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Friday, December 30, 2011

सामवेद से संदेश-विद्वान में तेज हो तभी पूज्यनीय होता है (vidavan mein tej ho tabhi pujyaniya hota hai)

            मनुष्य का मन माया में आसानी से रमता है जबकि अध्यात्मिक चर्चा उसके लिये बोरियत पैदा करने वाली प्रक्रिया है। धन के पीछे भागने में हर मनुष्य अपनी पूरी ताकत लगा देता है। कई बार तो ऐसा लगता है कि अनेक लोगों के लिये मनोरंजन का साधन ही धनोपार्जन करना है।  अंग्रेज विद्वान जार्ज बर्नाड शॉ के अनुसार बिना बेईमानी के कोई भी धनी नहीं हो सकता। हमारे देश में अंग्रेजी राज व्यवस्था, भाषा, साहित्य, संस्कृति तथा संस्कारों ने जड़ तक अपनी स्थापना कर ली है जिसमे छद्म रूप की प्रधानता है। इसलिये अब यहां भी कहा जाने लगा है कि सत्य, ईमानदारी, तथा कर्तव्यनिष्ठा से कोई काम नहीं बन सकता। दरअसल हमारे यहां समाज कल्याण अब राज्य की विषय वस्तु बन गया है इसलिये धनिक लोगों ने इससे मुंह मोड़ लिया है। लोकतंत्र में राजपुरुष के लिये यह अनिवार्य है कि वह लोगों में अपनी छवि बनाये रखें इसलिये वह समाज में अपने आपको एक सेवक के रूप में प्रस्तुत कर कल्याण के ने नारे लगाते हैं। वह राज्य से प्रजा को सुख दिलाने का सपना दिखाते हैं। योजनायें बनती हैं, पैसा व्यय होता है पर नतीजा फिर भी वही ढाक के तीन पात रहता है। इसके अलावा गरीब, बेसहारा, बुजुर्ग, तथा बीमारों के लिये भारी व्यय होता है जिसके लिये बजट में राशि जुटाने के लिये तमाम तरह के कर लगाये गये हैं। इन करों से बचने के लिये धनिक राज्य व्यवस्था में अपने ही लोग स्थापित कर अपना आर्थिक साम्राज्य बढ़ात जाते हैं । उनका पूरा समय धन संग्रह और उसकी रक्षा करना हो गया है इसलिये धर्म और दान उनके लिये महत्वहीन हो गया है।
सामवेद में कहा गया है कि
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ऋतावृधो ऋतस्पृशौ बहृन्तं क्रतुं ऋतेन आशाये।
                ‘‘सत्य प्रसारक तथा सत्य को स्पर्श करने वाला कोई भी महान कार्य सत्य से ही करते हैं। सत्य सुकर्म करने वाला शस्त्र है।’’
‘‘वार्च वर्थय।
             ‘‘सत्य वचनों का विस्तार करना चाहिए।’’
वाचस्पतिर्मरवस्यत विश्वस्येशान ओजसः।
           ‘‘विद्वान में  तेज हो तो वह पूज्य होता है।’’
              कहने का अभिप्राय है कि हमारे देश में सत्य की बजाय भ्रम और नारों के सहारे ही आर्थिक, राजकीय तथा सामाजिक व्यवस्था चल रही है। राज्य ही समाज का भला करेगा यह असत्य है। एक मनुष्य का भला दूसरे मनुष्य के प्रत्यक्ष प्रयास से ही होना संभव है पर लोकतांत्रिक प्रणाली में राज्य शब्द निराकार शब्द बन गया है। करते लोग हैं पर कहा जाता है कि राज्य कर रहा है। अच्छा करे तो लोग श्रेय लेेते हैं और बुरा हो तो राज्य के खाते में डाल देते हैं। इस एक तरह से छद्म रूप से ही हम अपने कल्याण की अपेक्षा करते हैं जो कि अप्रकट है। भारतीय अध्यात्म ज्ञान से समाज के परे होने के साथ ही विद्वानों का राजकीयकरण हो गया है। ऐसे में असत्य और कल्पित रचनाकारों को राजकीय सम्मान मिलता है और समाज की स्थिति यह है कि सत्य बोलने विद्वानों से पहले लोकप्रियता का प्रमाणपत्र मांगा जाता है। हम इस समय समाज की दुर्दशा देख रहे हैं वह असत्य मार्ग पर चलने के कारण ही है।
              सत्य एक ऐसा शस्त्र है जिससे सुकर्म किये जा सकते हैं। जिन लोगों को असत्य मार्ग सहज लगता है उन्हें यह समझाना मुश्किल है पर तत्व ज्ञानी जाते हैं कि क्षणिक सम्मान से कुछ नहीं होता इसलिये वह सत्य के प्रचार में लगे रहते है और कालांतर में इतिहास उनको अपने पृष्ठों में उनका नाम समेट लेता है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
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Tuesday, December 27, 2011

यजुर्वेद से संदेश-नाम स्मरण से बुद्धि शुद्धि होती है

                अक्सर लोग यह सवाल करते हैं कि जब परमात्मा ने हमें काम करने के लिये हाथ, चलने के लिये पैर, बोलने की लिये जीभ, सुनने के लिये कान, देखने के लिये आंख और सूंघने के लिये नाक देकर हमें अपने जीवन के लिये उत्तरदायित्वों के निर्वहन योग्य बना दिया है तो फिर उसका नाम लेकर समय खराब क्यों करें? कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि जब हम अपना कर्म शुद्ध हृदय से नित्य करते हैं तो भगवान का नाम लेने की आवश्यकता क्या है? कुछ लोग तो यह भी कहकर अपना ज्ञान बघारते हैं कि जीवन में चुपचाप अपना काम करना तथा कर्मकांड में लिप्त रहना ही धर्म है।
          दरअसल हम भले ही अपना नित्य कर्म शुद्ध हृदय से करें पर जब तक हमें अपने अध्यात्म का ज्ञान नहीं होगा तब कभी सुख की अनुभूति नहीं हो सकती। इस तरह तो मानसिक और वैचारिक रूप से हम एक ही धारा में बहते जायेंगे तो यह पता ही नहीं चलेगा कि जीवन का रहस्य क्या है? वैसे भी मनोविज्ञानिक मानते हैं कि नियमित रूप से एक ही कर्म करते रहना या मस्तिष्क को एक ही राह पर जाकर एक ही जगह ध्यान लगाये रखना भी स्वास्थ्य के लिये ठीक नहंी है। जो बहुत बड़े ज्ञानी और ध्यानी हैं वह तो अपने अभ्यास से एक ही जगह खड़े रहकर भी नित्य पल नवीनता का अनुभव करते हुए जीवन का सुख और आनंद उठाते हैं पर सामान्य आदमी का मन उसे इधर उधर चलने के लिये प्रेरित करता है-इसी कारण हमारे समाज में फिल्म देखना, पिकनिक मनाना या किटी पार्टी करने जैसी परंपरा प्रारंभ हो गयी हैं जो कि कालांतर में अधिक दुखदायी होती हैं। इन पर व्यय होने के साथ ही शारीरिक तथा मानसिक परेशानियों का दौर भी प्रारंभ होता है। आमतौर से लोग मनोरंजन की राह पर चले जाते हैं जहां दूसरे मनुष्य मन के व्यापारी बनकर उनका दोहन करते हैं। अपने नियमित कर्म के बाद परमात्मा की भक्ति से भले ही कोई लाभ न हो पर एक नवीन सुखद अनुभूति अवश्य होती है।
यजुर्वेद में कहा गया है कि
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तत्सवितुर्वरेण्य भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो न प्रचोदयात!
          ‘‘जग नियंता, जगकर्ता, दिव्य गुण युक्त परमात्मा के शुद्ध स्वरूप का ध्यान हम करते हैं जो हमारी बुद्धि को श्रेष्ठ मार्ग पर लगाता है।’’
                 इसमें ओम भूर्भव स्वः शब्द जुड़ने से यह गायत्री मंत्र हो जाता है जो कि मंत्रों का राजा माना जाता है। इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि नाम स्मरण करने से मन की शुद्ध होती है और बुद्धि परिष्कृत होती है। हम अपने अध्यात्म ग्रंथों की बातों को भले ही न माने पर पश्चिमी विशेषज्ञों की इस धारणा को तो नहीं भुलाना चाहिए कि हमें अपनी नियमित दिनचर्या में एकरसता से बचना चाहिए।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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Sunday, December 25, 2011

तुलसी के दोहे-मीठे बोल सुनकर बहकना नहीं चाहिए (tusli ke dohe-meethe bol suykar bahakna nahin chahiye)

           आजकल बाज़ार का प्रभाव धर्म तथा समाज के विषयों में बहुत अधिक हो गया है। उपभोग संस्कृति ने लोगों के अंदर अध्यात्म ज्ञान के प्रति विरक्ति पैदा की है जिसके कारण उनके पास सामान्य व्यवहारिक ज्ञान भी नहीं रहा है। लोगों के अंदर पैसा पाने का मोह इतना अधिक हो गया है कि दूसरों की बातों में आकर अपना कमाया भी सब कुछ गंवा बैठते हैं। हमने ऐसे अनेक समाचार सुने और देखे होंगे कि लोगों को अतिशीघ्र अपने धन का दोगुना या चार गुना देकर उनसे भारी रकम की ठगी की गयी। अनेक कंपनियों ने तो शहर में एक नहंी बल्कि चार पांच सौ लोगों को चूना सामूहिक रूप से चूना लगा लिया। यह समाज में अपराध बढ़ने की प्रवृत्ति का परिचायक है पर साथ ही आम जनमानस में बौद्धिक सोच के अभाव का प्रमाण भी है। इस तरह की घटनायें चिंताजनक हैं। दो चार व्यक्ति हों तो ठीक पर यहां तो हजारों के हजारों एक साथ ठगे जाते हैं।
          ठगी करने वाले लोग अपनी मीठी बातों के साथ ही आकर्षण प्रलोभन भी देते हैं। कहीं तो आरंभ में ही उपहार भी दे दिया जाता है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि आखिर इतने सारे लोग कैसे जाल में फंस जाते हैं। इसमें फंसने वाले लोग ग्रामीण या अशिक्षित पृष्ठभूमि वाले नहीं वरन् पढ़े लिखे और नौकरीशुदा लोग ही होते हैं। इस तरह आधुनिक शिक्षा को लेकर भी संशय पैदा होता है।
महाकवि तुलसी दास जी कहते हैं कि
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‘तुलसी’ खल बानी मधुर, मुनि समुझिअं हियं हेरि।
राम राज बाधक भई, मूढ़ मंथरा चेरि।।
‘‘कभी किसी की मधुर वाणी सुनकर उस पर मोहित नहीं होना चाहिए। दासी मंथरा ने कैकयी को मधुर वाणी में समझाकार भगवान श्री राम के राज्याभिषेक में बाधा डाली थी।’’
         कभी कभी तो ऐसा लगता है कि हमारे देश के ग्रामीण तथा अशिक्षित लोग कथित आधुनिक समाज से अधिक चतुर हैं। वह भी ठगे अवश्य जाते हैं पर सामूहिक रूप से उनको कोई चूना नहीं लगा सकता। ऐसे में यह सवाल उठता है कि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान से परे रहकर आधुनिक समाज कहीं बौद्धिक क्षमता खो तो नहीं बैठा है?
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Friday, December 23, 2011

मनुस्मृति से संदेश-धन और जाति के आधार पर उपहास उड़ाना पापपूर्ण (manu smriti se sandesh-dhan aur jaati ka aadhar par uphas karna galat)

            हम अक्सर अपने भारतीय समाज के इतिहास को लेकर अनेक चर्चाऐं करते हैं। कहा जाता है कि भारतीय समाज मे जातिपाति का भेदभाव ही उसके पतन का कारण बन रहा है पर सच बात यह है कि ऐसा अपने अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव के कारण है। हमारे समाज में धन, जाति या भाषा के आधार पर किसी मनुष्य को  हेय मानना अत्यंत अनुचित माना जाता है।
                  यह कहना कठिन है कि पूरी दुनियां में ही अहंकार के भाव का बोलबाला है या भारतीय समाज में ही यह विकट रूप में दिखाई देता है। अलबत्ता इतना अवश्य है कि भारतीय समाज में अपने अहंकार में आकर दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति कुछ अधिक ही दिखाई देती है। हम जैसे चिंत्तक तो मानते हैं कि भारत का अध्यात्मिक दर्शन इसलिये ही अधिक समृद्ध हुआ है क्योंकि ऋषियों और मुनियों को अपने आसपास अज्ञान में लिपटा एक बृहद समाज मिला जिसे सुधारने के लिये उन्होंने तत्वज्ञान स्थापित किया। इसके लिये उनको एक सहज जमीन मिल गयी जहां वह अनुसंधान, चिंत्तन, मनन और अध्ययन से अध्यात्मिक ज्ञान का सृजन करने के साथ ही उसे सार्वजनिक रूप से व्यक्त भी कर सके। अगर सभी ज्ञानी होते तो आखिर वह किस पर अनुसंधान कर रहस्यों का पता लगाते। उनकी बात कौन सुनता? एक ज्ञानी के रूप में कौन उनको प्रतिष्ठत करता? एक टांग वाले को लंगड़ा, एक आंख वाले को काना, अक्षरज्ञान से रहित को गंवार और और काले रंग वाले को कुरूप कहकर उनका मजाक उड़ाना तो आम बात है। इसके अलावा हर आदमी अपनी जाति को श्रेष्ठ बताकर दूसरी जाति का मजाक उड़ाता है। कभी कभी तो अपने प्रथक जाति वाले को नीच बताकर उसका अपमान किया जाता है। सच बात तो यह है कि कोई जाति नीच नहीं होती अलबत्ता जिनके पास धन, पद और बाहुबल है वह दूसरे की जाति को नीच बताते हैं। यह एक दम अधर्म और अज्ञान का प्रमाण है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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हीनांगनतिरिक्तांगहीनाव्योऽधिकान्।
रूपद्रव्यविहीनांश्च जातिहीनांश्च नाक्षिपेत्।।
           ‘‘ऐसे व्यक्तियों का मजाक  उड़ाना या अपमानित करना निंदनीय है जो किसी अंग से हीन, अधिक अंग वाले, शिक्षा से रहित, आयु में बड़े, कुरूप, निर्धन तथा छोटी जाति या वर्ण के हों।’’
         वैसे मनुमहाराज पर भारतीय समाज में जाति पांति स्थापित करने का आरोप लगता है। ऐसा लगता है कि आधुनिक शिक्षा से ओतप्रोत समाज नहीं चाहता कि भारत की प्राचीन शिक्षा का यहां प्रचार प्रसार हो। यही कारण एक तो वह लोग हैं जो मनुस्मृति के चंद उदाहरण देकर देश में उसे जातिपाति का प्रवर्तक मानते हैं बिना पढ़े ही उनका प्रतिकार यह कहते हुए करते हैं कि भारतीय समाज कभी उनके संदेशों के मार्ग पर नहीं चला। यह हैरानी की बात है कि इन्हीं मनुमहाराज ने अंगहीन, अशिक्षित, बूढ़े, असुंदर तथा जाति के आधार पर किसी के मजाक उड़ाने या अपमानित करने को वर्जित बताया है। लार्ड मैकाले की शिक्षा में रचेबसे आधुनिक बुद्धिजीवी चाहे वह जिस विचारधारा के हों मनुस्मृति का पूर्ण अध्ययन किये बिना ही अपना बौद्धिक ज्ञान बघारते हैं।
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Thursday, December 15, 2011

सामवेद से संदेश-दोगलापन कभी सुख नहीं देता (Dogalpan kabhi sukh nahin deta-samved se sandesh)

             मनुष्य की यह सामान्य प्रवृत्ति है कि वह स्वयं तो दूसरे से सुख चाहता है पर किसी को कोई सुख नहीं देता।  इतना ही नहीं कभी कभी तो स्थिति यह होती है कि अनेक लोगों को दुःख तो केवल इसी बात पर होता है कि दूसरे लोग सुखी हैं। संसार के जिस आदमी ने मिलो यही कहता है कि ‘मै दुखी हूं’, क्योंकि सामान्य मनुष्य सुख तो चाहते हैं पर उसे पाने का कौशल बहुत कम लोग हैं। इसका कारण यह भी है कि संसार में अधिकांश मनुष्य दोहरे आचरण के मार्ग पर चलने वाले हैं। आदर्शों, सिद्धांतों और नैतिकता की दुहाई सभी लोग देते हैं पर व्यवहार में सात्विकता केवल ज्ञानियों में ही दिखाई देती है। ज्ञानी इस बात को जानते हैं कि दोगला व्यवहार हमेशा स्वयं के लिये ही कष्टकारक है। लोग किसी के मित्र नहीं है भले ही दावा करते हों कि उन्होंने ढेर सारे मित्रों से व्यवहार निभाया है। अपने ही आत्मीय जनों की पीठ पीछे निंदा करते हैं। इस बात को जाने बिना बिना कि एक कान से दूसरे कान में पहुंच ही जाती है। नतीजा यह है कि समाज में वैमनस्य भी बढ़ रहा है। हम जब यह कहते हैं कि आजकल समाज में वैसा सद्भाव नहीं है तो यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि उसके लिये स्वयं ही जिम्मेदार हैं।
सामवेद में कहा गया है कि
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मा ते रसस्य मत्सत द्वयाविनः।
            ‘‘दोहरा आचरण करने वाले आनंदित नहीं होते।’
ऋतस्य जिह्वा पवते मधु।
           ‘‘सच्चे मनुष्य की जिह्वा से मधु टपकता है।’’
         लोगों की वाणी, विचार तथा व्यवहार स्वार्थों के अनुसार मधुर और कठोर होता है। ताकतवर के आगे सिर झुकाते हैं तो कमजोर पर आग की तरह झपटते हैं। आपसी वार्तालाप में ऐसी पवित्र बातें करते हैं गोया कि महान धार्मिक हों पर व्यवहार में शुद्ध रूप से स्वार्थ दिखता है। ऐसे में संसार या समाज को बिगड़ने का दोष देकर आत्ममंथन से बचना एक दोगला प्रयास है। ऐसे प्रयासों के चलते कोई सुख या आनंद नहीं प्राप्त कर सकता। इसके विपरीत निराशा, तनाव, तथा मानसिक विकारों को मनुष्य शरीर में शासन स्थापित हो जाता है। इसलिये जहां तक हो सके आत्ममंथन कर अपने दोषों का निराकरण करना चाहिए। संसार या समाज के दूषित होने की बात करना व्यर्थ है।
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Tuesday, December 13, 2011

मनुस्मृति-जिस खेल में धन की हार या जीत हो वह जुआ कहलाता है (fixing is gamling in paly-manu smriti in hindi)

            हमारे देश में क्रिकेट खेल को लेकर अनेक प्रकार की चर्चायें होती हैं। सच तो यह है कि इसे खेलने वाले बहुत कम हैं उससे ज्यादा अधिक तो इसे देखने वाले हैं। यह शुद्ध रूप से मनोरंजन का खेल है और इसके साथ ऐसे लोग भी जुड़ गये हैं जो इस पर सट्टा लगाते हैं।  आजकल खेलों में अनेक प्रकार की फिक्सिंग की चर्चा होती है। अभी हाल में पाकिस्तान के तीन क्रिकेट खिलाड़ियों को स्पॉट फिक्सिंग के आरोप में सजा भी हुई थी। ऐसा नहीं भारत कोई इस समस्या से बचा हुआ है। भारत के भी दो खिलाड़ियों पर इस अपराध में आजीवन खेलने पर प्रतिबंध लगाया गया था। विश्व में भारत की आर्थिक शक्ति पर ही क्रिकेट खेल चल रहा है। जिन पाकिस्तानियों को ब्रिटेन में क्रिकेट खेल फिक्स करने के आरोप में सजा हुई हैए बताया जा रहा है कि भारत के सट्टेबाज भी उनसे संबंधित हैं। इधर हम देख रहे हैं कि भारत में भी अनेक सट्टेबाज पकड़े जा रहे हैं। कहने को क्रिकेट एक खेल है पर जैसे जैसे इससे जुड़े काले कारनामों का पर्दाफाश हो रहा है उससे तो जुंआ ही अधिक दिखने लगा है। अनेक परिवार इसके चक्कर में बरबाद हो गये हैं। हैरानी तो इस बात की है कि इस खेल में पैसा लगाने वाले वह लोग भी हैं जो इसको कभी खेले ही नहीं है। भले ही वह इसे मनोरंजन मानते हों पर अंततः यह जुआ है।
इस विषय पर मनु स्मृति में कहा गया है कि
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अप्राणिभिर्यत्क्रियते तल्लोके द्यूतमच्यते।
प्राणिभिः क्रियतेयस्तु सः विज्ञेयः समाह्वयः।।
             ‘‘जिस खेल में धन आदि निर्जीव वस्तुओं से हार या जीत का निर्णय हो वह खेल जुआ कहलाता है। पशु-पक्षी या अन्य सजीव प्राणियों को दांव पर रखकर खेले जाने वाले खेल का नाम समाह्व्य है।’’
एते राष्ट्रे वर्तमाना राज्ञः प्रच्छन्नत्सकराः।
विकर्म क्रियर्यानित्य बाधन्ते भद्रिकाः प्रजाः।।
          ‘‘जो लोग  जुआ या समाह्वय जैसे कर्म करवाते हैं वह राष्ट्र के लिये डाकू की तरह होते हैं और सदैव अपने कुकर्मों से प्रजा को कष्ट देते हैं।’’
         देश में एक बहुत बड़ा सट्टा समूह सक्रिय हैं। ऐसा कोई मैच नहीं होता जिसके होने पर कहीं न कहीं सट्टेबाज न पकड़े जाते हों। हैरानी इस बात की है कि यह केवल भारतीय टीम के खेलने पर ही नही होता बल्कि प्रसिद्धि विदेशी टीमों के मैच पर भी हमारे देश में सट्टा लगता है। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि आज के अनेक युवा अधिक धन पर उसे पचा नहीं हो पाते और स्वयं जुआ खेलकर अपने खिलाड़ी होने का गर्व पालते हैं। उनको यह पता नहीं कि इन सट्टेबाजों का धन अंततः अपराध जगत के अन्य लोगों के पास पहुंचता है। सट्टेबाजी से जुड़े विदेश में बैठे अनेक भारतीयों के माध्यम से यह धन आतंकवादियों और अतिवादियों के पास पहुंचने के समाचार भी आते हैं। देश के युवाओं को यह बात समझना चाहिए कि वह सट्टा खेलकर ऐसे लोगों को साथ दे रहे हैं जो अंततः राष्ट्र के लिये डाकू की तरह होते हैं। वह ऐसे तत्वों को प्रोत्साहन देते हैं जो आमजनों को परेशान करते हैं।
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Sunday, December 04, 2011

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-अक्षम आदमी से संबंध बनाना व्यर्थ

          आम मनुष्य की यह सामान्य आदत होती है कि वह अपनी भौतिक उपलब्धियों तथा गुणों का बखान करता है। ऐसा करते हुए हर मनुष्य भूल जाता है कि इससे वह अपने शत्रु ही अधिक बनाता है। इस तरह की आत्मप्रवंचना से जो हीन पुरुष होते हैं वह बलशाली मनुष्य से जलते हैं। महान नीति विशारद चाणक्य का भी कहना है कि अपना स्वास्थ्य दूसरों से छिपाकर रखें। इसके अलावा श्रीमद्भागवत में श्री कृष्ण भी कहते हैं कि उनके ज्ञान का केवल भक्तों में ही प्रसारण करना चाहिए। इसके पीछे संभवत कारण यह है कि समाज में अपने व्यसनों, विचारों और द्वेष की भावना से ओतप्रोत लोगों की संख्या सदैव अधिक रहती है। इसलिये उनको विकार घेरे रहते हैं जो कि अंततः उनके लिये अस्वास्थ्यकर होते हैं। इतना ही धन, स्वास्थ्य तथा ज्ञान से हीन मनुष्यों की कुंठा इतनी तीव्रतर होती है कि वह उनका नकारात्मक सोच हो जाता है और किसी की खुशी देखकर उनके मन में द्वेष पैदा होता है। ऐसे में अस्वस्थ, चरित्रहीन तथा धन के लालची निर्धन लोगों से संपर्क बनाना अपने लिये ही अहितकारी भी हो सकता है।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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न सन्धिच्छिद्धीनैश्च तत्र हेतुरसंशयः।
तस्य विश्रम्भामलभ्य प्रहरेत्तं गतस्मृहः।
             ‘‘हीन पुरुष के साथ कभी संधि न करें। इसमें संदेह नहीं है कि उसके साथ विश्वासपूर्वक बातचीत करने पर इस बात की संभावना प्रबल रहती है कि वह समय मिलने पर अवश्य हानि करेगा।’’
           इसका यह आशय कदापि नही है कि निर्धन लोगों से धनियों को दूर रहना चाहिए। इतना अवश्य है कि धनिकों को चाहिए कि वह निर्धन लोगों के सामने अपने वैभव का प्रदर्शन करने की बजाय उनकी सहायता करें तो अच्छा है क्योंकि इसे समाज में सामंजस्य बना रहता है। हमारा मानना है कि धन का निर्धन, स्वास्थ्य का बीमार आदमी तथा अपने ज्ञान को मूर्ख के सामने प्रदर्शन करने से बचना चाहिए। ऐसा करने से हीन मनुष्य मन ही मन द्वेष करने लगता है जो कि अंततः समर्थशील मनुष्य के लिये कष्टकारी होता है।
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Friday, December 02, 2011

सामवेद से संदेश-महान लोग सत्य के साथ काम करते हैं (samves se sandesh-mahan log aur satya)

            अंग्रेज विद्वान जार्ज बर्नाड शॉ के अनुसार बिना बेईमानी के कोई भी धनी नहीं हो सकता। हमारे देश में अंग्रेजी राज व्यवस्था, भाषा, साहित्य, संस्कृति तथा संस्कारों ने जड़ तक अपनी स्थापना कर ली है जिसमे छद्म रूप की प्रधानता है। इसलिये अब यहां भी कहा जाने लगा है कि सत्य, ईमानदारी, तथा कर्तव्यनिष्ठा से कोई काम नहीं बन सकता। दरअसल हमारे यहां समाज कल्याण अब राज्य की विषय वस्तु बन गया है इसलिये धनिक लोगों ने इससे मुंह मोड़ लिया है। लोकतंत्र में राजपुरुष के लिये यह अनिवार्य है कि वह लोगों में अपनी छवि बनाये रखें इसलिये वह समाज में अपने आपको एक सेवक के रूप में प्रस्तुत कर कल्याण के ने नारे लगाते हैं। वह राज्य से प्रजा को सुख दिलाने का सपना दिखाते हैं। योजनायें बनती हैं, पैसा व्यय होता है पर नतीजा फिर भी वही ढाक के तीन पात रहता है। इसके अलावा गरीब, बेसहारा, बुजुर्ग, तथा बीमारों के लिये भारी व्यय होता है जिसके लिये बजट में राशि जुटाने के लिये तमाम तरह के कर लगाये गये हैं। इन करों से बचने के लिये धनिक राज्य व्यवस्था में अपने ही लोग स्थापित कर अपना आर्थिक साम्राज्य बढ़ात जाते हैं । उनका पूरा समय धन संग्रह और उसकी रक्षा करना हो गया है इसलिये धर्म और दान उनके लिये महत्वहीन हो गया है।
सामवेद में कहा गया है कि
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ऋतावृधो ऋतस्पृशौ बहृन्तं क्रतुं ऋतेन आशाये।
                ‘‘सत्य प्रसारक तथा सत्य को स्पर्श करने वाला कोई भी महान कार्य सत्य से ही करते हैं। सत्य सुकर्म करने वाला शस्त्र है।’’
‘‘वार्च वर्थय।
             ‘‘सत्य वचनों का विस्तार करना चाहिए।’’
वाचस्पतिर्मरवस्यत विश्वस्येशान ओजसः।
           ‘‘विद्वान तेज हो तो पूज्य होता है।’’
              कहने का अभिप्राय है कि हमारे देश में सत्य की बजाय भ्रम और नारों के सहारे ही आर्थिक, राजकीय तथा सामाजिक व्यवस्था चल रही है। राज्य ही समाज का भला करेगा यह असत्य है। एक मनुष्य का भला दूसरे मनुष्य के प्रत्यक्ष प्रयास से ही होना संभव है पर लोकतांत्रिक प्रणाली में राज्य शब्द निराकार शब्द बन गया है। करते लोग हैं पर कहा जाता है कि राज्य कर रहा है। अच्छा करे तो लोग श्रेय लेेते हैं और बुरा हो तो राज्य के खाते में डाल देते हैं। इस एक तरह से छद्म रूप से ही हम अपने कल्याण की अपेक्षा करते हैं जो कि अप्रकट है। भारतीय अध्यात्म ज्ञान से समाज के परे होने के साथ ही विद्वानों का राजकीयकरण हो गया है। ऐसे में असत्य और कल्पित रचनाकारों को राजकीय सम्मान मिलता है और समाज की स्थिति यह है कि सत्य बोलने विद्वानों से पहले लोकप्रियता का प्रमाणपत्र मांगा जाता है। हम इस समय समाज की दुर्दशा देख रहे हैं वह असत्य मार्ग पर चलने के कारण ही है।
              सत्य एक ऐसा शस्त्र है जिससे सुकर्म किये जा सकते हैं। जिन लोगों को असत्य मार्ग सहज लगता है उन्हें यह समझाना मुश्किल है पर तत्व ज्ञानी जाते हैं कि क्षणिक सम्मान से कुछ नहीं होता इसलिये वह सत्य के प्रचार में लगे रहते है और कालांतर में इतिहास उनको अपने पृष्ठों में उनका नाम समेट लेता है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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Tuesday, November 29, 2011

पतंजलि योग साहित्य-पूर्व के कर्म का अनुमान परिणाम से भी संभव (patanjali yoga sahitya-parinam se karma ka anuaman sanbhav)

               आमतौर से आधुनिक विज्ञापन ज्योतिष तथा मनुष्यों की सिद्धि पर विश्वास नही करता पर पतंजलि योग के अनुसार अगर कोई योगासन, ध्यान, प्राणायाम करने के साथ ही संयम का पालन करे तो वह इतना सिद्ध हो जाता है कि उसे अपने भविष्य का ज्ञान होने लगता है। इतना ही नहीं अगर हम किसी व्यक्ति को काम करते नहीं देख पाए  पर उसे नतीजे भोगते देखकर भी यह अंदाज लगाया जा सकता है कि उसने क्या किया होगा।
पतंजलि योगशास्त्र  में कहा गया है कि
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क्रमान्यत्वं परिणामन्यत्वे हेतुः।

‘‘किसी कार्य करने के क्रम में भिन्नता से परिणाम भी भिन्न होता है।’’
परिणामन्नयसंयमादतीतानागतज्ञानम्।।
‘‘अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का विचार करने से परिणाम का ज्ञान हो जाता है।’’

                    पतंजलि योग में न केवल भौतिक तथा दृश्यव्य संसार को जानने की विधा बताई गयी है बल्कि अभौतिक तथा अदृश्यव्य स्थितियों के आंकलन का भी ज्ञान दिया गया है। हमारे सामने जो भी दृश्य आता है वह तत्काल प्रकट नहीं होता बल्कि वह किसी के कार्य के परिणाम स्वरूप ही ऐसा होता है। कोई व्यक्ति हमारे घर आया तो इसका मतलब वह किसी राह से निकला होगा। वहां भी उसके संपर्क हुए होंगे। वह हमारे घर पर जो व्यवहार करता है वह उसके घर से निकलने से लेकर हमारे यहां पहुंचने तक आये संपर्क तत्वों से प्रभावित होता है। वह धूप में चलकर आया है तो दैहिक थकावट के साथ मानसिक तनाव से ग्रसित होकर व्यवहार करता है। कोई घर से लड़कर आया है तो उसका मन भी वहीं फंसा रह जाता है और भले ही वह उसे प्रकट न करे पर उसकी वाणी तथा व्यवहार अवश्य ही नकारात्मक रूप से परिलक्षित होती है।

            कहने का अभिप्राय यह है कि हम प्रतिदिन जो काम करते हैं या लोगों हमारे लिये काम करते हैं वह कहीं न कहीं अभौतिक तथा अदृश्यव्य क्रियाओं से प्रभावित होती हैं। इसलिये कोई दृश्य सामने आने पर त्वरित प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त करना चाहिए। हमें यह विचार करना चाहिए कि उस दृश्य के पीछे कौन कौन से तत्व हैं। व्यक्ति, वस्तु या स्थितियों से प्रभावित होकर ही कोई धटना हमारे सामने घटित होती है। जब हमें यह ज्ञान हो जायेगा तब हमारे व्यवहार में दृढ़ता आयेगी और हम अनावश्यक परिश्रम से बच सकते हैं। इतना ही नहीं किसी दृश्य के सामने होने पर जब हम उसका अध्ययन करते हैं तो उसके अतीत का स्वरूप भी हमारे अंतर्मन में प्रकट होता है। जब उसका अध्ययन करते हैं तो भविष्य का भी ज्ञान हो जाता है।         
         हम अपने साथ रहने वाले अनेक लोगों का व्यवहार देखते हैं पर उसका गहराई से अध्ययन नहीं करते। किसी व्यक्ति के मन में अगर पूर्वकाल में से दोष रहे हैं और वर्तमान में दिख रहे हैं तो मानना चाहिए कि भविष्य में भी उसकी मुक्ति नहीं है। ऐसे में उससे व्यवहार करते समय यह आशा कतई नहीं करना चाहिए कि वह आगे सुधर जायेगा। योग साधना और ध्यान से ऐसी सिद्धियां प्राप्त होती हैं जिनसे व्यक्ति स्वचालित ढंग से परिणाम तथा दृश्यों का अवलोकन करता है। अतः वह ऐसे लोगों से दूर हो जाता है जिनके भविष्य में सुधरने की आशा नहीं होती। जब हमारा कोई कार्य सफल नहीं होता तब हम भाग्य को दोष देते हैं जबकि हमें उस समय अपने दोषों और त्रुटियों पर विचार करना चाहिए।
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Thursday, November 24, 2011

संत कबीर दर्शन-भक्ति के लिये इधर उधर भटकने की आवश्यकता नहीं ( sant kabir darshan-bhakti ke liye bhatakna vyarth)

                     आखिर मनुष्य को भक्ति क्यों करना चाहिए? इसके लाभ क्या हैं? इस प्रश्न के अनेक उत्तर दिये जा सकते हैं। आर्ती प्रवृत्ति वाले भक्त अपना कष्ट दूर होने की आशा से भगवान को पुकारते हैं तो अर्थार्थी हमेशा ही इस आशा से भगवान का भजन करते हैं कि उनके सांसरिक कार्य सिद्ध होते रहें।  जिज्ञासु केवल निष्काम भाव से भक्ति करते हैं यह सोचक कि अगर इससे फायदा नहीं हुआ  तो हानि भी नहीं होगी पर देखें कि इससे क्या लाभ होता है? इन सबसे अलग ज्ञानी इस तर्क के साथ ध्यान, योग, तथा मंत्र जाप आदि करते हैं कि इससे उनका का मन कुछ देर के लिये सांसरिक पदार्थों के चिंत्तन से परे होकर विश्राम करता है। चतुराई करते हुए एकरसता से ऊबी बुद्धि सरल भाव से आत्मा के साथ बात करती है।
आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान भी मानता है कि एक ही काम करते रहने से अनेक मानसिक विकार उत्पन्न होते हैं जो अततः देह के पतन का कारण बनते हैं। पश्चिमी स्वास्थ्य विज्ञान ने तो यह बात अब जानी है जबकि भारतीय अध्यात्म ज्ञानियों ने यह बात पहले ही समझ ली थी इसलिये ही भक्ति, ध्यान, योग तथा मंत्रोच्चार के लिये लोगों को प्रेरित करते रहे। यह अलग बात है कि अनेक लोग भक्ति करते हैं पर उनके में दिखावा अधिक होता है। वह चाहते हैं कि वह भक्त कहलायें। अनेक भक्तगण तो दूसरे को अपने इष्ट को पूजने के लिये उकसाते हैं।
इस विषय पर संत कबीरदास कहते हैं कि
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बाहर क्या दिखराइये, अन्तर जानिए राम
कहा काज संसार से, तुझे घनी से काम
          "बाहर दिखाकर भगवान् का स्मरण करने से क्या लाभ, राम का स्मरण तो अपने ह्रदय में करना चाहिए। जब भगवान् के भक्ति करनी है फिर इस संसार से क्या काम ।
प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बजाय
चाहे घर में बात कर, चाहे बन को जाय
        " अगर भगवान की भक्ति करनी है तो घर-गृहस्थी में रहते हुए भी की जा सकती है उसके लिए वेशभूषा बदलने की कोई जरूरत नहीं है और न वन जाने की। बस मन में प्रेमभाव होना चाहिए।" 
            भक्ति के प्रकार पर बहस करने की बजाय उसके किसी भी स्वरूप में अपना मन और मस्तिष्क स्थिर रखने पर विचार करना चाहिए।  चित्त की चंचलता पर अगर नियंत्रण नहीं किया गया तो सारी भक्ति इसलिये व्यर्थ है क्योंकि उससे हमारे मन के विचारों के विकार नहीं निकल पाते।  भक्ति से कोई इस संसार में स्वर्ग नहीं मिल जाता न ही सांसरिक कार्यों में सिद्धि की आशा पूर्ण होती है। दरअसल सांसरिक कार्य तो अपने आप समय पर सिद्ध होते हैं मनुष्य आशा और निराशा का भाव तो व्यर्थ ही पालता है। 
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Sunday, November 20, 2011

हिन्दू धर्म संदेश-राजकोष में हेराफेरी करने वालों को कठोर दंड देना जरूरी (hard punishment must for reveneu fraud)

           प्राचीन समय में भारतवर्ष में राजकोष से हेराफेरी करना एक तरह से राजद्रोह जैसा अपराध माना जाता था।  एक तरह से कहा जाये तो इस संसार में परमात्मा के बाद राजा को इसलिये ही दूसरा स्थान दिया गया था कि वह समाज में सभ्यता, शिक्षा तथा शांति का वातावरण बनाये रखेगा।  इसलिये ही उसे राजस्व वसूल का अधिकार दिया गया।  स्वाभाविक रूप से इसके लिये कर्मचारियों को नियुक्ति करनी होती है।  कर्मचारी भले ही राजा के लिये राजस्व संग्रह करते हैं पर अंततः उसे प्रजा की संपत्ति माना जाता है इसलिये उसमें हेराफेरी के अपराध के लिये कड़े दंड की व्यवस्था की गयी।  आधुनिक मानव सभ्यता में विभिन्न देशों में कथित मानवीय आधार पर अपराधियों को मुलायम सजायें देने की व्यवस्था का निर्माण हुआ है। अब तो यह स्थिति है कि अगर किसी को किसी की हत्या पर मृत्यु दंड दिया जाये तो मानव अधिकार संगठन विलाप करने लग जाते हैं। अनेक लोग तो पाश्चात्य कानून से सीख लेकर भारत में मौत की सजा समाप्त करने की मांग करने लगे हैं। हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार तो केवल हत्या करना ही जघन्य अपराध नहीं है वरन् स्त्री के साथ जबरदस्ती करना, राजकोष की चोरी करना तथा सार्वजनिक संपत्ति को हानि पहुंचाना भी जघन्य अपराध है जिनकी सजा मौत ही होना चाहिए। अक्सर कुछ लोग कहते हैं कि मृत्युदंड से अपराध होना बंद नहीं होता। यह सत्य है पर इससे अपराध दर अवश्य कम रहती है। जब तक देश में हत्या पर मौत की सजा का भय था तब ऐसा अपराध बहुत कम ही देखने को मिलता था। अब तो गाहे बगाहे हत्या होने की बात सामने आती है। दरअसल अब अपराधिक प्रवृत्ति के लोगों के मन में यह विश्वास घर कर गया है कि वह किसी को मारकर भी बच सकते हैं। सजा हो जाये तो भी जिंदगी बरकरार रह सकती है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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राज्ञः कोषोपहर्तृश्च प्रतिकूलेष च स्थितान्।
घातयेद्विविधैर्दण्डैररीणां चोयजापकान्।।
         ‘‘जो लोग राजकोष का हरण करने के साथ ही राजा की आज्ञा की अवहेलना करते हैं। शत्रु से मिल जाते हैं उनको मृत्युदंड देना ही श्रेयस्कर है।
अग्निदान्भक्तदांश्चैव तथा शस्ववकाशदान्।
सन्निधातृंश्चैव मोषस्य हन्याच्यौरमिवेश्वरः।।
     ‘‘अपराध पर नियंत्रण करने के लिये यह आवश्यक है जो लोग अपराधियों को अग्नि, भोजन, शस्त्र, वस्त्र व आश्रय देते हैं, उन्हें भी अपराधी मानकर मृत्युदंड देना चाहिए।
          आजकल पूरे विश्व में भ्रष्टाचार बढ़ने की बात कही जाती है। दरअसल राज्य के कोष का हरण करना या प्रंजा से उचित काम के पैसे वसूल करना एक सभ्य अपराध मान लेना ही इस भ्रष्टाचार का मूल कारण है। हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार तो राज्य के कोष से घात करने वाले को मौत की सजा देना चाहिए पर पाश्चात्य आधारों पर बने हमारे कानूनों में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। इतना ही अपराधों को प्रश्रय देने वाले सफेदपोश तो अपने घरों में सुरक्षित बैठे रहते हैं। इनमे तो कई इतने शक्तिशाली होते हैं कि कोई उनका किसी अपराधी से नाम जोड़ने का साहस तक नहीं कर पाता। यह सब देखते हुए तो लगता है बिना कड़े दंड प्रावधानों के अपराध पर नियंत्रण पाना संभव नहीं है भले ही कोई कितना भी दावा करे।
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Monday, November 14, 2011

सामवेद से संदेश-सत्य मनुष्य की जीभ से टपकता है

             संसार के जिस आदमी ने मिलो यही कहता है कि ‘मै दुखी हूं’, क्योंकि सामान्य मनुष्य सुख तो चाहते हैं पर उसे पाने का कौशल बहुत कम लोग हैं। इसका कारण यह भी है कि संसार में अधिकांश मनुष्य दोहरे आचरण के मार्ग पर चलने वाले हैं। आदर्शों, सिद्धांतों और नैतिकता की दुहाई सभी लोग देते हैं पर व्यवहार में सात्विकता केवल ज्ञानियों में ही दिखाई देती है। ज्ञानी इस बात को जानते हैं कि दोगला व्यवहार हमेशा स्वयं के लिये ही कष्टकारक है। लोग किसी के मित्र नहीं है भले ही दावा करते हों कि उन्होंने ढेर सारे मित्रों से व्यवहार निभाया है। अपने ही आत्मीय जनों की पीठ पीछे निंदा करते हैं। इस बात को जाने बिना बिना कि एक कान से दूसरे कान में पहुंच ही जाती है। नतीजा यह है कि समाज में वैमनस्य भी बढ़ रहा है। हम जब यह कहते हैं कि आजकल समाज में वैसा सद्भाव नहीं है तो यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि उसके लिये स्वयं ही जिम्मेदार हैं।
सामवेद में कहा गया है कि
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मा ते रसस्य मत्सत द्वयाविनः।
            ‘‘दोहरा आचरण करने वाले आनंदित नहीं होते।’
ऋतस्य जिह्वा पवते मधु।
           ‘‘सच मनुष्य की जिह्वा से मधु टपकता है।’’
         लोगों की वाणी, विचार तथा व्यवहार स्वार्थों के अनुसार मधुर और कठोर होता है। ताकतवर के आगे सिर झुकाते हैं तो कमजोर पर आग की तरह झपटते हैं। आपसी वार्तालाप में ऐसी पवित्र बातें करते हैं गोया कि महान धार्मिक हों पर व्यवहार में शुद्ध रूप से स्वार्थ दिखता है। ऐसे में संसार या समाज को बिगड़ने का दोष देकर आत्ममंथन से बचना एक दोगला प्रयास है। ऐसे प्रयासों के चलते कोई सुख या आनंद नहीं प्राप्त कर सकता। इसके विपरीत निराशा, तनाव, तथा मानसिक विकारों को मनुष्य शरीर में शासन स्थापित हो जाता है। इसलिये जहां तक हो सके आत्ममंथन कर अपने दोषों का निराकरण करना चाहिए। संसार या समाज के दूषित होने की बात करना व्यर्थ है।
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Saturday, November 12, 2011

वेद शास्त्रों से संदेश-मन का स्वभाव है विषयों में विचरना (ved shastron se sandesh-man ka swabhav hai vishayon mein vicharna)

        हमारे देश के अनेक कथित ज्ञानी अपने अल्पज्ञान से लोगों को मोक्ष का गलत पाठ पढ़ाते हैं। इसका आशय यह है कि मनुष्य मरने के बाद पुनः इस संसार में न लौटे। इससे अनेक लोग घबड़ा जाते हैं। हर मनुष्य यह चाहता है कि वह इस संसार में पुनः मनुष्य यौनि में ही आये। उसकी इस भावना का धर्म के ठेकेदार बहुत लाभ उठाते हैं और उसे दान पुण्य कर सकाम भक्ति के लिये प्रेरित करते हैं। इतना ही नहीं मनुष्य यौनि से पहले स्वर्ग का सुख भोगने की भी यह लोग गांरटी देते हैं। इस तरह धर्म एक सीमित अर्थ वाला विषय रह गया है। दरअसल मोक्ष का मतलब यह कतई नहीं है कि मरने के बाद आदमी फिर इस संसार में नहीं लौटेगा। अभी तक यह तय नहीं है कि मनुष्य या अन्य जीवों का इस संसार में लौटना होता है कि नहीं। आत्मा अमर है यह निश्चित है पर परमात्मा अनंत है और उसकी लीला को वही जानता है।
        दरअसल हमारा अध्यात्म मनुष्य को मन पर इस तरह नियंत्रण करना सिखाता है कि वह कम से कम इस अलौकिक मनुष्य यौनि में अपना जीवन व्यर्थ के विषयों के बर्बाद न करे। आनंद का अर्थ समझे। वरना तो स्थिति यह होती है कि आदमी अपने मन को प्रसन्न करते हुए अनेक साधन जुटा लेता है पर सुख ले नहीं पाता। सुख कोई दिखने या हाथ आने वाली चीज नहीं है बल्कि अनुभूति का विषय है और यही समझने वाले ज्ञानी कहलाते हैं जिनकी संख्या उंगलियों पर गिनने लायक हैं।
वेदशास्त्रों में कहा गया है कि
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मोक्षो विषयवैरस्यं बन्धो वैषयिको रसः।
सतावदेव विज्ञानं यथेच्छसि तथा कुरु।।
           ‘‘विषयों में से रस का चला जाना ही मोक्ष है और विषयों में रस का होना ही बंधन है। विज्ञान इतना ही। वैसे जिसकी इच्छा है वही काम करे।’’
इन्द्रियाण विचरतां विषयेष्वपहारिषु।
संयम यत्नमातिष्ठेद् विद्वान् यन्तेव वाजिनाम्।।
             ‘इंद्रियों का स्वभाव है कि वह विषयों में ही विचरती हैं। मनुष्य को कुशल सारथि की भांति उन पर नियंत्रण करना चाहिए।’’
        किसी वस्तु की प्राप्ति से पहले आदमी संघर्ष करता है पर बाद में वह कितना सुख अनुभव कराती है यह कौन विचार करता है। आसक्ति वस्तु प्राप्त करने तक ही सीमित है पर उसके उपयोग से सुविधा मिलती है न कि सुख का अनुभव होता है। सुख या आनंद त्याग में है। किसी वस्तु के मिलने पर हर्ष या न मिलने पर जब निराशा न हो तब यह समझना चाहिए कि हमने मोक्ष पा लिया। आसक्ति तनाव का कारण बनती है और विरक्ति सहजता का भाव पैदा करती है। इसी विरक्ति को मोक्ष कहा जाता है। मोक्ष का मतलब है आसक्ति का मर जाना। आसक्ति मरने का मतलब है तनावरहित जीवन गुजारना। यही ज्ञान और विज्ञान है।
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Monday, November 07, 2011

हिन्दू धर्म संदेश-मेहमाननवाजी भी लायक आदमी की करना चाहिए (hindu dharma sandesh-mehaman nawazi aur layak aadmi)

       घर आये मेहमान को आदर देना हर धर्म में अच्छा माना जाता है। भारतीय धर्म भी इसे स्वीकारते है। यह अलग बात है कि हमारे अध्यात्मिक ग्रंथ मेहमाननवाजी में भी आदमी के सुपात्र होने की आवश्यकता बताते हैं। हमारे देश में संस्कार तथा संस्कृति के नाम पर भी कई नारे प्रचलित हो गये हैं। इनमें एक है ‘अतिथि देवो भव‘। इसको लेकर बहुत सारी बातें कही जाती हैं जबकि हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है कि मेहमान की पात्रता तभी स्वीकार्य है जब वह पवित्र मनुष्य हो। ऐसा नहीं है कि हर किसी को घर के दरवाजे पर आने पर मेहमान का दर्जा देकर उसका स्वागत किया जाये। दरअसल इस तरह के नारे अध्यात्मिक ग्रंथों में वर्णित तत्वज्ञान के अभाव में ही समाज में प्रचलित हो गये हैं। कुछ लोग तो यह कहते हैं कि अतिथि सत्कार धर्म का सर्वोच्च रूप है और एक तरह से यज्ञ करने से अधिक श्रेष्ठ है। यह सत्य है कि अगर सुपात्र मनुष्य का अतिथि रूप में सत्कार करना एक तरह यज्ञ ही है पर इसमें पवित्रता का विचार भी होना चाहिए। ज्ञानी लोग हर क्रिया को यज्ञ की तरह मानते हैं। जिस तरह यज्ञ पवित्र स्थान पर पवित्र वस्तुओं से किया जाता है उसी तरह अतिथि सत्कार का धर्म भी पवित्र व्यक्ति को प्रदान किया जाना चाहिए।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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ज्ञानेनैवापरे विप्राः यजन्ते तैमंखेःसदा।
ज्ञानमूलां क्रियामेषां पश्चन्तो ज्ञानचक्षुषा।
            ‘‘तत्वाज्ञानी सभी क्रियाओं को अपने ज्ञान नेत्रों से देखते हुए उसके प्रेरक तत्वों को पहचानते हैं। इस तरह वह अपने ज्ञान से ही यज्ञानुष्ठान करना सबसे महत्वपूर्ण मानते है।
पाषण्डिनो विकर्मस्थान्बैडाव्रतिकांछठान्।
हैंतुकान्वकवृत्तश्चि वांड्मात्रेण्णापि नार्चयेत्।।
          ‘‘पांखडी, दृष्ट, ठग, दूसरों को दुःख पहुंचाने वाला तथा धर्म ग्रंथों में अरुचि रखने भले ही सज्जनता का व्यवहार करे पर उसे कभी मेहमान नहीं बनाना चाहिए। इतना ही नहीं उसका वाणी से भी कभी स्वागत नहीं करना चाहिए।’’
         हमारे देश में पहले शिक्षा के अभाव में लोगों को अध्यात्मिक ग्रंथों का ज्ञान नहीं था तो अब आधुनिक शिक्षा ने उनको एक तरह से विरक्त ही कर दिया गया है। इसलिये चालाक लोग दूसरों को अतिथि सत्कार का धर्म निभाने की राय देते हैं और स्वयं मजे करते हैं। इसलिये यह आवश्यक है कि तत्वज्ञान को समझा जाये। अपनी हर क्रिया को अपने ज्ञान चक्षुओं से देखते हुए यज्ञ होने की अनुभूति की जाये। जीवन में आनंद लेने का यह भी एक तरीका है।
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Saturday, November 05, 2011

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-समय निकल जाने पर वस्तु प्राप्त करने का प्रयास व्यर्थ

              यह संसार परिवर्तनशील है। यहां दृश्यव्य हर पदार्थ का विकास और पतन कभी न कभी होता है। यह अलग बात है कि सभी की आयु अलग अलग होती है। इतना निश्चित है कि जीवन के साथ मृत्यु और उद्भव के साथ पराभव भी होता है। यह कभी नहीं भूलना चाहिए। सांसरिक पदार्थों का मोह ऐसा है कि हर आदमी उसे प्राप्त करना चाहता है। यह अलग बात है कि सभी का कर्म एक जैसा नहीं होता अतः उसका परिणाम भी भिन्न होता है। अनेक लोग अपने सामर्थ्य से अधिक लक्ष्य निर्धारित करते हैं तो अनेक ऐसे हैं जो सहज प्राप्य वस्तु को प्राप्त करना ही नहीं चाहते। कुछ लोग समय बीत जाने पर अपना अभियान प्रारंभ करते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि लोग अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार चलते हैं वैसे ही उनका जीवन भी चलता है। ज्ञानी लोग देशकाल और अपने सामर्थ्य के अनुसार किसी वस्तु या लक्ष्य की प्राप्ति के लिये अपना काम आरंभ करते हैं। भले ही वह अधिक धनवान न बने पर उनका जीवन शांति से गुजरता है। इसके विपरीत अनेक लोग लालच, लोभ और काम के वशीभूत होकर अपना काम प्रारंभ करते हैं। भाग्यवश किसी को सफलता मिल जाये तो अलग बात है वरना अधिकरत तो अपना पूरा जीवन ही अशांति में नष्ट कर देते हैं।

कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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मनुष्य युग्यापचयक्षयो हि हिरण्यधान्यावचयव्यस्तु।
तस्मादिमान्नैव विदग्धबुद्धिः क्षयव्ययायासकरीमुपेयात्।।
            ‘‘मनुष्य और पशु आदि जीवधारियों की देह का ह्रास  ही क्षय है। सोने आदि भौतिक पदार्थों का नाश व्यय है। जिसमें दोनों प्रकार का क्षय दिखे वह कार्य या अभियान प्रारंभ न करें। राजा का कर्तव्य है कि वह विशेष संहार और व्यय कर भी फल न मिलने वाले कार्य को रोके।
वस्तुष्वशक्येषु समुद्यमश्वेच्छक्येषु मोहादसमुद्यमश्च।
शक्येषु कालेन समुद्यश्वश्व त्रिघैव कार्यव्यसनं वदन्ति।।
          "किसी भी कार्य के तीन व्यसन होते हैं। एक तो अपने सामर्थ्य से अधिक वस्तु की प्राप्ति करने का प्रयास करना दूसरा सहजता से प्राप्त वस्तु के लिये उद्यम करना। तीसरा समय बीत जाने पर किसी वस्तु को प्राप्त करने का प्रयास करना।
         हमारी देह का ह्रास होता है तो स्वर्ण आदि भौतिक पदार्थों का व्यय भी करना पड़ता है। ऐसे में यह निश्चित कर कोई काम हाथ में लेना चाहिए जिसमें दोनों ही प्रकार की हानियों से बचा जा सके या फिर वह कम से कम हो। धन का सीधा नियम है कि जहां सें लाभ हो वहीं विनिवेश करें। राजनीति करने वालों के लिये यह नियम बहुत विचारपूर्ण है। अक्सर हम लोग देख रहे हैं कि सरकार के माध्यम से वितरित सहायता गरीब और निम्न वर्ग तक नहीं पहुंचती है। उस पर ढेर सारा व्यय हो रहा और देश के सभी शिखर पुरुष भी यह मानते हैं कि जनता तक वह सहायता नहीं पहुंच रही है। ऐसे में उस सहायता पर धन देने से क्या लाभ जिससे राज्य का लक्ष्य पूरा न होता हो। उल्टे इससे भ्रष्टाचार बढ़ रहा है।
       इसी तरह हमें अपने जीवन में भी व्यय करते हुए इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उससे हमें प्राप्त क्या हो रहा है। हम लोग अधिक धन होने पर अनेक संस्थाओं को दान आदि देते हैं इस विचार से कि उसका पुण्य मिलेगा पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सुपात्र को दिया गया दान ही फलीभूत होता है। उसी तरह जिन मदों पर व्यय करना विलासिता लगता है उनको कभी नहीं करना चाहिए। वैसे भी कहा जाता है कि लक्ष्मी चंचल है और कभी स्थिर नहीं रहती अतः सोच समझकर ही कहीं विनिवेश करना चाहिए।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
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Friday, October 28, 2011

भर्तृहरि नीति शतक-धनी और निर्धन की कामनाऐं अलग अलग होती हैं (kamana ka roop garibi aur amiri ke ansuar-bharathari neeti shatak)

             मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह अगर धनार्जन करता है तो उसे व्यय के लिये भी तत्पर रहता है। जैसे जैसे उसके पास धन संपदा बढ़ती है अपना वैभव दिखाने के लिये वह उतना ही उतावला होता हैै। अगर कोई अल्पधनी अपनी मेहनत से धनवान हो जाता है तो उसे इस बात की प्रसन्नता कम होती है बल्कि वह इस चिंता को अधिक पाल लेता है कि वह अपने वैभव का प्रदर्शन समाज के सामने कर अपनी गरीब की छवि से मुक्ति पाये।
         नवधनाढ्य आदमी समाज के सामने अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने कें लिये अनेक पदार्थों का संचय करता है। अपनी चाल ढाल से वह यह सिद्ध करने का प्रयास करता है कि वह अब धनवान हो गया है। यही कारण है कि हमारे देश में धनवानों की बढ़ती संख्या के कारण भौतिक पदार्थों के संचय के साथ ही विलासिता का प्रदर्शन भी तेज हो गया है।
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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परिक्षीणः कश्चित्स्पृहयति यवानां प्रसृतये स पश्चात्सम्पूर्णः कलयति धरित्रीं तृणसमाम्।
अतश्चानैकान्त्याद् गुरु लघुतयाऽर्थेषु धनिनामवस्था वस्तुनि प्रथयति च संकोचयति च।।
         ‘‘जब मनुष्य गरीब होता है तब वह अपने रहने के लिये एक गज जमीन की चाहत करता है पर जब अमीर होने पर वही पूरे भूमंडल की कामना करने लगता है। इस संसार में अनेक पदार्थ हैं और अमीरी गरीबी के अनुसार उनको पाने की कामना बदलती रहती है। वस्तुओं का महत्व भी मनुष्य की आर्थिक स्थिति के अनुसार बदलता रहता है।"
            जहां तक धन कम या ज्यादा होने का सवाल है तो यह त्रिगुणमयी माया अपने रंग रूप इंसान को इस तरह दिखाती है कि वह उसी को ही सत्य मानकर उसके इर्दगिर्द घूमता रहता है। अपनी आत्मा और परमात्मा विषयक अध्यात्म ज्ञान उसके लिये सन्यासियों का विषय होता है। धन न होने पर आदमी अपने सांसरिक संघर्ष में निरंतर व्यस्त रहता है इसलिये सत्संग तथा ज्ञान चर्चा उसके लिये दूर की कौड़ी हो जाती है तो धन आने पर आदमी ऐसे सात्विक स्थानों पर भी अपने राजस भाव का प्रदर्शन बहुत उत्तेजना के साथ करता है जहां अध्यात्मिक विषयक विचार हो रहा है। मजे की बात यह है कि धनवान लोगों को यह भ्रम रहता है कि उनके पास अध्यात्मिक ज्ञान है वह उसका बखान भी करते हैं। यह अलग बात है कि उनकी वाणी के पीछे ज्ञान का नहीं  वरन् धन का ओज होता है। उनके सामने प्रस्तुत लोग ज्ञान बघारते समय भले कुछ न कहें पर पीठ पीछे  उन पर हंसते हैं। वजह साफ है, ज्ञान का प्रमाण भौतिक पदार्थों की उपलिब्ध नहीं वरन! उनका त्याग है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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Wednesday, October 26, 2011

सामवेद के आधार पर चिंत्तन-दोहरा रुख स्वयं के लिये दुःखदायी

             संसार के जिस आदमी ने मिलो यही कहता है कि ‘मै दुखी हूं’, क्योंकि सामान्य मनुष्य सुख तो चाहते हैं पर उसे पाने का कौशल बहुत कम लोग हैं। इसका कारण यह भी है कि संसार में अधिकांश मनुष्य दोहरे आचरण के मार्ग पर चलने वाले हैं। आदर्शों, सिद्धांतों और नैतिकता की दुहाई सभी लोग देते हैं पर व्यवहार में सात्विकता केवल ज्ञानियों में ही दिखाई देती है। ज्ञानी इस बात को जानते हैं कि दोगला व्यवहार हमेशा स्वयं के लिये ही कष्टकारक है। लोग किसी के मित्र नहीं है भले ही दावा करते हों कि उन्होंने ढेर सारे मित्रों से व्यवहार निभाया है। अपने ही आत्मीय जनों की पीठ पीछे निंदा करते हैं। इस बात को जाने बिना बिना कि एक कान से दूसरे कान में पहुंच ही जाती है। नतीजा यह है कि समाज में वैमनस्य भी बढ़ रहा है। हम जब यह कहते हैं कि आजकल समाज में वैसा सद्भाव नहीं है तो यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि उसके लिये स्वयं ही जिम्मेदार हैं।
सामवेद में कहा गया है कि
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मा ते रसस्य मत्सत द्वयाविनः।
            ‘‘दोहरा आचरण करने वाले आनंदित नहीं होते।’
ऋतस्य जिह्वा पवते मधु।
           ‘‘सच्च मनुष्य की जिह्वा से मधु टपकता है।’’
         लोगों की वाणी, विचार तथा व्यवहार स्वार्थों के अनुसार मधुर और कठोर होता है। ताकतवर के आगे सिर झुकाते हैं तो कमजोर पर आग की तरह झपटते हैं। आपसी वार्तालाप में ऐसी पवित्र बातें करते हैं गोया कि महान धार्मिक हों पर व्यवहार में शुद्ध रूप से स्वार्थ दिखता है। ऐसे में संसार या समाज को बिगड़ने का दोष देकर आत्ममंथन से बचना एक दोगला प्रयास है। ऐसे प्रयासों के चलते कोई सुख या आनंद नहीं प्राप्त कर सकता। इसके विपरीत निराशा, तनाव, तथा मानसिक विकारों को मनुष्य शरीर में शासन स्थापित हो जाता है। इसलिये जहां तक हो सके आत्ममंथन कर अपने दोषों का निराकरण करना चाहिए। संसार या समाज के दूषित होने की बात करना व्यर्थ है।
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Saturday, October 22, 2011

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-तत्वज्ञानियों का सामान्य लोगों से मेल संभव नहीं (tatava gyaniyon ka samanya logog se mel sanbhav nahin-economics of kautilya)

              आमतौर से सामान्य मनुष्य अपने संपर्क बढ़ाने और संबंधों का विस्तार करने को उत्सुक रहते हैं। दूसरे लोग चिकनी चुकनी बातों से बहकाते हैं पर यह बात सभी की समझ में नहीं आती। मुख्य बात यह है कि अपने गुणों के अनुरूप ही संपर्क और संबंध बनाने चाहिए इस सिद्धांत को बहुत कम लोग जानते हैं। श्रीमद्भागवत गीता में गुण तथा कर्म विभागों का संक्षिप्त पर गुढ़ वर्णन किया गया है। उससे हम मनुष्य का मनोविज्ञान अच्छी तरह समझ सकते हैं। आम तौर से पहनावे, रहन सहन, आचार विचार तथा कार्य करने के तरीके से सभी लोग एक जैसे दिखाई देते हैं। इस तरह हर मनुष्य का बाह्य मूल्यांकन किया जा सकता है। इस आधार पर संबंध या संपर्क बनाना ठीक नहीं है। क्योंकि संबंधों का विस्तार या संपर्क बढ़ने पर जब किसी के सामने अपने साथी का आंतरिक रूप विचार और संकल्प प्रतिकूल मिलता है तो मनुष्य को भारी निराशा होती है। किसी दूसरे व्यक्ति से संबंध बढ़ाने या संपर्क का विस्तार करने से पहले उसके विचार तथा संकल्प जानना आवश्यक है। वह चाहे कितनी भी लच्छेदार बातें करे पर उसकी क्षमता का आंकलन कर उसका प्रमाण भी लेना चाहिए। विपरीत गुणों तथा कर्म वाले लोगों से संपर्क बहुत दूरी तक नहंी चलते और कभी कभी तो दुष्परिणाम देने वाले भी साबित होते है।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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उत्तमाभिजनोपेतान् न नीचैः सह वर्द्धयेत्।
कृशीऽपि हिविवेकज्ञो याति संश्रवणीयताम्।।
           ‘‘सज्जन या उत्तम गुणों वाले लोगों का नीच तथा अज्ञानी लोगों से मेल नहीं हो सकता। कृशता को प्राप्त विवेकी पुरुष अंततः राज्य का संरक्षण पा लेता है, इसमें संशय नहीं है।
निरालोके हि लोकेऽस्मिन्नासते तत्रपण्डिताः।
जात्यस्य हि मणेयंत्र काचेन समता मता।।
        ‘‘ज्ञानी लोग उन अज्ञानी लोगों के पास नहीं ठहर पाते जो अज्ञान के अंधेरे में रहते हैं। जहां मणि हो वहां भला कांच का क्या काम हो सकता है? वहां मणि के साथ कांच जैसा व्यवहार ही किया जाता है।’’
        इन संपर्कों और संबंधों में यह बात बहुत महत्वपूर्ण होती है कि लोगों का बौद्धिक स्तर क्या है? इसमें कोई शक नहीं रखना चाहिए कि मनुष्य के धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक तथा कार्यकारी स्थितियों से उसके विचार, संकल्प, तथा कर्म प्रभावित होते हैं। इन्हीं आधारों से संस्कारों का निर्माण भी होता है। कुछ लोग बड़ी चालाकी से इसे छिपाते हैं तो कुछ लोगों की सक्रियता इतनी रहती है कि उनका आंतरिक रूप समझने का अवसर दूसरों को नहीं मिलता। सांसरिक विषयों की चतुराई ज्ञान नहीं होता बल्कि अध्यात्मिक ज्ञान ही असली प्रमाण होता है। कहने का अभिप्राय यह है कि अपने संपर्क के लोगों का अध्यात्मिक स्तर जानना अत्यंत आवश्यक है। ज्ञानी लोगों की अज्ञानी लोगों से दोस्ती बहुत कम निभती है। अज्ञानी लोग सांसरिक विषयों के अंधेरे कुंऐं में डूबे रहना पसंद करते हैं और ज्ञानी लोगों की बात उनके लिये बकवास भर होती है। अतः किसी भी प्रकार का संबंध स्थापित करने से पहले दूसरे की प्रवृत्तियों का प्राप्त करना आवश्यक है। स्वयं गुणी हैं तो इस बात से निराश नहीं होना चाहिए कि समाज में उनका सम्मान नहीं हो रहा है बल्कि यह विचार पक्का रखना अच्छा है कि उन गुणों से हमारी रक्षा हो रही है।
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Saturday, October 15, 2011

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-अंधेरे में रहने के आदी अज्ञानियों से ज्ञानियों का मेल असंभव (economics or arthshastra of kotilya-gyaniyon aur agyaniyon ka mel asambhav)

              आमतौर से सामान्य मनुष्य अपने संपर्क बढ़ाने और संबंधों का विस्तार करने को उत्सुक रहते हैं। दूसरे लोग चिकनी चुकनी बातों से बहकाते हैं पर यह बात सभी की समझ में नहीं आती। मुख्य बात यह है कि अपने गुणों के अनुरूप ही संपर्क और संबंध बनाने चाहिए इस सिद्धांत को बहुत कम लोग जानते हैं। श्रीमद्भागवत गीता में गुण तथा कर्म विभागों का संक्षिप्त पर गुढ़ वर्णन किया गया है। उससे हम मनुष्य का मनोविज्ञान अच्छी तरह समझ सकते हैं। आम तौर से पहनावे, रहन सहन, आचार विचार तथा कार्य करने के तरीके से सभी लोग एक जैसे दिखाई देते हैं। इस तरह हर मनुष्य का बाह्य मूल्यांकन किया जा सकता है। इस आधार पर संबंध या संपर्क बनाना ठीक नहीं है। क्योंकि संबंधों का विस्तार या संपर्क बढ़ने पर जब किसी के सामने अपने साथी का आंतरिक रूप विचार और संकल्प प्रतिकूल मिलता है तो मनुष्य को भारी निराशा होती है। किसी दूसरे व्यक्ति से संबंध बढ़ाने या संपर्क का विस्तार करने से पहले उसके विचार तथा संकल्प जानना आवश्यक है। वह चाहे कितनी भी लच्छेदार बातें करे पर उसकी क्षमता का आंकलन कर उसका प्रमाण भी लेना चाहिए। विपरीत गुणों तथा कर्म वाले लोगों से संपर्क बहुत दूरी तक नहंी चलते और कभी कभी तो दुष्परिणाम देने वाले भी साबित होते है।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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उत्तमाभिजनोपेतान् न नीचैः सह वर्द्धयेत्।
कृशीऽपि हिविवेकज्ञो याति संश्रवणीयताम्।।
           ‘‘सज्जन या उत्तम गुणों वाले लोगों का नीच तथा अज्ञानी लोगों से मेल नहीं हो सकता। कृशता को प्राप्त विवेकी पुरुष अंततः राज्य का संरक्षण पा लेता है, इसमें संशय नहीं है।
निरालोके हि लोकेऽस्मिन्नासते तत्रपण्डिताः।
जात्यस्य हि मणेयंत्र काचेन समता मता।।
        ‘‘ज्ञानी लोग उन अज्ञानी लोगों के पास नहीं ठहर पाते जो अज्ञान के अंधेरे में रहते हैं। जहां मणि हो वहां भला कांच का क्या काम हो सकता है? वहां मणि के साथ कांच जैसा व्यवहार ही किया जाता है।’’
        इन संपर्कों और संबंधों में यह बात बहुत महत्वपूर्ण होती है कि लोगों का बौद्धिक स्तर क्या है? इसमें कोई शक नहीं रखना चाहिए कि मनुष्य के धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक तथा कार्यकारी स्थितियों से उसके विचार, संकल्प, तथा कर्म प्रभावित होते हैं। इन्हीं आधारों से संस्कारों का निर्माण भी होता है। कुछ लोग बड़ी चालाकी से इसे छिपाते हैं तो कुछ लोगों की सक्रियता इतनी रहती है कि उनका आंतरिक रूप समझने का अवसर दूसरों को नहीं मिलता। सांसरिक विषयों की चतुराई ज्ञान नहीं होता बल्कि अध्यात्मिक ज्ञान ही असली प्रमाण होता है। कहने का अभिप्राय यह है कि अपने संपर्क के लोगों का अध्यात्मिक स्तर जानना अत्यंत आवश्यक है। ज्ञानी लोगों की अज्ञानी लोगों से दोस्ती बहुत कम निभती है। अज्ञानी लोग सांसरिक विषयों के अंधेरे कुंऐं में डूबे रहना पसंद करते हैं और ज्ञानी लोगों की बात उनके लिये बकवास भर होती है। अतः किसी भी प्रकार का संबंध स्थापित करने से पहले दूसरे की प्रवृत्तियों का प्राप्त करना आवश्यक है। स्वयं गुणी हैं तो इस बात से निराश नहीं होना चाहिए कि समाज में उनका सम्मान नहीं हो रहा है बल्कि यह विचार पक्का रखना अच्छा है कि उन गुणों से हमारी रक्षा हो रही है। यह भी ध्यान रखें की गुणों की पहचान बहुत कम लोगों को होती है।
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Sunday, October 09, 2011

मनुस्मृति से संदेश-अपराध कभी उपवास करने से नहीं छिपते (apradh aur upawas or crime and fast-manusmriti

    हमारे देश में धर्मभीरु लोगों की संख्या बहुत है पर तत्वज्ञानियों कहीं कहीं देखने को मिलते हैं। अब तो देश में पर्वों और त्यौहारो के अवसर पर नाच गानों की ऐसी धूम मचती है गोया कि पूरा देश ही धर्ममय हो रहा है। देखा जाये तो धर्म एक दिखाने वाली शय बन गया है और उसका आचरण से संबंध मानने वाला कोई कोई विरला ही होता है। धर्म के नाम पर जहां कुछ लोग समाज का दोहन करते हैं तो कुछ अपनी जेब से पैसा खर्च कर अपने अंदर ही धार्मिक होने का अहसास भी खरीदना चाहते हैं। इधर देश में भ्रष्टाचार के कारण जहां कालाधन बढ़ा है तो उसे सफेद करने का मार्ग भी धर्म ही बन गया है। यही कारण है कि आजकल तो ऐसा दिख रहा है कि हमारा पूरा देश ही धार्मिक है और यहां सभी निर्मल हृदय के लोग रहते हैं।
हमारे धर्मग्रथों में यह बात अनेक जगह लिखी हुई है कि कुपात्र को दिया गया दान बेकार है। साथ ही यह भी कहा जाता है कि अगर आचरण में निर्मलता और हृदय में शुद्धता नहीं है तो चाहे कितनी भी भक्ति की जाये वह फलीभूत नहीं होती।
इस विषय में मनुस्मृति में कहा गया है कि
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यथा पलवेनीपलेन निमज्जत्युदके तरन्।
तथा निमज्जतोऽधस्तादज्ञो दातृप्रतीच्छकी।
         ‘‘जिस तरह पानी पत्थर की नौका पर चलने वाला व्यक्ति नाव के साथ डूब जाता है उसी तरह दान लेने वाला कुपात्र या अज्ञानी तथा उसे दान देने वाला दोनों ही नरक में डूब जाते हैं।
न धर्मस्यापदेशेन पापं कृत्वा व्रतं चरेत्।
व्रतेन पापं प्रच्छाह्य कुर्वन् स्त्री शूद्रदमनम्।।
        ‘‘पाप करने के बाद उसे छिपाने के लिये व्रत या उपवास करना व्यर्थ है। इस तरह के व्रत से अज्ञानियो को बहलाया जा सकता है पर बुद्धिमान लोग उसकी सच्चाई जानते हैं।’’
          कहने का अभिप्राय यह है कि व्रत, उपवास, जाप, ध्यान, स्मरण और दान जैसी अध्यात्मिक प्रक्रियाओं के पालन में मनुष्य का आचरण अच्छा होने से न तो अध्यात्मिक न ही सांसरिक लाभ मिलता है। न मन में शांति होती है न ही लोग सम्मान करते हैं। स्पष्टतः धर्म केवल दिखाने के लिये नहीं होता बल्कि आचरण की श्रेष्ठता समाज के सामने उसे प्रमाणित करती है। उसी तरह हृदय की शुद्धता मनुष्य को अपने धार्मिक होने का सुखद अहसास होता है।
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