समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Saturday, October 31, 2009

कौटिल्य का दर्शन- सभी को रोटी देना राजा का कर्तव्य (kotilya ka arthshastra in hindi)

आचार्य कौटिल्य महाराज कहते हैं कि
-------------------------

आजीव्यः सर्वभूतानां राजा पज्र्जन्यवद्भुवि।
निराजीव्यं त्यजन्त्येनं शुष्कवृक्षभिवाउढजाः।।
हिंदी में भावार्थ-
राजा मेघों के समान सब प्राणियों को आजीविका देता है। जो राजा प्रजा को आजीविका नहीं दे पाता उसका साथ सभी छोड़ जाते हैं, जिस प्रकार पेड़ को पक्षी छोड़ जाते हैं।
उत्थिता एवं पूज्यन्ते जनाः काय्र्यर्थिभिर्नरःै।
शत्रुवत् पतितं कोऽनुवन्दते मनावं पुनः।।
हिंदी में भावार्थ-
जो व्यक्ति कार्य सिद्धि की अभिलाषा रखते हैं वह उत्थान की तरफ बढ़ रहे पुरुष का सम्मान करते हैं और जो पतन की तरफ जाता दिखता है उसे त्याग देते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अपने जीवन में अपनी भौतिक उपलब्धियों को लेकर कोई भ्रम नहीं रखना चाहिये। यदि आप धनी है पर समाज के किसी काम के नहीं है तो कोई आपका हृदय से सम्मान नहीं करता। जिस तरह जो राजा अपनी प्रजा को रोजगार नहीं उपलब्ध कराता उसे प्रजा त्याग देती है वैसे ही अगर धनी मनुष्य समाज के हित पर धन व्यय नहीं करता तो उसे कोई सम्मान नहीं देता। तात्पर्य यह है कि अगर आप समाज के शिखर पुरुष हैं तो जितना हो सके अपने आसपास और अपने पर आश्रित निर्धनों, श्रमिकों और बेबसों पर रहम करिये तभी तो आपका प्रभाव समाज पर रह सकता है वरना आपके विरुद्ध बढ़ता विद्रोह आपका समग्र भौतिक सम्राज्य भी नष्ट कर सकता है।
हमारे प्राचीन महापुरुष अनेक प्रकार की कथा कहानियों में समाज में समरसता के नियम बना गये हैं। उनका आशय यही है कि समाज में सभी व्यक्ति आत्मनियंत्रित हों। जिसे आज समाजवाद कहा जाता है वह एक नारा भर है और उसे ऊपर से नीचे की तरफ नारे की तरह धकेला जाता है जबकि हमारे प्राचीन संदेश मनुष्य को पहले ही चेता चुके हैं कि राजा, धनी और प्रभावी मनुष्य को अपने अंतर्गत आने वाले सभी लोगों को प्रसन्न रखने का जिम्मा लेना चाहिए। उनका आशय यह है कि समाजवाद लोगों में स्वस्फूर्त होना चाहिये जबकि आजकल इसे नारे की तरह केवल राज्य पर आश्रित बना दिया गया है। इस सामाजिक समरसता के प्रयास की शुरुआत भले ही राज्य से हो पर समाज में आर्थिक, सामाजिक, और प्रतिष्ठत पदों पर विराजमान लोगों को स्वयं ही यह काम करना चाहिये। इसके लिये हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों से जीवन के नियम सीखें न कि पश्चिम या पूर्व से आयातित नारे गाते हुए भ्रम में रहना चाहिए। सच तो समाज में सामंजस्य बनाये रखने का दायित्व बड़े और धनी लोगों का है क्योंकि उससे उनको ही सुरक्षा मिलती है।
___________________________________
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
http://rajlekh.blogspot.com
--------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Thursday, October 29, 2009

संत कबीरदास के दोहे-शब्द किसी का मुख नहीं ताकता (shabd aur mukh-kabir das ke dohe)

शब्द न करैं मुलाहिजा, शब्द फिरै चहुं धार।
आपा पर जब चींहिया, तब गुरु सिष व्यवहार।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि शब्द किसी का मूंह नहीं ताकता। वह तो चारों ओर निर्विघ्न विचरण करता है। जब शब्द ज्ञान से अपने पराये का ज्ञान होता है तब गुरु शिष्य का संबंध स्वतः स्थापित हो जाता है।

कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै सब छार।
साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कटु वचन बहुत बुरे होते हैं और उनकी वजह से पूरा बदन जलने लगता है। जबकि मधुर वचन शीतल जल की तरह हैं और जब बोले जाते हैं तो ऐसा लगता है कि अमृत बरस रहा है।


वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- पिछले दिनों समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ कि अब लोगों में अपशब्द बोलना एक तरह से फैशन बनता जा रहा है। लोग अंतर्जाल पर गाली गलौच लिखना एक फैशन बना रहे हैं। यह वर्तमान विश्व समुदाय में अज्ञान और अहंकार की बढ़ती प्रवृत्ति का परिचायक है। पहले तो यह विचार करना जरूरी है कि हमारे शब्दों का प्रभाव किसी न किसी रूप में होता ही है। एक बात यह भी है कि हम जो शब्द बोलते हैं वह समाप्त नहीं हो जाता बल्कि हवा में तैरता रहता है। फिर समय पढ़ने पर वह उसी मुख की तरफ भी आता है जहां से बोला गया था। ऐसे में अगर हम अपने मुख से अपशब्द प्रवाहित करेंगे तो वह लौटकर कभी न कभी हमारे पास ही आने हैं। आज हम किसी से अपशब्द अपने मुख से बोलेंगे कल वही शब्द किसी अन्य द्वारा हमारे लिये बोलने पर लौट आयेगा। इस तरह तो अपशब्द बोलने और सुनने का क्रम कभी नहीं थमेगा।

इसलिये अच्छा यही है कि अपने मुख मधुर और दूसरे को प्रसन्न करने वाले शब्द बोलें जाये। लिखने का सौभाग्य मिले तो पाठक का हृदय प्रफुल्लित हो उठे ऐसें शब्द लिखें। पूरे विश्व समुदाय में गाली गलौच का प्रचलन कोई अच्छी बात नहीं है। ब्रिटेन हो या भारत या अमेरिका इस तरह की प्रवृत्ति ही विश्व में तनाव पैदा कर रही है। हम आज आतंकवाद और मादक द्रव्यों से विश्व समुदाय को बचाने का प्रयास कर रहे हैं पर इसके के लिये यह जरूरी है कि अपने शब्द ज्ञान का अहिंसक उपयोग करें तभी अन्य को समझा सकते हैं।  शब्दों की अभिव्यक्ति  में अभद्रता और अश्लीलता का प्रदर्शन न केवल दूसरे को दुःख देता है बल्कि अपनी छबि भी ख़राब करता है.  
----------------------------------------
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
-------------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग ‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। मेरे अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख-पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्द योग

Monday, October 26, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-बड़े पद पर बने रहने की चिंता नीचे गिरा देती है

उच्चेरुच्चस्तरामिच्छन्पदन्यायच्छतै महान्।
नवैनींचैस्तरां याति निपातभयशशकया।।
हिंदी में भावार्थ-
जीवन में ऊंचाई प्राप्त करने वाला व्यक्ति महान पद् पर तो विराजमान हो जाता है पर उससे नीचे गिरने की भय और आशंका से वह नैतिक आधार पर नीचे से नीचे गिरता जाता है।
प्रमाणश्चधिकश्यापि महत्सत्वमधष्ठितः।
पदं स दत्ते शिरसि करिणः केसरी यथा।।
हिंदी में भावार्थ-
प्रमाणित योग्यता से अधिक पद की इच्छा करने वाला व्यक्ति भी उस महापद पर विराजमान हो जाता है उसी प्रकार जैसे सिंह हाथी पर अधिष्ठित हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समाज के सभी क्षेत्रों में शिखर पर विराजमान पुरुषों से सामान्य पुरुष बहुत सारी अपेक्षायें करते हैं। वह उनसे अपेक्षा करते हैं कि आपात स्थिति में उनकी सहायता करें। ज्ञानी लोग ऐसी अपेक्षा नहीं करते क्योंकि वह जानते हैं कि शिखर पर आजकल कथित बड़े लोग कोई सत्य या योग्यता की सहायता से नहीं पहुंचते वरन कुछ तो तिकड़म से पहुंचते हैं तो कुछ धन शक्ति का उपयोग करते हुए। ऐसे लोग स्वयं ही इस चिंता से दीन अवस्था में रहते हैं कि पता नहीं कब उनको उस शिखर से नीचे ढकेल दिया जाये। चूंकि उच्च पद पर होते हैं इसलिये समाज कल्याण का ढकोसला करना उनको जरूरी लगता है पर वह इस बात का ध्यान रखते हैं कि उससे समाज का कोई अन्य व्यक्ति ज्ञानी या शक्तिशाली न हो जाये जिससे वह शिखर पर आकर उनको चुनौती दे सके। उच्च पद या शिखर पर बैठे लोग डरे रहते हैं और डर हमेशा क्रूरता को जन्म देता है। यही क्रूरता ऐसे शिखर पुरुषों को निम्न कोटि का बना देती है अतः उनमें दया या परोपकार का भाव ढूंढने का प्रयास नहीं करना चाहिए।
यही हाल उन लोगों का भी है जिनको योग्यता से अधिक सम्मान या पद मिल जाता है। मायावी चक्र में सम्मान और पद के भूखे लोगों से ज्ञानी होने की आशा करना व्यर्थ है। उनको तो बस यही दिखाना है कि वह जिस पद पर हैं वह अपनी योग्यता के दम पर हैं और इसलिये वह बंदरों वाली हरकतें करते हैं। अपनी अयोग्यता और अक्षमता उनको बहुत सताती है इसलिये वह बाहर कभी मूर्खतापूर्ण तो कभी क्रूरता पूर्ण हरकतें कर समाज को यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि वह योग्य व्यक्ति हैं। ऐसे लोगों की योग्यता को अगर कोई चुनौती दे तो वह उसे अपने पद की शक्ति दिखाने लगते हैं। अपनी योग्यता से अधिक उपलब्धि पाने वाले ऐसे लोग समाज के विद्वानों, ज्ञानियों और सज्जन पुरुषों को त्रास देकर शक्ति का प्रदर्शन करते हैं। वह अपने मन में अपनी अयोग्यता और अक्षमता से उपजी कुंठा इसी तरह बाहर निकालते हैं। अतः जितना हो सके ऐसे लोगों से दूर रहा जाये। कहा भी जाता है कि घोड़े के पीछे और राजा के आगे नहीं चलना चाहिये। इस बात का ध्यान रखना चाहिये।
.................................
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://terahdeep.blogspot.com
----------------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Sunday, October 25, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-दुश्मन दो प्रकार के होते हैं (dushman ke prakar-hindu adhyatm sandesh)

उच्छेदापचयो काले पीडनं कर्षणन्तथा।
इति विधाविदः प्राहु, शत्रौ वृतं चतुविंघम्।।
हिंदी में भावार्थ-
उच्छेद, अपचय, समय पर पीड़ा देना और कर्षण यह चार प्रकार की स्थिति विद्वान बताते हैं।
सहज कार्यजश्वव द्विविधः शत्रु सच्यते।
सहज स्वकुलोत्पन्न कार्यजः स्मृतः।
हिंदी में भावार्थ-
शत्रु दो प्रकार के होते हैं-एक तो जो स्वाभाविक रूप से बनते हैं दूसरे वह जो कार्य से बनते हैं। स्वाभाविक शत्रु कुल में उत्पन्न होता है तो दूसरा अपने कार्य के कारण बन जाता है।
वर्तमान संबंध में संपादकीय-ऐसा कोई जीव इस प्रथ्वी पर नहीं है जिसका कोई शत्रु न हो। बड़े बड़े महापुरुष इस प्रकृत्ति के नियम का उल्लंघन नहीं कर पाये। शत्रु दो प्रकार के बनते हैं। एक तो जो स्वाभाविक रूप होते ही हैं दूसरे हमारे कार्य से बनते हैं। स्वाभाविक रूप शत्रु या विरोधी परिवार, समाज तथा कुल की वजह से बनते हैं। जैसे बिल्ली चूहे की तो कुत्ता बिल्ली का दुश्मन होता है। उसी तरह इंसानों में भी कुछ रिश्ते आपस में प्रतिस्पर्धा पैदा करते हैं। जहां कुल बड़ा होता है वहां आपस में लोग एक दूसरे के विरोधी या दुश्मन पैदा होते हैं। आपने देखा होगा कि किसी आदमी को तब हानि नहीं पहुंचाई जा सकती जब उसका अपना कोई शत्रु न हो। बड़े शत्रु को हराने के लिये छोटे शत्रु से समझौता करना चाहिये यह इसलिये कहा गया है कि क्योंकि दो शत्रुओं से एक साथ लड़ना संभव नहीं होता।

हम यहां शत्रु के साथ विरोधी की भी चर्चा करें तो बात आसानी से समझी जा सकती है। हम जब कोई अपना कार्य करते हैं तो वही कार्य करने वाला अन्य व्यक्ति स्वाभाविक रूप से हमें शत्रु भाव से देखता है। वह इस बात से आशंकित रहता है कि कहीं उसका प्रतिस्पर्धी उससे आगे न निकल जाये। तब वह इस बात का प्रयास भी करता है कि आपको नाकाम किया जाये, आपकी मजाक उड़ायी जाये और तमाम तरह का दुष्प्रचार कर आपका मनोबल गिराया जाये। वह आपके ही छोटे शत्रु या विरोधी को अपना मित्र बना लेता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि इस दैहिक जीवन में शत्रु या विरोधी से मुक्त रहना संभव नहीं है। अतः शत्रु और विरोधी की गतिविधियों को नजर रखें। वह आपकी उपेक्षा करने के साथ ही आपके कार्यसिद्धि के साधनों को हानि पहुंचा सकते हैं। शत्रु या विरोधी की प्रकृत्ति को समझें तो हमेशा सतर्क रहकर उसका मुकाबला कर सकते हैं। याद रहे आपके शत्रु या विरोधी कभी भी आपकी सफलता को न तो स्वीकार कर सकते हैं न ही पचा सकते हैं। इसलिए उनसे हमेशा सतर्क रहना चाहिए।
--------------------------
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://terahdeep.blogspot.com

......................................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Saturday, October 24, 2009

मनुस्मृति-जीवन निर्माण का कार्य दीमक से सीखें (manu smruti-jivan nirman)

दृढ़कारी भृदुदन्तिः क्रूराचारैरसंवसन्।
अहिंस्त्रों दमदानाभ्यां ज्येत्स्वर्ग तथावतः।।
हिंदी में भावार्थ-
दृढ़ निश्चय, स्वभाव से दयालु तथा आत्मसंयम रखने व्यक्ति ही स्वर्ग का अधिकारी बनता है अर्थात इस लोक में उसकी कीर्ति मरने के बाद भी बनी रहती है और वह स्वर्ग का अधिकारी भी बनता है।

धर्म शनै संचनुयाद्वल्मीकमिव पुत्तिकाः।
परलोक सहायार्थ सर्वभुतान्यपीडयन्ः।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस तरह दीमक अपने निवास के निर्माण के लिये धीरे धीरे बंाबी बनाती है उसी तरह परलोक में अपना जीवन सुधार हेतु किसी अन्य जीव को कष्ट पहुंचाये बिना पुण्य कर्मों का संग्रह करना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अपने जीवन में सफलता बहुत जल्दी पाने की उतावली सभी को होती है। आज के कंप्यूटर युग में हर कोई आगे बढ़ने के लिए संक्षिप्त मार्ग अपनाना चाहता है। चाहे जीवन में कामयाबी हो या स्वर्ग पाने का मोह हर आदमी यही सोचता है कि वह ऐसा काम करे जिससे आसानी से उसको लक्ष्य प्राप्त हो जाये।
दीमक अपने रहने के लिये बहुत धीरे धीरे घर बनाती है। उसी तरह सामान्य मनुष्य को जीवन में सफलता पाने के लिये संघर्ष करना पड़ता है। हमारे यहां खरगोश और कछुए की कहानी भी सुनाई जाती है। उसने यह जानते हुए भी खरगोश की चुनौती स्वीकार की कि वह तेज दौड़ता है। उसका विचार सही निकला खरगोश को अति आत्मविश्वास ले डूबा। जिसे पैतृक रूप से पैसा, पद और प्रतिष्ठा विरासत में नहीं मिली उसे तो इस बात का विचार भी नहीं करना चाहिये कि सभी कुछ जल्दी मिल जाये। एक आम व्यक्ति के रूप में हमेशा धीरे धीरे ही अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ते हुए जाने की सोचना ही अच्छा है। अगर सफलता के लिये उतावलापन दिखायेंगे तो नाकामी मिलेगी या फिर दूसरों के दबाव में गलत मार्ग का अनुसरण करना पड़ेगा। अपना लक्ष्य तय करने के बाद अपने कर्म में लगना चाहिये। समय आने पर उसका फल आवश्यक प्रकट होगा-इस विश्वास करना ही मनुष्यता का प्रमाण है।
यह धैर्य केवल जीवन में सफलता के लिये ही नहीं वरन् परलोक में अपना स्तर सुधारने के लिये भी आवश्यक है। याद रखिये दृढ़ निश्चय, अहिंसा और दया ही वह मार्ग है जिससे न केवल जीवन में सफलता मिलती है बल्कि उससे देह विसर्जन के बाद भी कीर्ति बनी रहती है। जिसने यहां लोगों के हृदय जीत लिये समझो स्वर्ग जीत लिया।
--------------------
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
-------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Friday, October 23, 2009

कौटिल्य दर्शन-बड़े पद से गिरने की चिंता और गिरा देती है (kautilya darshan-bada pad aur chinta)

प्रमाणश्चधिकश्यापि महत्सत्वमधष्ठितः।
पदं स दत्ते शिरसि करिणः केसरी यथा।।
हिंदी में भावार्थ-
प्रमाणित योग्यता से अधिक पद की इच्छा करने वाला व्यक्ति भी उस महापद पर विराजमान हो जाता है उसी प्रकार जैसे सिंह हाथी पर अधिष्ठित हो जाता है।
उच्चेरुच्चस्तरामिच्छन्पदन्यायच्छतै महान्।
नवैनींचैस्तरां याति निपातभयशशकया।।
हिंदी में भावार्थ-
जीवन में ऊंचाई प्राप्त करने वाला व्यक्ति महान पद् पर तो विराजमान हो जाता है पर उससे नीचे गिरने की भय और आशंका से वह नैतिक आधार पर नीचे से नीचे गिरता जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समाज के सभी क्षेत्रों में शिखर पर विराजमान पुरुषों से सामान्य पुरुष बहुत सारी अपेक्षायें करते हैं। वह उनसे अपेक्षा करते हैं कि आपात स्थिति में उनकी सहायता करें। ज्ञानी लोग ऐसी अपेक्षा नहीं करते क्योंकि वह जानते हैं कि शिखर पर आजकल कथित बड़े लोग कोई सत्य या योग्यता की सहायता से नहीं पहुंचते वरन कुछ तो तिकड़म से पहुंचते हैं तो कुछ धन शक्ति का उपयोग करते हुए। ऐसे लोग स्वयं ही इस चिंता से दीन अवस्था में रहते हैं कि पता नहीं कब उनको उस शिखर से नीचे ढकेल दिया जाये। चूंकि उच्च पद पर होते हैं इसलिये समाज कल्याण का ढकोसला करना उनको जरूरी लगता है पर वह इस बात का ध्यान रखते हैं कि उससे समाज का कोई अन्य व्यक्ति ज्ञानी या शक्तिशाली न हो जाये जिससे वह शिखर पर आकर उनको चुनौती दे सके। उच्च पद या शिखर पर बैठे लोग डरे रहते हैं और डर हमेशा क्रूरता को जन्म देता है। यही क्रूरता ऐसे शिखर पुरुषों को निम्न कोटि का बना देती है अतः उनमें दया या परोपकार का भाव ढूंढने का प्रयास नहीं करना चाहिए।
यही हाल उन लोगों का भी है जिनको योग्यता से अधिक सम्मान या पद मिल जाता है। मायावी चक्र में सम्मान और पद के भूखे लोगों से ज्ञानी होने की आशा करना व्यर्थ है। उनको तो बस यही दिखाना है कि वह जिस पद पर हैं वह अपनी योग्यता के दम पर हैं और इसलिये वह बंदरों वाली हरकतें करते हैं। अपनी अयोग्यता और अक्षमता उनको बहुत सताती है इसलिये वह बाहर कभी मूर्खतापूर्ण तो कभी क्रूरता पूर्ण हरकतें कर समाज को यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि वह योग्य व्यक्ति हैं। ऐसे लोगों की योग्यता को अगर कोई चुनौती दे तो वह उसे अपने पद की शक्ति दिखाने लगते हैं। अपनी योग्यता से अधिक उपलब्धि पाने वाले ऐसे लोग समाज के विद्वानों, ज्ञानियों और सज्जन पुरुषों को त्रास देकर शक्ति का प्रदर्शन करते हैं। वह अपने मन में अपनी अयोग्यता और अक्षमता से उपजी कुंठा इसी तरह बाहर निकालते हैं। अतः जितना हो सके ऐसे लोगों से दूर रहा जाये। कहा भी जाता है कि घोड़े के पीछे और राजा के आगे नहीं चलना चाहिये। बड़े लोगों में अपने पद, वैभव और शक्ति का अहंकार अवश्य होता है और रुष्ट होने पर वह हानि पहुंचा सकते हैं।
.................................
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
-------------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Thursday, October 22, 2009

रहीम संदेश-मतलब का प्यार कम होने लगता है (matlab ka pyar-rahim ke dohe)

कविवर रहीम कहते हैं कि
-----------------

वहै प्रीति नहिं रीति वह, नहीं पाछिलो हेत
घटत घटत रहिमन घटै, ज्यों कर लीन्हे रेत

स्वाभाविक रूप से जो प्रेम होता है उसकी कोई रीति नहीं होती। स्वार्थ की वजह से हुआ प्रेम तो धीरे धीरे घटते हुए समाप्त हो जाता है। जब आदमी के स्वार्थ पूरे हो जाते हैं जब उसका प्रेम ऐसे ही घटता है जैसे रेत हाथ से फिसलती है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-जीवन में कई ऐसे लोग आते हैं जिनका साथ हमें बहुत अच्छा लगता है और हम से प्रेम समझ बैठते हैं। फिर वह बिछड़ जाते हैं तो उनकी याद आती है और फिर एकदम बिसर जाते हैं। उनकी जगह दूसरे लोग ले लेत हैं। यह प्रेमी की ऐसी रीति है जो देह के साथ आती है। यह अलग बात है कि इसमेें बहकर कई लोग अपना जीवन दूसरे को सौंप कर उसे तबाह कर लेते हैं।

सच्चा प्रेम तो परमात्मा के नाम से ही हो सकता है। आजकल के फिल्मी कहानियों में जो प्रेम दिखाया जाता है वह केवल देह के आकर्षण तक ही सीमित है। फिर कई सूफी गाने भी इस तरह प्रस्तुत किये जाते हैं कि परमात्मा और प्रेमी एक जैसा प्रस्तुत हो जाये। सूफी संस्कृति की आड़ में हाड़मांस के नष्ट होने वाली देह में दिल लगाने के लिये यह संस्कृति बाजार ने बनाई है। अनेक युवक युवतियां इसमें बह जाते हैं और उनको लगता हैकि बस यही प्रेम परमात्मा का रूप है।

सच तो यह है परमात्मा को प्रेम करने वाली तो कोई रीति नहीं है। उसका ध्यान और स्मरण कर मन के विकार दूर किये जायें तभी पता लगता है कि प्रेम क्या है? यह दैहिक प्रेम तो केवल एक आकर्षण है जबकि परमात्मा के प्रति ही प्रेम सच्चा है क्योंकि हम उससे अलग हुई आत्मा है। सांसरिक प्रेम को लेकर जितनी भी बातें कही और लिखी जाती हैं वह केवल मनोरंजन के लिए हैं उनका कोई तार्किक और आध्यात्मिक आधार नहीं होता।
------------------------------------
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथि’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग शब्दलेख सारथि
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Wednesday, October 21, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-कभी कटु वाणी न बोलें (katu vani n bolen-hindu adhyatm sandesh)

हृदि विद्ध इवात्यर्थ यदा सन्तप्यते जनः।
पीडितोऽपि हि न मेघावीन्तां वाचमुदीरयेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
क्रूर वाणी से हर आदमी का मन त्रस्त हो जाता है इसलिये विद्वान लोगों को चाहिए कि वह कठोर वाणी न बोलें। भले ही अन्य लोग अपनी कठोर वाणी से संताप देते रहें।
अनिन्दापरकृत्येषु स्वधम्र्मपरिपालनम्।
कृपणेषु दयालुत्वं सव्र्वत्र मधुरा गिरः।।
हिंदी में भावार्थ-
दूसरे के कार्य की निंदा न करते हुए अपना धर्म पालन करना , दीनों पर दया करना तथा मीठे वचनों से दूसरों को तृप्त करना ही धर्म है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस दुनियां में प्रचलित अनेक धर्मों की व्याख्या करती हुई अनेक किताबें मौजूद हैंे पर फिर भी अशांति व्याप्त है। कहीं आतंकवाद है तो कहीं युद्ध की आशंकायें। इसके अलावा लोगों के अंदर मानसिक तनाव की ऐसी धारा प्रवाहित हो रही है जिससे किसी की मुक्ति नहीं है। दरअसल धर्म के नाम सभी जगह भ्रम फैलाया जा रहा है। कहने को तो कहा जाता है कि हिन्दू धर्म है पर वास्तव में यह एक जीवन शैली है। वैसे हिन्दू धर्म के नाम पर कर्मकांडों का प्रचार भी भ्रम से कम नहीं है। धर्म का मूल स्वरूप इतना बड़ा और कठिन नहीं है जितना बताया जाता है। धर्म से आशय यह है कि हम मनुष्य हैं और न केवल अपनी देह का पालन करें बल्कि दूसरों की भी सहायता करें, किसी को कष्ट न पहुंचायें। सभी को अपनी मधुर वाणी से प्रसन्न करते हुए अपनी मनुष्य यौनि का का आनंद उठायें।
मगर इसके विपरीत धर्म के नाम पर भ्रम का प्रचार करने वाले लोगों की कमी नहीं है, जो यह बताते हैं कि कर्मकांड करने पर स्वर्ग मिलता है। कई तो ऐसे भी हैं जो बताते हैं कि यह खाओ, यह पहनो, इस तरह चलो तो स्वर्ग मिलेगा। स्वर्ग की यह कपोल कल्पना आदमी की बुद्धि को बंधक बनाये रखती है और धर्म के ठेकेदार अपने इन्हीं बंधकों के सहारे राज्य कर रहे हैं। कई तो ऐसे भी हैं जो अपने धर्म का राज्य लाने के लिये प्रयत्नशील हैं तो कुछ ऐसे है जो तमाम तरह की किताबों से ज्ञान उठाकर बताते हैं कि उनका धर्म श्रेष्ठ है। सच तो यह है कि धर्म से आशय केवल इतना ही है कि अपने कर्तव्यों का पालने करते हुए दूसरे पीड़ितों की भी मदद करें। हमेशा ही मधुर वाणी में बोलें और यह सिद्ध करें कि आपको परमात्मा ने जो जिव्हा दी है उसका आप सदुपयोग कर रहे हैं।
दूसरे की निंदा कर अपने को श्रेष्ठ साबित करना या कड़े शब्दों का उपयोग कर किसी को दुःख देना तो बहुत आसान है मुश्किल तो दूसरे को खुश करने में आती है जो कि धर्म का सबसे बड़ा परिचायक है। स्वयं बेहतर काम कर अपने धर्म पर दृढ़ होने का प्रमाण दिया जाता है, जबकि कहने और करने में अंतर रखकर अपने को पाखंडी ही साबित किया जा सकता है।
-----------------------------
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
---------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Tuesday, October 20, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-दिल न मिले तो निकट बैठा आदमी भी दूर लगता है (dil aur doori-adhyatm sandesh in hindi)

विरहेऽपि संगमः खलु परस्परं संगतं मनो येषाम्
हृदयमपि विघट्ठितं चित्संगी विरहं विशेषयति

हिंदी में भावार्थ-जिनके हृदय आपस में मिले हों वह विरह होने पर साथ रहने की अनुभूति करते हैं और जिनके मन न मिलते हों वह साथ भी रहें तो ऐसा लगता है कि बहुत दूर हैं।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सारी दुनियां में प्रेम का संदेश फैलाया जाता है पर सच यह है कि प्रेम वह भाव है जो स्वाभाविक रूप से होता है। प्रेम में अगर कोई दैहिक,आर्थिक या सामाजिक स्वार्थ हो तो वह प्रेम नहीं रहता। ऐसे स्वार्थ के संबंध आदमी एक दूसरे से निभाते हैं पर उनमें आपस में हार्दिक प्रेम हो यह समझना गलत है। हमारा अध्यात्म दर्शन स्पष्ट रूप से कहता है कि प्रेम दो अक्षरों का सीमित अर्थ वाला शब्द नहीं है बल्कि उसका आधार व्यापक है। जो व्यक्ति एक दूसरे के प्रति निस्वार्थ भाव रखते हैं वही प्रेम करते हैं।
वैसे आजकल प्रेम का शब्द चाहे जहां सुनाई देता है पर उसका भाव कोई जानता हो यह नहीं लगता। आजकल तो प्रेम स्त्री पुरुष के दैहिक संबंधों तक ही सीमित माना जाता है। कभी प्रेम दिवस तो कभी मित्र दिवस के नाम पर युवक युवतियों की दैहिक भावनाओं को भड़काने के लिये तमाम तरह के प्रयास उनको बाजार के उत्पादों के प्रयोक्ता बनाने के लिये किये जाते हैं पर यह क्षणिक आकर्षण कभी प्रेम नहीं होता। अनेक ऐसे प्रसंग भी सामने आते हैं जब कथित प्रेम के आकर्षण में फंसकर युवक युवती विवाह कर लेते हैं पर बाद में घर गृहस्थी के बोझ तले दोनों एक दूसरे के लिये अपरिचित होते जाते हैं। जहां हृदय के प्रेम की बात होती थी वहां जब अन्य जरूरतों की पूर्ति के लिये संघर्ष की बात आती है तो सब कुछ हवा हो जाता है। ऐसे तनाव होता है कि एक छत के नीचे रहने वाले पति पत्नी एक दूसरे के लिये दूर हो जाते हैं।
नौकरी और व्यापार में अनेक लोगों से संपर्क प्रतिदिन बनता है पर सभी मित्र या प्रेमी नहीं बन जाते। कई बार तो ऐसा होता है कि अपने परिवार के सदस्यों से अधिक अपने निकट सहकर्मियों या निकटस्थ लोगों के साथ समय व्यतीत होता है पर फिर भी वह अपने नहीं बन पाते। उनसे मानसिक दूरी बनी रहती है। इसके विपरीत परिवार के सदस्य दूर हों तो भी हृदय के निकट होते हैं।
--------------------------
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.‘शब्दलेख सारथी’
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Monday, October 19, 2009

कौटिल्य दर्शन-हमेशा उद्यमशील बने रहें (hamesha udyam karen-hindu adhyatm sandesh)

भोक्तं पुरुषकारेण दृष्टसित्रयमिव वियम्।
व्यवसायं सदैवेच्छेन्न हि कलीववदाचरेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
दुष्ट स्त्री के समान धन पाने की इच्छा यानि लक्ष्मी को पुरस्कार से भोगने के लिये सदा उद्योग करते रहें। कभी आलस्य न करें।
प्रयत्नप्रेर्यर्वमणेन महता चितहस्तिना।
रूढ़वैरिद्रु मोत्खतमकृत्देव कुतः सुखम्।।
हिंदी में भावार्थ-
चित्त रूपी हाथी को अपने नियंत्रण में करने के प्रयास के साथ ही वैर रूपी वृक्ष को उखाउ़ फैंके बिना भला सुख कहां प्राप्त हो सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह सच है कि जीवन में मानसिक शांति के लिये अध्यात्मिक ज्ञान आवश्यक है पर दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति और सांसरिक दायित्वों के निर्वहन के लिये धन की आवश्यकता होती है। इसकी प्राप्ति के लिये भी उद्योग करना चाहिये। कभी जीवन में आलस्य न करें। भगवान श्री कृष्ण ने भी गीता में यही कहा है कि अपने सांसरिक कर्म करते हुए भक्ति करने के साथ ही ज्ञान प्राप्ति का प्रयास करें। निष्काम कर्म का श्रीगीता में आशय अक्सर गलत बताया जाता है। सच तो यह है उसमें धन की उपलिब्धयों को फल नहीं माना गया बल्कि उनसे तो सांसरिक कार्य का ही हिस्सा कहा जाता है। अपने परिश्रम से जो धन प्राप्त होता है उससे हम दूसरे दायित्वों का निर्वहन करते हैं। वह अपने साथ नहीं ले जाते इसलिये उसे फल नहीं मानना चाहिये। सांसरिक कार्य के लिये धन जरूरी है और उसी से ही दान और यज्ञ भी किये जाते हैं।

इसके अलावा अपने मन में दूसरे की भौतिक उपलब्धियां देखकर निराशा या बैर नहीं पालना चाहिये। हमारे मानसिक दुःख का कारण यही है कि हम दूसरों के प्रति अनावश्यक रूप से द्वेष और बैर पाल लेते हैं। उनसे अगर विरक्त हो जायें तो आधा दुःख तो वैसे ही दूर हो जाये। जब हम दूसरों की उपलब्धि या सफलता देख कर दु:खी या कुंठित होते हैं तो हमारा शरीर तनाव और आलस्य का शिकार हो जाता है जिससे हम अपना काम न करने के कारण नाकामी झेलते हैं।
..................................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Saturday, October 17, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-नीच गुणों वाले से मेल नहीं हो सकता (kautilya ka arthshastra in hindi)

निरालोके हिः लोकेऽस्मिन्नासते तत्रपण्डिताः।
जात्यस्य हिं मणेयंत्र काचेन समता मताः।।
हिंदी में भावार्थ-
जो व्यक्ति ज्ञान के अंधेरे में रहते हैं उनके समीप विद्वान लोग नहीं बैठते। जहां भला मणि हो वहां कांच के साथ कैसा व्यवहार किया जा सकता है।
उतमाभिजनोपेतानम न नीचैः सह वर्द्धयेतु।
कृशीऽपि हिवियेकहो याति संश्रयणीयाताम्।।
हिंदी में भावार्थ-
जो उत्तम गुणों वाले हों उनको नीच गुणों वालों से मेल नहीं करना चाहिये। इसमें संदेह नहीं है कि संकट में आये उत्तम गुणी विद्वान को राज्य का आश्रय अवश्य प्राप्त होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आदमी को अपने गुणों की पहचान करते हुए समान गुणों वाले लोगों से ही मेल मिलाप करना चाहिये। अगर कोई व्यक्ति अधिक शिक्षित व्यक्ति है और वह अशिक्षितों में बैठकर अपने ज्ञान का बखान करता है तो वह लोग उसकी मजाक बनाते हैं। कई तो कह देते हैं कि ‘पढ़े लिखे आदमी किस काम के?’
उसी तरह अशिक्षित व्यक्ति जब शिक्षितों के साथ बैठता है तो वह उसकी मजाक उड़ाते हैं कि देखोे बेचारा यह पढ़ नहीं पाया। इस तरह समान स्तर न होने पर आपस में एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति मनुष्य में स्वाभाविक रूप से होती है।
कहने को कहा जाता है कि यहां झूठे आदमी का बोलबाला है पर यह एक वहम है। अगर व्यक्ति शिक्षित, ज्ञानी और कर्म में निरंतर अभ्यास में रत रहने वाला है तो विपत्ति आने पर उसे राज्य का संरक्षण अवश्य प्राप्त होता है। बेईमानी, भ्रष्टाचार और अनैतिक व्यापार करने वालों को हमेशा राज्य से भय लगा रहता है। उनके पास बहुत सारा धन होने के बावजूद उनका मन अपने पापों से त्रस्त रहता है। कहते हैं कि पाप की हांडी कभी न कभी तो फूटती है। यही हालत अनैतिक आचरण और कर्म से कमाने वालों की है। वह अगर इस प्रथ्वी के दंड से बचे भी रहें तो परमात्मा के दंड से बचने का उनके पास कोई उपाय नहीं है। वह अनैतिक ढंग से धन कमाकर अपने परिवार का भरण भोषण करते हैं पर उनके साथ शारीरिक विकार लगे रहते हैं। इसके अलावा उनके काले धन के प्रभाव से उनके परिवार के सदस्यों का आचरण भी निकृष्टता और अहंकार से परिपूर्ण हो जाता है जिसका बुरा परिणाम आखिर उनको ही भोगना पड़ता है।
उसी तरह जो लोग अपने जीवन में नैतिकता और ईमानदारी के सिद्धांतों का पालन करते हैं उनके परिवार सदस्यों पर भी उसका अच्छा प्रभाव पड़ता है। चाहे लाख कहा जाये सत्य के आगे झूठ की नहीं चल सकती जैसे मणि के आगे कांच का कोई मोल नहीं रह जाता।  उसी  तरह उच्च गुणों सा संपन्न  लोगों की अपने से विपरी संस्कार वालों से मेल नहीं हो सकता।
  --------------------------------
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

................................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग'शब्दलेख सारथी' पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Thursday, October 15, 2009

विदुर नीति-दूसरे लोगों के घरों में झगड़ा न करायें (vidur niti in hindi)

मद्यपापनं कलहं पुगवैरं भार्यापत्योरंतरं ज्ञातिभेदम्।
राजद्विष्टं स्त्रीपुंसयोर्विवादं वज्र्यान्याहुवैश्चं पन्थाः प्रदुष्टः।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर कहते हैं कि शराब पीना, कलह करना, अपने समूह के साथ शत्रुता, पति पत्नी और परिवार में भेद उत्पन्न करना, राजा के साथ क्लेश करने तथा किसी स्त्री पुरुष में झगड़ा करने सहित सभी बुरे रास्तों का त्याग करना ही श्रेयस्कर  है।
सामुद्रिकं वणिजं चोरपूर्व शलकाधूर्तं च चिकित्सकं सं।
अरि च मित्रं च केशलीचवं च नैतान् त्वधिकुवीत सप्तः।।
हिंदी में भावार्थ-
नीतिवेता विदुर कहते हैं कि हस्तरेखा विशेषज्ञ, चोरी का व्यापार करने वाला,जुआरी,चिकित्सक,शत्रु,मित्र और नर्तक को कभी अपना गवाह नहीं बनायें।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कभी अगर किसी मुकदमे का सामना करना पड़े तो ऐसे व्यक्ति को ही अपना गवाह बनाना चाहिये जो सत्य कहने के साथ अपना न तो आत्मीय मित्र हो न ही शत्रु। इसके अलावा कुछ व्यवसायों में कुशल लोगों-चिकित्सक,हस्तरेखा विशेषज्ञ,नर्तक,जुआरी, तथा चोरी का व्यापार करने वाले को भी अपना गवाह नहीं बनाना चाहिये। दरअसल मित्र जहां हमारे दोषों को जानते हैं पर कहते नहीं है पर जब वह कहीं गवाही देने का समय आये तो उनकी दृष्टि में हमारे दोष भी आते हैं इसलिये भावनात्मक रूप से हमारे हितैषी होने के बावजूद वह वाणी से हमारी दृढ़ता पूर्वक समर्थन नहीं कर पाते या वह लड़खड़ाती है।
शराब पीना तो एक बुरा व्यसन है पर साथ दूसरे घरों में पति पत्नी या परिवार के अन्य सदस्यों के बीच भी झगड़ा कराना एक तरह से पाप है। अनेक जगह लोग स्त्रियों और पुरुषों के बीच झगड़ा कराने के लिये तत्पर रहते हैं। इस तरह का मानसिक विलास भी एक बुरा काम है और इनसे बचना चाहिये। यह न केवल दूसरे के लिए बल्कि कालांतर में अपने लिए भी कष्टकारक बनता है।
--------------------------------------------------
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh.blogspot.com
------------------------------------------------------

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Wednesday, October 14, 2009

चाणक्य नीति-कपटी होने पर भी विद्वान पशु समान (kapti vidavan pashu saman-chankya niti

नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि 
------------------------------------------
परकार्यविहन्ता च दाम्भिकः स्वार्थसाधकः।
छली द्वेषी मृदः क्रूरो विप्रो मार्जार उच्यते।।
हिंदी में भावार्थ-
जो मनुष्य दूसरे के कार्यों को बिगाड़ने वाला, पाखंडी, अपना मतलबी साधने वाला, छलिया, दूसरों की उन्नति देखकर जलने वाला तथा बाहर से कोमल और अंदर कपट भाव रखने वाला है वह भले ही विद्वान क्यों न हो पशु के समान है।
चापी-कूप-तडागानामाराम-सुर-वेश्मनाम्।
उच्छेद निरऽऽशंकः स विप्रो म्लेच्छ उच्यते।।
हिंदी में भावार्थ-
जो मनुष्य बावड़ी, कुआं तालाब, बगीचे और धर्म स्थानों में तोड़फोड़ और उनको नष्ट करने से जो डरते नहीं है वह भले ही विद्वान हों म्लेच्छ कहलाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सभी को अपने जीवन में अपना स्वयं के धर्म और कर्म केंद्रित करना चाहिये। कुछ ऐसे मनुष्य भी हैं जो केवल धर्म का दिखावा करते हैं पर उनका लक्ष्य उसकी आड़ में व्यवसाय या उसके सहारे अपना समाज पर वर्चस्व स्थापित करना है। ऐसे लोग धर्म के आधार पर निकृष्ट कर्म करते हैं जो केवल पाप की श्रेणी में आते हैं। हालांकि कहा जाता है अशिक्षित और गंवार लोग ही ऐसे हैं जो धर्म की आड़ में पाप काम करते हैं पर चाणक्य महाराज की बात को देखें तो यह काम पहले भी विद्वान और शिक्षित लोगों के द्वारा होता रहा है। बस अंतर इतना है कि अब यह काम केवल विद्वान आर शिक्षित लोग ही कर नजर आते हैं। कथित अशिक्षित और गंवार लोगों को तो अपनी रोजी रोटी कमाने से ही आजकल फुरसत कहां मिल पाती है?
देश, प्रदेश, और शहर की संपत्ति और धार्मिक स्थानों पर तोड़फोड़ करने वाले भारी पाप करते हैं और उनको एक तरह से म्लेच्छ कहा जाता है। चाहे अपने धर्म का हो या दूसरे धर्म का उसमें तोड़फोड़ करने वाले महापापी हैं और उनका कभी समर्थन न करे। ऐसे लोग धर्म के नाम पर विवाद कर समाज का ध्यान अपनी ओर ध्यान आकर्षित कर उसका लाभ उठाते हैं। अगर हम उनकी तरफ देखें तो भी समझ लेना चाहिये कि पाप हो गया।
................................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Sunday, October 11, 2009

कबीरदास के दोहे-देह जंगल और मन हाथी है (kabir das ke dohe-man hathi hai)

काया कजरी बन अहै, मन कुंजर महमन्त।
अंकुस ज्ञान रतन है, फेरै साधु संत।।

संत शिरामणि कबीरदास जी का यह आशय है कि यह शरीर तो जंगल की तरह जिसमें मन रूपी हाथी मस्ती से विचरण करता है। उस पर ज्ञान रूपी अंकुश ही नियंत्रण रख सकता है वरना तो यह साधु और संतों को भी विचलित कर देता है।
काया देवल मन धजा, विषय लहर फहराय।
मन चलते देवल चले, ताका सरबय जाय।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि शरीर देवालय और मन झंडे की तरह है। विषय लहरों की तरह हैं। चंचल मन के वेग से देवालय यानि यह शरीर भी चलायमान होता है। अंततः सब नष्ट हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-मनुष्य का मन ऐसी शय है जिस पर नियंत्रण कर लिया जाये तो फिर वह नियंत्रणकर्ता का गुलाम बन जाता है। इसी प्रवृत्ति के कारण विज्ञापन एक व्यवसाय बन गया है। आधुनिक संचार माध्यमों ने तो एक तरह से मनुष्य को गुलाम बना दिया है। जिस उत्पाद का विज्ञापन आधुनिक संचार माध्यमों में दिखता है उसकी बिक्री बढ़ जाती है। कोई गाना आदमी सुनता है तो उसे गुनगुनाने लगता है। कहने का तात्पर्य है कि इस मायावी संसार में मायापति अब विज्ञापन के जरिये ही मनुष्य को उपभोक्ता बनाकर उसे अपने नियंत्रण में लेते हैं।
हमारे समाज पर फिल्मों का बहुत प्रभाव पड़ता है इसी कारण उसमें जो दिखाया जाता है लोग उसे ही सच मान लेते हैं। काल्पनिक पात्रों का अभिनय करने वाले कलाकार आजकल नये भगवान बन गये हैं। वह भारतीय जनमानस पर ऐसे छाये हुए हैं कि व्यवसायिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक क्षेत्र के शिखर पुरुष भी इन अभिनेताओं के साथ फोटो खिंचवाकर अपने को धन्य समझते हैं-केवल इस कारण कि आम जनमानस उनका भी चेहरा अवश्य देखेंगे। अनेक विचार समूह इन्हीं फिल्मों के जरिये अप्रत्यक्ष रूप से इन्ही फिल्मों और धारावाहिकों के जरिये अपना प्रचार कर रहे हैं। इन फिल्मों और धारावाहिकों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष से प्रायोजित करने वाले व्यवसायी अपने धार्मिक, सामाजिक, तथा आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं। इसके लिये अब उनको अलग से प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। वजह यह है कि भारतीय जनमानस अपने अध्यात्मिक ज्ञान से परे हो गया है और काल्पनिक पात्रों में ही अपना अस्तित्व ढूंढने का प्रयास करता है और इसी कारण वह आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक रूप से गुलाम बना हुआ है। सभी जानते हैं कि बाजार पर केवल स्वार्थी लोगों का नियंत्रण है पर फिर भी उसके प्रचार में बह जाते हैं। इनसे अपने मन को बचाने के लिये अंकुश केवल भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान ही है पर वह तभी अपने हाथ में आ सकता है जब उसके लिये थोड़ा प्रयास किया जाये।
........................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Tuesday, October 06, 2009

चाणक्य दर्शन-बिना ज्ञान मनुष्य जल्दी नष्ठ हो जाता है (chankya niti-bina gyan)

नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि
------------------------
हर्त ज्ञार्न क्रियाहीनं हतश्चाऽज्ञानतो नर।
हर्त निर्नायकं सैन्यं स्त्रियो नष ह्यभर्तृकाः ।।

हिंदी में भावार्थ- जिस ज्ञान को आचरण में प्रयोग न किया जाये वह व्यर्थ है। अज्ञानी पुरुष हमेशा ही संकट में रहता हुआ ऐसे ही शीघ्र नष्ट हो जाता है जैसे सेनापति से रहित सेना युद्ध में स्वामीविहीन स्त्री जीवन में परास्त हो जाती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- मनुष्य का सेनापित उसका ज्ञान होता है। उसके बिना वह किसी का गुलाम बन जाता है या फिर पशुओं की तरह जीवन जीता है। ज्ञान वह होता है जो जीवन के आचरण में लाया जाये। खालीपीली ज्ञान होने का भी कोई लाभ नहीं है जब तक उसको प्रयोग में न लाया जाये। हमारे देश में ज्ञानोपदेश करने वाले ढेर सारे लोग है जो ‘दान, तत्वज्ञान, तपस्या, धर्म, अहिंसा, प्रेम, और भक्ति की महिमा’ का बखान करते हैं पर उनका जीवन उसके विपरीत विलासिता, धन संग्रह, और अपने बड़े होने के अभिमान में व्यतीत होता है। देखा जाये तो उनके लिये ज्ञान विक्रय और उनके अनुयायियों के लिये क्रय की वस्तु होती है। उसके आचरण से न तो गुरु का और न ही शिष्य का लेना देना होता है।

यही कारण है कि हमारा समाज जितना धार्मिक माना जाता है उतना ही व्यवसायिक भी। भारतीय प्राचीन ग्रथों का तत्वज्ञान का मूल सभी जानते हैं पर उसके भाव को कोई नहीं जानता। अनेक गुरु ज्ञानोपदेश करते हुए बीच में ही यह बताने लगते हैं कि ‘धर्म के प्रचार के लिये धन की आवश्यकता है’। वह अपने भक्तों में दान और त्याग का भाव पैदा कर अपने लिये धन जुटाते है। भक्त भी अपने मन में स्थित दान भाव की शांति के लिये उनकी बातों में आकर अपनी जेब ढीली कर देते हैं। कथित गुरु अपने शिष्यों को ज्ञान के पथ पर लाकर उनका भौतिक दोहन कर फिर उनको अज्ञान के पथ पर ढकेल देते हैं। यही कारण है कि अध्यात्मिक गुरु कहलाने वाला अपना देश भौतिकता के ऐसे जंजाल में फंस कर रह गया है जहां विकास केवल एक नारा है जिसकी अंतिम मंजिल विनाश है। इसलिये जितना हो सके सांसरिक अनुभव के साथ आध्यात्म्कि ज्ञान भी प्राप्त किया जाये अच्छा होगा।
...............................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग ‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। मेरे अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख-पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्द योग
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Monday, October 05, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-हाथी की तरह तीक्ष्ण दृष्टि रखें (hathi ki nazar-hindi sandesh

यद चेतनोऽपिपादैः स्पृष्टः प्रज्वलति सवितुरिनकान्तः।
तत्तेजस्वी पुरुषः परकृत निकृतिंक कथं सहते ।।
हिंदी में भावार्थ-
सूर्य की रश्मियों के ताप से जब जड़ सूर्यकांन्त मणि ही जल जाती है तो चेतन और जागरुक पुरुष दूसरे के द्वारा किये अपमान को कैसे सह सकता है।

लांगल चालनमधश्चरणावपातं भू मौ निपत्य बदनोदर दर्शनं च।
श्चा पिण्डदस्य कुरुते गजपुंगवस्तु धीरं विलोकपति चाटुशतैश्चय भुंवते।।
हिंदी में भावार्थ-
श्वान भोजने देने वाले के आगे पूंछ हिलाते हुए पैरों में गिरकर पेट मूंह और पेट दिखाते हुए अपनी दीनता का प्रदर्शन करता है जबकि हाथी भोजन प्रदान करने वालो को गहरी नजर से देखने के बाद उसके द्वारा आग्रह करने पर ही भोजन ग्रहण करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भले ही आदमी के पास अन्न और धन की कमी हो पर मनुष्य को स्वाभिमानी होना चाहिए नहीं तो अधिक धनवान, उच्च पदस्थ तथा बाहूबली लोग उसे गुलाम बनाये रखने के लिये हमेशा तत्पर रहते हैं। आजकल सुख सुविधाओं ने अधिकतर लोगों को शारीरिक और मानसिक तौर से सुस्त बना दिया है इसलिये वह उन्हें बनाये रखने के लिये अपने से अधिक शक्तिशाली लोगों की चाटुकारिता में लगना अपने लिये निज गौरव समझते हैं। यही कारण है कि निजी क्षेत्र में स्त्रियों और पुरुषों का शोषण बढ़ रहा है। हमारे यहां की शिक्षा कोई उद्यमी नहीं पैदा करती बल्कि नौकरी के लिये गुलामों की भीड़ बढ़ा रही है। कितनी विचित्र बात है कि आजकल हर आदमी अपने बच्चे को इसलिये पढ़ाता है कि वह कोई नौकरी कर अपने जीवन में अधिकतम सुख सुविधा जुटा सके। ऐसे में बच्चों के अंदर वैसे भी स्वाभिमान मर जाता है। उनका अपने माता पिता और गुरुजनों से अच्छा गुलाम बनने की प्रेरणा ही मिलती है।

ऐसी स्थिति में हम अपने देश और समाज के प्रति कथित रूप से जो स्वाभिमान दिखाते हैं पर काल्पनिक और मिथ्या लगता है। स्वाभिमान की प्रवृत्ति तो ऐसा लगता है कि हम लोगों में रही नहीं है। ऐसे मेें यही लगता है कि हमें अब अपने प्राचीन साहित्य का अध्ययन भी करते रहना चाहिये ताकि पूरे देश में लुप्त हो चुका स्वाभिमान का भाव पुनः लाया जा सके।
.................................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Saturday, October 03, 2009

चाणक्य नीति-बैर रुपी वृक्ष को उखाडे बिना शान्ति कहाँ (chankya sandesh in hindi)

प्रयत्नप्रेर्यर्वमणेन महता चितहस्तिना।
रूढ़वैरिद्रु मोत्खतमकृत्देव कुतः सुखम्।।
हिंदी में भावार्थ-
चित्त रूपी हाथी को अपने नियंत्रण में करने के प्रयास के साथ ही वैर रूपी वृक्ष को उखाउ़ फैंके बिना भला सुख कहां प्राप्त हो सकता है।
भोक्तं पुरुषकारेण दृष्टसित्रयमिव वियम्।
व्यवसायं सदैवेच्छेन्न हि कलीववदाचरेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
दुष्ट स्त्री के समान धन पाने की इच्छा यानि लक्ष्मी को पुरस्कार से भोगने के लिये सदा उद्योग करते रहें। कभी आलस्य न करें।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह सच है कि जीवन में मानसिक शांति के लिये अध्यात्मिक ज्ञान आवश्यक है पर दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति और सांसरिक दायित्वों के निर्वहन के लिये धन की आवश्यकता होती है। इसकी प्राप्ति के लिये भी उद्योग करना चाहिये। कभी जीवन में आलस्य न करें। भगवान श्री कृष्ण ने भी गीता में यही कहा है कि अपने सांसरिक कर्म करते हुए भक्ति करने के साथ ही ज्ञान प्राप्ति का प्रयास करें। निष्काम कर्म का श्रीगीता में आशय अक्सर गलत बताया जाता है। सच तो यह है उसमें धन की उपलिब्धयों को फल नहीं माना गया बल्कि उनसे तो सांसरिक कार्य का ही हिस्सा कहा जाता है। अपने परिश्रम से जो धन प्राप्त होता है उससे हम दूसरे दायित्वों का निर्वहन करते हैं। वह अपने साथ नहीं ले जाते इसलिये उसे फल नहीं मानना चाहिये। सांसरिक कार्य के लिये धन जरूरी है और उसी से ही दान और यज्ञ भी किये जाते हैं।

इसके अलावा अपने मन में दूसरे की भौतिक उपलब्धियां देखकर निराशा या बैर नहीं पालना चाहिये। हमारे मानसिक दुःख का कारण यही है कि हम दूसरों के प्रति अनावश्यक रूप से द्वेष और बैर पाल लेते हैं। उनसे अगर विरक्त हो जायें तो आधा दुःख तो वैसे ही दूर हो जाये। दूसरों के सुख को देखकर दु:खी होना ही हमारे लिए तनाव का कारण बनता है और अगर यह प्रुवृति छोड़ दें तो ही अच्छा है।
..................................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Friday, October 02, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-इस धरती पर सभी जीवों की प्रकृति अलग अलग (hindu sandesh in hindi)

वैराग्ये संचरत्तयेको नीतौ भ्रमति चापरः
श्रृंगारे रमते कश्चिद् भुवि भेदाः परस्परम्

इस दुनियां में कोई वैरागी होकर मोक्ष प्राप्त करना चाहता तो कोई नीति शास्त्र का अध्ययन कर रहा है कोई कोई तो श्रृंगार रस का आनंद उठा रहा है। इस भूमि पर रहने वाले प्राणियों के स्वभाव अलग अलग हैं।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-पांचों उंगलियां बराबर नहीं हैं। प्रकृत्ति में जो विविधता है उसी में संसार को चलने वाली प्रक्रिया में सामंजस्य छिपा हुआ है। अगर पांचों उंगलियां बराबर होती तो शायद इंसान काम नहीं कर पाता। आज कंप्यूटर युग में जरा अपनी उंगलियों का अवलोकन करें। अगर उंगलियां बराबर होती तो क्या इसके कीबोर्ड पर काम किया जा सकता था? कतई नहीं! उंगलियां छोटी बड़ीं हैं इसलिये कीबोर्ड पर नाचते समय आपस में नहीं टकराती। हम उन्हें पंक्ति में एक साथ इसलिये खड़ा कर पाते हैं क्योंकि वह छोटी बड़ीं हैं। अगर कल्पना करें यह समान लंबाई की होती तो इन्हें एक पंक्ति में खड़ा कर काम नहीं कर सकते थे। हमारे पांवों की उंगलियां भी बराबर नहीं हैं। अगर वह बराबर होती तो हम अपनी देह के बोझ को उन पर खड़ा नहीं कर पाते। यह विविधता ही शरीर को लचीला बनाये रखते है।
इसी तरह जीवों के स्वभाव की विविधता की वजह से ही यह संसार चल रहा है। यह अंतर मनुष्यों में भी है। कुछ लोगों का स्वभाव हमें रास नहीं आता पर उस पर चिढ़+ना नहीं चाहिए। सभी लोगों के स्वभाव के साथ सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास ही जीवन में प्रसन्नता का बोध करा सकता है। यहां हर व्यक्ति अपने स्वभाव के वश होकर अपना कर्म करता है। इसे हम ऐसा भी कहते हैं कि हर व्यक्ति को उसका स्वभाव अपने वश में कर किसी कार्य करने के लिये प्रेरित करता है। उसी के अनुसार उसे फल प्राप्त होता है।  सभी मनुष्य एक जैसा काम एक जैसे करें यह संभव नहीं है।                                                   
  .......................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Thursday, October 01, 2009

कबीरदास जी के दोहे-गालियों से क्लेश पैदा होता है (kabirdas ji ke dohe-gaaliyon se hota hai klesh

गारी ही से ऊपजै,कलह कष्ट और मीच।
हारि चले जो सन्त है, लागि मरै सो नीच।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि गालियां बकने से ही कलह और कष्ट पैदा होता है। गाली सुनकर जो उसका जवाब न दे वह संत और जो लड़ मरे वह नीच है।

आवत गारी एक है, उलटत होय अनेक।
कहैं कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब गाली आती है तो एक ही होती है पर उसका जवाब देने पर उसकी संख्या बढ़ती जाती है। अगर कोई मूर्ख आदमी गाली बकता है तो बुद्धिमान का काम है कि वह चुप हो जाये तो एक ही गाली होकर रह जायेगी।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-गालियां देना एक तरह से फैशन हो गया है। अपढ़ या गंवार ही नहीं बल्कि जिनको शिक्षित और सभ्य समझा जाता है वह लोग भी आपसी बातचीत में गालियों का प्रयोग करते हैं। कई बार तो वार्तालाप के दौरान ही लोग अनावश्यक रूप से गालियां प्रयोग करते हुए इस बात का उनको आभास तक नहीं होता कि उससे उनका पूरा वाक्य अर्थहीन हो जाता है। श्रोता का दिमाग गाली सुनकर उसी पर केंद्रित हो जाने के कारण वाक्य के अन्य शब्दों का अर्थ समझने में असमर्थ रहता है या उनका उसकी दृष्टि में महत्व कम हो जाता है।
इसके अलावा अधिकतर वाद विवाद हिंसा में इसलिये ही बदल जाते हैं कि गालियों का प्रयोग प्रारंभ होने से दोनों पक्ष अपना संयम खो बैठते हैं। अगर एक आदमी गाली देता है तो उसके प्रत्तयुत्तर में दूसरा भी गाली देता है और इस तरह उनकी संख्या बढ़ती जाती है। अगर गाली का जवाब नही दिया जाये तो वह एक ही होकर रह जाती है। गाली देने वाला मूर्ख और उसे सुनकर जवाब न देने वाला संत ही कहा जाता है।
कुछ लोगों की आदत होती है कि वह आपसी बातचीत में गालियाँ अनावश्यक रूप से प्रयोग करते हैं। ऐसे लोगों की बातचीत की गंभीरता को स्वयं ही समाप्त करते हैं।
........................
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

अध्यात्मिक पत्रिकायें

वर्डप्रेस की संबद्ध पत्रिकायें

लोकप्रिय पत्रिकायें