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Tuesday, June 28, 2011

सामवेद से संदेश-भगवान नारायण से कर्म की प्रेरणा लें (samved se sandesh-Bhaqwan narayan se karma ki prena len)

             भगवान विष्णु कर्म और फल के प्रतीक भगवान माने जाते हैं। यही कारण है कि भगवान विष्णु तथा लक्ष्मी के अनेक अवतार समय समय पर हुए है। ब्रह्मा संसार के रचियता तो भगवार शिव संहारक और उद्धारकर्ता कहे गये हैं और भगवान नारायण को पालनहार माना गया है। ब्रह्मा और शिव का कोई अवतार नहीं होता जबकि भगवान नारायण अवतार लेकर अपनी सक्रियता से भक्तों की रक्षा करते है-यह आम धारण हमारे देश के धर्मभीरु लोगों की रही है।  ऐसे में वह संसार में सक्रियतापूर्ण जीवन जीने वालों के प्रेरक भी है।
यह आश्चर्य की बात है कि प्रकृति ने मनुष्य को देह, बुद्धि और मन की दृष्टि से अन्य जीवों की अपेक्षा सर्वाधिक शक्तिशाली जीव बनाया है तो सबसे अधिक आलसी भाव भी प्रदान किया। अधिकतर लोग लोग अपने तथा परिवार के स्वार्थ सिद्ध करने के बाद आराम करना चाहते है और परमार्थ उनको निरर्थक विषय लगता है जबकि पुरुषार्थ का भाव निष्काम कर्म से ही प्रमाणित होता है। उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस देह से मनुष्य संसार का उपभोग करता है उसका ही महत्व नहीं समझता और भोगों में उसका नाश करता है। जिससे अंत समय में रोग उसके अंतिम सहयात्री बन जाते हैं और मृत्यु तक साथ रहते हैं।
      योग साधना, ध्यान, भजन और उद्यानों की सैर करने से जो देह के साथ मन को भी जो नवीनता मिलती है उसका ज्ञान अधिकतर मनुष्यों को नहीं रहता। सच बात तो यह है कि शरीर और मन को प्रत्यक्ष रूप से प्रसन्न करने वाले विषय मनुष्य को आकर्षित करते है और वह इसमें सक्रिय होकर जीवन भर प्रसन्न रहने का निरर्थक प्रयास करत है। वह अपनी इसी सक्रियता को पुरुषार्थ समझता है जबकि अप्रत्यक्ष लाभ देने वाले योगासन, ध्यान, भजन तथा प्रातः उद्यानों में विचरण करना उसे एक निरर्थक क्रिया लगती है। सीधी बात कहें तो इस अप्रत्यक्ष लाभ के लिये निष्काम भाव से इन कर्मो में लगना ही पुरुषार्थ कहा जा सकता है।
           हमारे पावन ग्रंथ सामवेद में कहा गया है कि
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           विष्णोः कर्माणि पश्चत यतो व्रतानि पस्पशे।
          ‘‘भगवान विष्णु के पुरुषार्थों को देखो और उनका स्मरण करते हुए अनुसरण करो।’
         ऋतस्य पथ्या अनु।
        ‘‘ज्ञानी सत्य मार्ग का अनुसरण करते हैं।’’
        ‘प्रेता जयता नर।’
        आगे बढ़ो और विजय प्राप्त करो।’’
      पुरुषार्थ करना मनुष्य का धर्म है और इसके लिये जरूरी है कि सत्य को मार्ग का अनुसरण किया जाये। आजकल जल्दी धनवान बनने के लिये असत्य मार्ग को भी अपनाने लगते हैं और उनको कामयाबी भी मिल जाती है पर जब उनको इसका दुष्परिणाम भी भोगना पड़ता है। यही कारण है कि ज्ञानी लोग कभी भी ऐसे गलत कार्य में अपना मन नहीं लगाते जिसका कालांतर में दुष्परिणाम भोगना पड़े।
     कर्म और पुरुषार्थ के विषय में भगवान विष्णु का स्मरण करना चाहिए। वह संसार के पालनहार माने जाते हैं। ऐसा महान केवल पुरुषार्थ करने वालों को ही मिल सकता है। भगवान विष्णु के चौदह अवतार माने जाते हैं और हर अवतार में कहीं न कहीं उनका पुरुषार्थ प्रकट होता है।
लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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Friday, June 24, 2011

दिखावटी मित्र का त्याग करना ही श्रेयसस्कर-संत कबीर वाणी (dikhavati mitra ka tyag karna hee theek-sant kabir vani)

          आमतौर अपनी संगत और मित्रता को लेकर अधिक चिंतित नहीं होते और सतर्कता के अभाव में अंततः उनको उसका बुरा परिणाम भोगना पड़ता है। जब कोई आदमी अपने दिल की बातें, नियमित गतिविधियां तथा परिवार की स्थिति के बारे में किसी ऐसे मित्र से चर्चा करता है जो उसका हितैषी नहीं है तो वह सभी को वह बातें बता देता है। लोग यह जानते हुए भी कि उनका मित्र कोई अधिक विश्वसनीय नहीं है उसे अपनी बातें यह सोचकर बता देते हैं कि उससे कोई हानि होने की संभावना नहीं है। यह भ्रम टूटता है जब दूसरे लोगों का वह बातें पता चलती हैं और उसका सभी फायदा उठाते हुए ताने देते हैं या बदनाम करते है। कभी कभी निजी बात दूसरे को जानकारी मिलने से हानि भी होती है और तब पता चलता है कि हमने अपनी बात अपने मित्र को व्यर्थ बताई।
चित कपटी सबसों मिलै, मांहि कुटिल कठोंर।
इक दुरजन इक आरसी, आगे पीछे ओर।।
         ‘‘हृदय में कपट रखने वाला सबसे मधुर व्यवहार करता है। उसका प्रेम केवल दिखावा होता है एक दुष्ट और दर्पण के गुण एक समान होते है। आगे से सफेद पीछे से काले होते हैं।’’
हिये कतरी जीभ रस, मुख बोलन का रंग।
आगे भल पीछे बुरा, ताको तजिये संग।
       "जिसके हृदय में कपट और कलुषिता है पर बातें रस भरी हैं तथा जो केवल सामने अच्छी बात करता है जबकि पीठ पीछे बुराई में लिप्त होता है ऐसे मित्र का त्याग कर देना श्रेयस्कर है।"
       सच बात तो यह है कि लोग आजकल दिखावा बहुत करते हैं। फिर संयुक्त परिवारों की परंपरा का पतन तथा रोजगार की स्थितियो में परिवर्तन ने लोगों को अकेला कर दिया है। इसलिये किसी का साथ पाने की आशा इस उद्देश्य से करते हैं कि शायद वह मित्रता का व्यवहार निभाये। मजे की बात यह है कि लोग स्वयं इस बात का विचार नहीं करते कि वह स्वयं कितना व्यवहार निभा सकते हैं। अकेलेपन से ऊबे लोग दूसरे व्यक्तियों की बातों में आकर उसे अपना मानते हैं। हमेशा यह गलती बुरी साबित न हो पर इसकी संभावना हमेशा रहती है कि मित्र कब धोखा दे। इसलिये मित्रता के रूप में अपने संपर्क बढ़ाने से पहले मित्र के स्वभाव तथा रहन सहन के साथ ही उसकी वैचारिक शुद्धता को अवश्य प्रमाणित कर लेना चाहिए।
संकलक लेखक  एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
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Sunday, June 19, 2011

सभी गृहस्थ यज्ञ करें यह जरूरी नहीं-मनुस्मृति (grahsth aur yagya)

           हमारे अध्यात्मिक दर्शन में भक्ति तथा पूजा के अनेक प्रकार बताये गये हैं। दरअसल भक्ति और पूजा हर कोई इंसान अपने मन की शांति तथा वैचारिक शुद्धता के लिये करता है इसलिये किसी भी व्यक्ति ने कोई भी पद्धति अपनाई उसकी आलोचना नहीं करना चाहिए।    कुछ लोग प्रत्यक्ष रूप से भक्त तथा यज्ञ करते नहीं दिखते हैं और न ही भक्त होने का पाखंड रचते हैं जबकि समाज में ऐसे लोगों की संख्या अधिक है जो धर्म के नाम पर कर्मकांड अथवा यज्ञ करने के लिये दबाव बनाते हैं। अनेक लोग बिना किसी दिखावे के सात्विक जीवन जीते हैं पर चूंकि वह हवन तथा यज्ञ आदि नहीं करते तो लोग उनको नास्तिक होने का ताना देते हैं। सच बात तो यह है कि यज्ञ तथा हवन आदि करने से अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य हृदय में तत्व ज्ञान धारण करे। इसके लिये प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिए। नियमित अध्ययन करने से जिज्ञासा बढ़ती है और अभ्यास से तत्वज्ञान का अनुभव हो जाता है।
           इस विषय पर मनुस्मृति में कहा गया है कि
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         यथायथा हि पुरुषः शास्त्रं समधिगच्छति।
          तथातथा विज्ञानाति विज्ञानं चास्य रोचते।।
‘‘जैसे जैसे कोई व्यक्ति शास्त्र का अभ्यास करता है वैसे ही उसे गूढ़ ज्ञान की प्राप्ति होती है और उसकी प्रवृत्ति और जिज्ञासा ज्ञान विज्ञान में बढ़ती जाती है।’’
         एक बात निश्चित है कि हमारे पुराने ग्रंथों में ज्ञान के साथ विज्ञान भी अंतर्निहित है। कुछ लोग आज विज्ञान के युग में भारतीय अध्यात्मिक दर्शन को हेय मानते हैं पर उनको यह पता ही नहीं कि विज्ञान का आधार भी तत्वज्ञान है जिसके कारण हमारे प्राचीन अध्यात्मिक ग्रंथ विज्ञान के विषय में सामग्री से परिपूर्ण हैं।
कुछ लोग मंदिर न जाने या यज्ञों तथा हवनों में सक्रिय भागीदारी न करने वाले लोगों पर कटाक्ष करते हैं पर यह उनका ही अज्ञान है।
इस विषय पर मनुस्मृति में कहा गया है कि
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‘‘शास्त्रों के ज्ञाता कुछ गृहस्थ यज्ञादि नहीं करते पर अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण कर अपनी अध्यात्मिक शक्ति में वृद्धि करते हैं। उनके लिये लिये नाक, जीभ, त्वचा, तथा कान पर संयम रखना ही एक तरह से महायज्ञ है।
सच बात तो यह है कि धर्म तभी ही प्रशंसनीय है जब वह आचरण तथा कर्म में दृष्टिगोचर हो न कि केवल कर्मकांड और दिखावे में। कुछ लोग जो प्रतिदिन मंदिर जाते हैं वह दूसरों को अभक्त समझते हैं जो कि उनके अज्ञान का प्रमाण है। इतना ही नहीं कुछ तो लोग ऐसे हैं जो प्रतिदिन पूजा आदि करते हैं पर व्यवहार में ऐसा अहंकार दिखाते हैं जैसे कि वही भगवान के इकलौते भक्त हों। जो वास्तव में भक्त और ज्ञानी हैं वह दिखावे से अधिक आत्मनियंत्रण तथा आचरण से उसे प्रमाणित करते हैं।
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संकलक लेखक  एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
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Friday, June 17, 2011

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-प्रचार पाने के लिए गलत काम न करें (prachar paane ke liye galat kaam na karen-kautilya ka arthshastra)

           मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह समाज में श्रेष्ठ कहलना चाहता   है। इसी कारण वह निरंतर ही धन, प्रतिष्ठा और अन्य लोक महत्व की अन्य वस्तुएं संग्रह करने में लगा रहता है। इसी प्रवृति के चलते  समान रुचियों वाले लोगों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ती जा रही है।  आज समाज में नाम पाने के लिये कुछ भी कर गुजरने की मनोवृत्ति इतने भयानक हो चुकी है  कि लोग अनेक बार शर्मनाक हरकते करते हैं।  प्रचार माध्यमों में नाम पाने का मोह लोगों को अंधा बना देता है। अपराधिक प्रवृत्ति के लोगों का नायक की तरह प्रचारित होते  देखकर कुछ युवा भ्रमित हो जाते हैं।  वैसे भी जनसामान्य को लगता है कि जो लोग अपनी हिंसक अपराधिक प्रवृत्ति की वजह से समाज में डर बनाये रहते हैं वह कोई दमदार आदमी हैं।  उनका रुतवा देखकर सब उनसे संपर्क रखते हैं पर प्रकृति का नियम है कि जो जैसा करेगा वैसा भरेगा।  जो लोग जनविरोधी काम करते हुए आतंक का वातावरण बनाते हैं वह दरअसल स्वयं ही अंदर से डरे रहते हैं। उनकी बदनामी को लोकप्रियता समझना मूर्खता है।  समाज में सम्मान तो केवल उसी आदमी को मिलता है जो जनहित का काम करता है। 
      हर मनुष्य में पूज्यता और अहंकार का भाव होता है। जब किसी को धन, पद और प्रतिष्ठा प्राप्त होती है तो फूलकर कुप्पा नहीं समाता बल्कि उसका प्रदर्शन करने लगता है और कई लोगों का तो मन ही विचलित हो जाता है। शक्ति आने पर ही अनेक लोग संतुष्ट नहीं होते बल्कि उसका प्रभाव समाज पर दृष्टिगोचर हो और वह डरे इसी उद्देश्य से कुछ लोग अपने बड़प्पन का दुरुपयोग करने लगते हैं। आजकल हम देख सकते है कि देश में अमीरों, उच्च पदस्थ तथा बाहूबली लोगों का आतंक पूरे समाज पर दिखाई देता है। शक्तिशाली वर्ग के लोग अपनी शक्ति से छोटों को संरक्षण देने की बजाय अपनी शक्ति का उपयोग उनको दबाकर आत्म संतुष्टि कर लेते हैं। यही कारण है कि समाज में वैमनस्य का भाव बढ़ रहा है।
            कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि 
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         आयत्याञ्प तदात्वे च यत्स्यादास्वादपेशलम्।
         तदेव तस्य कुर्वीत न लोकद्विष्टमाचरेत्।।
       "भविष्य की अच्छी संभावनाओं को देखते हुए बुद्धिसे जो कार्य करने में अच्छा लगे वही प्रारंभ करे परंतु कभी भी सफलता के लिये जनविरोधी काम न करें।"
        श्लाघ्या चानन्दनीया च महतामुफ्कारिता।
       करले कल्याणगायत्ते स्वल्पापि सुमहोदयम्।
       "उच्च पुरुषों का उपकार कर्म अत्यंत प्रिय तथा आनंदमय लगता है वह अगर किसी का भी थोड़ा कल्याण करते हैं तो उसका महान उदय होता है।"
            हम अनेक लोगों का उनके धन, पद और बल की वजह से बड़ा मान लेते हैं पर सच यह है कि वह समाज का भला करना नहीं जानते। बड़े आदमी की थोड़ी कृपा से छोटे आदमी प्रसन्न हो सकत हैं पर इसको समझने की बजाय उसे कुचलकर अपने आप को खुश करना चाहते हैं।
       बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर, पंछी को न छाया मिले, पथिक को फल लागे अति दूर-यह कहावत अधिकतर बड़े लोगों पर लागू होती है। ऐसे लोगों को बड़ा मानना ही एक तरह से गलत है। बड़ा आदमी तो वह है जो लोकहित में अपनी शक्ति का उपयोग करता है न कि जनविरोधी काम करके अपने अहंकार की संतुष्टि! अतः धल, उच्च पद या बाहूबल होने पर छोटे और कमजोर आदमी को संरक्षण देना चाहिये ताकि समाज को एक नई दिशा मिल सके।
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संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',ग्वालियर 
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
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Tuesday, June 14, 2011

भर्तृहरि नीति शतक से संदेश-मनुष्य अपना जीवन भोजन में ही गुजार देता है

        इस संसार में माया और सत्य का संयोग और संघर्ष सदैव चलता रहा है। ईमानदार, परिश्रमी और संयमी लोगों की सक्रियता कम  होती है जिस कारण उनके पास अकूत धन संपदा नहीं होती जबकि भ्रष्ट और बेईमान लोगों की सक्रियता अधिक होने से उनका वैभव चारों तरफ फैला दिखता है। कभी कभी तो ऐसा ऐसा अनुभव होता है कि जैसे पूरा समाज ही बेईमान है। यह बात नहीं है क्योंकि हम अगर आंखें खुली रखकर अपने मस्तिष्क के चिंतन को व्यापक दृष्टिकोण से देखें तो आज भी मेहतनकश तथा गरीब लोगों की संख्या अधिक है। अनुचित ढंग  की कमाई से लोगों ने ऊंची इमारतें बना लीं और अपनी असलियत छिपाने के लिये समाज सेवा का चोगा ओढ़कर वह प्रचार में अपने विज्ञापनों के कारण प्रसिद्ध भी हो रहे हैं पर जहां पर आत्मिक सुख की बात आती है तो वह केवल सत्य पथ पर चलने वाले लोगों के भाग्य में ही आता है।
         भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि 
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           हिंसाशून्यमयल्लयमशनं धांत्रा मरुत्कल्पितं व्यालानां पशवस्तणांकुरभुजस्तुष्टः स्थलीशायिनः।
          संसारार्णवलंधनक्षमर्थियां वृत्तिः कृता सा नृणां तामन्वेषयतां प्रयांति संततं सर्वे समाप्ति गुणाः।।
          ‘‘विधाता ने सापों के लिये भोजन के रूप में हवा का निर्माण किया जो उनको बिना किसी हिंसा के प्राप्त हो जाती है। पशुओं के लिये घास बनाई और सोने के लिये धरती का बिछौना बनाया। परंतु मनुष्य बुद्धिबल से ही भोजन प्राप्त कर सकता है इसलिये उसका पूरा जीवन केवल उसी में ही लग जाता है।’’
         मनुष्य का पेट तो रोटी से भी भर जाता है पर उसका मन फिर भी नहीं मानता। उसकी बुद्धि लोभ, लालच और मोह में इस तरह फंस जाती है कि हमेशा ही वह पैसा, पद और प्रतिष्ठा पाने के लिये इधर उधर भटकता है। अनेक लोग तो ऐसे हैं जो अच्छा खासा कमाते हैं पर कहते हैं कि ईमानदारी से उनका घर नहीं चल सकता। जबकि इस समाज में ऐसे भी लोग भी है जो केवल वेतन या थोड़ी कमाई के भी अपना जीवन यापन कर शांति से जीवन बिताते हैं। दरअसल हर जीव का दाता तो भगवान है पर जो लोग बेईमानी से धन कमाते हैं वह परिवार की जरूरतों को पूरा करने का ढोंग भले ही कर कर्ता बनने की खुशी पाते हैं पर वह उनका वहम है। अगर यह बेईमान देह त्याग भी दें तो भी उनका परिवार जिंदा रहेगा और उसके सदस्य अपने जीवन यापन के लिये कोई दूसरा मार्ग ढूंढ लेगा। ऐसे में उनकी परिवार की मज़बूरी केवल स्वयं को धोखा देने के लिये है।
          कहने का अभिप्राय यह है कि सभी का दाता परमात्मा है और बेईमानी और भ्रष्टाचार के लोग अपनी बाध्यताओं का दिखावा करें ऐसा करके वह स्वयं को धोखा देते हैं। अगर आदमी आत्ममंथन करे तभी इस बात को समझ सकता है।
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लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
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Saturday, June 11, 2011

श्रीगुरुग्रंथ साहिब-अनुचित कमाई मांस खाने के समान

        वैसे राजकाज से जुड़े लोगों का भ्रष्टाचार हमारे देश के लिये नयी बात नहीं है पर पहले यह कम था। अब तो यह स्थिति यह है कि राजकाज से जुड़े लोग जनहित की बात सोचने से अधिक अपने स्वार्थ पर अधिक ध्यान देते हैं। रिश्वत लेना उनके लिये कमाई है। कहने को तो हमारे देश में धर्मभीरु लोगों की कमी नहीं है पर सवाल यह उठता है कि उसके अनुसार आचरण कितने लोग करते हैं?
       स्थिति यह है कि दो नंबर की कमाई तथा रिश्वत से उगाही करने वाले लोग भी धर्म के कार्यक्रम आयोजित करते दिखते हैं। समाज सेवा का आडम्बर करते हुए अनेक लोग तो महान मायापति हो गये हैं। जहां धर्म की बात आये तो वहां ऐसे संवदेनशील हो जाते हैं जैसे कि हमेशा ही अपनी आस्था के साथ जीते हों पर सच यह है कि धर्म का दिखावा और समाज की रक्षा की बात वही लोग अधिक करते हैं जिनका इसमें अपना व्यवसायिक लाभ होता है।
      श्रीगुरुग्रंथ साहिब में रिश्वत और भ्रष्टाचार की निंदा करते हुए कहा गया है कि
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   ‘माणसखाणे करहि निवाज।
    छुरी बगाइन तिन गलि नाग।।'
       ‘‘रिश्वत खाने वाला मनुष्य नरभक्षी एवं दूसरे के गले पर छुरी चलाने वाला कसाई जैसे होता है।’’
            हमारे देश में हमेशा ही जहां भ्रष्टाचार के अनेक आंदोलन चलते हैं वहीं समाज निर्माण के नाम पर अभियान भी चलते हैं। ऐसा लगता है कि लोगों को मनोरंजन और धर्म के नाम पर व्यस्त रखा जाता है ताकि उनका स्वयं का चिंतन और विवेक काम न करे।  कभी कभी अनेक लोग यह सवाल भी उठाते हैं कि देश में भ्रष्टाचार का आंदोलन और नैतिक मूल्यों की रक्षा करने कें लिये चलाये जाने वाले अभियानों के शीर्षक पुरुषों का  स्वयं का आचरण कितना प्रमाणिक है? कई बार तो ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार से तंग लोगों का मन बहलाने के लिये इस तरह के आंदोलन प्रयोजित वही लोग कर रहे हैं जिनकी कमाई के स्त्रोत अपवित्र होने के साथ अज्ञात हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि धर्म के नाम पर दिये जा रहे दान को आस्था के कारण पवित्र माना जाता है जबकि हमारे धर्मग्रंथों के अनुसार धर्म के लिये व्यय होने वाले धन के स्त्रोत भी पवित्र होना चाहिए। एक मजेदार बात यह है कि धर्म के ठेकेदारों से जब उनके धन का स्त्रोत पूछा जाता है तो कहते हैं कि ‘यह तो भगवान के भक्तों का दिया हुआ है?’’
        पहली बात तो उस धन का स्त्रोत धर्म के ठेकेदारों को स्वयं नहीं पता दूसरा यह कि वह उस धन से अर्जित संपत्ति के स्वामीपन का अहंकार भी पालते हैं। इसी कारण धर्म के नाम पर अनेक ट्रस्ट बन गये हैं जबकि कहीं न कहीं उनका स्वामित्व निजी होने के साथ ही उनके कार्यक्रम भी व्यवसाय के सिद्धांतों पर आधारित हैं। इतना ही नहीं इन ट्रस्टों के भक्ति स्थलों में प्रवेश के लिये भी पैसा लिया जाता है जो कि रिश्वत का ही रूप है। यही कारण है कि हम अपने देश में इस समय धर्म के नाम पर शोरशराबा खूब देख रहे हैं जबकि आचरण की दृष्टि से पूरा समाज ही विपरीत मार्ग पर जाता दिखता है। देखा जाये तो भारतीय जनमानस मूलतः धार्मिक प्रवृत्ति का है इसलिये ही शायद उसका दोहन करने के लिये धर्म के नाम पर न केवल व्यवसायिक कार्यक्रम में होते हैं वरन् कला, साहित्य, मनोरंजन तथा पत्रकारिता में भी प्रयास किये जाते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि भ्रष्टाचार केवल सरकारी क्षेत्र में नहंी है वरन् निजी और धार्मिक क्षेत्र में उसका दुष्प्रभाव परिलक्षित होना दिख रहा है। बहसें हो रही है, आंदोलन हो रहे हैं पर लगता नहीं है कि लोगों की मानसिकता बदल रही है।
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Tuesday, June 07, 2011

अन्य लोगों पर सीमित मात्रा में विश्वास करें-हिन्दी धार्मिक विचार (unlimit confidenc on other parson not good in life-hindi religion thought)

          कहा जाता है कि आजकल कलियुग चल रहा है और मनुष्य की प्रवृत्ति पर राक्षसत्व हावी है। ऐसे में सतयुग, त्रेतायुग तथा द्वापर काल में महामनीषियों की कही गयी बातें अधिक प्रासंगिक हो जाती हैं। हालांकि इन सात्विक संदेशों को देखें तो एक प्रश्न उठता है कि हमारे देश में कलियुग कब नहीं रहा। यह भी विचार आता है कि सतयुग, त्रेतायुग या द्वापर में मनुष्य की प्रवृत्तियां दैवीय होने का भ्रम ही है न कि सच। आखिर महान विद्वान विदुर क्यों कहते हैं कि जो अविश्वसनीय हो उस पर तो विश्वास करना ही नहीं चाहिए पर जो विश्वास योग्य हो उस पर भी अधिक विश्वास नहीं करना चाहिए।
           महात्मा विदुर कहते हैं
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             न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत्।
          विश्वासाद भयमुत्पन्नं मूलान्यपि निकृन्तति।
       "जिस मनुष्य का विश्वास प्रमाणिक न हो उस पर तो विश्वास करना ही नहीं चाहिए पर जिस पर जो योग्य हो उस भी अधिक विश्वास न करें। विश्वास से जो भय उत्पन्न होता है वह मूल लक्ष्य को ही नष्ट कर डालता है।"
            अनीर्षुर्गुप्तदारश्च संविभागी पियंवदः।
          श्लक्ष्णो मधुरपाक् स्वीणां न चासां वशगो भवेत्।।"
          "मनुष्य ईर्ष्या रहित, स्त्रियों की रक्षा करने वाला, संपत्ति का न्यायपूर्वक बांटने वाला, प्रिय वाणी बोलने वाला, साफ सुथरा तथा स्त्रियों से सद्व्यवहार करने वाला हो परंतु किसी के वश में न हो।"
               अगर हम आजकल अपने देश में हो रहे अपराधों को देखें तो उनमें से अधिकतर विश्वासघात का परिणाम होते हैं। खासतौर से स्त्रियों के प्रति हो रही अपराधों को देखें। आजकल ऐसी अनेक घटनायें होती हैं जिसमें स्त्रियों के साथ बलात्कार या हत्यायें की जाती हैं। अनेक जगह तो उनको गठरी में मारकर फैंक दिया जाता है। समाज और अपराध विशेषज्ञ कहते हैं कि स्त्रियों के प्रति अपराध उनके निकटस्थ लोग ही करते हैं। कहंी परिवार तो कहीं जानपहचान वाले ही उनको निशाना बनाते हैं। हमारे यहां संयुक्त परिवार की परंपरा के विघटन के बाद स्थितियां बदली हैं। अपने परिवार तथा रिश्तेदारों की बजाय लोग गैरों पर अधिक विश्वास करने लगे हैं। पुरुष के लिये धन का विषय हो या स्त्री के सम्मान का सवाल इसमें अब विश्वासघात अपना काम करने लगा है। आजकल पुरुष हो या स्त्री चिकनी चुकड़ी बातों में आकर हाल ही दूसरे पर विश्वास करने लगते हैं। ऐसे में जहां पुरुष अपना धन तो स्त्री अपने सम्मान के साथ जान तक से हाथ धो बैठती हैं।
हमारा अध्यात्मिक ज्ञान कितना शक्तिशाली और प्रासंगिक है यह हम तभी समझ सकते हैं जब उसका अध्ययन करते हुए ज्ञान को धारण करें। इसलिये भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों का नियमित अध्ययन करना चाहिए। ऐसा करने से जहां ज्ञान प्राप्त होता है वहीं किसी से व्यवहार करने में सतर्कता का भाव पैदा होता है। तब यह भी पता लगता है कि हम ऐसे लोगों पर ही भरोसा करते हैं जिन्होंने अपना साम्राज्य ही धोखे पर खड़ा किया है। अत: अन्य लोगों पर विश्वास सीमित मात्र में ही क्या जाना चाहिए। 
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Saturday, June 04, 2011

वास्तविक शक्ति आत्म नियंत्रण से ही प्रमाणित होती है-हिन्दू धार्मिक विचार (real powar of man and woman-hindu religion message)

         किसी आदमी में कितना ‘दम’ है उसकी प्रहार क्षमता से नहीं वरन् सहने की क्षमता से प्रमाणित होता है। अक्सर हम देखते हैं कि अनावश्यक रूप से दूसरों पर हमला करने, शस्त्रों से दूसरों को डराने और ऊंचे सपंर्कों की धौंस से समाज को आतंकित करने वालों को हम दमदार आदमी कहते हैं। उसी तरह जो लोग उपभोग की प्रवृत्ति में अधिक लिप्त होते हैं उनको ताकतवर मान लिया जाता है। यह केवल भ्रम है।
इस विषय में हमारे शास्त्रों के अनुसार
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           ‘‘इन्द्रियाणां जयो लोके दम इत्यभिधीयते।
           नादान्तस्य क्रियाः काशिचद् भवन्तहि द्विजोत्तमा।।
        ‘‘इस लोक में इंद्रियों पर विजय प्राप्त करना ही ‘दम’ माना जाता है। जो मनुष्य दमयुक्त नहीं है उसकी कोई क्रिया सफल नहीं हो सकती।’’
         इन्द्रियाणां प्रसंगेन दोषमृच्छति मानवः।
        संनियभ्य तु तान्येव सिद्धिं समधिनगच्छनि।।
         ‘‘इन्द्रियों के विशेष संग से मनुष्य स्वाभाविक रूप से विकार को प्राप्त होता है परंतु इन्द्रियों को नियंत्रित रखने से उसे सिद्धि ही प्राप्त होती है।’’
               बाहर कुछ कर दिखाकर अपना दम दिखाने वालों की इस संसार में कमी नहीं है। लोग इस कदर सम्मान पाने के आतुर रहते हैं कि छल कपट और मूर्खताऐं करते हुए उनका पूरा दम निकल जाता है। इतना ही नहीं अपने से कमजोर, बालक तथा स्त्रियों के प्रति आक्रामक रवैया अपनाना हमारे देश के दमदार लोग अपनी प्रतिष्ठा और योग्यता का प्रमाण मानते हैं। सच बात तो यह है कि लोगों की वाणी वाचाल होती है जो प्रायः अपनी दमखम का प्रचार करती है। जबकि सच बात यह है कि समाज में सहिष्णुता, विद्वेष तथा लालच की भावना इस कदर बढ़ गयी है कि लोग अत्यंत कमजोर हो गये हैं। त्याग, सहयोग तथा प्रेम का भाव कमजोर लोगों का तो लूट, वैमनस्य तथा गाली गलौच करना ताकतवर लोगों की निशानी मान ली गयी है। यही कारण है कि हमारा समाज अपराध तथा घृणा के भाव का शिकार हो गया है।
            अगर हम दम या शक्ति का सही रूप समझें तो अपनी मानसिकता बदल सकते हैं। चिल्लाने में कोई दम नहीं लगता बल्कि मौन में दम का पता चलता है। लूटने में भला कैसा दम? दम तो त्याग में पता चलता है। अतः अपने दमदार रूप को दिखाने के लिये अच्छे आचरण की नीति को अपनाना चाहिए। मनुष्य की असली शक्ति किसी वस्तु को प्राप्त करने के बाद उसके उपभोग में रत हो जाने से प्रमाणित नहीं होती क्योंकि यह देह का स्वाभाविक कर्म है।  किसी मनुष्य को शक्तिशाली या दमदार तभी माना जा सकता है जब वह अपने काम से दूसरे को उपकृत करे। अपनी भूख तो सभी मिटाते हैं पर दूसरे का पेट भरने में दम लगता है।  यह तभी संभव है जब आदमी अपनी इंद्रियों पर विजय प्राप्त करे। जितेंद्रिय पुरुष अपने विषयों से परे हटकर समाज और राष्ट्र के लिये कुछ कर पाते हैं।
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लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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Wednesday, June 01, 2011

रामचरित मानस से संदेश-उच्च पद आदमी को भ्रष्ट कर देता है (ramcharit manas se sandesh-uchcha pad aadmi ka dimag kharab kar deta hai)

       जौं जिएँ होति न कपट कुव्वाली। केहि सोहाति रथ बाजि गजाली।।
        भरतंहि दोसु देह को जाएँ । जग बोराइ राज पदु पाएँ।।
            यह पद तुलसीकृत रामचरित मानस से है। बनवास में जब भरत अपने बड़े भ्राता श्रीरामचंद्र तथा लघु भ्राता लक्ष्मण से मिलने आ रहे थे तब उनके साथ गये दल के लोगों की पदचाप तथा हाथी, घोड़ों तथा रथों की तीव्र आवाजों से आकाश गुंजायमान था। उसकी ध्वनि उस स्थान तक पहुंच रही थी जहां भगवान श्रीराम अपनी धर्मपत्नी सीता तथा भ्राता लक्ष्मण सहित विराजमान थे। श्री भरत जी को दलबदल सहित आता देखकर श्रीलक्ष्मण को उनपर संशय हो गया था तब उन्होंने यह संदेह जाहिर किया कि वह हमें मारने आ रहे हैं। श्री भरत ऐसे नहीं थे पर श्रीलक्ष्मण ने जो कहा वह संसार में मनुष्य की प्रवृत्ति पर एकदम लागू होता है।
        उनका कहना था कि जब किसी को राज्य प्राप्त होता है तो उस मनुष्य की देह में स्थित अहंकार की प्रवृति चरम पर पहुंच जाती है। राजा का पद किसी को भी भ्रष्ट कर देता है। उसी  तरह जब किसी सामान्य अआद्मी के पास धन संपदा अचानक आ जाती है तो उसके भी अहंकारी होने की संभावना प्रबल हो उठती है।
        हम अक्सर समाज के शिखर पुरुषों से दया और परोपकार की आशा करते हैं पर देखते हैं कि वह तो अपने वैभव का विस्तार तथा उसके प्रदर्शन में ही अपना धर्म निभाते हैं। पद, पैसा और प्रतिष्ठा का बोझ कोई ज्ञानी ही ढो सकता है वरना तो लोगों की बुद्धि उसके नीचे दब जाती है। आदमी अपने को भगवान समझने लगता है।
राजकाज में जिसको हिस्सा मिल गया समझ लीजिये उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी। वह उसकी शक्ति प्रदर्शन करता है और अपने लिये आयी भेंट को शान समझता है। मतलब साफ है कि हम पद, पैसा, प्रतिष्ठा के शिखर पुरुषों से दया की याचना करें पर पूरी न हो तो निराश न हों क्योंकि यह तो मनुष्य का चरित्र है जिसकी व्याख्या हमारे महान लोग समय समय पर करते रहे हैं।
लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
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