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Sunday, July 28, 2013

चाणक्य नीति दर्शन-मार्ग पर देखभाल कर चलें (chankya neeti darshan-marga par dekhbhalkar chalen)



         आजकल हम देख रहे हैं कि युवा वर्ग के लोगों की मौतों की घटनायें  अधिक हो रही है।  आत्महत्या, हत्या तथा सड़क दुर्घटनाओं में अक्सर युवक युवतियों की मौत की खबरें प्रचार माध्यमों में आती रहती हैं।  इतना ही नहीं राजमार्गों पर भी दूरी की यात्रा कर रहे अनेक परिवारों के दुर्घटनाग्रस्त होने की घटनायें भी होती रहती हैं। देश में विकास के नाम पर भौतिकता के भाव ने लोगों की बुद्धि कुंद कर दी है।  जिनके पास मोटर साइकिल और कार है वह उस पर सोचकर  सवारी करते है कि सड़क केवल उनके लिये ही बनी।  जिस तरह चूहे, बिल्ली और कुत्ते का खेल है कि ताकतवर अपने से कमजोर पर हमला करता है वैसी ही स्थिति आजकल सड़क पर आवागमन करने  पर दिखती है। वाहन वाला पैदल या साइकिल चालक को तथा बड़े वाहन का सवार छोटे वाहन सवार को अपने आगे कुछ नहीं समझता।  पैदल और साइकिल चालक को मोटर साइकिल वाले और उनको कार तो कार वालों को ट्रक वाले अपनी वाहन से उड़ा देते हैं। कभी कभी तो लगता है कि लोग सड़क पर बदहाली में चलने के आदी हो गये हैं।  घर जो सुरक्षित पहुंचते हैं उनके परिवार वालों को भगवान का शुक्रिया अदा करना चाहिये क्योंकि जिस तरह सड़कों पर आवागमन की स्थिति है वह अत्यंत शोचनीय है।

चाणक्य नीति में कहा गया है कि

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शकटं पञ्चहस्तेन दशहस्तेन वाजिनम्।

हस्ती शतहस्तेन देशत्यागेन दुर्जनम्।।

       हिन्दी में भावार्थ-बैलगाड़ी से पांच, घोड़े से दस तथा हाथी से सौ हाथ दूर रहना चाहिये। जहां दुष्ट रहता हो तो उस क्षेत्र का त्याग कर देना चाहिये।
            अगर हम चाणक्य नीति को देखें तो लगता है कि ऐसी दुर्घटनायें ंपहले भी होती रहती होंगी तभी उनसे बचने के लिये उन्होंने  मार्ग में बैलगाड़ी, घोड़े तथा हाथी से दूर चलने का सुझाव दिया।  अभी तक आधुनिक समय में तीन टीयानि ट्रेक्टर, ट्रक तथा टू-सीटर से बचने की सलाह देते रहे हैं पर लगता है कि मोटर साइकिल को टू-सीटर शायद नहंी माना जाता है हालांकि वह आती उसी श्रेणी मैं है।  यही कारण है कि आजकल अधिकतर दुर्घटनायें मोटरसाइकिल सवारों के साथ होती है या वह उनके लिये जिम्मेदार होते हैं।  समस्या यह है कि लोग चाहे वह कार पर हों या बाइक पर, अपने  सवारी वाहन लेकर एक दूसरे के इतना नजदीक चलते हैं कि एक ब्रेक लगाये तो दूसरा टकरा ही जाता है। इस बात पर भी जमकर झगड़े होते हैं।  आखरी बात यह कि वाहन संख्या में बढ़ गये हैं और सड़कें अतिक्रमण के कारण पहले से कम चौड़ी हो गयी हैं।  ऐसे में वाहन टकरायेंगे ही पर लोगों को आपस में लड़ने से बचना चाहिये।  अनेक बार तो ऐसी हृदय विदारक घटनायें हुई हैं जिसमें गाड़ियां टकराने पर कत्ल तक हो गये हैं।  हमारे यहां अब अध्यात्मिक ज्ञान का महत्व अधिक नहीं दिया जात है पर सच यह है कि उसमें भी मार्ग पर सावधानी से चलने का सुझाव दिया गया है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Sunday, July 21, 2013

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-दूषित धन बनता है क्लेश का कारण(kautilya ka arthshastra-dooshit dhya banta hai klesh ka kaaran)

            माया का खेल निराला है।  सत्य और माया दोनों के संयोग से यह संसार चलता है। भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में कहा है कि यह संसार परमात्मा के संकल्प के आधार पर स्थित है।  समस्त भूत उसके संकल्प के आधार पर निर्मित है पर वह स्वयं किसी में नहीं है।  माया का सिद्धांत इससे अलग है।  वह स्वयं कोई पदार्थ नहीं बनाती है।  वह सभी में स्थित भी दिखती है पर किसी भी भूत को प्राणवान नहीं बनाती।   धन, सोना, हीरा, जवाहरात तथा वस्तु विनिमय के लिये निर्मित सभी  पदार्थ माया की पहचान कराते हैं पर उनमें प्राणवायु  प्रवाहित नहीं होती है।  इसके बावजूद मनुष्य उसी के पीछे भागता है। इस संसार में  पेड़, पौद्ये, नदियां, झीलें तथा फूलों में सौंदर्य और सुगंध है पर उसकी बनिस्बत मनुष्य माया के प्राणहीन स्वरूप पर ही फिदा रहता है।
        अब तो विश्व में स्थिति यह हो गयी है कि नैतिकता, धर्म तथा सद्भाव की बात सभी करते हैं पर उसे कोई समझता ही नहीं। सभी का उद्देश्य केवल धन प्राप्त करना है।  मन में क्लेश होता है तो हो जाये। शहर में बदनामी होती है तो होने दो पर किसी तरह पैसा आना चाहिये, इस प्रवृत्ति ने मनुष्य को पाखंडी बना दिया हैं।  पूरे विश्व में धर्म के नाम पर बड़े बड़े संगठन बन गये हैं।  धर्म का प्रचार करने के लिये अनेक संगठन ढेर सारा पैसा खर्च करते हैं। अनेक जगह तो पैसा तथा अन्य लोभ देकर धर्मातंरण तक कराया जाता है।  सीधी बात कहें तो धर्म आचरण से अधिक राजनीति तर्थ आर्थिक प्रभाव बढ़ाने वाला साधन बन गया है।  सद्भाव से कर्म करने वाले को धन सामान्य मात्रा में मिलता है जबकि क्लेश करने और कराने वालों को भारी आय होती है।  आजकल स्थिति तो यह हो गयी है कि शराब, तंबाकू तथा अन्य व्यसनों में संलग्न रहने वालों को ढेर सारी कमाई होती है।  इसके अलावा मनोरंजन के नाम पर शोर, भय तथा तनाव बेचने वाले भी महानायकत्व प्राप्त करते हैं।  कहने का अभिप्राय यह है कि आजकल धन की प्राप्ति क्लेश से ही होने लगी है।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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तदकस्मत्समाविष्ट कोपेनातिबलीयसा।
नित्यमात्महिताङक्षी न कुर्ष्यादर्थदूषणमुच्यते।।
          हिन्दी में भावार्थ-अचानक क्रोध आ जाने पर अपने हित की पूर्ति के लिये अर्थ का दूषण न करें। इससे सावधान रहें।
दूष्यस्याद्भष्णार्थञ्च परित्यागो महीयसः।
अर्थस्य नीतितत्वज्ञेरर्थदूषणमुच्यते।।

        हिन्दी में भावार्थ-दूषित कर्म तथा अर्थ का अवश्य त्याग करना चाहिये। नीति के ज्ञाताओं ने अर्थ की हानि को ही अर्थ दूषण बताया है।
         दूषित धन का प्रभाव बढ़ने से समाज का वातावरण दूषित हो गया है।  इससे बचने का कोई उपाय फिलहाल तो नहीं है।  कहा जाता है कि संतोष सदा सुखी पर जब पर्दे पर महानायकत्व प्राप्त कर चुके  लोग संतुष्ट न बनो और अपनी प्यास बढ़ाओ जैसे जुमले सुनाकर समाज की नयी पीढ़ी का मार्गदर्शन कर रहे हों तब यह संभव नहीं है कि समाज को उचित मार्ग पर ले जाया जाये। फिर भी जिनकी अध्यात्मिक ज्ञान में रुचि है उन्हें यह समझना चाहिये कि संसार में क्लेश से प्राप्त धन कभी सुख नहीं दे सकता। 

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Wednesday, July 17, 2013

मनुस्मृति के आधार पर संदेश-आत्म नियंत्रण करना भी यज्ञ है (manu smriti ke adhar par sandesh-aatma niyantran karna bhee yagya hai)



        हमारे देश में भौतिक साधनों से यज्ञ करने को अधिक महत्व दिया जाता  है।  दरअसल भौतिक यज्ञ प्रत्यक्ष दिखता है इससे दूसरों के सामने अपनी धार्मिक छवि का निर्माण करने का सहज अवसर मिलता है। यह देखा भी गया है कि धन के बल पर किये गये इस तरह के धार्मिक प्रदर्शन करने वालों का काला चरित्र आम लोगों की आंखों से ओझल ही रहता है। जिनका चरित्र काला नहंी भी हो वह भी कोई अन्य नैतिक कार्यक्रम करने की बजाय इस तरह धन खर्च कर धार्मिक कार्यक्रमों के माध्यम से  अपनी उज्जवल छवि बनाने का प्रयास करते हैं। यहां तक तो ठीक है पर जब इस तरह धन खर्च कर धार्मिक कार्यक्रम करने वाले अन्य लोगों को भी ऐसे काम करने के लिये उकसाने का प्रयास करते हैं और न करने पर उनके निंदक बन जाते हैं।
         इतना ही नहीं हमारे देश में अनेक कथित गुरु भी हैं जो अपने शिष्यों को इस तरह के भौतिक यज्ञों के लिये प्रेरित करते हैं। उनके शिष्य उनसे भी दो कदम आगे जाकर भौतिक यज्ञ न करने वालों को नास्तिक या भक्तिहीन कहकर मजाक उड़ाते हैं।  इस तरह एक धार्मिक द्वंद्व में समाज बरसों से फंसा हुआ है।  भारतीय अध्यात्म ज्ञान से परे होते समाज में यह द्वंद्व अनेक बार कई लोगों के सामने दुविधाजनक स्थिति पैदा कर देता है।
   
मनुस्मृति में कहा गया है कि
..........................................

यथायथा हि पुरुषः शास्त्रंसमधिगच्छति।
तथातथा विंजानाति विज्ञानं चास्य रोचते।।
      हिन्दी में भावार्थ-जैसे जैसे मनुष्य शास्त्र का अभ्यास करता है, उसे तत्वज्ञान प्राप्त होने लगता है। इससे उसकी रुचि अध्ययन में बढ़ती जाती है।
ऋषियज्ञं देवयज्ञं भूतयज्ञं च सर्वदा।
नृचज्ञं पितृयज्ञं च यथाशक्ति न हापयेत्।।
        हिन्दी में भावार्थ-ऋषि यज्ञ (वेद अध्ययन), देव यज्ञ (मूर्ति पूजा), भूत यज्ञ (हवन आदि करना), नृयज्ञ (अतिथि सत्कार), तथा पितृयज्ञ (श्राद्ध तथा तर्पण) इन पांच यज्ञों का अनुष्ठान करते रहना चाहिये
एतानेके महायज्ञन्यज्ञशास्त्रविदो जनाः।
अनहिमानाः सततमिन्द्रियेष्ेवे जुहृति।।

         हिन्दी में भावार्थ-शास्त्रों के ज्ञाता कुछ गृहस्थ इन यज्ञों को न करन पांचों इंद्रियों पर-नेत्र, नासिका, जीभ, त्वचा ताकि कान पर संयम-नियंत्रण करते हुए पंच यज्ञ करते हैं।
       देश में कई ऐसे गृहस्थ हैं जो इस तरह के भौतिक यज्ञों की अपेक्षा ज्ञान को  श्रेष्ठ मानते हैं।  आयु, समय तथा आवश्यकता होने पर विद्याध्ययन, अतिथि सत्कार तथा अन्य परोपकार के कार्य करना चाहिये पर इसका आशय यह कतई नहीं है कि अन्य प्रकार के भौतिक यज्ञों के लिये सभी गृहस्थों पर दबाव डाला जाये।  सच बात तो यह है कि अपनी देह की इंद्रियों पर नियंत्रण करना भी एक तरह से यज्ञ है।  अपनी आंखों से सदैव अच्छे दृश्य देखने का प्रयास करना, कानों से केवल मधुर स्वर सुनना, दुर्गंध से दूर होकर सुगंध की तरफ जाना, जीभ के स्वाद का ध्यान रखने की बजाय सुपाच्य वस्तुओं को ग्रहण करना तथा अनांवश्यक रूप से अपनी देह को कठिन मार्गो पर ले जाने की बजाय अनुकूल मौसम, सुविधाजनक मार्ग तथा शुद्ध वातावरण के अनुसार अपने पग बढ़ाने के साथ ही अपने हाथ उन्हीं कामों में डालना चाहिये जो तनाव पैदा करने वाले न हो।
       कहने का अभिप्राय यह है कि हर मनुष्य को अपनी देह, मन और विचारों के अनुकूल कार्यों पर ही ध्यान देना एक तरह से ज्ञान यज्ञ है।  दूसरों को लाभ पहुंचाकर वाह वाही लूटने से अच्छा है दूसरों को हानि पहुंचाने के प्रयास से बचा जाये।  हम यहां भौतिक यज्ञों की आलोचना नहीं कर रहे पर इतना जरूर कहना चाहते हैं कि ज्ञान यज्ञ करने वालों के प्रति ऐसे लोगों को दुर्भावना नहीं रखना चाहिये जो सकाम  भक्ति  करते हैं।

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Sunday, July 07, 2013

चाणक्य नीति-निश्चित पदार्थ छोड़कर अनिश्चित के पीछे न भागें (chankya neeti-nishchit padarth chhodkar anishchit peeche n bhaagen)



          पूरे विश्व के साथ आर्थिक संबंध बनाये रखने की योजना के तहत हमारे देश में जो अर्थनीति बनायी गयी उसे उदारीकरण कहा जाता है। इस नीति के कारण हमारे देश में मध्यम वर्ग का रूप ही बदल गया है। आमतौर से मध्यम वर्ग में निजी तथा शासकीय क्षेत्रों में कार्यरत कर्मचारी, असंगठित छोटे व्यवसायी, निजी चिकित्सक तथा अन्य सेवायें करने वाले ऐसे लोग शामिल माने जाते हैं जिनकी आय केवल अपने परिवार के उचित पालन तक ही हो पाती है।  भारत की आजादी के  बाद सरकारी क्षेत्र का विस्तार हुआ जिसमें कार्यरत कर्मचारियों की संख्या इतनी अधिक थी कि समाज में उनकी उपस्थिति एक प्रथक जाति के रूप में दिखने लगी थी।  दरअसल सरकारी क्षेत्र में एक तयशुदा तनख्वाह मिलने से अनेक परिवारों  का जीवन स्तर स्वाभाविक रूप से बढ़ा।  मध्यम वर्ग में सर्वाधिक संख्या निजी छोटे व्यवसायियों के बाद सरकारी कर्मचारियेां की रही थी। दरअसल प्रारंभ के आर्थिक रणनतिकारों ने  सरकारी सेवा में कर्मचारियों की नियुक्ति को जन कल्याण का भी एक रूप माना थां उदारीकरण के साथ ही जैसे जैसे सरकारी क्षेत्र सीमित होने लगा है जिससे अब सरकारी सेवा में अधिक लोग रखना संभव नहीं है।  निजीकरण में कंपनी के नाम से संगठित उद्यमियों के हाथ में आर्थिक सत्ता जा चुकी है जिनकी रुचि नौकरियां देकर समाज कल्याण में नहंी होती। दूसरी बात यह कि निजी उद्यमी अपने उत्पाद का स्वयं विक्रय करने के लिये केंद्र बनाते हैं।  इससे छोटे निजी व्यवसायी भी प्रभावित हो रहे हैं।  सच बात तो यह है कि वर्तमान स्थिति में मध्यम वर्ग के सामने अस्तित्व का संकट है इसी कारण उसमें शािमल लोग इधर उधर अपनी आय बढ़ाने के लिये हाथ मारते हैं।  अनेंक लोग  नौकरियंा बदलते हैं या निजी व्यवसाय के लिये छोड़े देते हैं। अनेक व्यवसायी अपना व्यवसाय बदलने का प्रयास करने लगे हैं।  ऐसे में अगर बदलाव फलीभूत हो तो ठीक वरना उनका संकट बढ़ जाता है। 
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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यो ध्रुवाणि परित्यज्य अधुवं परिषेवते।
ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति आध्रुवं नष्टमेव च।।
              हिन्दी में भावार्थ-जो मनुष्य हाथ में  आये निश्चित पदार्थ को त्याग कर अनिश्चित की तरफ भागता है उसे वह मिलना तो दूर जो निश्चित है वह भी हाथ से निकल जाता है।
           मध्यम वर्ग बुद्धि का स्वामी भी माना जाता है।  तनाव दौर  में  बुद्धि अधिक ही विचार करती है।  चंचल मन अनेक स्वप्न पालता है। जीवन में आर्थिक विकास की चाहत लिये आदमी अनेक योजनायें बनाता है। सभी के कार्यक्रम सुखद रूप से संपन्न हों यह जरूरी नहीं है।  ऐसे में असफल मनुष्य का मन टूटता है। टूटा मन लिये मनुष्य जीवन में अधिक दूर नहीं जा सकता। इसलिये जिन लोगों का रोजगार बना हुआ है उसमें ही अधिक आय अर्जित करने का प्रयास करें।  जब कभी दूसरा काम शुरु करें तो दस बार सोचें। आजकल जिंदगी में धोखे भी कम नहीं रहे।

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