जवाहरलालनेहरुविश्वविद्यालय
में हुए देशविरोधी प्रदर्शनों से एक बात साफ हो गयी है कि प्रगति व जनवादी
विचारधारा के ध्वजवाहक भयानक रूप से कुंठित हैं। प्रगतिशील व जनवादी विचारधारा के यह नये जमूरे देश में
वर्तमान प्रबंध व्यवस्था में शामिल विपरीत दृष्टिकोण वाले लोगों को विरोधी नहीं
शत्रु मान रहे है। इनकी कुंठा इतनी भयानक है कि आतंकवादी उन्हें सेनानी और
आत्मघाती शहीद लगते हैं। वह अहंकार और अज्ञान के ऐसे वैचारिक अंधेरे में जी रहे
हैं जिससे उनका निकलना मुश्किल है।
अध्यात्मिक विचाराधारा होने के
कारण हमें प्रगतिशील व जनवादी विचारकों के चिंत्तन में कोई आकर्षण नहीं दिखता पर शैक्षणिक
संस्थाओं में इनका प्रभाव अब भी जबरदस्त
है जबकि वह स्वयं भयानक अज्ञान के अंधेरे में विराजमान लगते हैं।
लोकतंत्र सिद्धांतों के अनुसार वर्तमान प्रबंध व्यवस्था का विरोध करने की सभी को
आजादी है पर इस आड़ में अपने ही देश विरोध
करना पागलपन नहीं अपराध है यह बात उन्हें समझना होगी।
एक ऐसे विश्वविद्यालय में जो जनता
के पैसे से चल रहा है वहां शिक्षा लेते हुए भारत की बर्बादी देखने की चाहत देखने
वालों को कैसे समाज बर्दाश्त करे जब उस पर वैसे ही असहिष्णु होने का आरोप लग रहा
हो। देशविरोधी नारे तथा आतंकी की फांसी का विरोध करने के कार्यक्रम को वह समाज
कैसे बर्दाश्त करेगा जिसे असहिष्णुता कहकर निर्लज्ज कर दिया गया है। सच बात तो यह
है कि पिछले दिनों जिस तरह असहिष्णुता का आरोप लगाकर जिस तरह पूरे भारतीय समाज को
वैश्विक स्तर पर बदनाम किया गया है उससे यह डर समाप्त हो गया है| अब लोग सोचते हैं
कि इससे ज्यादा बदनामी तो हो नहीं
सकती। इसलिये जवाहरलाल नेहरु
विश्वविद्यालय में सक्रिय कथित क्रांतिकारियों को अब ज्यादा उम्मीद नहीं रखना
चाहिये। उनके समर्थक या मार्गदर्शक बुद्धिजीवी यह बात समझ लें। वह कह रहे हैं कि
जेएनयू का मसला देश में दक्षिणपंथियों के विरुद्ध जायेगा, यह भी तो सोचें कि पूरा भारतीय
समाज चेतनावान है और तमाम वैचारिक हमलों के बावजूद वहा प्राचीन तत्वों से जुड़ा है।
सीधी बात कहें तो समाज में दक्षिणपंथियों की जड़ें प्रगतिशील और जनवादियों से कहीं
जयादा गहरी हैं। संभव है यह समाज अपने
अपमान का प्रतिकार करने के लिये दक्षिणपंथियों का अधिक पुरजोर ढग से साथ देने
लगें।
दूसरा तथ्य यह भी है कि भारत व हिन्दू धर्म के विरुद्ध जाकर इस देश में
कोई क्रांति नहीं हो सकती यह बात प्रगति व जनवादी विद्वानों को समझ लेना चाहिये।
जहां तक भारतीय समाज का सवाल है उसे असहिष्णु कहकर वैसे ही बदनाम कर दिया तो वह
देश व धर्म विरोधियों से क्यों सहानुभूति दिखायेगा? सच बात तो यह है कि अभी तक राजकीय संस्थाओं से
प्रगतिशील व जनवादियों को जो प्रश्रय मिल रहा था वह समाप्त हो रहा है जिससे निराशा
होकर प्रचार पाने के लिये वह अनेक तरह की नाटक बाजी कर रहे हैं यह उसी का हिस्सा
है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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