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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Sunday, February 24, 2013

यजुर्वेद के आधार पर चिंत्तन लेख-संघभाव से ही निर्भय होना संभव( uajurved ke adhar par dhinttan lekh-sanghbhav se hee nirbhay hona sambhav)

        इस धरती पर अधिकतर जीव समूह बनाकर चलते हैं।  समूह बनाकर चलने की प्रवृत्ति अपनाने से  मन में सुरक्षा का भाव पैदा होता है। मनुष्य का जिस तरह का दैहिक जीवन है उसमें तो उसे हमेशा ही समूह बनाकर चलना ही चाहिये।  जिन व्यक्तियों में थोड़ा भी ज्ञान है वह जानते हैं कि मनुष्य को समूह में ही सुरक्षा मिलती है।  जब इस धरती पर मनुष्य सीमित में संख्या थे तब वह अन्य जीवों से अपनी प्राण रक्षा के लिये हमेशा ही समूह बनाकर रहते भी थे। जैसे जैसे मनुष्यों की संख्या बढ़ी वैसे अहंकार के भाव ने भी अपने पांव पसार दिये।  अब हालत यह है कि राष्ट्र, भाषा, जाति, धर्म और वर्णों के नाम पर अनेक समूह बन गये हैं।  उनमें भी ढेर सारे उप समूह हैं।  इन समूहों का नेतृत्व जिन लोगों के हाथ में है वह अपने स्वार्थ के लिये सामान्य सदस्यों का उपयोग करते हैं।  आधुनिक युग में भी अनेक मानवीय समूह  नस्ल, जाति, देश, भाषा, धर्म के नाम पर बने तो हैं पर उनमें संघभाव कतई नहीं है।  संसार का हर व्यक्ति  समूहों का उपयोग तो करना चाहता है पर उसके लिये त्याग कोई नहीं करता। यही कारण है कि पूरे विश्व में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा धार्मिक क्षेत्रों में भारी तनाव व्याप्त है।
यजुर्वेद में कहा गया है कि
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सम्भूर्ति च विनाशं च यस्तद्वेदोभयथ्सह।
विनोशेन मृतययुं तीत्वी सम्भूत्यामृत मश्नुते।।
     हिन्दी में भावार्थ-जो संघभाव को जानता है वह विनाश एवं मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। इसके विपरीत जो उसे नहीं जानता वह हमेशा ही संकट को आमंत्रित करता है।

वाचमस्तमें नि यच्छदेवायुवम्।
      हिन्दी में भावार्थ-हम ऐसी वाणी का उपयोग करें जिससे सभी लोगों का एकत्रित हों।
              हृदय में संयुक्त या संघभाव धारण करने का यह मतलब कतई नहीं है कि हम अपनी समूह के सदस्यों से सहयोग या त्याग की आशा करें पर समय पड़ने पर उनका साथ छोड़ दें।  हमारे देश में संयुक्त परिवारों की वजह से सामाजिक एकता का भाव पहले तो था पर अब सीमित परिवार, भौतिकता के प्रति अधिक झुकाव तथा स्वयं के पूजित होने के भाव ने एकता की भावना को कमजोर कर दिया है।  हमने उस पाश्चात्य संस्कृति और व्यवस्था को प्रमाणिक मान लिया है जो प्रकृति के विपरीत चलती है। हमारा अध्याित्मक दर्शन व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र के क्रम में चलता जबकि पश्चिम में राष्ट्र, समाज, परिवार और व्यक्ति के क्रम पर आधारित है।  हालांकि हमारा अध्यात्मिक दर्शन यह भी मानता है कि जब व्यक्ति स्वयं अपने को संभालकर बाद  समाज के हित के लिये भी काम करे तो वही वास्तविक धर्म है।  कहने का अभिप्राय है कि हमें अपनी खुशी के साथ ही अपने साथ जुड़े लोगों के हित के लिये भी काम करना चाहिये।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Saturday, February 16, 2013

अथर्ववेद के आधार पर चिंत्तन-आस्थाहीन मनुष्य माया पर मोहित रहते हैं(thought on based on atharvaved-asthaheen manushya maya par mohit rahte hain)

           यह संभव नहीं है कि मानव मन का कोई स्वामी न हो। जो मनुष्य कहते हैं कि हमारी किसी भी प्रकार के परमात्मीय रूप में आस्था नहीं है वह स्पष्टतः इस मायावी संसार को अपने हृदय में धारण किये रहते हैं।  कहने को भले ही उनको नास्तिक कहा जाये यह वह स्वयं ही इसका बखान करें पर सच यह है कि मानव मन का स्वामी या तो सत्य होता है या माया।  श्रीमद्भागवतगीता को लेकर हमारे देश में अनेक भ्रम प्रचलित हैं। कहा जाता है कि यह एक पवित्र किताब है और इसका सम्मान करना चाहिए पर उसमें जो तत्वज्ञान है उसका महत्व जीवन में कितना है इसका आभास केवल ज्ञानी लोगों को श्रद्धापूर्वक अध्ययन करने पर ही हो पाता है। श्रीगीता को पवित्र मानकर उसकी पूजा करना और श्रद्धापूर्वक उसका अध्ययन करना तो दो प्रथक प्रथक क्रियायें हैं। श्रीगीता में ऐसा ज्ञान है जिससे हम न केवल उसके आधार पर अपना आत्ममंथन कर सकते हैं बल्कि दूसरे व्यक्ति के व्यवहार, खान पान तथा रहन सहन के आधार पर उसमें संभावित गुणों का अनुमान भी कर सकते हैं। गीता का ज्ञान एक तरह से दर्पण होने के साथ दूरबीन का काम भी करता है। यही कारण है कि ज्ञानी लोग परमात्मा की निष्काम आराधना करते हुए अपने अंदर ऐसी पवित्र बुद्धि स्थापित होने की इच्छा पालते हैं जिससे वह ज्ञान प्राप्त कर सकें। जब एक बार ज्ञान धारण कर लिया जाता है तो फिर इस संसार के पदार्थों से केवल दैहिक संबंध ही रह जाता है। ज्ञानी लोग उनमें मन फंसाकर अपना जीवन कभी कष्टमय नहीं बनाते।
अथर्ववेद में कहा गया है कि
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ये श्रद्धा धनकाम्या क्रव्वादा समासते।
ते वा अन्येषा कुम्भी पर्यादधति सर्वदा।।
            ‘‘जो श्रद्धाहीन और धन के लालची हैं तथा मांस खाने के लिये तत्पर रहते हैं वह हमेशा दूसरों के धन पर नजरें गढ़ाये रहते हैं।’’
भूमे मातार्नि धेहि भा भद्रया सुप्रतिष्ठतम्।
सविदाना दिवा कवे श्रियां धेहि भूत्याम्।।
         ‘‘हे मातृभूमि! सभी का कल्याण करने वाली बुद्धि हमें प्रदान कर। प्रतिदिन हमें सभी बातों का ज्ञान कराओ ताकि हमें संपत्ति प्राप्त हो।’’
          इस तत्वज्ञान के माध्यम से हम दूसरे के आचरण का भी अनुमान प्राप्त कर सकते हैं। जिनका खानपान अनुचित है या जिनकी संगत खराब है वह कभी भी किसी के सहृदय नहीं हो सकते। भले ही वह स्वार्थवश मधुर वचन बोलें अथवा सुंदर रूप धारण करें पर उनके अंदर बैठी तामसी प्रवृत्तियां उनकी सच्ची साथी हो्रती हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि तत्वज्ञान में ज्ञान तथा विज्ञान के ऐसे सूत्र अंतर्निहित हैं जिनकी अगर जानकारी हो जाये तो फिर संसार आनंदमय हो जाता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Monday, February 04, 2013

पतंजलि योग साहित्य-जीवन में प्रसन्नता देता है अहिंसा का भाव (ahinsa ka bhav jiwan mein khush rakhta hai-patanjali yog sootra)

             हिंसा का भाव हमेशा ही मनुष्य में नहीं रहता  बल्कि उसके  मन का अहिंसा एक स्थाई भाव है जिसमें स्थित मनुष्य न केवल स्वयं आनंदपूर्वक जीवन व्यतीत करता है वरन समाज में लोकप्रिय होता है।  जो  व्यक्ति  हिंसक व्यापार  में लिप्त रहता होता है वह भी हर समय हथियार में उठाए नहीं रहता।  श्रीमद्भागवत गीता में बताया गया है कि इस संसार के सारे पदार्थ परमात्मा के संकल्प के आधार पर स्थित पर वह उनमें नहीं है। यहां इस बात को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है कि इस संसार के देहधारी जीव के संकल्प से गहरा संबंध है क्योंकि वह अंततः उसी परमात्मा का अंश हैं। इसलिये जीव भले ही इस संसार और भौतिक पदार्थों को धारण करे वह उसमें अपना भाव लिप्त न करे,  इसे ही निष्काम भाव भी कहा जाता है। हम अगर योग साधना और ध्यान करने के साथ श्रीमद्भावगत गीता का अध्ययन करें तो धीरे धीरे यह बात समझ में आने लगेगी कि यह संसार की प्रकृति और इसमें स्थित समस्त पदार्थ न बुरे हैं न अच्छे, बल्कि वह हमारे संकल्प के अनुसार कभी प्रतिकूल तो कभी अनुकूल होते हैं। इसलिये हम अपने हृदय के अंदर अहिंसा, त्याग, तथा परोपकार के संकल्प धारण करें तो यह सारा संसार और पदार्थ हमारे अनुकूल हो जायेंगे।
पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि
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अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः।
           ‘‘हृदय में अहिंसा का भाव जब स्थिर रूप से प्रतिष्ठ हो जाता है तब उस योगी के निकट सब प्राणी वैर का त्याग कर देते हैं।
अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्।
               ‘‘हृदय जब चोरी के भाव से पूरी तरह रहित हो जाता है तब उस योगी के समक्ष सब प्रकार के रत्न प्रकट हो जाता है।’’
          अधिकतर लोग यह तर्क देते हैं कि यह संसार बिना चालफरेब के चल नहीं सकता। यह लोगों की मानसिक विलासिता और बौद्धिक आलस्य को दर्शाता है। एक तरह से यह मानसिक विकारों से ग्रसित लोगों का अध्यात्मिक दर्शन से परे एक बेहूदा तर्क है। हम यह तो नहीं कहेंगे कि सारा समाज ही मानसिक विकारों से ग्रसित है पर अधिकतर लोग इस मत के अनुयायी हैं कि जैसे दूसरे लोग चल रहे हैं वैसे ही हम भी चलें। कुछ लोग ऐसे जरूर हैं जो इस सत्य को जानते हैं और अपने देह, हृदय तथा मस्तिष्क से विकारों की निकासी कर अपना संकल्प शुद्ध रखते हुए अपना जीवन शांति  से जीते हैं। ऐसे लोग संख्या में नगण्य होते हैं पर समाज के लिये वही प्रेरणास्त्रोत होते हैं। उनसे ही इसकी प्रेरणा लेना चाहिए।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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