिनां न विकीर्शति।
स सर्वस्य हितप्रेप्सुः सुखामत्यन्तमश्नुते।।
               हिन्दी में भावार्थ- जो व्यक्ति दूसरे जीव को बांध कर नहीं रखता और न उसका वध करता है और नही किसी प्रकार की पीड़ा देता है वह सदा सुखी रहता है।
यद्ध्यायति यत्कुकते धृर्ति वध्नाति यत्र च।
तद्वाप्नोत्यत्नेन या हिनस्ति न किञ्चन।।
हिन्दी में भावार्थ-जो व्यक्ति अहिंसा धर्म में स्थित है वह जिस विषय पर चिंत्तन करता है उसमें सफलता प्राप्त कर लेता है। अहिसा भाव के कारण वह अपना ध्यान अपने कर्म में एकाग्रता से लगाता है इसलिये बिना विशेष प्रयास के लक्ष्य प्राप्त कर लेता है।
        जब कोई मनुष्य अपने हृदय में शुद्ध भाव धारण कर लेता है तब उसकी अध्यात्मिक शक्ति स्वतः बढ़ जाती है।  उसका  ध्यान अपने कर्म पर इतनी एकाग्रता से लगता है कि उसका लक्ष्य उसे बिना किसी विशेष प्रयास और किसी अन्य की सहायता लिये बिना प्राप्त हो जाता है।  इस संसार में ध्यान की शक्ति अत्यंत महत्वपूर्ण है। कहा जाता है कि चिड़िया अपने बच्चों को अपनी ध्यान शक्ति से ही पालती है।  अहिंसा के भाव में स्थित मनुष्य के मस्तिष्क में अच्छे सत्विचारों का केंद्र बिन्दु बन जाता है जिससे उसके अंदर नये नये कार्य करने के साथ ही समाज के लिये भी कुछ कर गुजरने का माद्दा पैदा होता है।  कहने का अभिप्राय यह है कि यह संसार हमारे संकल्प से बनता है और इसलिये ऐसे विषयों से संपर्क रखना ही श्रेयस्कर होगा जिनसे हमारी ध्यान शक्ति प्रबल हो।  यदि ध्यान भटकाने वाले विषयों से संपर्क कोई व्यक्ति बढ़ायेगा तो वह न केवल अपने कार्य में नाकाम होगा बल्कि समाज में निंदा का पात्र भी बनेगा।    
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Friday, December 21, 2012

अथर्ववेद से संदेश-शूरवीर की तरह सूर्योदय से पहले जागें (atharvved se sandesh-shurvir ki tarah prat:kal jagen)

           इस संसार में प्रत्येक मनुष्य को संघर्ष करना ही पड़ता है।  इस  संघर्ष में जय पराजय का आधार मनुष्य के अंदर विद्यमान शारीरिक और मानसिक क्षमतायें होती हैं।  जिनका संकल्प दृढ़ होने के साथ हृदय  में कर्म करने से प्रतिबद्धता है वह व्यक्ति हमेशा ही सफल होता है।  यह बात कहने में अत्यंत सहज लगती है पर इसका व्यवहारिक पहलू यह है कि हमें अपने जीवन में ऐसी दिनचर्या अपनाना चाहिये जो शारीरिक तथा मानसिक शक्ति में वृद्धि करने में सहायक  हो।  जीवन में न केवल शारीरिक शक्ति का होना आवश्यक है बल्कि उसके साथ मनुष्य को मानसिक रूप से भी शक्तिशाली होना चाहिए।
            हमारे अध्यात्मिक दर्शन में ब्रह्म मुहूर्त में उठना जीवन के लिये सबसे ज्यादा उत्तम माना जाता है।  हमारे महान पूर्वजों ने जिस अध्यात्मिक ज्ञान का संचय किया है वह सभी प्रातःकाल उठने को ईश्वर की सबसे बड़ी आराधना माना जाता है। इससे तन और मन में शुद्धता रहती है।  प्रातःकाल का समय धर्म का माना जाता है और इस दौरान योगासन, ध्यान और मंत्रजाप कर स्वयं को अध्यात्मिक रूप से दृढ़ बनाया जाना आवश्यक है। 
अथर्ववेद  में कहा गया है कि 
व्यार्त्या पवमानो वि शक्रः पाप हत्यथा।।
           हिन्दी में भावार्थ- तन और मन में शुद्धता रखने वाला मनुष्य पीड़ाओं से दूर रहता तो पुरुषार्थी दुष्कर्म करने से बचता है।
ओर्पसूर्यमन्यातस्वापाव्युषं जागृततादहमिन्द्र इवारिष्टो अक्षितः।
             हिन्दी में भावार्थ- दूसरे लोग भले ही सूर्योदय तक सोते रहें पर शूरवीर सदृश नाश और क्षय रहित होकर समय पर जागे।
      जब देह और मन में शुद्धता होती तब आदमी स्वयं ही सत्यकर्म के लिये प्रेरित होता है।  पुरुषार्थी मनुष्यों को सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि वह पाप कर्मों पर कभी नहीं विचार करते। आजकल हम समाज में जो अपराध की बढ़ती प्रवृत्ति देख रहे हैं उसके पीछे दो ही प्रकार के लोग जिम्मेदार दिखाई देते हैं। एक तो वह लोग जिनके पास कोई काम नहीं है यानि वह बेकार है दूसरे वह जिनको काम करने की आवश्यकता ही नहीं है यानि वह निकम्मे हैं।  यह बेकार और निकम्मे ही मिलकर अपराध करते हैं।  हम जब जब सभ्य समाज की बात करते हैं तो वह पुरुषार्थी लोगों के कंधों पर ही निर्भर करता है। हृदय में शुद्ध और देह में दृढ़ता होने पर कोई भी लक्ष्य आसानी से प्राप्त किया जा सकता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, December 15, 2012

सामवेद से सन्देश-देवता केवल कर्मशील मनुष्य को ही प्रेम करते हैं (dewta kewal karmshil manushya ko prem karte hain)

         ब्रह्मा ने जब सृष्टि की रचना की तो देवता तथा मनुष्यों की उत्पति हुई।  उन्होंने कहा कि मनुष्य देवताओं की आराधना करें तो देवता मनुष्य को उसका  फल देंगे। अध्यात्म और सांसरिक विषयों के बीच जीव की देह पुल का काम करती है। सांसरिक विषयों में सहजता से संबंध रखना आवश्यक है। इसलिये आवश्यक है कि उन विषयों से संबंधित कार्य करते हुए हृदय में शुद्धि हो। सांसरिक विषयों में फल की कामना का त्याग नहीं किया जा सकता  पर उसके लिये ऐसे गलत मार्ग का अनुसरण भी नहीं किया जाना चाहिए जिससे बाद में संकट का सामना करना पड़े।  दूसरी बात यह भी है कि अपने कर्म के परिणाम की आशा दूसरे का दायित्व नहीं मानते हुए आत्मनिर्भर बनने का प्रयास करना चाहिए।। 
सामवेद में कहा गया है कि
..................................
देवाः स्वप्नाय न स्पृहन्ति।
 

हिन्दी में भावार्थ-देवता आलसी मनुष्य को प्रेम नहीं करते।
देवाः सुन्वन्तम् इच्छान्ति। 
हिन्दी में भावार्थ-देवता कर्मशील मनुष्य को ही  प्रेम  करते हैं।
           जीवन को सुचारु रूप से चलाने क्रे लिये कर्मशील होना आवश्यक है। आलस्य मनुष्य का शत्रु माना जाता है। देह से परिश्रम न करना ही आलस्य है यह सोचना गलत है वरन् मस्तिष्क को सोचने के ले कष्ट देने से बचना भी इसी श्रेणी में आता है। आधुनिक सुविधाभोगी जीवन ने आदमी की देह के साथ ही उसके मस्तिष्क की सक्रियता पर भी बुरा प्रभाव डाला है। लोग प्रमाद तथा व्यसन में अधिक रुचि इसलिये लेते हैं कि उनके मस्तिष्क को राहत मिले। यही राहत आलस्य का रूप है।  इससे बचना चाहिए। अध्यात्म ज्ञान प्राप्त करने यह आलस्य स्वमेव दूर होता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Wednesday, November 14, 2012

पतंजलि योग विज्ञान-अभाव के ज्ञान का अवलम्बन करने वाली वृत्ति निद्रा है(patanjali yog vigyan-abhav ke gyan ko dharan karane wali vritti nidra hai)

       पतंजलि योग वास्तव में ऐसा विज्ञान है जिस पर नवीन युग में अनुसंधान करना आवश्यक है।  हम यह नहीं कह सकते कि  इसका वर्तमान समय में  कोई महत्वनहीं है क्योंकि हम देख रहे हैं कि आधुनिक विज्ञान अभी भी पूर्णता का दावा नहीं कर सकता।   विषय चाहे अध्यात्मिक हो या सांसरिक उसे अपनी इस देह के साथ ही जोड़ा जा सकता है इसलिये किसी भी विषय को जीव से प्रथम नहीं किया जा सकता।   यह देह पूरे संसार से जुड़ी है और अगर हम पाश्चात्य विज्ञान की बात माने तो इस प्रथ्वी पर मौजूद हर वस्तु का अंश इस देह में होता है।  इसलिये संसार को समझने के लिये अपनी देह को समझना जरूरी है। उसमें मौजूद प्रकृतियों का अध्ययन करने पर इस संसार का रहस्य सहजता से समझा जा सकता है। निष्कर्ष निकालने के लिये कहीं अन्यत्र प्रयोग करने की आवश्कता नहीं है उन्हें हम स्वतः अनुभव कर सकते हैं।  इतना ही नहीं इसके सूत्रों को समझने पर जब व्यवहार में उसे देखते हैं तो लगता है कि वास्तव में यह ऐसा विज्ञान है जिसके बिना मनुष्य का ज्ञान अधूरा है।
       पतंजलि में चित्त के यह सूत्र मनोविज्ञान की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है।
वृत्तयः पञ्चतथ्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।।
             हिन्दी भावार्थ-क्लिष्ट और अक्लिष्ट वृत्तियां पांच प्रकार की होती हैं।
प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः
         हिन्दी में भावार्थ-यह है प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति।
प्रत्यक्षानुमानागामः प्रमाणानि।।
        हिन्दी में भावार्थ-प्रमाण के तीन प्रकार हैं प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम
       विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतदृुप्रतिष्ठम्।।
         हिन्दी में भावार्थ-वह वस्तु वैसी नहीं है जैसी समझ रहे हैं यह भ्रम विपर्यय है।
शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।
           हिन्दी में भावार्थ-जो ज्ञान शब्द के साथ होने वाला है जिसका विषय वास्तव में नहीं वह विकल्प है।
अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिनिंद्रा।।
           हिन्दी में भावार्थ-अभाव के ज्ञान का अवलम्बन करने वाली वृत्ति निद्रा है।
अनुभूतविषयास्पभ्प्रभोषः स्मृतिः।।
         हिन्दी में भावार्थ-अनुभव किये हुए विषय का प्रकट हो जाना स्मृति है।
         इस संसार में अनेक प्रकार के भ्रम प्रचलित है।  अनेक प्रकार के मंत्र तंत्र करने वाले समाज में भ्रम पैदा करते हैं।  देखा जाये तो यह संसार चलायमान है। अनेक विषय ऐसे हैं जिनका संबंध समय से है  जिसकी वजह से लोगों को सांसरिक कार्य स्वतः होते हैं।  कहा जाता है कि परमात्मा पहले दाना बनाता है फिर जीव में पेट लगाता है। अगर किसी आदमी के मन में यह इच्छा कि उसका धंधा लग जाये तो समय आने पर वह सफल भी होता है पर अगर उसने इस दौरान कहीं मन्नत मांगी होती है या किसी ने सिद्धि का मंत्र बताया होता है तो वह मानने लगता है कि यह सब चमत्कार है। योग साधक और अध्यात्मिक ज्ञान के छात्र इस बात को जानते हैं यही कारण है कि वह चमत्कार आदि में यकीन नहीं करते।
लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’ ग्वालियर मध्यप्रदेश

संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
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Sunday, November 04, 2012

चाणक्य नीति-दंड की कठोर व्यवस्था न होने से अपराधी बेखौफ हो जाते हैं

                कहा जाता है कि फिट है वही हिट है। दरअसल भौतिक उपलब्धियों के लिये जुटा इंसान न तो अपनी देह को स्वस्थ रखने के लिये प्रयास करता है और न ही अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर आत्मबली हो पाता है। जीवन में एक बार ऐसा समय अवश्य ही आता है जब वह थक जाता है। यह थकावट उसे वृद्धावस्था में ही पहुंचा देती है। ऐसे में शारीरिक तथा आत्मिक रूप से क्षीण होकर मनुष्य के पास आर्तनाद करने के अलावा कोई मार्ग शेष नहीं रह जाता। हमारे देश में व्यायाम आदि को कभी आदत की तरह नहीं अपनाया गया। अपनी ही योग कला को केवल सिद्धों तथा नकारा लोगों के लिये आवश्यक माना गया है। यही कारण है कि आजकल हम अपने आसपास शारीरिक तथा दिमागी रूप से विकारग्रस्त लोगों का से भरा समाज देख रहे हैं।
                       महान नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि
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                        यस्मिन् रुष्टे भयं नास्ति तुष्टे नैंव धनऽऽगमः।
                       निग्रहोऽनुग्रहो नास्ति स रुष्टः किं करिष्यति।।
            ‘‘जिसके नाराज होने पर किसी प्रकार का भय नहीं हो और नही प्रसन्न होने पर किसी फल की आशा है और जो दण्ड देने का सामर्थ्य भी नहीं रखता वह गुस्सा होकर कर भी क्या लेगा?’’
                  पश्चिमी आधार पर किये गया व्यायाम भी बुरा नहीं है अगर नियमित रूप से किया जाये मगर हमारे देश में लोगों ने जीवन शैली तो ब्रिटेन और अमेरिका जैसी अपना ली है पर वहां जो कसरत करने का नियम है उसका पालन नहीं करते। सुविधाओं ने इतना विलासी बना दिया है कि हमारे यहां अस्वस्थ लोगों की संख्या बढ़ रही है। हमारे यहां की योग कला तो न केवल शारीरिक रूप से शक्तिशाली बनाती है वरन मानसिक रूप से दृढ़ भी बनाती है। आज के समय में जब भौतिकवाद के चलते आदमी अकेला होता जा रहा है तब यह आवश्यक है कि अपने बल को बनाये रखे। यह सभी जानते हैं कि जब तक हमारी देह में सामर्थ्य है तभी तक सारा संसार हमारे साथ है और असमर्थ होने पर अपने भी त्याग देते हैं। इसके बावजूद अगर कोई अपने स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं देता तो उसे अज्ञानी ही माना जा सकता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Sunday, October 07, 2012

चाणक्य नीति-ध्यान की कला बगुले से सीखना चाहिए (dhyana karna bagule se seekhna chahiye-chakya neeti or policy)


      सामान्य मनुष्य हमेशा ही बहिर्मुखी रहता है। आंखों के सामने घटित दृश्य, कानों में गूंजते स्वर तथा नासिका से सुगंध दुंर्गंध का बोध करने में उसकी इंद्रियां इतनी व्यस्त रहती है कि उसकी बुद्धि मे चिंत्तन का कीड़ा कभी घूमता नज़र नहीं आता।  विरले लोग ही होते हैं जो आत्ममंथन करते हैं।  ऐसे ज्ञानी लोग न केवल सदैव प्रसन्न रहते हैं बल्कि हर स्थिति में सफलता उनके हिस्से ही आती है।  आमतौर से बगुले को धूर्तता का पर्याय माना जाता है पर उसे अगर चालाकी समझा जाये तो कुछ सीखा जा सकता है। वह अपनी इंद्रियों को वश में कर तालाब में मछलियों का शिकार करता है।  अगर मनुष्य उससे सीखकर अपने जीवन के लक्ष्यों को पूरा करने का प्रयास करे तो वह सुखी रह सकता है।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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इन्द्रियाणि च संयम्य बकवत् पण्डितो नरः।
देशकालबलं सर्वकार्याणि साधयेत्।।
                     हिन्दी भावार्थ-ज्ञानी व्यक्ति हमेशा ही बगुले की तरह इंद्रियों पर नियंत्रण कर देश और काल की समझ धारण कर अपने बल से ही सारे कार्यो को संपन्न करता है।’’
य एतान् विंशतिगुणानाचारिव्यति मानवः।
कार्याऽवस्थासु सर्वासु अजेयः स भविष्यति।।

                                                  हिन्दी में भावार्थ-जो व्यक्ति बीस गुणों का आचरण कर जीवन व्यतीत करेगा वह कायों को संपन्न करने के साथ हर अवस्था में विजयी होता है।’’
      हमें जब भी एकांत मिले आत्ममंथन अवश्य करना चाहिए। अपने गुणों तथा बल के साथ ही अपनी कमजोरियों पर भी विचार करना चाहिए। हमेशा बहिर्मुखी बने रहने से कोई लाभ नहीं जब तक हम अंतर्मुखी होकर विचार न करें। जीवन में सफलता का मूल मंत्र यही है कि अपने अंदर गुणों के संचय का प्रयास भी करें।
 
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
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Thursday, September 27, 2012

योग साधना से तन, मन और विचार का मेल निकलता है-हिंदी चिंत्तन

 
         तन का मैल नहाने और मन का मैल भक्ति से निकलता है, अक्सर प्रवचनकर्ता यह बात कहते हैं।  यह बरत सही भी है। जब हम अपनी देह और मन के विषय पर आत्ममंथन करते हैं तो पाते हैं कि कछ कमी रह जाती है। हम जमकर नहायें और हृदय से भक्ति करने का प्रयास भी करें तब भी लगता है कि कुछ छूट रहा है। इसका उपाय हमारे समझ में नहीं आता। यह कमी क्या है? क्यों रह जाती है।
    दरअसल हमारी देह गुणों के वशीभूत है। हम प्रतिदिन जो खाते हैं वह मल के रूप में हमारे अंदर विराजमान रहता ही है। महान नीति विशारद चाणक्य का कहते हैं कि हमारे निष्कासन अंग कभी पूरी तरह स्वच्छ नहीं रहते।
    यह मल हमारे मन मस्तिष्क को प्रभावित करता है। इससे बचने का उपाय है योग साधना।  सुबह या शाम हम जब मल विसर्जन करते हैं तब लगता है कि हमारी देह अंदर से स्वच्छ हो गयी पर ऐसा होता नहीं है। योग साधना का अनुभव होने पर यह पता चलता है कि हमारे अंदर मल बहुत बड़ी मात्रा में रह जाता है जो अंततः दैहिक तथा मन के विकारों को उत्पन्न करता है। श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार मनुष्य का मन, बुद्धि तथा देह गुणों के वशीभूत है। जब देह में विकार होत तो मन और बुद्धि में शुद्धता और पवित्रता की आशा करना व्यर्थ है।  दरअसल अपनी देह को एक दुष्टा की तरह देखने की आवश्यकता है।  हम अनेक बार तनाव तथा अशांति के दौर में पहुंच जाते हैं तब मानसिक संताप से स्वयं को कष्ट पहुंचाने के अलावा कुछ नहीं कर पाते। इससे बचने के उपाय के रूप  में योग साधना एक महत्वपूर्ण उपाय है।
  
नियमित योग साधना को अनेक लाभ होते है। एक समय ऐसा भी आता है जब हमारी देह इतनी आदी हो जाती है तब यह लगता है कि अब कोईलाभ नहीं हो रहा है, पर यह सोच गलत हैदरअसल कोई दवाई लेने से आदमी स्वस्थ होता है तो उसकी अनुभूति प्रत्यक्ष की जा सकते है मगर योगासन, ध्यान और प्राणायाम से जो स्वास्थ में निरंतरता बनी रहती है इसलिए कुछ नयापन नहीं लगता  नियमित योग साधना करते हुए हमें यह भी सोचना चाहिये   हम उन हानियों से भी बचे रहते हैं जो इसका अभ्यास न करने पर पहुंचती हैं।
लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश

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Saturday, September 15, 2012

कौटिलय का अर्थशास्त्र-बिना ज्ञान के राजकर्म करना भी अनुचित (politcs activty without knowledge-economics of kautilya)

           मूलतः हर मनुष्य में दूसरे पर शासन करने की प्रवृत्ति होती है जो अंततः अहंकार की अग्नि से पैदा होती है। यह बुरा भी नहीं है पर जिस मनुष्य में अपने शासित लोगों का हित करने की बजाय उनका दोहन करने का लक्ष्य होता है  वह उसको भ्रष्ट, निकृष्ट और दुष्ट बना देता है। आधुनिक लोकतंत्र ने पूरे विश्व में राजनीति शास्त्र की बजाय केवल नारे देने वालों को राज्य पद पर प्रतिष्ठित करना प्रारंभ किया है।  इतना ही नहीं राजनीति की बजाय अन्यत्र विषयों में पारंगत और प्रतिष्ठित लोगों के लिये राजकाज में आने की प्रवृत्ति बढ़ी है।  कहने का अभिप्राय यह है कि राजनीति से अनभिज्ञ लोग राजधर्म से भी अनभिज्ञ होते हैं और जब वह राजकाज करते हैं तो वह उसमें वह सफल नहीं हो पाते।  इसके परिणाम प्रजा को भोगने पड़ते हैं।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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शास्त्रचक्षुनृपस्तस्मान्महामात्यमते स्थितः।
धर्मार्थप्रतिपातीनि व्यसननि परित्येत्।।

                ‘हिन्दी में भावार्थ-किसी भी राज्य प्रमुख के पास शास्त्रों का ज्ञान होना आवश्यक है।  उसे हमेशा ही योग्य मंत्रियों के साथ दिखना चाहिए।  धर्म और अर्थ के लिये घातक व्यसनों को वह त्याग दे।
      राज्य करना भी एक तरह से कला है।  जिस तरह समाज में कला का व्यवसायीकरण हुआ है वैसे ही राजनीति भी पेशा बन गयी है।  अनेक लोग तो अपने राजनीति से इतर व्यवसायों, संगठनों तथा सामाजिक हितों की रक्षा के लिये पदारूढ़ होने की  कामना करते हैं।  वह सफल भी होते हैं। उनका लक्ष्य केवल पद पर बैठकर अपने तथा परिवार की रक्षा करना होता है इसलिये प्रजाहित की न तो उनमें दिलचस्पी रहती है न ही कोई वह योजना बनाते हैं।  इसी कारण पूरे विश्व में भ्रष्टाचार और अराजकता का वातावरण बन गया है।  अलबत्ता पद बचाये रखने के लिये ऐसे लोग  नारे अवश्य दिया करते हैं।  यही कारण है कि इस समय विश्व के अनेक देशों में असंतोष का वातावरण बन गया है।  अनेक जगह खूनी संघर्ष चल रहे हैं।  अनेक राज्य प्रमुख अपने ही देश के विद्रोहियों से जान बचाते फिर रहे हैं। यह राज्य प्रमुख केवल बंदूक के सहारे पदों पर आ गये पर जनहित करने की समझ उनमें कभी नहीं दिखी। हमारे देश को अंग्रेजों से राजनीतिक स्वतंत्रता मिले साठ साल से अधिक समय हो गया है पर आज भी अनेक विद्वान मानते हैं कि अधूरी आजादी ही मिली है।  इसलिये राजनीति में सक्रिय होने वाले लोगों को पहले राजनीति शास्त्र का अध्ययन करना चाहिए।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Sunday, September 09, 2012

पतंजलि योग विज्ञान-सुख का योग दुःख से है (patanjali yog vigyan or scince-sukh aur dukh ka yoga)

         पंचतत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि और अहंकार प्रकृति स्वतः विराजती हैं। मनुष्य का मन तो अत्यंत चंचल माना जाता है। यही मन मनुष्य का स्वामी बन जाता है और जीवात्मा का ज्ञान नहीं होने देता। अध्यात्म के ज्ञान के अभाव में सांसरिक क्रियाओं के अनुकूल मनुष्य प्रसन्न होता है तो प्रतिकूल होने पर भारी तनाव में घिर जाता है। मकान नहीं है तो दुःख है और है उसके होने पर सुख होने के बावजूद उसके रखरखाव की चिंता भी होती है। धन अधिक है तो उसके लुटने का भय और कम है नहीं है या कम है, तो भी सांसरिक क्रियाओं को करने में परेशानी आती है मनुष्य सारा जीवन इन्हीं  अपनी कार्यकलापों के अंतद्वंद्वों में गुजार देता है। विरले ज्ञानी ही इस संसार में रहकर हर स्थिति में आनंद लेते हुए परमात्मा की इस संसार रचना को देखा करते हैं। अगर किसी वस्तु का सुख है तो उसके प्रति मन में राग है और यह उसके छिन जाने पर क्लेश पैदा होता है। कोई वस्तु नहीं है तो उसका दुःख इसलिये है कि वह दूसरे के पास है। यह द्वेष भाव है जिसे पहचानना सरल नहीं है। मृत्यु का भय तो समस्त प्राणियों को रहता है चाहे वह ज्ञानी ही क्यों न हो। मनुष्य का पक्षु पक्षियों में भी यह भय देखा जाता है।
पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि
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सुखानुशयी रागः।
‘‘सुख के अनुभव के पीछे रहने वाला क्लेश राग है।’’
‘‘दुःखानुशयी द्वेषः।
‘‘दुःख के अनुभव पीछे रहने वाला क्लेश द्वेष है।’’
स्वरसवाही विदुषोऽपि तथा रूडोऽभिनिवेशः।।
            ‘‘मनुष्य जाति में परंपरागत रूप से स्वाभाविक रूप से जो चला आ रहा है वह मृत्यु का क्लेश ज्ञानियों में भी देखा जाता है। उसे अभिनिवेश कहा जाता है।’’
ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः।
           ‘‘ये सभी सूक्ष्मावस्था से प्राप्त क्लेश चित्त को अपने कारण में विलीन करने के साधन से नष्ट करने योग्य हैं।’’
ध्यानहेयास्तद्वृत्तयः।।
‘‘उन क्लेशों की वृत्तियां ध्यान से नष्ट करने योग्य हैं।’’
       इस तरह अंतद्वंद्वों में फंसी अपनी मनस्थिति से बचने का उपाय बस ध्यान ही है। ध्यान में जो शक्ति है उसका बहुत कम प्रचार होता है। योगासन, प्राणायाम और मंत्रजाप से लाभ होते हैं पर उनकी अनुभूति के लिये ध्यान का अभ्यास होना आवश्यक है। दरअसल योग साधना भी एक तरह का यज्ञ है। इससे कोई भौतिक अमृत प्रकट नहीं होता। इससे अन्तर्मन   में जो शुद्ध होती है उसकी अमृत की तरह अनुभूति केवल ध्यान से ही की जा सकती है। इसी ध्यान से ही ज्ञान के प्रति धारणा पुष्ट होती है। हमें जो सुख या दुःख प्राप्त होता है वह मन के सूक्ष्म में ही अनुभव होते हैं और उनका निष्पादन ध्यान से ही करना संभव है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Wednesday, August 29, 2012

शरीर की सफाई से बीमारी दूर होती है-ऋग्वेद से सन्देश (rigved se sandesh-sharir ki safai se bimari door hotee hai)

                      हमारे वेदों में अनेक ऐसी बातें कही गयी हैं जिनका महत्व इस संसार में कभी महत्व नहीं होता।  इसका कारण यह है कि इस संसार में समय के साथ भौतिक स्वरूप के साथ ही लोगों के रहन सहन, चाल चलन तथा कार्य करने के तरीकों में बदलाव तो संभव है पर उसके अंदर की मूल प्रकृतियों का निवास स्थाई रूप से रहता है।  इन मूल प्रकृतियों तथा उनकी निवृति के ज्ञान का (जिसे हम अध्यात्मिक विज्ञान भी कह सकते हैं) जो वर्णन इन वेदों में वर्णित है।  उनकी विषय सामग्री का  अध्ययन चाहे जब किया जाये उनमें नवीनता बनी रहती है।
ऋग्वेद में कहा गया है कि
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ब्रह्माद्विषः अवजहि।
हिन्दी में अर्थ-‘‘ज्ञान से द्वेष करने वाले को मार।’’
अहः अहःशुन्ध्युः परिपदां।।’’
हिन्दी में अर्थ-‘‘नित्य स्वच्छता रखने वाला रोगों को दूर करता है।’’
             अधिकतर लोग धार्मिक कर्मकांडों को ही अपने जीवन का हिस्सा बनाते हैं पर आध्यात्मिक ज्ञान उनके लिये बुढ़ापे में जानने वाला विषय होता है जबकि इसका ज्ञान अगर बचपन से हो जाये तो जिंदगी आराम से बिताई जा सकती है। इसका कारण यह है कि सांसरिक विषयों से संबंध तो बचपन से ही हो जाता है और अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव आम मनुष्य उसमें इस तरह लिप्त हो जाता है कि उसके लिये सुख कम दुःख अधिक प्रकट होते हैं।  अधिकतर मनुष्यों के  अंदर अहंकार मोह तथा लोभ की  प्रकृतियां विद्यमान रहती हैं जो उसे ज्ञान से परे रखती है।  यह प्रकृतियां ज्ञान से द्वेष करती हैं।  ज्ञानी से चिढ़ाती हैं।
           अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव में आदमी की न  केवल देह  बल्कि मन तथा विचारों में भी अस्वच्छता का वास हो जाता है।  इस तरह की समस्या से बचने का उपाय यही है कि  हम अपने अध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन कर अपनी बुद्धि, विचार तथा मन को शुद्ध रखने का प्रयास करें।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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Sunday, August 19, 2012

पतंजलि योग विज्ञान सूत्र-चित्त को एकाग्र कर मानसिक क्लेश कम करें (patanjali yog vigyan sootra-chitta aur klesh)

         पंचतत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि और अहंकार प्रकृति स्वतः विराजती हैं। मनुष्य का मन तो अत्यंत चंचल माना जाता है। यही मन मनुष्य का स्वामी बन जाता है और जीवात्मा का ज्ञान नहीं होने देता। अध्यात्म के ज्ञान के अभाव में सांसरिक क्रियाओं के अनुकूल मनुष्य प्रसन्न होता है तो प्रतिकूल होने पर भारी तनाव में घिर जाता है। मकान नहीं है तो दुःख है और है उसके होने पर सुख होने के बावजूद उसके रखरखाव की चिंता भी होती है। धन अधिक है तो उसके लुटने का भय और कम है नहीं है या कम है, तो भी सांसरिक क्रियाओं को करने में परेशानी आती है मनुष्य सारा जीवन इन्हीं  अपनी कार्यकलापों के अंतद्वंद्वों में गुजार देता है। विरले ज्ञानी ही इस संसार में रहकर हर स्थिति में आनंद लेते हुए परमात्मा की इस संसार रचना को देखा करते हैं। अगर किसी वस्तु का सुख है तो उसके प्रति मन में राग है और यह उसके छिन जाने पर क्लेश पैदा होता है। कोई वस्तु नहीं है तो उसका दुःख इसलिये है कि वह दूसरे के पास है। यह द्वेष भाव है जिसे पहचानना सरल नहीं है। मृत्यु का भय तो समस्त प्राणियों को रहता है चाहे वह ज्ञानी ही क्यों न हो। मनुष्य का पक्षु पक्षियों में भी यह भय देखा जाता है।
पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि
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सुखानुशयी रागः।
‘‘सुख के अनुभव के पीछे रहने वाला क्लेश राग है।’’
‘‘दुःखानुशयी द्वेषः।
‘‘दुःख के अनुभव पीछे रहने वाला क्लेश द्वेष है।’’
स्वरसवाही विदुषोऽपि तथा रूडोऽभिनिवेशः।।
            ‘‘मनुष्य जाति में परंपरागत रूप से स्वाभाविक रूप से जो चला आ रहा है वह मृत्यु का क्लेश ज्ञानियों में भी देखा जाता है। उसे अभिनिवेश कहा जाता है।’’
ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः।
           ‘‘ये सभी सूक्ष्मावस्था से प्राप्त क्लेश चित्त को अपने कारण में विलीन करने के साधन से नष्ट करने योग्य हैं।’’
ध्यानहेयास्तद्वृत्तयः।।
‘‘उन क्लेशों की वृत्तियां ध्यान से नष्ट करने योग्य हैं।’’
       इस तरह अंतद्वंद्वों में फंसी अपनी मनस्थिति से बचने का उपाय बस ध्यान ही है। ध्यान में जो शक्ति है उसका बहुत कम प्रचार होता है। योगासन, प्राणायाम और मंत्रजाप से लाभ होते हैं पर उनकी अनुभूति के लिये ध्यान का अभ्यास होना आवश्यक है। दरअसल योग साधना भी एक तरह का यज्ञ है। इससे कोई भौतिक अमृत प्रकट नहीं होता। इससे अन्तर्मन   में जो शुद्ध होती है उसकी अमृत की तरह अनुभूति केवल ध्यान से ही की जा सकती है। इसी ध्यान से ही ज्ञान के प्रति धारणा पुष्ट होती है। हमें जो सुख या दुःख प्राप्त होता है वह मन के सूक्ष्म में ही अनुभव होते हैं और उनका निष्पादन ध्यान से ही करना संभव है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Tuesday, August 14, 2012

पलटू महाराज का सन्देश-बराबरी करने से अच्छा है हार मन लेना

              वर्तमान युग के बाज़ार और प्रचारतंत्र के शक्तिशाली हथियारों के आगे आम आदमी लाचार और बेबस होता जा रहा है। टीवी, अखबार, मोबाइल, कंप्यूटर और फिल्मों का प्रभाव समाज में इस तरह हो गया है कि आम इंसान के अंदर स्वचिंत्तन का अभाव हो गया है। वह प्रचार के माध्यम से थोपे जा रहे विषयों को ही सबकुछ मानकर उसमें लिप्त होकर अपने मस्तिष्क में तनाव ला रहा है जिस कारण अनेक रोग पैदा हो रहे हैं। इधर भोग विलासिता की वस्तुओं में नित नित नये मॉडल आ जाते हैं तो एक माह पहले ही खरीदे गये सामान प्राचीन युग के प्रतीत होते है। इस कारण लोग विषयों के पीछे भागते जा रहे हैं। ऐसे में अपने चरित्र पर विचार करने का किसी के पास समय नहीं है पर समाज में सम्मान पाने का मोह सभी को है। इसका उपाय लोगों ने यह ढूंढ लिया है कि दूसरे की निंदा कर अपने को बड़ा साबित करो। यह निहायत घटिया प्रयास है जिसे करते हुए हम लोगों को देख सकते हैं। आत्म मंथन करें तो अपने अंदर भी यह दोष दिखाई देगा।
             पलटू महाराज कहते हैं कि
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           ‘पलटू’ यह सांची कहैं, अपने मन को फेर।
            तुझे पराई क्या परी, अपनी ओर निबेर।।
           ‘‘सच बात तो यह है कि मनुष्य अपने मन का विचार करे। पराई बातों में रुचि लेने से कोई लाभ नहीं बल्कि अपने गुण दोष पर दृष्टिपात करना ही ठीक है।                                                 सरबरि कबहूं न कीजिये, सबसे रहिये हार।
                                                      ‘पलटू’ ऐसे दास सों, डरिये बारबार।।
         ‘‘सबसे बराबरी करने का विचार छोड़कर हार मान लेना ही बेहतर हैं। जो ऐसा करता है व्यक्ति से डरना चाहिए क्योंकि दूसरों के घर की रौशनी देखकर अपना घर न चलाने वाला ही मानसिक रूप से शक्तिशाली होता है।’’
           चाणक्य महाराज का कहना है कि अगर किसी व्यक्ति को लोकप्रिय होना है तो वह निंदा करना छोड़ दे। हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है कि दूसरों के सुख को ईर्ष्या न करें। जो लोग ज्ञानी हैं वह सादगी से जीवन जीते हैं उनको कमजोर या गरीब मानने वालों की आज के समाज में कमीनहीं है पर सच यह है कि ऐसे त्यागी और ज्ञानी आम इंसान से अधिक शक्तिशाली होते है। विषयों में आसाक्ति मनुष्य को मानसिक रूप से कमजोर बनाती है पर निष्काम भाव से हृदय में साहस का भाव आता है। अतः उनका सम्मान करना चाहिए। एक बात याद रखें उपभोग प्रवृत्ति कभी शक्ति और स्वास्थ्य का प्रमाण नहीं होती।
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Thursday, August 02, 2012

सामवेद से सन्देश-ज्ञानी कभी आलसी नहीं होते (samved se sandeh-gyani kabhee aasli nahin hote)

           श्रीमद्भागवत गीता के आलोचक उसे युद्ध से उपजा मानकर उसे तिरस्कार करते हैं पर शायद वह नहीं जानते कि आधुनिक सभ्यता में भी युद्ध एक व्यवसाय है जिसे कर्म की तरह किया जाता है। सारे देश अपने यहां व्यवसायिक सेना रखते हैं ताकि समय आने पर देश की रक्षा कर सकें।
         भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध के समय श्री अर्जुन से कहा था कि अभी तू युद्ध छोड़ देगा पर बाद में तेरा स्वभाव इसके लिये फिर विवश करेगा। अर्जुन एक योद्धा थे और उनका नित्य कर्म ही युद्ध करना था। जब श्रीकृष्ण उसे युद्ध करने का उपदेश दे रहे थे तो एक तरह से वह कर्मप्रेरणा थी। मूलतः योद्धा को क्षत्रिय माना जाता है। इसे यूं भी कहें कि योद्धा होना ही क्षत्रिय होना है। इसलिये श्रीमद्भागवत में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म प्रेरणा दी है यह अलग बात है कि युद्ध करना उसका स्वाभाविक कर्म था। श्रीमद्भागवत में कृष्ण यह भी कहते हैं कि अपने स्वाभाविक कर्म में लगा कोई भी व्यक्ति हो-कर्म के अनुसार क्षत्रिय, ब्राह्मण वैश्य और शुद्र का विभाजन माना जाता है-मेरी भक्ति कर सकता है। इस तरह श्रीमद्भागवत गीता को केवल युद्ध का प्रेरक मानना गलत है बल्कि उसके अध्ययन से तो अपने कर्म के प्रति रुचि पैदा होती है। इसी गीता में अकुशल और कुशल श्रम के अंतर को मानना भी अज्ञान कहा गया है। आजकल हम देखते हैं कि नौकरी के पीछे भाग रहे युवक अकुशल श्रम को हेय मानते हैं। इसी कारण समाज में सफ़ेद कालर वाला काम करने की परिवृति बढती जा रही है।
सामवेद में कहा गया है कि
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अभि विश्वानि काव्या
‘‘सारे सुकर्म कर।’
दिवे दिवे वाजं सस्निः।
‘‘प्रतिदिन तुम युद्ध करते हो।’’
मो षु ब्रह्मेव तन्द्रर्भवो।
‘‘आत्मज्ञानी बनकर कभी आलसी मत बनना।’’
             मनुष्य अपनी देह पालन के लिये कर्म करता है जो युद्ध का ही रूप है। हम आजकल सामान्य बातचीत में यह बात मानते भी हैं कि अब मनुष्य का जीवन पहले की बनस्पित अधिक संघर्षमय हो गया है। जबकि हमारे वेदों के अनुसार तो हमेशा ही मनुष्य का जीवन युद्धमय रहा है। जब हम भारतीय अध्यात्म में वर्णित युद्ध विषयक संदर्भों का उदाहरण लेते हैं तो यह भी देखना चाहिए कि उन युद्धों को तत्कालीन कर्मप्रेरणा के कारण किया गया था। इतना ही नहीं इन युद्धों को जीतने वाले महान नायकों ने अपने युद्ध कर्म का नैतिक आधार भी प्रस्तुत किया था। वह इनको जीतने पर राजकीय सुविधायें भोगने में व्यस्त नहीं हुए वरन् उसके बाद समाज हित के लिये काम करते रहे।
      संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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Saturday, July 28, 2012

भर्तृहरि नीति शतक-नालायक लोग सहज भाव का मजाक बनाते हैं

            आमतौर से हम लोग अपने मित्रों या जीवन के नित्य व्यवहार में आने वाले लोगों से संपर्क बनाते समय उनकी आदतों पर ध्यान नहीं देते जो कि कालांतर में कष्टदायी सिद्ध होते हैं।  सामान्य मनुष्य पर उसकी संगति का प्रभाव अवश्य होता है। जो लोग चाहते हैं कि उनके अंदर कुविचार न आये, उनकी समाज में छवि सज्जन व्यक्ति की बने और उनके समक्ष कभी संकट न आये वह केवल इतना करें कि अपनी संगत पर ध्यान दें। ऐसे लोगों की संगत करें जिनसे मिलने पर प्रसन्नता होती हो। जो दुख देने वाले, निंदा करने वाले या असंतुलित मस्तिष्क के हैं उनसे दूर रहना ही श्रेयस्कर है। दुष्ट लोगों की संगत इतनी बुरी है कि वह शर्मदार को डरपोक, धर्मभीरु को पाखंडी, सत्यवादियों को कपटी और वीर को क्रूर बताते हैं। इन दुष्टों में बस एक ही गुण होता है दूसरों की निंदा करना। इतना ही नहीं न ऐसे लोगों से संगत करना चाहिए न ही इनकी संगत में रहने वाले के पास जाना चाहिए।
इस विषय में महाराज भर्तृहरि कहते हैं कि
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जाङ्यं ह्नीमति गणयते व्रतरुचौ दम्भः शुचौ कैतवं शूरे निर्घृणता मुनौ विमतिता दैन्यं प्रियालापिनि।
तेजस्विन्यवलिप्तता मुखरता वक्तर्यशक्तिः स्थिरे तत्को नाम गुणो भवेत् गुणिनां यो दुर्जनैनाकितः।।
         ‘‘दुष्ट संकोचशील पुरुषों में जड़ता, धर्मभीरुओं में पाखंड, सत्य धर्म में स्थित रहने वालों में कपट, वीरों में क्रूरता, विद्वानों में मूर्खता, नम्र लोगों में दीनता, प्रभावशालियों में अहंकार, अच्छे वक्तओं में बकवास तथा धीर गंभीर रहने वालों में असमर्थता का दुर्गुण होने का बयान करते हैं। ऐसा कौनसा गुणी आदमी है जिसमें दुष्ट लोग दोष नहीं ढूंढते।’’
              ऐसे दुष्टों की बात पर ध्यान देने से अपना ही मन खराब करना है। हम अच्छे है या बुरे इसकी पहचान हमें स्वयं ही कर सकते हैं। सीधी बात यह है कि हमारे मन में किसी के प्रति बुरा विचार नहीं आना चाहिए। दूसरा व्यक्ति अच्छा है या बुरा इसकी पहचान यह है कि भला आदमी कभी किसी निंदा नहीं करता। सज्जन आदमी हमेशा दूसरों के गुणों की प्रशंसा करता है। इतना ही नहीं दुष्ट व्यक्ति की पहचान होने पर उससे संबंध बनाये रखना ठीक नहीं है। यह सोचना बेकार है कि नियमित संबंध बनाये रखने में क्या दोष? दरअसल ऐसे दुष्ट व्यक्ति सामने कुछ न कहें पर पीठ पीछे अपने साथ का दोष बयान करने से बाज नहीं आते। अपनी छवि बनाने के लिये यह दूसरे की छवि खराब करते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, July 07, 2012

संत मलूकदास के दोहे-साधु वेश पहनने से कोई सिद्ध नहीं हो जाता

         हमारे देश के लोगों की प्रकृति इस तरह की है उनकी अध्यात्मिक चेतना स्वतः जाग्रत रहती है। लोग पूजा करें या नहीं अथवा सत्संग में शामिल हों या नहीं मगर उनमें कहीं न कहीं अज्ञात शक्ति के प्रति सद्भाव रहता ही है। इसका लाभ धर्म के नाम पर व्यापार करने वाले उठाते हैं। स्थिति यह है कि लोग अंधविश्वास और विश्वास की बहस में इस तरह उलझ जाते हैं कि लगता ही नहीं कि किसी के पास कोई ज्ञान है। सभी धार्मिक विद्वान आत्मप्रचार के लिये टीवी चैनलों और समाचार पत्रों का मुख ताकते हैं। जिसे अवसर मिला वही अपने आपको बुद्धिमान साबित करता है।
            अगर हम श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों के संदर्भ में देखें तो कोई विरला ही ज्ञानी की कसौटी पर खरा उतरता है। यह अलग बात है कि लोगों को दिखाने के लिये पर्दे या कागज पर ऐसे ज्ञानी स्वयं को प्रकट नहीं करते। सामाजिक विद्वान कहते हैं कि हमारे भारतीय समाज एक बहुत बड़ा वर्ग धार्मिक अंधविश्वास के साथ जीता है पर तत्वज्ञानी तो यह मानते हैं कि विश्वास या अविश्वास केवल धार्मिक नहीं होता बल्कि जीवन केे अनेक विषयों में भी उसका प्रभाव देखा जाता है।
               संत मलूक जी कहते हैं कि 
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               भेष फकीरी जे करै, मन नहिं आये हाथ।
             दिल फकीरी जे हो रहे, साहेब तिनके साथ।
            ‘‘साधुओं का वेश धारण करने से कोई सिद्ध नहीं हो जाता क्योंकि मन को वश करने की कला हर कोई नहीं जानता। सच तो यह है कि जिसका हृदय फकीर है भगवान उसी के साथ हैं।’’
               ‘‘मलूक’ वाद न कीजिये, क्रोधे देय बहाय।
              हार मानु अनजानते, बक बक मरै बलाय।।
          ‘‘किसी भी व्यक्ति से वाद विवाद न कीजिये। सभी जगह अज्ञानी बन जाओ और अपना क्रोध बहा दो। यदि कोई अज्ञानी बहस करता है तो तुम मौन हो जाओ तब बकवास करने वाला स्वयं ही खामोश हो जायेगा।’’
             हमारे यहां धार्मिक, सामाजिक, कला तथा राजनीतिक विषयों पर बहस की जाये तो सभी जगह अपने क्षेत्र के अनुसार वेशभूषा तो पहन लेते हैं पर उनको ज्ञान कौड़ी का नहीं रहता। यही कारण है कि समाज के विभिन्न क्षेत्रों के शिखरों पर अक्षम और अयोग लोग पहुंच गये हैं। ऐसे में उनके कार्यों की प्रमाणिकता पर यकीन नहीं करना चाहिए। मूल बात यह है कि अध्यात्मिक ज्ञान या धार्मिक विश्वास सार्वजनिक चर्चा का विषय कभी नहीं बनाना चाहिए। इस पर विवाद होते हैं और वैमनस्य बढ़ने के साथ ही मानसिक तनाव में वृद्धि होती है। वैसे भी धर्म व्यक्तिगत रूप से निभाने वाला कर्म है उसे  बहस की  विषय वस्तु बनाना व्यर्थ है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Sunday, June 03, 2012

हिन्दू धर्म दर्शन-खाने के लिये दीनता दिखाना अनुचित (hindu dharma darshan-khhane ke liye deenta dikhana anuchit)

             दुनियां में हर जीव के लिये भोजन अनिवार्य है पर इसका आशय यह कतई नहीं है किसी भूखे की दीनता देखकर उसके प्रति उदार भाव दिखाया जाये। कहा भी जाता है कि सबका दाता राम है और जिसने पेट दिया है उसने भोजन का इंतजाम भी पहले कर दिया है। यह भी कहा जाता है कि दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम! इन सब बातों के उल्लेख करने का तात्पर्य यह है कि दैहिक जीवन धारण करने के लिये भोजन अनिवार्य है पर इसका यह मतलब भी नहीं है कि सब कुछ यही भोजन है और कहीं भी किसी प्रकार भी ग्रहण किया जाये। हमेशा सुपाच्य भोजन करने के साथ ही इस बात पर भी ध्यान रखना चाहिए कि वह शुद्ध माध्यमो से अर्जित किया गया हो। ऐसे लोगों की संगत करना चाहिए जो पवित्र विचार और कर्म वाले हों। अगर कहीं भोजन के लिये दूसरे पर निर्भर हों तो यह भी देखना चाहिए कि वह आदमी किस प्रवृत्ति का है और उसके आय के साधन कैसे हैं?
                      भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि 
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             लाङ्गल चालनभधश्चरणावपातं भूमौ निपत्य वदनोदर दर्शनं च।
           श्वा पिण्डदस्य कुरुते गजपुङ्गवस्तु धीरं विलोकयति चाटुश्तैश्च भुङ्वते।।
                  ‘‘जब कोई मनुष्य कुत्ते के सामने भोजन डालता है तो वह पूंछ हिलाकर अपनी दीनता का प्रदर्शन करता है पर जब कोई हाथ के सामने भोजन रखता है तो वह बड़ी गंभीरता से उसे देखते हुए कई बार मनाने पर ही उसे ग्रहण करता है।"
                   हमें भोजन देने वाले का आभार व्यक्त करना चाहिए पर इसक अर्थ यह कदापि नहीं है कि उसके इतने कृतज्ञ हो जायें कि उसके कहने पर अपवित्र काम करने लगें। कहीं भोजन मिले तो उस तत्काल नहीं टूटना चाहिए बल्कि सम्मान से आग्रह करने पर ही अपना हाथ बढ़ाना चाहिए। अगर हमें भूख है तो इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि कहीं भोजन बना हुआ है जिससे हम अपना मन तृप्त कर सकते हैं। उसी तरह दूसरे को भोजन कराते समय अपने अंदर अहंकार का भाव भी नहीं रखना चाहिए। यह प्रकृत्ति प्रदत्त है भले ही निमित्त कोई इंसान बनता है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Friday, April 27, 2012

विदुर दर्शन-उचित अनुचित का भान न करने वाला ज्ञान व्यर्थ

              हमारे देश में कहीं भी चले जायें जहां चार लोग मिल बैठेंगे वहां अपने अध्यात्म ज्ञान का बखान जरूर करेंगे। अगर हम इन चर्चाओं को देखें तो लगेगा कि इस देश में भ्रष्टाचार, बेकारी, भुखमरी जैसी समस्याओं के साथ ही समाज को नष्ट करने वाली पुरानी रूढ़िवादिता का अस्तित्व दिखना ही नहीं चाहिए। ऐसा हो नहीं रहा है। यहां तक कि पाश्चात्य शिक्षा पद्धति का अनुसरण भी इसलिये किया गया ताकि हमारा समाज विश्व के अन्य देशों की बराबर कर सके। हो इसका उल्टा रहा है। पाश्चात्य प्रणाली पर आधारित शिक्षा में नैतिक ज्ञान का अभाव है और इस कारण अधिक शिक्षित आदमी एक तरह से न तो घर का रह जाता है न घाट का! इसके विपरीत अशिक्षित तथा अल्प शिक्षित कम से कम अपने अध्यात्म दर्शन से तो जुड़े रहने का पाखंड तो कर ही लेते हैं। जहां तक ज्ञान और उसके अनुसरण का प्रश्न है तो समाज की स्थिति देखकर नहीं लगता कि हमारा नैतिक स्तर कोई ऊंचा है। भ्रष्टाचार के विषय में हमारा देश अग्रणी देशों में गिना जाता है।
                       विदुर नीति में कहा गया है कि
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                     असभ्यगपयुक्तं हि ज्ञानं सुकुशलैरपि।
                    उपलभ्यं चाविदितं विदितं चाननुष्ठिम्।।
             ‘‘विद्वान चाहे कितना भी प्रतिष्ठित क्यों न हो यदि उससे कर्तव्य का ज्ञान नहीं हुआ अथवा उस ज्ञान से उचित अनुष्ठान नहीं हुआ तो वह व्यर्थ ही है।
              नष्टं समुद्रे पतितं नष्टं वाक्यमश्रृ्ण्वति।
              अनामास्मनि श्रृतं नष्ट नष्ट हुतमनाग्निकम्।।
           ‘‘समुद्र में गिरी हुई कोई भी वस्तु नष्ट हो जाती है उसी तरह जो सुनता नहीं है उससे कही हुई बात भी नष्ट हो जाती है। अजितेंद्रिय पुरुष का शास्त्र ज्ञान और राख में किया हुआ हवन भी नष्ट हो जाता है।
           अगर एक राष्ट्र के रूप में चिंत्तन करें तो भले ही विश्व में हमारे देश को अध्यात्मिक गुरु माना जाता है पर जिस ज्ञान के आधार पर यह छवि बनी है उसके अनुरूप हमारे अनुष्ठान नहीं है। देश में जगह जगह धार्मिक कार्यक्रम और प्रवचन होते हैं। वहां आने वाले असंख्य लोगों को देखें तो पूरा देश ही धर्ममय लगता है पर जब अखबार या टीवी चैनल देखते हैं तो लगता है कि इतना अधर्म शायद ही विश्व में कहीं अन्यत्र होता हो। अपने अध्यात्मिक ज्ञान पर गर्व करने वाले अनेक महानुभाव मिल जायेंगे पर उसका अनुसरण करने वालों की संख्या नगण्य है। एक तरह से हम अपने महापुरुषों से प्राप्त ज्ञान को नष्ट करने में लगे हैं। सच बात तो यह है कि जब तक हमारा नैतिक और अध्यात्मिक स्तर नीचे हैं हमारे यज्ञ, हवन तथा अन्य धार्मिक कर्मकांड व्यर्थ है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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