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Monday, December 28, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-अभ्यास न करने से ज्ञान नष्ट हो जाता है (abhyas aur gyan-hindu dharm sandesh)

भर्तृहरि महाराज के अनुसार
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दौर्मन्त्र्यान्नृपतिर्विनष्यति यतिः सङगात्सुतालालनात् विप्रोऽन्ध्ययनात्कुलं कुतनयाच्छीलं खलोपासनात्
ह्यीर्मद्यादनवेक्षणादपि कृषिः स्नेहः प्रवासाश्रयान्मैत्री चाप्रणयात्सृद्धिरनयात् त्यागपमादाद्धनम्


हिंदी में भावार्थ-कुमित्रता से राजा, विषयासक्ति और कामना योगी, अधिक स्नेह से पुत्र, स्वाध्याय के अभाव से विद्वान, दुष्टों की संगत से सदाचार, मद्यपान से लज्जा, रक्षा के अभाव से कृषि, परदेस में मित्रता, अनैतिक आचरण से ऐश्वर्य, कुपात्र को दान देने वह प्रमाद से धन नष्ट हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ संक्षिप्त व्याख्या-आशय यह है कि जीवन में मनुष्य जब कोई कर्म करता है तो उसका अच्छा और बुरा परिणाम यथानुसार प्राप्त होता है। कोई मनुष्य ऐसा नहीं है जो हमेशा बुरा काम करे या कोई हमेशा अच्छा काम करे। कर्म के अनुसार फल प्राप्त होता है। अच्छे कर्म से अर्थ और सम्मान की प्राप्ति होती है। ऐसे में अपनी अपनी उपलब्धियों से जब आदमी में अहंकार या लापरवाही का भाव पैदा होता है तब अपनी छबि गंवाने लगता है। अतः सदैव अपने कर्म संलिप्त रहते हुए अहंकार रहित जीवन बिताना चाहिये। मद्यपान, परनिंदा, अपने कार्य में लापरवाही, तथा दुष्ट लोगों से मित्रता करने की प्रवृत्ति से बचना चाहिये अन्यथा जीवन कष्ट मय होता है।

यह मानकर चलना चहिये कि हमें मान, सम्मान तथा लोगों का विश्वास प्राप्त हो रहा है वह अच्छे कर्मों की देन है और उनमें निरंतरता बनी रहे उसके लिये कार्य करना चाहिये। अगर अपनी उपलब्धियों से बौखला कर जीवन पथ से हट गये तो फिर वह मान सम्मान और लोगों का विश्वास दूर होने लगता है। अधिक अहंकार से दूसरे लोग सामने भले ही कुछ न कहें पर पीठ पीछे निंदा करने लगते हैं और यह हमारी स्वयं की छवि के लिये अच्छा नहीं होता।
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Saturday, December 26, 2009

चाणक्य नीति शास्त्र-दुष्ट की संगत कर ली तो सांप क्या कर लेगा?

नीति विशारद चाणक्य महाराज का कहना है कि
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क्षान्तिश्चत्कवचेन किं किमनिरभिः क्रोधीऽस्ति चेद्दिहिनां ज्ञातिश्चयेदनलेन किं यदि सहृदद्दिव्यौषधं किं फलम्।
किं सर्पैयीदे दुर्जनाः किमु धनैर्विद्याऽनवद्या चदि व्रीडा चेत्किमुभूषणै सुकविता यद्यपि राज्येन किम्।।
हिंदी में भावार्थ-
यदि क्षमा हो तो किसी कवच की आवश्यकता नहीं है। यदि मन में क्रोध है तो फिर किसी शत्रु की क्या आवश्यकता? यदि मंत्र है तो औषधियो की आवश्यकता नहीं है। यदि अपने दुष्ट की संगत कर ली तो सांप की क्या कर लेगा? विद्या है तो धन की मदद की आवश्यकता नहीं। यदि लज्जा है तो अन्य आभूषण की आवश्यकता नहीं है।
वर्तमान में संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- ध्यान दें तो भर्तृहरि महाराज ने पूरा जीवन सहजता से व्यतीत करने वाला दर्शन प्रस्तुत किया है। अगर आदमी विनम्र हो और दूसरे के अपराधों को क्षमा करे तो उसे कहीं से खतरा नहीं रहता। जैसा कि हम देख रहे हैं कि आजकल अस्त्र शस्त्र रखने का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। इसका कारण यह है कि लोगों का विश्वास अपने ऊपर से उठ गया है। अपने छोटे छोटे विवादों के बड़े हमले में परिवर्तित होने का भय उनको रहता है इसलिये ही लोग हथियार रखते हैं। उनको यह भी विश्वास है कि वह किसी को क्षमा नहीं करते इसलिये उनके क्रोध या हिंसा का शिकार कभी भी उन पर हमला कर सकता है। जिन लोगों में क्षमा का भाव है वह किसी प्रकार की आशंका से रहित होकर जीवन व्यतीत करते हैं। क्षमा का भाव होता है तो क्रोध का भाव स्वतः ही दूर रहता है। ऐसे में अन्य कोई शत्रु नहीं होता जिससे आशंकित होकर हम अपनी सुरक्षा करें।

उसी तरह अपनी संगत का भी ध्यान रखना चाहिये। जिनकी सामाजिक छबि खराब है उनसे दूर रहें इसी में अपना हित समझें। वैसे आजकल तो हो यह रहा है कि लोग दादा और गुंडा टाईप के लोगों से मित्रता करने में अपनी इज्जत समझते हैं मगर सच तो यह है कि ऐसे लोग उसी व्यक्ति को तकलीफ देते हैं जो उनको जानता है। इसके अलावा अपने दोस्तों से रुतवे के बदल अच्छी खासी कीमत भी वसूल करते हैं भले ही उनका कोई काम नहीं करते हों पर भविष्य में सहयोग का विश्वास दिलाते हैं। देखा यह गया है कि दुष्ट लोगों की संगत हमेशा ही दुःखदायी होती है।
अपनी देह को स्वस्थ रखने के लिये प्रतिदिन योग साधना के साथ अगर मंत्र जाप करें तो फिर आप औषधियों के नाम जानने का भी प्रयास न करें। राह चलते हुए फाईव स्टार टाईप के अस्पताल देखकर भी आपको यह ख्याल नहीं आयेगा कि कभी आपको वहां आना है।
जहां तक हो सके अच्छी बातों का अध्ययन और श्रवण करें ताकि समय पड़ने पर आप अपनी रक्षा कर सकें। याद रखिये जीवन में रक्षा के लिये ज्ञान सेनापति का काम करता है। अगर आपके पास धन अल्प मात्रा में है और ज्ञान अधिक मात्रा में तो निश्चिंत रहिये। ज्ञान की शक्ति के सहारे दूसरों की चालाकी, धूर्तता तथा लालच देकर फंसाने की योजनाओं से बचा जा सकता है। अगर ज्ञान न हो तो दूसरे लोग हम पर शासन करने लगते हैं।
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Thursday, December 24, 2009

मनु दर्शन-अध्यात्मिक ज्ञान से ही सुख पूर्वक विचरण संभव (adhyatmik gyan aur sukh-hidnu dharm sandesh)

अध्यात्मरतिरासीनो निरपेक्षो निरामिषः
आत्मनैव सहायेन सुखार्थी विचरेदिह

हिंदी में भावार्थ-अध्यात्म विषयों में अपनी रुचि रखते हुए सभी वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रति निरपेक्ष भाव रखना चाहिये। इसके साथ ही शाकाहारी तथा इद्रियों से संबंधित विषयो में निर्लिप्त भाव रखते हुए अपने अध्यात्म उत्थान के लिये अपने प्रयास करते रहना चाहिये। इससे मनुष्य सुखपूर्वक इस दुनियां में विचरण कर सकता है।
अति वादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन
न चेमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित्
न क्रुद्धयंन्तं प्रतिक्रुध्येदाक्रृष्टः कुशलं वदेत्
सप्तद्वाराऽवकीर्णां च न वाचमनृतां वदेत्

हिंदी में भावार्थ-दूसरे के कड़वे वचनों को सहना करना चाहिये। अभद्र शब्द (गाली)का उत्तर कभी वैसा ही नहीं देना चाहिये। न ही किसी का अपमान करना चाहिये। यह शरीर तो नश्वर है इसके लिये किसी से शत्रुता करना ठीक नहीं माना जा सकता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-खानपान और रहन सहन में आई आधुनिकता ने लोगों की सहनशीलता को कम कर दिया है। लोग जरा जरा सी बात पर उत्तेजित होकर झगड़ा करने पर आमादा है। स्वयं के पास कितना भी बड़ा पद,धन और वैभव हो पर दूसरे का सुख सहन नहीं कर पाते। गाली का जवाब गाली से देना के लिये सभी तत्पर हैं। अध्यात्म विषय के बारे में लोगों का कहना है कि उसमें तो वृद्धावस्था में ही जाकर दिलचस्पी रखना चाहिये। इस अज्ञानता का परिणामस्वरूप आदमी वृद्धावस्था में अधिक दुखी होता हैं। अगर बचपन से ही अध्यात्म में रुचि रखी जाये तो फिर बुढ़ापे में आदमी को अकेलापन नहीं सताता। जिसकी रुचि अध्यात्म में नहीं रही वह आदमी वृद्धावस्था में चिढ़चिढ़ा हो जाता है। ऐसे अनेक वृद्ध लोग हैं जो अपना जीवन शांतिपूर्वक व्यतीत करते हैं क्योंकि वह बचपन से मंदिर आदि में जाकर अपने मन की शुद्धि कर लेते हैं और अध्यात्म विषयों पर चिंतन और मनन भी करते हैं।
बदले की भावना इंसान को पशु बना देती हैं और वह तमाम तरह के ऐसे अपराध करने लगता है जिससे समाज में उसे बदनामी मिलती है। कई लोग ऐसे हैं जो गाली के जवाब में गाली देकर अपने लिये शत्रुता बढ़ा लेते है। कुछ लोग ऐसे हैं जिनको अभद्र शब्द बोलने और लिखने में मजा आता है जबकि यह अंततः अपने लिये ही दुःखदायी होता है। अपने मस्तिष्क में अच्छी बात सोचने से रक्त में भी वैसे ही कीटाणु फैलते हैं और खराब सोचने से खराब। यह संसार वैसा ही जैसा हमारा संकल्प होता है। अतः अपनी वाणी और विचारों में शुद्धता रखना चाहिये। दूसरे के व्यवहार या शब्दों से प्रभावित होकर उनमें अशुद्धता लाना अपने आपको ही कष्ट देना है। आधुनिक शिक्षा के कारण आजकल अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करना भले ही एक फालतु विषय समझा जाता है पर सच यह है कि उसके बिना मनुष्य केवल गुलाम बनकर रह जाता है। नौकरी चाहे कोई भी हो उसे गुलामी ही माना जाता है। धन की उपलब्धि ही दिल को चैन नहीं दिला सकती उसके लिये जीवन रहस्य को समझना जरूरी है ताकि अल्पज्ञानियों को आपको गुलाम न बना सकें।
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Saturday, December 19, 2009

संत कबीरदास के दोहे-निच्छल हृदय बिना भक्ति नहीं होती (saf dil ke bina bhakti nahin hoti-kabir vani)

भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव
भक्ति भाव इक रूप है, दोअ एक सुभाव

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक हृदय में निच्छल और निर्मल भाव नहीं है तब तक इस जगत में भक्ति का भाव नहीं बन सकता है। भक्ति के भाव तो रूप एक है पर उसके दो प्रकार के स्वभाव हैं-एक सकाम भाव दूसरा निष्काम भाव।
भक्ति दुवारा सांकरा, राई दशवें भाव
मन मैंगल होम रहा, कैसे आये जाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि भक्ति का द्वार कि राई के दाने के दसवें भाग के बराबर संकरा होता है उसमें पागली हाथी की तरह मतवाला विशाल मन में कैसे प्रवेश कर सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भक्ति और ज्ञान का स्वरूप अत्यंत सूक्ष्म है। संत और साधु लोग प्रवचन देते हुए तमाम तरह की कहानियां और संस्मरण जोड़ देते हैं तो ऐसा लगता है कि ज्ञान का कोई बृहद स्वरूप है। अक्सर ऐसे संत लोग कहते हैं कि श्रीगीता का ज्ञान गूढ और रहस्यपूर्ण है पर यह उनका भी भ्रम है। श्रीगीता का ज्ञान सरल और सहज है पर प्रश्न यह है कि उसका अध्ययन और श्रवण करने वाला किस मार्ग पर स्थित है। जो भक्त सकाम भाव में स्थित हैं उसके लिये वह राई के बराबर है और वह उसमें प्रवेश नहीं कर सकता क्योंकि उसका मन तो अपने अंदर इच्छायें और आकांक्षाओं को पालकर मदमस्त हाथी हो जाता है। उसको निष्काम भक्ति का यह द्वार दिखाई ही नहीं देगा। जिसने निष्काम भाव अपनाते हुए श्रीगीता का अध्ययन और श्रवण किया वह सहजता से समझ सकता है।इसलिये श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन अवश्य करना चाहिए।
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Friday, December 18, 2009

रहीम संदेश-जिससे निर्वाह न हो उससे दूरी भली (nirvah-rahim ke dohe)

कहु रहीम कैसे बनै, अनहोनी हो जाय
मिला रहै और ना मिलै, तासों कहा बसाय

कविवर रहीम कहते हैं कि जब कोई हम कार्य करना चाहें और उसके विपरीत अनहोनी हो जाये तो क्या किया जा सकता है? उसी तरह जो व्यक्ति ऐसा हो जो मिलकर भी दूरी बनाये रखे उसे निर्वाह नहीं हो सकता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिंदगी में अनेक लोग मिलते हैं। कुछ तो पास ही रहते हैं पर वह एक मानसिक दूरी बनाये रखते हैं ऐसे भला उनसे आत्मीयता का भाव कैसे स्थापित हो सकता है। अपने शैक्षणिक, व्यवसायिक और आवासीय स्थानों में ऐसे अनेक लोग प्रतिदिन मिलते हैं जिनके प्रति हमारा झुकाव इसलिये हो जाता है कि क्योंकि उनसे नियमित संपर्क रहता है। ऐसे में यह वहम भी हो जाता है कि वह हमारे अपने हैं और समय पर काम आयेंगे-पर ऐसा होता नहीं है। दरअसल अपने स्वार्थ की वजह से हम और वह पास होते हैं पर हमारे अपने स्वार्थ ही होते हैं जो जोड़े रहते हैं इससे मानसिक एकात्मकता का पता नहीं लगता। अगर हम उनके साथ अपने संबंधों का विश्लेषण करें तो एक दूरी अनुभव होगी और तब लगेगा कि उनके अपने होने का वहम है।
इसके अलावा अपने नियमित संपर्क में आने वाले व्यक्ति को केवल इसलिये ही अच्छा नहीं मान लेना चाहिये कि हम उसे जानते हैं और वह मीठा बोलता है। उसके घरेलू इतिहास, संस्कार और आस्था का भी पता करना चाहिये क्योंकि अगर मानसिक धरातल पर कोई व्यक्ति हम जैसा और हम उस जैसे नहीं है तो आत्मीयता का भाव स्थापित नहीं किया जा सकता। अगर जबरन यह प्रयास किया जाता है तो बाद में पछतावा होता है। जब तक संस्कार, विचार, लक्ष्य और कार्यशैली में साम्यता नहीं है तब तक संबंध स्थाई नहीं हो पाते। तत्कालिक आकर्षण में स्थापित संबंध बाद में दुःखदायी साबित होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जिससे निर्वाह नहीं हो सकता उससे दूर हो जाना ही अच्छा है।
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Sunday, December 13, 2009

हिन्दू अध्यात्मिक संदेश-अहित करने वाले मित्र का त्याग करें (ahit karne vala mitra-hindu dharm sandesh)

अमित्राण्यपि कुर्वीत मित्रण्युपचयावहान्।
अहिते वत्र्त मानानि मित्राण्यपि परित्यजेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
यदि अपना हित करने वाला शत्रु भी हो तो भी उसे मित्र बनाना चाहिये। यदि मित्र अहित करने वाला हो तो उसका त्याग करना ही अच्छा है।
भोगप्राप्तं विकुर्वाणं मित्रमप्युपपीडयेत्।
अत्यंतं विकृतं हन्यात्स पापीया् रिपुर्मतः।।
हिंदी में भावार्थ-
जो मित्र भोगों में लिप्त होते हुए भी उपकार करने वाला है तो भी वह पीड़ा देता है। अगर वह अपकार करने वाला है तो उसे अपना शत्रु ही समझते हुए उसे दंडित करें या उसका साथ ही छोड़ दें।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मित्र बनाने में हमेशा सतर्कता बरतना चाहिए। आधुनिक समय में युवक युवतियों को अपना मित्र बनाते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उनका मित्र हमेशा हित की सोचने वाला हो। युवक युवतियों छोटी छोटी बातों पर नाराज और प्रसन्न होते हैं, पर उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि इससे जीवन में अधिक आनंद नहीं आता। आजकल विलासिता के सामान बहुत सस्ते आते हैं अतः वह तोहफे में देने वालों को अपना सच्चा मित्र नहीं मान लेना चाहिए। साथ ही यह भी देखना चाहिए कि मित्र का आचरण, चरित्र और विचार कैसे हैं? कुछ मित्र सामने बहुत मीठा बोलते हैं पर पीठ पीछे दूसरों के सामने निंदा करते हैं या मजाक बनाते हैं। खासतौर से युवतियों को अपने युवक मित्रों से अधिक सतर्क रहना चाहिये। कहने को तो कहा जाता है कि आजकल आधुनिक समय है पर कुछ यथार्थ विचार बदल नहीं सकते। कहा जाता है कि युवक की इज्जत को पीतल के लोटे की तरह होती है जो खराब होने पर फिर मिट्टी से भी साफ हो जाता है पर युवती की इज्जत तो मिट्टी के बर्तन की तरह है एक बार बिगड़ी तो फिर उसकी भरपाई नहीं होती। ऐसे मित्र जिनका आचरण, चरित्र और विचार संदिग्ध हों उनसे युवक युवतियों को बचना चाहिये। यह बात याद रखने योग्य है कि संगत का मनुष्य के न केवल आचरण पर प्रभाव पड़ता है बल्कि सामाजिक छवि भी उससे प्रभावित होती है। अतः अपनी संगत अच्छी बनाने का प्रयास करना चाहिए।
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Friday, December 11, 2009

संत कबीरदास के दोहे-संसार के बाजार में स्वाद ही ठग (hindu dharm sandesh-bazar aur svad)

कूकट कूटै कन बिना, बिन करनी का ज्ञान।
ज्यौं बन्दूक गोली बिना, भड़क न मरि आन।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि बिना अनुभव के ज्ञान देना, चावल की भूसी कूटने के समान है।
सुर नर मुनि सबको ठगै, मनहिं लिया औतार।
सुन जो कोई बाते बचै, तीन लोग ते न्यार।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि यह चंचल मन सामान्य मनुष्य हों या असाधारण सभी को ठगता है।
जग हटबारा स्वाद ठग, माया वेश्या लाय।
राम नाम गाढ़ा गहो, जनि जहु जन्म गंवा।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार के बाजार में स्वाद ही ठग और माया ही वैश्या की तरह व्यवहार करती है। इसलिये राम का नाम का दिल की गहराई से स्मरण करें वरना पूरा जीवन व्यर्थ चला जायेगा।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-टीवी चैनलों और पत्र पत्रिकाओं में किसी भी कंपनी का उत्पाद देखिये उसके समर्थन में प्रस्तुत विज्ञापन की भाषा बहुत आकर्षक और मन लुभावनी होती है। खाने पीने की वस्तुओं का विज्ञापन तो इस तरह होता है कि पढ़ते ही मूंह में पानी आ जाता है। यह सब आदमी के जेब से पैसे या माया निकालने की कला है जिसका नाम बाजार है। आदमी के जेब अगर पैसा या माया अधिक है तो उसकी बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाती है और वह उन चीजों को खरीदने चला जाता है।
अगर हम आज की उपभोक्ता संस्कृति का सूक्ष्म विश्लेषण करें तो अनुभव होगा कि कुछ लोगों के पास पैसा वाकई बहुत अधिक आ गया है वरना इतना सारा विज्ञापन जगत चल ही नहीं सकता। इसके अलावा खाने पीने की वस्तुओं में ऐसे पदार्थों का उपयोग बढ़ रहा है जो जीभ के लिये स्वादिष्ट हैं पर पेट के लिये पाचन योग्य नहीं। परिणाम स्वरूप नयी नयी बीमारियों की उत्पत्ति हो रही है और फिर उनके लिये दवा निर्माण के लिये नये कारखाने खुलते हैं फिर उनका विज्ञापन हमारे समक्ष प्रस्तुत होता है। यह बाजार और माया का चक्र में जिसके अंदर विज्ञापन आदमी को अपनी सवारी कर घुमाता है।
यह सब हमारे देश में अधिक हो रहा है क्योंकि यहां अब नये नये धनवान अधिक हो गये हैं और इसलिये जिन चीजों को पुराने अमीर देशों के लोगों ने त्याग कर दिया है उनको यहां ग्रहण किया जा रहा है। हमारे देश के प्राचीन अध्यात्मिक ज्ञान को एक तरफ उठाकर रख दिया गया है और अगर उसे कुछ लोग प्रस्तुत भी कर रहे हैं तो वह स्वयं के लिये धनार्जन और विज्ञापन के लिये। राम की चर्चा करते हैं पर माया का संग पाने की इच्छा के साथ। ऐसे लोग अध्यात्मिक ज्ञान की पुस्तकों के संदेश तो रट लेते हैं पर धारण करना उनके वश में भी नहीं होता।
सच बात तो यह है कि अगर हृदय से भगवान का स्मरण किया जाये तो मन में एक नयापन आता है जबकि उपभोक्ता वस्तुओं के प्रति आकर्षण अंततः मनोविकारों का कारण बनता है। भक्ति से जहां हमारे अंदर सकारात्मक भाव का निर्माण होता है वहीं मनोविकारों से मुक्ति मिलती है, वहीं जीवन स्वयमेव तनाव से मुक्त हो जाता है ।
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Friday, December 04, 2009

संत कबीरदास के दोहे-हिन्दू कहें राम प्यारा, तुर्क कहें रहीम (ram rahim-kabir ke dohe in hindi)

कहै हिन्दु मोहि राम पिआरा, तुरक कहे रहिमाना।
आपस में दोऊ लरि-लरि मुए, मरम न कोऊ जाना।।
संत शिरोमणि कबीरदास अपने समय के धार्मिक विवादों की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं कि एक तरफ भारतीय हैं जो कहते हैं कि हमें राम प्यारा है दूसरी तरफ तुर्क हैं जो कहते हैं कि हम तो रहीम के बंदे हैं। दोनों आपस में लड़कर एक दूसरे को तबाह कर देते हैं पर धर्म का मर्म नहीं जानते।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जैसा कि इतिहास गवाह है कि भारत पर विदेशी हमले हुए। शुरुआती दौर में हमलावर केवल धन के लिये आये पर बाद में उनको लगा कि यह देश सोने का अंडा देने वाली मुर्गी है तो यहीं अपना स्थाई निवास बना लिया। उनका उद्देश्य यहां शासन करना था पर इसमें भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान शक्ति उनके लिये बाधा थी। वह आसानी शासन करते पर भारत में ऐसे लोगों की तादाद अधिक थी जो किसी के राजा होने की परवाह नहीं करते थे। उनके लिये भगवान के बाद राजा का नंबर आता था जबकि विदेशी शासक चाहते थे कि भगवान से पहले उनकी प्रतिष्ठा बने। इसलिये उन्होंने अपने साथ कथित रूप से धार्मिक संत भी रखे। इसके अलावा शासन के कार्यक्षेत्र का विस्तार किया जिससे कि यहां के लोगों के जनजीवन में राज्य का दखल अधिक हो। कुछ लोग कहते हैं कि विदेशी लोगों ने इस देश को सभ्य बनाया है-यह दावा हास्यास्पद है। दरअसल विदेशी लोगों ने राज्य का समाज के कार्यक्षेत्र में दखल बढ़ाया ही है। यही कारण है कि अनेक ऐसे क्षेत्र जहां राज्य का काम नहीं है वहां भी उसका विस्तार इस तरह हो गया जिससे समाज कमजोर हो गये हैं। फिर फूट डालो राज्य करो की तर्ज पर विदेशी शासक यहां जमे रहे और उन्हें अपने धर्म से इस देश की अध्यात्मिक विचाराधारा का कमतर साबित करने का प्रयास किया। इसलिये झगड़े बढ़े और आज तक उनको देखा जा सकता है। तुर्क यानि मध्य एशिया के देशों के लोग अपने रहीम (कविवर रहीम नहीं) को मानते जबकि भारत में तो भगवान राम की महिमा गायी जाती रही है। इस तरह झगड़े शुरु हुए जो अभी तक जारी हैं जिससे देश का आर्थिक, सामाजिक, तथा वैचारिक विकास अवरुद्ध हो गया है।
मुख्य बात है धर्म का मर्म। भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथ किसी धर्म की संज्ञावाचक पहचान नहीं देते बल्कि कर्म की शुद्धता ही धर्म की पहचान मानी जाती है। इसके विपरीत बाहर से आयी विचाराधारायें न केवल नाम से पहचाने जाते हैं बल्कि उनके इष्ट की पूजा के तरीके और स्वयं के पहनावे को लेकर भी अनेक प्रतिबंध हैं। भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान शुद्ध निष्काम कर्म और हृदय से की गयी भक्ति को ही धर्म का रूप मानता है जबकि बाहर से आयातित विचार तो आदमी के जन्म और मरण में भी रीतियां सिखाते हैं। भारतीय अध्यात्मिक गं्रथों में धर्म का अर्थ भले ही छोटा है पर उसका दायरा व्यापक है। सबसे बड़ी बात यह है कि अहिंसा धर्म की प्रधानता है जबकि विदेशी हमलावर यहां लूटने आये तो उनके लिये हिंसा करने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। इस तरह के हमलों ने ही यहां के निवासियों को शायद इतना विचलित कर दिया कि उन्हें अपने नाम और पहचार के साथ हिन्दू धर्म जोड़कर संगठित होने का विचार किया। इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि अंततः यह एक राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति का एक अच्छा प्रयास रहा होगा जिसकी बाध्यता रही होगी।

बहरहाल जो बीत गया उसे भुलाना चाहिये था पर आज भी कुछ लोग ऐसे हैं जो इस प्रकार के विवाद का जारी रखना चाहते हैं। जब हमारे लिये धर्म का सूक्ष्म अर्थ होते हुए भी उसका दायरा बड़ा है तो हमें किसी भी विचाराधारा या धर्म पर आक्षेप न करते हुए अपने भारतीय होने की अनुभूति के साथ जीना चाहिये। हम अगर इतिहास गर्व या कुंठा के साथ जीना चाहेंगे तो सिवाय संताप के कुछ नहीं मिलना है। इस देश में विभिन्न देशों से लोग आये पर अब यहीं के होेकर रह गये। अब हमें नये सिरे से सोचना चाहिए पर समस्या यह है कि समाज में संघर्ष पैदा कर कुछ लोग अपने हित साध रहे हैं। वह धर्म पर बहसें और विवाद खड़े करते हैं पर जानते ही नहीं कि उसका आशय क्या है? सच तो यह है कि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान ही सत्य की अनुभूति कराता है जहां तक धर्म का सवाल है तो उसके नाम पर ढेर सारे भ्रम हैं और इतिहासकार क्या कहते हैं यह अलग बात है पर हमारा विचार तो यह है कि कोई धार्मिक विचाराधारा केवल राजनीतिक संबल पाने के लिये प्रतिपादित की गयी हैं और उनका उद्देश्य प्रेम या अमन लाना नहीं है जैसा कि कुछ शायर यह कवि कहते हैं। बेहतर यही है कि हम अपना मार्ग भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों में ही ढूंढें। उससे भी बड़ी बात यह है कि हम दूसरों को हानि पहुंचाने वाले विचारों से परे होकर सभी के सुख पर विचार करें। यह प्रेम कोई सिखाने या समझाने का विषय नहीं है। मनुष्य में यह गुण स्वाभाविक रूप से रहता है। कुछ लोग दुनियां को प्रेंम सिखाने की बात करते हैं पर यह नहीं जानते कि उसका मर्म क्या है और उसका निबाह कैसे होता है।
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