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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Saturday, October 26, 2013

न सोना दिखे न चांदी, चल गयी मेले में भीड़ की आंधी-हिन्दी चिंत्तन लेख(na sona dikhe n chanti,chal gayi mele mein bheed ki aandhi-hinci chinttan lekh)



                                                अभी तक उन्नाव के डौंडिया खेड़ा गांव की  उस पुरानी एतिहासिक इमारत में खुदाई चल ही रही है जिसमें एक हजार टन सोना दबे होने का दावा किया गया था।  भारतीय पुरातत्व विभाग के विशेषज्ञों का एक दल वहां लगा हुआ है और प्रचार माध्यमों की जानकारी को सही माने तो  इस तरह की कोई संभावना नहीं लग रही कि वहां एक हजार टन सोना मिल जायेगा।  एक हजार टन ही क्या एक ग्राम सोना भी मिल जाये तो बहुत है। कहा जाता है कि खोदा पहाड़ निकली चुहिया, पर यहां पर कुछ कांच की चूड़ियां मिली है इसलिये नयी कहावत का जन्म हुआ ही माना जा सकता है कि खोदा महल मिली कांच की चूड़ियां।
                        वाकई जंगहंसाई हुई है।  जब खुदाई शुरु हुई तब टीवी समाचार चैनलों ने अपने विज्ञापनों के विराम के दौरान थोड़े समाचार और थोड़ी बहस चलाई पर चूंकि लोग उसे सुनते हैं इसलिये इसकी चर्चा खूब हुई।  अभी तक हमने ऐसे किस्से तो सुने हैं कि अमुक संत या तांत्रिक के कहने पर किसी ने इधर तो किसी ने उधर खजाना पाने की लालच में खुदाई  करवाई पर यह पहली बार हुआ कि सरकारी स्तर पर यह काम हुआ।  हैरानी इस बात है कि भारत के पुरातत्वविद इस चक्कर में फंस कैसे गये? ऐसा लगता है कि उन्नाव के जिस संत के कहने पर यह खुदाई शुरु हुई उसकी स्थानीय छवि के प्रभाव का शिकार भारतीय पुरातत्त विशेषज्ञ भी हो गये जिस तरह आम लोग कभी कभी हो जाते हैं।  वैसे देश में पुराने महल में खुदाई  यह हैरान करने वाली बात नहीं है।  इस महल की खुदाई भी होना चाहिये थी पर जिस तरह का प्रचार हुआ उसने देश के लोगों को हैरान कर दिया है।  अनेक सामाजिक, अध्यात्मिक तथा पत्रकारिता क्षेत्र के विद्वानों ने तो तत्काल इस महल खुदाई बंद करने की मांग इस आधार पर की इससे आम लोगों में गलत संदेश जा रहा है।  खुदाई का काम बिना प्रचार के होता तो शायद कोई आपत्ति नहीं करता पर ऐसा लगता है कि संत समर्थकों को प्रचार पाने का मोह था इसलिये एक मामूली खबर भारी सनसनी बन गयी।  मजेदार बात यह कि खुदाई प्रारंभ होने से पहले ही वहां लोगों का एक संक्षिप्त समयकालीन मेला गया। खाने पीने के सामानों की अस्थाई दुकानें वहां लग गयी। न सोना न दिखे न चांदी, चली मेले में भीड़ की आंधी।
                        हम जैसे अध्यात्मिक ज्ञान साधकों के लिये सोना न मिलना निराशा की बात नहीं वरन् समाज की सच्चाई को समझने का एक बहुत अवसर मिला उससे खुशी हुई ।  आज भी समाज में शिक्षित पर अज्ञानी लोगों को एक बहुत बड़ा वर्ग है जो इस तरह की खबरों में विश्वास के साथ दिलचस्पी लेता है।  उस संत के प्रमुख शिष्य ने यहां तक दावा किया था कि उस संत में इतनी शक्ति है कि वह 21 हजार टन सोना देश को दिलवायेंगे। सोने के बाग लगा देंगे। उनके बोलते हुए देखकर ऐसा लगा कि उन जैसी बातें पहले भी हम कई बार सुने चुके हैं।  ऐसे एक नहीं दस लोग हैं जिनको हमने सोना के खजाने का पता बताने का दावा करते सुना है।  अगर लोग इस तरह की बातों पर यकीन कराने वाले होते तो हर घर खुदा हुआ मिलता है।  भारतीय पुरातत्व विभाग के मुखिया ने पहले ही इतनी मात्रा में सोना मिलने की संभावना से इंकार किया था पर संत के प्रमुख शिष्य ने सोने का राग अलापते हुए प्रचार माध्यमों को सनसनी फैलाये रखने की जो सुविधा प्रदान की वह आश्चर्यजनक थी।  वैसे एक बात लगी कि हमारे देश के लोगों एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसी बातों पर यकीन नहीं करता। भले ही प्रचार माध्यमों से बाबा के समर्थकों को दिखाकर यह साबित करने का प्रयास किया कि यह देश अंधविश्वासों को मानने वाला है पर हमने अपने आसपास के लोगों का रुझान देखा सभी लोगों ने इसका विरोध किया।  एक आदमी भी ऐसा नहीं मिला जिसे लगता हो कि वहां खोदने पर खजाना मिलने की संभावना से सहमत हो।
                        इस दौरान अध्यात्मिक विद्वानों ने स्पष्ट रूप से कह दिया था कि स्वयं संत कभी प्रचार पाने के लिये सामने नहीं आये और उनकी स्थानीय छवि उनके सत्कर्मों के कारण स्वच्छ भी है पर खजाने के विषय में उनकी भूमिका का भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान से कोई सरोकार नहीं है।  यही बात अच्छी लगी।  जब कथित संतों के साथ सांसरिक विषयों से जुड़े विवाद आते हैं तब सबसे अधिक भारतीय अध्यात्मिक दर्शन को संदिग्ध बनाया जाता है। कम से कम अध्यात्मिक विद्वानों ने अपने विचारों ऐसी बहसों में सकारात्मक पक्ष रखकर अपना दायित्व अच्छी तरह निभाया है। इसके लिये वह बधाई के पात्र हैं।
 

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Friday, October 18, 2013

दृश्यों के रस में न डूबना ही प्रतिदिन का मोक्ष-हिन्दी चिंत्तन लेख(drishyon ke rash mein n doobna hi pratidin ka moksh-hindi chinttan lekh)



                                    हमारी इंद्रियां हमेशा बाहर ही सक्रिय रहने को लालायित रहती है।  विशेष रूप से हमारी आंखें हमेशा ही दृश्य देखने को उत्साहित रहती है।  हम जिन दृश्यों को देखते हैं वह दरअसल प्रकृति में विचर रहे विभिन्न जीवों की लीला है।  जिनकी उत्पति भोग तथा मुक्ति के लिये होती है। कुंछ लोग अपने भोग करने के साथ ही उसके लिये साधन प्राप्त करने का उपक्रम करते हैं तो उनकी यह सक्रियता दूसरे मनुष्य के लिये दृश्य उपस्थिति करती है।  कुछ लोग मुक्ति के लिये योग साधन आदि करते हैं तो भी वह दृश्य दिखता है।  मुख्य विषय यह है कि हम किस प्रकार के दृश्य देखते हैं और उनका हमारे मानस पटल पर  क्या प्रभाव पड़ता है इस पर विचार करना चाहिये।
                        हम कहीं खिलते हुए फूल देखते हैं तो हमारा मन खिल उठता है। कहंी हम सड़क पर रक्त फैला देख लें तो एक प्रकार से तनाव पैदा होता है। यह दोनों ही स्थितियां भले ही विभिन्न भाव उत्पन्न करती हैं पर योग साधक के लिये समान ही होती है।  वह जानता है कि ऐसे दृश्य प्रकृति का ही भाग हैं। 
                        हम देख रहे हैं कि मनोरंजन व्यवसायी कभी सुंदर कभी वीभत्य तो कभी हास्य के भाव उत्पन्न करते हैं। वह एक चक्र बनाये रखना चाहते हैं जिसे आम इंसान उनका ग्राहक बना रहे। पर्दे पर फिल्म चलती है उसमें कुछ लोग  अभिनय कर रहे हैं।  वहां एक कहानी है पर उसे देखने वाले  व्यक्ति के हृदय में पर्दे पर चल रहे दृश्यों के साथ भिन्न भिन्न भाव आते जाते हैं। यह भाव इस तरह आते हैं कि जैसे वह कोई सत्य दृश्य देख रहा है।  ज्ञानियों के लिये पर्दे के नहीं वरन् जमीन पर चल रहे दृश्य भी उसके मन पर प्रभाव नहीं डालते।  वह जानता है कि जो घटना था वह तय था और जो तय है वह घटना ही है।  सांसरिक विषयों के जितने प्रकार के  रस हैं उतने ही मनुष्य तथा उसकी सक्रियता से उत्पन्न दृश्यों के रंग हैं।            

पतंजलि योग शास्त्र में कहा गया है कि
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प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थ दृश्यम
                        हिन्दी में भावार्थ-प्रकाश, क्रिया तथा स्थिति जिनका स्वभाव है भूत वह  इंद्रियां जिसका प्रकट स्वरूप है और  भोग और मुक्ति का संपादन करना ही जिसका लक्ष्य है ऐसा दृश्य है।

                        हम दृश्यों के चयन का समय या स्थान नहीं तय कर सकते पर इतना तय जरूर कर सकते हैं कि किस दृश्य का प्रभाव अपने दिमाग पर पड़ने दें या नहीं।  जिन दृश्यों से मानसिकता कलुषित हो उनकी उपेक्षा कर देनी चाहिये। हृदय विदारक दृश्य कोई शरीर का रक्त नहीं बढ़ाते।  हमें समाचारों में ऐसे दृश्य दिखाने का प्रयास होता है। आजकल सनसनी ऐसे दृश्यों से फैलती है हो हृदय विदारक होती हैं। लोग उसे पर्दे पर देखकर आहें भरते हैं।  अखबारों में ऐसी खबरे पढ़कर  मन ही मन व्यग्रता का भाव लाते हैं।  अगर आदमी ज्ञानी नहीं है तो वह यंत्रवत् हो जाता है। मनोरंजन व्यवसायी तय करते हैं कि इस यंत्रवत खिलौने में कभी श्रृंगार, तो कभी हास्य कभी वीभत्स भाव पैदा कर किस तरह संचालित किया जाये।  आनंद वह उठाते हैं यंत्रवत् आदमी सोचता है कि मैने आनंद उठाया। इस भ्रम में उम्र निकल जाती है। चालाक लोग कभी स्वयं इन रसों में नहीं डूबते। ठीक ऐसे ही जैसे हलवाई कभी अपनी मिठाई नहीं खाता। फिल्म और धारावाहिकों में अनेक पात्र मारे गये पर उनके अभिनेता हमेशा जीवित मिलते हैं मगर उनके अभिनय का रस लोगों में बना रहता है।  संसार के विषयों और दृश्यों  में रस है पर ज्ञानी उनमें डूबते नहीं यही उनके प्रतिदिन के मोक्ष की साधना होती है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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Saturday, October 12, 2013

इस संसार में कमाना सबसे सरल काम लगता है-हिन्दी चिंत्तन लेख(is sansar mein kamana sabse saral kam lagta hai-hindi chinntan lekh,hindi thouhgt article)



                        इस संसार में मनुष्य के लिये हाथों से प्रत्यक्ष रूप में धनार्जन, आंख से सुंदर दृश्य का दर्शन, मुख से भोजन, जिव्हा से वाचन और कान से मधुर स्वर का श्रवण करना सरल काम है।  इन्हें कोई भी कर सकता है। हमारी इंद्रियों को हमेशा ही बाह्य विषय आकर्षित करते हैं पर अंततः थका भी देते हैं। सांसरिक विषयों से परे होने के बाद  ज्ञान साधना करने पर इन इंद्रियों और विषयों का संयोग  वास्तविक रूप से समझ मेें आता है।  अगर हम बाह्य विषयों की बात करें तो उनके साथ संबंध हमेशा ही विष का निर्माण करता है और जब तक हम उसका विसर्जन न करें तब तक मन परेशान रहता है। जिस तरह हम पेट में भोजन तथा पानी उदरस्थ करते हैं पर वह अंततः निष्कासन द्वारों से गंदा होकर ही निकलता है। उसी तरह अन्य विषयों का भी यही हाल है। हम सुंदर दृश्य देखते हैं पर थक जाते हैं। फिर विराम के बाद वही दृश्य जब दोबारा नहीं दिखता तब निराशा होती है। उसी तरह कोयल का मधुर स्वर सुनने की आदत होने पर जब वह नहीं सुनाई देता तब कान खालीपन का अनुभव करते हैं।  उसी तरह जब हमें हाथों से प्रत्यक्ष धन कमाने का अभ्यास हो जाता है तब सेवानिवृत्ति या व्यवसाय से प्रथक होने पर फिर कहीं दूसरी जगह धन कमाने की इच्छा होती है।
                        यह इच्छायें मनुष्य की देह को जिंदा रखती हैं पर उसकी आत्मा को मरने के लिये विवश भी करती है।  सबसे सरल लगने वाले यह काम हमेशा ही कठिनाई में डाले रहते हैं।  योग साधना, ध्यान, मंत्रजाप तथा एकांत में मौन बैठकर चिंत्तन करने वाले काम अत्यंत कठिन लगते हैं पर उनसे जो अमृत पैदा होता है उसकी अनुभूति करने वाले बहुत कम लोग दिखते हैं। सच तो यह है कि हाथ से कमाने की अपेक्षा त्याग करना, आंख को खोलकर हमेशा ही बाह्य दृश्य देखने की अपेक्षा ध्यान लगाना, मुख से भोजन में स्वाद का त्याग, कान से अपने अंदर की सुनना, और जीभ से बोलने की अपेक्षा मौन रहना अत्यंत दुष्कर लगता है पर सच यही है कि मनुष्य में उस अध्यात्मिक शक्ति का निर्माण इन्हीं कठिन कामों से होता है जो जीवन को कलात्मक रूप से रहने का अनुभव देती है।
                        अक्सर हमारे अनेक कथित गुरु विषयों का त्याग करने की बात करते हैं पर इसका आशय वह स्वयं ही नहीं जानते। सच तो यह है कि उन्होंने स्वयं ही विषयों का त्याग नहीं किया होता क्योंकि मनुष्य देह के रहते यह संभव नहीं है।  देह के साथ इंद्रियां हैं तो बाह्य विषयों से संपर्क किये बिना उनका प्रसन्न रहना संभव नही है।  इंद्रियों अपना काम करती हैं तो करने दीजिये पर विषयों में मन को लिप्त नहीं करना चाहिये। हाथ से काम करने पर मिलने वाले धन के रूप में लाभ को फल नहीं कहा जा सकता बल्कि वह तो कर्म का ही विस्तार है।  आप कहीं से धन लेकर अपने पास नहीं रखते बल्कि उसे अपने अन्य सांसरिक कर्मों पर व्यय करते हैं।
                        एक सज्जन ने एक ज्ञानी व्यक्ति से कहा-‘‘जब तुम ज्ञान की बात करते हो तो यह बताओ यह नौकरी क्यों करते हो? तुम्हें निष्काम  कैसे कहा जा सकता है क्योंकि तुम इसका वेतन पाते हों?’’
                        उस ज्ञानी ने जवाब दिया कि-‘‘यह वेतन लेना एक तरह से कर्म ही है। हाथ से धन लेकर मुझे यह कहीं दूसरी जगह खर्च करना है।  अपनी देह के साथ ही अपने परिवार का भी पालन पोषण करना है।  यह वेतन मेरे मन को प्रसन्नता नहीं देता बल्कि यह कर्म की बाध्यता है कि इसे लेकर में दूसरा कर्म करूं। पेट पालन फल नहीं होता वरन् यह दायित्व है ताकि में अपनी देह से भक्ति के साथ ही ज्ञानार्जन कर सकूं।’’
                        संसार में रहते हुए अनेक पारिवारिक समस्याओं से हमें जूझना होता है। उनकी निपटने पर हम यह सोचकर प्रसन्न होते हैं कि हमने फल पा लिया तो यह अज्ञान का प्रमाण है। पैसा पाया तो वह खर्च करेंगे या बैंक खाते जमा कर देंगे। हमारे खाते में रकम चमकती दिखेगी पर बैंक दूसरों को ऋण देकर उन्हें कृतार्थ करेगा।  बेटे की शादी पर नाचते हैं पर बाद में पता चलता है कि वह तो बहु का होकर रह गया।  तब चिढ़ते हैं पर यह भूल जाते हैं कि विवाह स्त्री पुरुष का नया जन्म होता है और प्राकृत्तिक रूप से दोनों एक दूसरे के निकट आते हैं तब पुराने जन्म के रिश्ते उन्हें निभाने का अवसर उनके पास नहीं रह जाता।  बेटी की शादी होने पर उसे सुयोग्य वर मिला यह देखकर हम समझते हैं कि हमारा जीवन धंन्य हो गया। यह भूल गये कि अब वह परायी हो गयी और उसे अब अपनी गृहस्थी देखनी होगी। आजकल तो सीमित संतान का समय है इसलिये लोगों को अपने बच्चों के विवाह आदि की प्रसन्नता क्षणिक ही रह पाती है।  कुछ समय बाद पता लगता है कि परिवार की जिम्मेदारी पूरी करने वाले दंपत्ति को बाकी जीवन अकेले ही बिताना होगा। हम शहरी समाज में ऐसे अनेक दंपत्ति देख सकते हैं जो अकेले हो गये हैं।
                        ऐसे में अध्यात्मिक ज्ञान होने वाले लोग ही अपने जीवन में सहजता अनुभव कर सकते हैं। अध्यात्मिक ज्ञान होने पर एक ही व्यक्ति दो और दो चार हो जाते हैं।  आत्मा और मन दो तत्व इस देह  का भाग हैं।  अगर मन अकेला उपयोग करता है तो वह थक जाता है और अगर आत्मा इसमें साथ देती है तो दोनों साथी हो जाते हैं।  योग साधना, ध्यान, मंत्र जाप तथा प्रातःकाल सैर करने वाले लोगों के चेहरे पर कभी ऐसे तनाव नहीं दिखते जो आलस्य के साथ जीवन बिताने वालों पर दिखते हैं।  इस जीवन की सार्थकता समझने वाले कभी अपना समय फालतु बातों में नष्ट नहीं करते वरन् प्रतिदिन उनका जन्म तथा मोक्ष होता है। योग साधना से जब आत्मा का इंद्रियों से संपर्क होता है तो वह शक्तिशाली हो जाती हैं और उन्हें विषयों के सहज तथा असहज रूप का आभास हो जाता है।                       

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Saturday, October 05, 2013

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-विषैले भोजन की पहचान जरूरी (vishaile bhojan ki pahachan jaroori-according kautilya economics)




             आजकल खाने पीने की वस्तुओं में मिलावट अधिक हो गयी है। स्थिति यह है कि अनेक धूर्त लोग खाने के सामान अभक्ष्य तथा अपच सामान मिलाकर बेचते हैं।  उससे भी अधिक दृष्ट लोग हैं जो यह जानते हुए कि उनकी सामग्री विषाक्त है वह उसे खाने पीने के लिये ग्राहक या प्रयोक्त को बेचते हैं। अभी हाल ही में बिहार में मध्यान्ह भोजन खाकर अनेक छात्रों की मृत्यु हो गयी थी। इतना ही प्रचार माध्यमों-समाचार पत्रों तथा टीवी चैनलों-में ऐसे समाचार लगातार आते रहे हैं कि मध्यान्ह भोजन में खराब या विषाक्त खाना परसो जा रहा है।  प्रचार माध्यमों का यह प्रयास प्रशंसनीय है पर यह कहना पड़ता है कि उनका ध्यान देर से गया है। देश में सरकारी तथा गैर सरकारी कार्यक्रमों में गरीबों को खाना खिलाने के नाम पर जिस तरह की खुले में व्यवस्था होती है उसमें ऐसी ढेर सारी शिकायते पहले से ही रही हैं पर उन पर बिहार की घटना से पहले ध्यान नहंी दिया गया।  बहरहाल अब स्थिति यह है कि हम हर जगह इस यकीन के साथ भोजन नहीं कर सकते कि वह स्वच्छ है।  सामान्य लोगों को भोजन के दूषित होने की जानकारी सहजता से नहीं रहती जबकि हमारा अध्यात्मिक दर्शन इस विषय में अनेक प्रमाण दिये गये हैं।

कौटिल्य के अर्थशासत्र में बताया गया है कि

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भोज्यमन्नम् परीक्षार्थ प्रदद्यात्पूर्दमग्नये।

वयोभ्यश्व तत दद्मातत्र लिङ्गानि लक्षयेत्।।

       हिन्दी में भावार्थ-भोजन योग्य अन्न की परीक्षा करने के लिये  पहले अग्नि को दें और फिर पक्षियों को देकर उनकी चेष्टा का अध्ययन किया जा सकता है।

धूमार्चिर्नीलता वह्नेः शब्दफोटश्व जायते।

अन्नेन विषदिग्धेन वयसां मरणभवेत्।।

        हिन्दी में भावार्थ-यदि अग्नि से नीला धुआं निकले और फूटने के समान शब्द हो, अथवा पक्षी खाने के बाद मर जाये तो मानना चाहिये कि वह अन्न विषैला है।

अस्विन्नता मादकत्यमाशु शल्यं विवर्णता।

अन्नस्य विषदिगधस्य तथाष्मा स्निगधमेचकः।।

                 हिन्दी में भावार्थ-विष मिला हुआ भोजन आवश्यकता से अधिक गर्म तथा चिकना होता है।

व्यञ्जनस्याशु शुष्कत्वं क्वथने श्यामफेनता।

गंधस्पर्शरसाश्वव नश्यन्ति विषदूषाणात्।।

    हिन्दी में भावार्थ-बने हुए व्यंजन का जल्दी सुखता है। पकाते समय काला फेल उठना  विष दूषित अन्न के ही लक्षण है।

           बिहार के विद्यालय में विषाक्त अन्न परोसने की जो घटना हुआ थी उसमें खाना पकाने वाली महिला ने वहां की प्राचार्या को पकाते समय ही तेल या अन्न के विषाक्त होने की बात कही थी पर उसने ध्यान नहंी दिया।  गरीब महिला ने खाना पकाया और स्वय तथा वहां उपस्थित अपने तीन बच्चों को भी खिलाया। परिणाम यह हुआ कि यहाँ ं उसके मृत 22 बच्चों में उसके दो बच्चे भी थे। तीसरा बीमार हुआ और वह स्वयं भी बुरी तरह बीमार हुई।  रसोई बनाने वाली महिला संभवतः अधिक शिक्षित नहीं थी पर ग्रंामीण परिवेश की होने के कारण उसे भोजन के विषाक्त होने का संदेंह हो हुआ पर महिला प्राचार्य ने उसकी बात को नज़रअंदाज कर दिया गया । दरअसल देखा जाये तो भारतीय अध्यात्म में वर्णित सूत्रों की जानकारी जितनी ग्रामीण लोग रखते हैं उतनी शहरी क्षेत्र में अंग्र्रेजी शिक्षा पद्धति से ज्ञान संपन्न लोगों को नहीं रहती शायद यही कारण है कि उससे अधिक शिक्षित प्राचार्या ध्यान नहीं दे पायी।
     हम अक्सर कहा करते हैं कि गांवों में अशिक्षित लोग रहते हैं पर सच यह है कि भारतीय अध्यात्म से वह गहराई से जुड़े रहते हैं कि वह शहरी लोगों से अधिक ज्ञानी होते हैं।  इसके विपरीत शहरी क्षेत्रों में रहने वाले लोग शिक्षित जरूर होते हैं पर ज्ञानी नहीं होते।  कोई बीमारी हो तो शहरी लोग आधुनिक चिकित्सा पद्धति की तरफ भागते हैं जबकि ग्रमीण परिवेश के लोग अचूक देशी नुस्खे आजमाते हैं और कभी दूसरों का भी सुझाते हैं।  देखा जाये तो शहरी लोगों में बीमारी का अनुपात अधिक ही रहता है। दूसरी बात यह भी है कि शहरी क्षेत्रों में दूषित और विषाक्त पदार्थ अधिक बिकते हैं क्योंकि वहां के लोगों को उसकी पहचान नहीं है।  अतः शहरी क्षेत्रों में ही दूषित तथा पवित्र खाद्य पदार्थै के प्रति चेतना लाने का प्रयास करना चाहिये।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


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