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Wednesday, April 28, 2010

संत कबीरदास जी के दोहे-राम की भक्ति का रंग न चढ़े तो दोष किसे दें(ram ki bhakti ka rang-kabirdas ji ke dohe)

राम नाम को छाड़ि कर, करे और की आस।
कहैं कबीर ता नर को, होय नरक में वास।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं जो मनुष्य राम नाम का स्मरण छोड़कर विषय वासना में रत हो जाते हैं उनको नरक में जाकर निवास करना पड़ता है।
मुख से नाम रटा करैं, निस दिन साधुन संग।
कहु धौं कौन कुफेर तें, नाहीं लागत रंग।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि लोग दिन रात भगवान के नाम का जाप करते हैं, साधुओं के पास जाते हैं ऐसे में किसे दोष दें कि उनके जीवन में रंग नहीं चढ़ता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर हम अपने देश की वर्तमान दशा को देखें तो दुःख होने के साथ कभी कभी हंसी भी आती है।  शायद ही दुनियां में कोई ऐसा देश हो जहां भगवान नाम का स्मरण इतना होता हो पर जितना सामाजिक तथा आर्थिक भ्रष्टाचार है वह भी कहीं नहीं होगा।  लोग एक दूसरे को दिखाने के लिये भगवान का नाम लेने  साथ ही सत्संगों में जाकर साधुओं के प्रवचन सुनते हैं पर घर आकर सभी का व्यवहार मायावी हो जाता है। बड़े शहरों में नित प्रतिदिन धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन होने पर वहां लोगों के झुंड के झुंड शामिल होते हैं। कोई प्रवचन सुनता है तो कोई सुनते हुए दूसरे को भी सुनाता है।  कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान की भक्ति लोग केवल दिखावे के लिये करते हैं और उनका लक्ष्य केवल स्वयं को धार्मिक या अध्यात्मिक व्यक्तित्व का स्वामी होने का दिखावा करना होता है।
वैसे हम लोग विषयों के पीछे भागते हैं जबकि सच तो यह है कि वह हमें कभी छोड़ते ही नहीं अलबत्ता हम उनकी सोच को अपने दिमाग में इस तरह बसा लेते हैं कि भगवान का नाम स्मरण करने का विचार ही नहीं आता।  अगर आता भी है तो खाली जुबान से लेते हैं पर उसका स्पंदन हृदय में नहीं पहुंचता क्योंकि बीच रास्ते में विषयों की सोच रूपी पहाड़ उनका मार्ग अवरुद्ध करता है। यही कारण है कि भगवान भक्ति अधिक होने के बावजूद इस देश में नैतिक आचरण गिरता जा रहा है।  बहुत कम लोग ऐसे रह गये हैं जिनमें मानवीय संवेदनायें और सद्भावना बची है।
इस दिखावे का ही परिणाम है कि मायावी समृद्धि की तरफ बढ़ रहे देश में अहंकार, संवेदनहीनता तथा भ्रष्टाचार के कारण नारकीय स्थिति की अनुभूति होती है। जिसके परिणाम स्वरूप हम अपने देश में सामाजिक वैमनस्य की बढ़ती प्रवृत्ति भी देख सकते हैं। ऐसा अध्यात्मिक शिक्षा के प्रति अरुचि के कारण ही हो रहा है यह बात याद रखना चाहिये।
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Monday, April 26, 2010

मनु दर्शन-झूठी गवाही देने वाले को होता है जलोदर रोग (jhoothi gavahi dena bura-manu darshan)

साक्ष्येऽनृतं वदन्याशैर्बध्यते वारुणैर्भृशम्।
विवशः शमाजातीस्तरस्मात्साक्ष्यं वदेदृतम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
झूठी गवाही देने वाले मनुष्य, वरुण देवता के पाशों से बंधकर सैंकड़ों वर्षों तक जलोदर बीमारियों से ग्रसित जीवन गुजारता है। अतः हमेशा किसी के पक्ष में सच्ची गवाही ही देना चाहिये।
द्यौर्भूमिरापो हृदयं चंद्रर्काग्नि यमानिलाः।
रात्रिः सन्ध्ये च धर्मख्च वृत्तजाः सर्वदेहिनाम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
मनु महाराज के अनुसार आकाश, पृथ्वी, पानी, हृदय, चंद्र, सूर्य, अग्नि, यम, वायु, रात संध्या और धर्म सभी प्राणियों के सत् असत् कर्मों को देखते हैं। इनको देवता ही समझना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-क्या हम सोचते हैं कि हम कोई भी काम कर रहे हैं तो दूसरा कोई उसे नहीं देख रहा? ऐसी गलती कभी न पालें। इस धरा पर ऐसे कई जीव विचरण कर रहे हैं जिनको हम नहीं देख पाते पर वह हमें देख रहे हैं। दूसरों की छोड़िये अपने अंदर के हृदय को ही कहां देख पाते हैं। यह हृदय भी देवता है पर उसे कहां समझ पाते हैं? वह लालायित रहता है धर्म और परोपकार का कार्य करने के लिये पर मनुष्य मन तो हमेशा अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर विचरण करता है। एक नहीं अनेक बार झूठ बोलते हैं। दूसरों की निंदा करने के लिये प्रवृत्त होने पर उसके लिये ऐसे किस्से गढ़ते हैं कि जो हम स्वयं जानते हैं कि वह सरासर झूठ है। मगर बोलते हैं यह मानते हुए कि कोई देख नहीं रहा है।

ऐसे भ्रम पालकर हम स्वयं को धोखा देते हैं। इस चंद्रमा, सूर्य नारायण, प्रथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश के साथ हमारा हृदय देवता सब देख रहा है। समय आने पर यह देवता दंड भी देते हैं। अतः कोई भी अच्छा काम करते हुए इस बात की चिंता नहीं करना चाहिये कि कोई उसे देख नहीं रहा तो क्या सुफल मिलेगा तो बुरा कर्म करते हुए इस बात से लापरवाह भी न हों कि कौन देख रहा है जो सजा मिलेगी? झूठी गवाही देने वाले का बुरा हश्र होता है यह बात हमेशा याद रखना चाहिए।
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Friday, April 23, 2010

श्रीगुरुवाणी-घमंड अनेक संकटों का कारण (shri guruvani-ghamand sankat ka karan

‘हउमै नावै नालि विरोध है, दोए न वसहि इक थाई।।’
हिन्दी में भावार्थ-
मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्गुण अहंकार है और इससे अन्य बुराईयां भी पैदा होती है।
जह गिआन प्रगासु अगिआन मिटंतु।
हिन्दी में भावार्थ-
गुरु ग्रंथ साहिब के मतानुसार जिस प्रकार अंधेरे को दूर करने के लिये चिराग की आवश्यकता होती है उसी तरह अज्ञान रूपी अंधेरे को दूर करने के लिये प्रकाश आवश्यक है।
‘हउमै दीरघ रोग है दारु भी इस माहि।
किरपा करे जो आपणी ता गुर का सब्दु कमाहि।।’
हिन्दी में भावार्थ-
अहंकार एक भयानक रोग है जिसकी जड़ें बहुत गहरे तक फैल जाती हैें। इसका इलाज गुरु की कृपा से प्राप्त शब्द ज्ञान से ही संभव हो सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सभी जानते हैं कि अहंकार करना एक बुराई है पर इस रोग को पहचानना भी कठिन है। इसकी वजह यह है कि पंच तत्वों से बनी इस देह में मन और बुद्धि के साथ अहंकार की प्रकृत्ति भी स्वयंमेव बनती है। अनेक बार एक मनुष्य को दूसरे का अहंकार दिखाई देता है पर स्वयं का नहीं। इतना ही नहीं जब कोई व्यक्ति आक्रामक होकर दूसरों के विरुद्ध विषवमन करता है तब सभी लोग उसे अहंकारी कहते हैं जबकि सच यह है कि अहंकार कभी न कभी किसी में आता है या यूं कहें कि यह सभी में रहता है।
किसी भी कर्म में अपने कर्तापन की अनुभूति करना ही अहंकार है। जब मन में यह विचार आये कि ‘मैंने यह किया’ या ‘वह किया’ तब समझ लीजिये कि वह हमारे अंदर बैठा अहंकार बोल रहा है। फिर इससे आगे यह भी होता है कि जब हम किसी का कार्य करते हैं और उसका प्रतिफल भौतिक रूप से नहीं मिलता तब भारी निराशा घेर लेती है। आजकल आप किसी से भी चर्चा करिये वह अपने रिश्तेदारेां, मित्रों और सहकर्मियों के विश्वासघात की शिकायत करता मिलेगा। अहंकार का एक रूप यह भी है कि किसी से एक मनुष्य का काम कर दिया तो वह इस कारण भी उसका काम नहीं करता क्योंकि उसको लगता है कि वह छोटा हो जायेगा-अधिकतर लोग ऐसे भी हैं जो दूसरे के द्वारा कार्य करने पर अहसान मानने की बजाय हक अनुभव करते हैं तो कुछ लोगों को लगता है कि उनके गुणों के कारण कोई स्वार्थवश सेवा कर रहा है तो यह हमारी श्रेष्ठता का प्रमाण है। यही अहंकार मनुष्यों के बीच संघर्ष का कारण बनता है। अतः समय समय पर आत्ममंथन करते हुए इस अहंकार रूप बीमारी से दूर रहना चाहिये।
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Thursday, April 22, 2010

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-हंसों में बगुले की तरह होता है ज्ञानियों में अज्ञानी (economic of kautilya-hans aur bagula)

माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा।।
हिन्दी में भावार्थ--
ऐसे माता पिता अपनी संतान के बैरी है जो उससे शिक्षित नहीं करते। अशिक्षित व्यक्ति कभी भी बुद्धिमानो की सभा में सम्मान नहीं पाता। वहां उसकी स्थिति हंसों के झुण्ड में बगुले की तरह होती है।
पुत्राश्च विविधेः शीलैर्नियोज्याः संततं बुधैः।
नीतिज्ञा शीलसम्पनना भवन्ति कुलपजिताः।।
हिन्दी में भावार्थ-
बुद्धिमान व्यक्ति अपने बच्चों को पवित्र कामों में लगने की प्रेरणा देते हैं क्यों श्रद्धावान, चरित्रवान तथा नीतिज्ञ पुरुष ही विश्व में पूजे जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-ऐसे समाचार अक्सर आते हैं कि माता पिता को उनके बच्चों ने छोड़ दिया या उनकी देखभाल नहीं करते। अपने देश में बुजुर्गों की देखभाल बच्चों के ही द्वारा की जाये इसके लिये कानून भी बनाया गया। मगर एक सवाल जो कोई नहीं उठाता कि आखिर बुजुर्गों की ऐसी स्थिति ऐसी होती क्यों है? पहले तो ऐसा नहीं होता था। दरअसल पाश्चात्य शिक्षा में केवल रोजगार प्राप्त करने का ही पाठ्यक्रम होता है-वह भी सेठ या पूंजीपति बनने की नहीं बल्कि गुलाम बनाने की योजना का ही हिस्सा है। ऐसे में शिक्षित व्यक्ति नौकरी आदि के चक्कर में अपने परिवार से दूर हो जाता है। ऐसे कई परिवार हैं जिसमें तीन तीन लड़के हैं पर सभी नौकरी के लिये अपने माता पिता को छोड़ जाते हैं। माता पिता अपनी संपत्ति की रक्षा उनके लिये करते हुए अकेले रह जाते हैं। इसके अलावा अगर उनके पास संपत्ति नहीं भी है तो नौकरी पर लगे बेटे के पास दूसरे शहर में वैसा मकान या रहने की स्थिति नहीं है जिससे वह अपने माता पिता को दूर रखता है। जहां तक समाज का काम है वह तो कहता ही रहता है कि अमुक आदमी ऐसा है या वैसा है पर सच यही है कि पाश्चात्य रहन सहन ने समाज में एक तरह से विघटन पैदा किया है और इसके लिये जिम्मेदारी वह माता पिता भी हैं जो अपनी संतान को सही शिक्षा नहीं देते। वह आधुनिक विद्यालयों में अपने बच्चों को शिक्षा के लिये भेजकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं।
दूसरा भी एक सवाल है जिससे कोई नहीं उठाता कि माता पिता यह कहते हैं कि हमने बच्चे को पढ़ाया लिखाया पर उससे वह आखिर बना ही क्या? एक नौकर न! ऐसे में आजकल के लोगों के सामने यह भी समस्या है कि अपनी नौकरी से जूझते हुए अपने परिवार की देखभाल उनके लिये कठिन हो जाती है। ऐसे में पारिवारिक तनाव भी उनके लिये एक संकट हो जाता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि माता पिता अपने बच्चों से उन संस्कारों का फल चाहते हैं जो उन्होंने उनमें बोये ही नहीं। वह केवल अपने बच्चों को कमाने और खाने के अलावा कोई अन्य शिक्षा देते ही नहीं-जिससे वह समाज या धर्म का मतलब समझे-फिर बाद में उसे ही कोसते हैं। इसलिये होना तो यह चाहिए कि बच्चों को आधुनिक शिक्षा के साथ प्राचीन ज्ञान भी प्रदान करने का माता पिता दायित्व स्वयं उठायें। जो माता पिता गुरु का भार स्वयं उठाते हैं उनके बच्चे तेजस्वी बनते हैं।
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Tuesday, April 20, 2010

भर्तृहरि नीति शतक-स्वर्ग की कल्पना अल्पज्ञान की देन (hindu dharma sandesh-swarg ki kalpana)

स्वपरप्रतारकोऽसौ निन्दति योऽलीपण्डितो युवतीः।
यस्मात्तपसोऽपि फलं स्वर्गस्तस्यापि फलं तथाप्सरसः।।
हिन्दी में भावार्थ-
शास्त्रों का अध्ययन करने वाले कुछ अल्पज्ञानी विद्वान व्यर्थ ही स्त्रियों की निंदा करते हुए लोगों को धोखा देते हैं क्योंकि तपस्या तथा साधना के फलस्वरूप जिस स्वर्ग की प्राप्ति होती है उसमें भी तो अप्सराओं के साथ रमण करने का सुख मिलने की बात कही जाती है।
उन्मतत्तप्रेमसंरम्भादारभन्ते यदंगनाः।
तत्र प्रत्यूहमाधातुं ब्रह्मापि खलु कातरः।
हिन्दी में भावार्थ-
प्रेम में उन्मत होकर युवतियां अपने प्रियतम को पाने के लिये कुछ भी करने लगती हैं। उनके इस कार्य को रोकने का ब्रह्मा भी सामर्थ्य नहीं रखता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-विश्व के अनेक धर्मों की बड़ी बड़ी किताबें लिखी गयी हैं। उन सभी को पढ़ना कठिन है, पर कोई एक भी पढ़ी जाये तो उसमें तमाम तरह की विसंगतियां नज़र आती है। अधिकतर धार्मिक पुस्तकों के रचयिता पुरुष हैं इसलिये स्त्रियों पर नियंत्रण रखने के लिये विशेष रूप से कुछ कुछ लिखा गया है। यह शोध का विषय है कि आखिर सारे धर्म ही स्त्रियों पर नियंत्रण की बात क्यों करते हैं पुरुष को तो एक देवता मानकर प्रस्तुत किया जाता है। सच बात तो यह है कि अगर पुरुष देवता नहंी है तो नारी भी कोई देवी नहीं है। हर मनुष्य परिस्थतियों, संस्कारों और व्यक्तिगत बाध्यताओं के चलते अपना सामाजिक व्यवहार करता है। अब यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसे प्रेरणा कैसी मिलती है। अगर प्रेरणास्त्रोत बुरा है तो वह भी बुरा ही करेगा अगर अच्छा है तो वह अच्छे काम में लिप्त हो जायेगा।
दूसरी जो सबसे बड़ी अहम बात है वह यह कि हर पुरुष और स्त्री का व्यवहार तय करने में उसकी आयु का बहुत योगदान होता है। बाल्यकाल तो अल्लहड़पन में बीत जाता है। उसके बाद युवावस्था में स्त्री पुरुष दोनों का मन नयी दुनियां को देखने के लिये लालायित होता है। विपरीत लिंग का आकर्षण उनको जकड़ लेता है। ऐसे में उन पर जो नियंत्रण की बात करते हैं वह या तो बूढ़े हो चुके होते हैं या फिर जिनका जीवन असाध्य कष्टों के बीच गुजर रहा होता है। कभी कभी तो यह लगता है कि दुनियां के अनेक धर्म ग्रंथ बूढ़े लोगों द्वारा ही लिखे या लिखवाये गये हैं क्योंकि उसमें औरतों पर ही नियंत्रण की बात की जाती है पुरुष को तो स्वाभाविक रूप से आत्मनिंयत्रित माना जाता हैं स्त्रियों के लिये मुंह ढंकने, पिता या भाई के साथ ही घर के बाहर निकलने तथा ऊंची आवाज में न बोलने जैसी बातें कहीं जाती हैं। कभी कभी तो लगता है कि युवतियों की युवावस्था अनेक धर्म लेखकों और विद्वानों के बहुत बुरी लगती है। इसलिये अतार्किक और अव्यवाहारिक बातें लिखते हैं। स्त्री हो या पुरुष युवावस्था में स्वाभाविक रूप से हर जीव अनिंयत्रित होता है-मनुष्य ही नहीं पशु पक्षियों में भी काम वासना की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से देखी जाती है। इस पर युवा स्त्रियों पर नियंत्रण की बात तो व्यर्थ ही लगती है क्योंकि अपने प्रियतम को पाने के लिये जो वह करती हैं उसे रोकने का सामर्थ्य तो विधाता भी नहीं रखता। अलबत्ता सभ्य, कुलीन, शिक्षित तथा बुद्धिमान लड़कियां स्वयं पर नियंत्रण रखती हैं इसलिये ही समाज में अभी तक नैतिकता का आधार बना हुआ है। ऐसी लड़कियों को धार्मिक शिक्षक न भी समझायें तो भी वह मर्यादा में रहती हैं पर जो भटकने पर आमादा है उनको रोकना किसी के लिये संभव नहीं है। कम से कम भर्तृहरि महाराज की समझाइश के अनुसार तो स्त्रियों पर सामाजिक नियंत्रण की बात तो करना ही नहीं चाहिए। दूसरी बात यह कि स्वर्ग कि कल्पना वास्तविकता पर आधारित न होकर अज्ञानियों तथा अल्पज्ञानियों की कल्पना मात्र है।
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Saturday, April 17, 2010

पतंजलि योग दर्शन-योगाभ्यास से उत्पन्न विवेक से प्रकाश फैलता है

योगांगनुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः।।
हिन्दी में भावार्थ-
योग साधना के द्वारा अंगों का अनुष्ठान करने से अशुद्धि का नाश होने पर जो विवेक का प्रकाश फैलता है उससे निश्चित रूप से ख्याति मिलती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-पतंजलि योग शास्त्र में न केवल योगासन, प्राणायाम तथा ध्यान की व्याख्या है बल्कि उसका महत्व भी दिया गया है।  अक्सर लोग योगासनों को सामान्य व्यायाम कहकर प्रचारित करते हैं जबकि इसे पतंजलि वैसा ही अनुष्ठान मानते हैं जैसे कि द्रव्य द्वारा किये जाने वाले यज्ञ और हवन।
श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण भी योग साधना को एक तरह से यज्ञ मानने का संदेश देते हैं। अगर उनका आशय समझा जाये तो एक तरह से वह अपने भक्तों से इसी यज्ञ की अपेक्षा करते हुए कहते हों कि ‘मुझे योग यज्ञ से उत्पन्न ऊर्जा ही समर्पित करें।’
भगवान श्रीकृष्ण का आशय समझा जाये तो वह  यज्ञ से उत्पन्न अग्नि से ही संतुष्ट होते हैं।  यह यज्ञ सामग्री एक तरह से हमारा पसीना है जिससे देह के विकार निकलकर बाहर आकर नष्ट होते हैं और फिर प्राणयाम तथा ध्यान के संयोग से  उत्पन्न अमृत से  संपन्न हृदय के भाव  हम मंत्रोच्चार के द्वारा परमात्मा को प्रसाद की तरह चढ़ाते हैं।  सर्वशक्तिमान की इच्छा यही होती है कि उसका हर बंदा प्रसन्न और शुद्ध भाव से युक्त हो। योगसाधना उसका एक मार्ग है।  जो लोग योग साधना करते हैं उनको किसी अन्य प्रकार के अनुष्ठान की तो आवश्यकता ही नहीं रह जाती क्योंकि अपने मन, विचार, और बुद्धि की शुद्धि करने से स्वयं ही भक्ति का भाव पैदा होता है।  यह प्रक्रिया इतनी स्वाभाविक होती है कि मनुष्य को फिर किसी अन्य प्रकार से भक्ति करना सुहाता ही नहीं है क्योंकि पूरा दिन उसका मन और शरीर प्रफुल्लित भाव से विचरण करता है और रात्रि को विश्रामकाल प्रतिदिन मोक्ष प्राप्त करते हुए व्यतीत हो जाता है।
सबसे बड़ा लाभ यह है कि योगासन, प्राणायाम तथा ध्यान से हमारी शरीर और मन की अशुद्धि दूर होने के बाद हमारे कर्म व्यवहार में जो आकर्षण उत्पन्न होता है उससे ख्याति फैलती है। इतना ही नहीं चेहरे पर तेजस्वी भाव देखकर दूसरे लोग प्रभावित भी होते हैं। एक बात याद रखें कि  इसका मतलब यह कतई नहीं है कि योग साधना से कोई चमत्कारी सिद्धि  मिल जाती है अलबत्ता मन और देह में पवित्रता आने से हमारे हाथ से अच्छे काम होते हैं जिससे उसका फल भी अच्चा मिलता है

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Friday, April 16, 2010

भर्तृहरि नीति शतक-यहाँ हर कोई अभिनेता है (all men is actor-hindu dharma sandesh)

क्षणं बालो भूत्वा क्षणमपि युवा कामरसिकः क्षणं वितैहीनः क्षणमपि च संपूर्णविभवः।
जराजीर्णेंगर्नट इव वलीमण्डितततनुर्नरः संसारान्ते विशति यमधानीयवनिकाम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
क्षण भर के लिये बालक, क्षणभर के लिये रसिया, क्षण भर में धनहीन और क्षणभर में संपूर्ण वैभवशाली होकर मनुष्य बुढ़ापे में जीर्णशीर्ण हालत में में पहुंचने के बाद यमराज की राजधानी की तरफ प्रस्थित हो जाता है। एक तरह से इस संसार रूपी रंगमंच पर अभिनय करने के लिये मनुष्य आता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर हम अपने जीवन को एक दृष्टा की तरह देखें तो इस बात का अहसास होगा कि हम वास्तव में इस धरती पर आकर रंगमचीय अभिनय की प्रस्तुति के अलावा दूसरा क्या करते हैं? अपने नित कर्म में लग रहते हुए हमें यह पता ही नहीं लगता कि हमारी देह बालपन से युवावस्था, अधेड़ावस्था और और फिर बुढ़ापे को प्राप्त हो गयी। इतना ही नहीं हम अपने गुण दोषों के साथ इस बात को भी जानते हैं कि अनेक प्रकार की दैहिक और मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति के बिना हम चल ही नहीं सकते। इसके बावजूद अपने आपको दोषरहित और कामनाओं से रहित होने का बस ढोंग करते हैं। अनेक मनुष्य अपने आपको श्रेष्ठ साबित करने के लिये हम आत्मप्रवंचना तो करते हैं पर उनके हाथ से किसी का भला हो, यह सहन नहीं करते।
गरीबों का कल्याण या बालकों को शिक्षा देने की बात तो सभी करते हैं पर कितने लोग अपनी कसौटी पर खरे उतरते हैं यह सभी जानते हैं। स्थिति यह है कि हमारे देश में अनेक लोग बच्चों को अध्यात्मिक शिक्षा इसलिये नहीं देते कि कहीं वह ज्ञानी होकर उनकी बुढ़ापे में उनकी सेवा करना न छोड़ दे। भले ही आदमी युवा है पर उसे बुढ़ापे की चिंता इतनी सताती है कि वह भौतिक संग्रह इस सीमा तक करता है कि उस समय उसके पास कोई अभाव न रहे। कहने का अभिप्राय है कि हर आदमी अपनी रक्षा का अभिनय करता है पर दिखाता ऐसे है कि जैसे कोई बड़ा परमार्थी हो। इस अभिनय के फन में हर कोई माहिर है। 
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Wednesday, April 14, 2010

भर्तृहरि नीति शतक-धन की उष्मा से मनुष्य की प्रतिष्ठा बढ़ती है (Dhan aur pratishtha-hindi sandesh)

तानीन्द्रियाण्यविकलानि तदेव नाम सा बुद्धिप्रतिहता वचनं तदेव।
अर्थोष्मणा विरहितः पुरुष क्षणेन सोऽप्यन्य एव भवतीति विचित्रमेतत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
एक जैसी इंद्रियां, एक जैसा नाम और काम, एक ही जैसी बुद्धि और वाणी पर फिर भी जब आदमी धन की गरमी से क्षण भर में रहित हो जाता है। इस धन की बहुत विचित्र महिमा है।
 यसयास्ति वित्तं स नरः कुलीन स पण्डित स श्रुतवान्गुणज्ञः।
स एव वक्ता स च दर्शनीयः।
सर्वे गुणा कांचनमाश्रयन्ति।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस मनुष्य के पास माया का भंडार उसे ही कुलीन, ज्ञानी, गुणवान माना जाता है। वही आकर्षक है। स्पष्टतः सभी के गुणों का आंकलन उसके धन के आधार पर किया जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह समाज भर्तृहरि महाराज के समय में भी था और आज भी है। हम बेकार में परेशान होकर कहते हैं कि ‘आजकल का जमाना खराब हो गया है।’ सच बात तो यह है कि सामान्य मनुष्य की प्रवृत्तियां ही ऐसी है कि वह केवल भौतिक उपलब्धियां देखकर ही दूसरे के गुणों का आंकलन  करता है। इधर गुणवान मनुष्य अपने अंदर गुणों का संचय करते हुए इतना ज्ञानी हो जाता है कि वह इस बात को समझ लेता है कि उनसे ही उसके जीवन की रक्षा होगी। इसलिये वह समाज में प्रतिष्ठा अर्जित करने के लिये कोई अधिक प्रयास नहीं करता। उधर अल्पज्ञानी और ढोंगी लोग थोड़ा पढ़लिखकर सामान्य व्यक्तियों के सामने अपनी चालाकियों के सहारे उन्हीं से धन वसूल कर प्रतिष्ठित भी हो जाते हैं। यह अलग बात है कि इतिहास हमेशा ही उन्हीं महान लोगों को अपने पन्नों में दर्ज करता है जिन्होंने अपने गुणों से वास्तव में समाज को प्रभावित किया जाता है।
इसका एक दूसरा पहलू भी है। अगर हमारे पास अधिक धन नहीं है तो इस बात की परवाह नहीं करना चाहिए। समाज के सामान्य लोगों की संकीर्ण मानसिकता का विचार करके अपने सम्मान और असम्मान की उपेक्षा कर देना चाहिए।  जिसके पास धन है उसे सभी मानेंगे। आप अच्छे लेखक, कवि, चित्रकार या कलाकार हैं पर उसकी अगर भौतिक उपलब्धि नहीं होती तो फिर सम्मान की आशा न करें। इतना ही नहीं अगर आप परोपकार के काम में लगे हैं तब भी यह आशा न करें  कि बिना दिखावे के आपका   कोई सम्मान करेगा। सम्मान या असम्मान ली  उपेक्षा करने के बाद आपके अंदर एक आत्मविश्वास पैदा होगा जिससे जीवन में अधिक आनंद प्राप्त कर सकेंगे। इस संसार में आम इंसानों से तो यह आशा भी नहीं करना चाहिए कि वह सम्मान देंगे। अगर आप धनवान, उच्च पदस्थ और बाहुबली नहीं हैं और सम्मान असम्मान के परे हैं तो अपने जीवन का आन्नद उठा सकते हैं वर्ना तो अपने अभावों पर रोते रहिये जिससे अपनी देह और मन को कष्ट देने के अलावा और कुछ नहीं मिलता।
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Tuesday, April 13, 2010

संत कबीर दर्शन-गुरु भक्ति के बिना राजा भी गधा (Guru Bhakti ke bina-kabir ke dohe)

तेहि घर किसका चांदना, जिहि घर सतगुरु नाहिं।
महात्मा कबीरदास जी कहते हैं कि चौसठ कलाओं और चौदह विद्याओं की जानकारी होने पर पर अगर सत्गुरु का ज्ञान नहीं है तो समझ लीजिये अंधियारे में ही रह रहे हैं।
कबीर गुरु की भक्ति बिन, राज ससभ होय।
माटी लदै कुम्हार की, घास न डारै कोय।।
महात्मा कबीरदास जी कहते हैं कि गुरु की भक्ति के बिना राजा भी गधा होता है जिस पर कुम्हार दिन भर मिट्टी लादेगा और कोई घास भी नहीं डालेगा।
चौसठ दीवा जाये के, चौदह चन्दा माहिं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समाज में बढ़ती भौतिकतावादी प्रवृत्ति ने अध्यात्मिक ज्ञान से लोगों को दूर कर दिया है। हालांकि टीवी चैनलों, रेडियो और समाचार पत्र पत्रिकाओं में अध्यात्मिक ज्ञान विषयक जानकारी प्रकाशित होती है पर व्यवसायिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिये लिखी गयी उस जानकारी में तत्व ज्ञान का अभाव होता है। कई जगह तो अध्यात्मिक ज्ञान की आड़ में धार्मिक कर्मकांडों का प्रचार किया जा रहा है। इसके अलावा टीवी चैनलों में अनेक बाबाओं के अध्यात्मिक प्रवचनों के कार्यक्रम भी प्रस्तुत होते हैं पर उनका उद्देश्य केवल मनोरंजन करना ही है। वैसे भी समाज में ऐसे गुरुओं का अभाव है जो तत्वज्ञान प्रदान कर सकें क्योंकि उसके जानने के बाद तो मनुष्य का हृदय निरंकार में लीन हो जाता है जबकि पेशेवर धर्म विक्रेता अपने शब्दों को सावधि जमा में निवेश करते हैं जिससे कि वह हमेशा पैसा और सम्मान वसूल करते रहें। कभी कभी तो लगता है कि लोग धर्म के नाम पर केवल शाब्दिक बोझा अपने सिर पर ढो रहे हैं।
दूसरी बात यह है कि मनुष्य के हृदय में अगर तत्वज्ञान स्थापित हो जाये तो वह अपने सांसरिक कार्य निर्लिप्त भाव से कार्य करते हुए किसी की परवाह नहीं करता जबकि सभी लोग चाहते हैं कि कोई उनकी परवाह करे। तत्वाज्ञान के अभाव में मनुष्य को एक तरह से गधे की तरह जीवन का बोझ ढोना पड़ता है। यह बात समझ लेना चाहिये कि जीवन तो सभी जीते हैं पर तत्वाज्ञानियों के चेहरे पर जो तेज दिखता है वह सभी में नहीं होता। इसलिये किसी को गुरु माानने से पहले उसके चेहरे और व्यवहार से दिखने वाले तेज का अध्ययन करना चाहिए। जिनको तत्वज्ञान नहीं है वह कुछ देर बातें तो आदर्श की करेंगे पर जब व्यवहार की बात आयेगी तो फिर सामान्य सांसरिक व्यक्ति की चाल चलने लगते हैं। ऐसे में उनको गुरु मानकर उनके पीछे फिरने से कोई लाभ नहीं होता।
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Sunday, April 11, 2010

संत कबीर के दोहे-नशे का सेवन करने वाले इस संसार का दरिया पार नहीं कर सकते

अमल आहारी आतमा, कबहुं न पावै पार।
कहैं कबीर पुकारि के, त्यागो ताहि विचार।।
कबीरदास जी कहना है कि नशे का सेवन करने वाले इस संसार रूपी दरिया को कभी पार नहीं कर सकते। अतः नशीली वस्तुओं का सेवन त्याग देना चाहिए।
छाजन भोजन हक्क है, अनाहक लेय।
आपन दोजख जात है, और दोजख देय।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं हर इंसान को भोजन पाने का हक है पर वह ऐसी वस्तुओं का सेवन करता है जिन पर उसका हक नहीं है। वह स्वयं तो नरक में जाता ही है दूसरों के लिये भी संकट पैदा करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिस सर्वशक्तिमान ने जीव को पैदा किया है उसने उनके लिये भोजन की भी व्यवस्था की है। मनुष्य ही नहीं हर जीव का यह अधिकार है कि वह भोजन प्राप्त करे। पशु और पक्षी भी अपने भाग्य के अनुसार भोजन प्राप्त करते हैं पर मनुष्य ऐसा जीव है जो नशीने पदार्थों को सेवन करता है। नशीले पदार्थ ग्रहण करना उसका अधिकार नहीं है पर वह जबरन उनको ग्रहण करता है। इससे न वह स्वयं ही नरक भोगता है बल्कि दूसरों के सामने इस धरती पर नरक जैसा दृश्य प्रस्तुत करता है। पहले हुक्के का प्रचलन था जबकि आजकल सिगरेट और बीड़ी ने उसकी जगह ले ली है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार इनके सेवन करने वाला अपने शरीर की हानि तो करता ही है, पर वह जो धुंआ वातावरण में छोड़ता है उससे उसके पास बैठने वाले व्यक्ति को कहीं अधिक हानि होती है। इसके अलावा उसका धुआं विषाक्त गैस बनकर आसपास के लोगों को भी तकलीफ पहुंचाता है।
जो सिगरेट और बीड़ी का सेवन करते हैं उनको यह अनुमान ही नहीं होता कि उनके धुऐं की वजह से उनके अपने ही लोग उनको घृणा की दृष्टि से देखते हैं। यही स्थिति शराब की है। अनेक बार सार्वजनिक स्थानों पर पास खड़े शराबियों में मुख से आने वाली दुर्गंध कष्टदायी लगती है और लोग उनको कभी घृणित दृष्टि से देखते हैं। इस तरह धुम्रपान तथा शराब को सेवन त्याग देना ही उचित है क्योंकि इनके सेवन का अधिकर मनुष्य का नहीं है। जो मनुष्य व्यसन करता है वह अपना ही नहीं दूसरे का जीवन भी नारकीय बनाता है। 
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Friday, April 09, 2010

विदुर नीति-उपकार करे वही सच्चा बंधु (upkar kare vahi bandhu-hindi sandesh)

सा बन्धुर्योऽनुबंघाति हितऽर्ये वा हितादरः।
अनुरक्तं विरक्त वा तन्मिंत्रमुपकारि यत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
वही बंधु है जो हमारे उद्देश्य की पूर्ति में सहायक होने के साथ आदर करने वाला हो। अनुरक्त हो या विरक्त पर उपकार आवश्यक करे वही सच्चा बंधु है।  


 मित्रं विचार्य बहुशो ज्ञातदोषं परित्येजेत्।
त्यंजन्नभूतेदोषं हि धर्मार्थावुपहन्ति हिं।।
हिन्दी में भावार्थ-
नीति विशारद कौटिल्य के अनुसार अपने मित्रों के बारे में विचार करना चाहिए। अगर उनमें छल कपट या अन्य दोष दिखाई दे तो उसे त्याग दें।  ऐसा न करने पर न केवल धर्म की हानि होती है बल्कि जीवन में कष्ट भी उठाना पड़ता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समय के साथ समाज में खुलापन आ रहा है और मित्र संग्रह में लोगों की लापरवाही का नतीजा यह है कि सभी जगह खुद के साथ धोखे की शिकायत करते हुए मिलते हैं।  इतना ही नहीं युवा पीढ़ी तो हर मिलने और बातचीत करने वाले को अपना मित्र समझ लेती है। मित्र के गुणों की पहचान कोई नहीं करता।

मित्र का सबसे बड़ा गुण है कि वह हर समय सहयोग के लिये तत्पर दिखता  हो। इसके अलावा वह अन्य लोगों के सामने अपमानित न करे और साथ ही समान विचारधारा वाला हो। स्वभाव के विपरीत होने पर या विचारों की भिन्नता वाले से अधिक समय तक मित्रता नहीं चलती अगर चलती है तो धर्म की हानि उठानी पड़ सकती है।   इसके अलावा मित्र वह है जो कहीं अपने मित्र की गुप्त बातों को कहीं उजागर न करता हो।  इतना ही नहीं मित्र का अन्य मित्रों का समूह और कुल भी अनुकूल होना चाहिये।   अगर वह केवल दिखावे की मित्रता करता है तो आपके वह रहस्य जो दूसरों के जानने योग्य नहीं है सभी को पता चल जाते हैं।  दूसरी बात यह है कि मित्र जब हमारे साथ होता है तब हमारा लगता है पर जब दूसरी जगह होता है तो दूसरों का होता है-यह विचार भी करना चाहिये।

कुछ लोग केवल स्वार्थ की वजह से मित्रता करते हैं-वैसे आजकल अधिकतर संख्या ऐसे ही लोगों की है-इस विचार करना चाहिऐ। एकांत में  हमेशा अपने मित्र समूह पर चिंतन करते हुए जिनमें दोष दिखता है या जिनकी मित्रता सतही प्रतीत होती है उनका त्याग कर देना चाहिये।
इसके अलावा निकट रहने पर मित्र के प्रति अपने भाव का अवलोकन भी उससे कुछ समय दूर रहकर करना चाहिये। निकट रहने पर उसके प्रति मोह रहता है इसलिये यह पता नहीं लगता कि उसकी नीयत क्या है? दूर रहने पर उससे मोह कम हो जाता है तब यह पता लगता है कि उसके प्रति हमारे मन में क्या है? इतना ही न अपने बच्चों के मित्रों और मिलने जुलने वालों पर भी दृष्टिपात करना चाहिये। आजकल काम की व्यस्तताओं की वजह  से माता पिता को अपने बच्चों की देखभाल का पूरी तरह अवसर नहीं मिल पाता इसलिये उनको बरगलाने की घटनायें बढ़ रही है।  ऐसा उन्हीं माता पिता के साथ होता है जो अपने बच्चों के मित्रों की यह सोचकर उपेक्षा कर देते हैं कि ‘वह क्या कर लेगा?’
कहने का तात्पर्य यह है कि अपने घर के सदस्यों के मित्रों पर दृष्टिपात करना चाहिये। अगर अपने मित्र दोषपूर्ण लगें तो उनसे दूरी बनायें और घर के सदस्यों के हों तो उन्हें इसके लिये प्रेरित करें।  मित्र के गलत होने पर धर्म की हानि अवश्य होती है। इसलिए हितेषियों को ही अपना मित्र समझना चाहिए

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Thursday, April 01, 2010

चाणक्य दर्शन-अपयश से प्राप्त धन किसी काम का नहीं (hindi adhyamik sandesh-Dhan aur yash)


अतिक्लेशेन ये चार्था धर्मस्यातिक्रमेण तु।
शत्रूणां प्रणिपातेन ते ह्यर्था मा भवंतु में।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस धन की प्राप्ति दूसरों को क्लेश पहुंचाने या शत्रु के सामने सिर झुकाने से हो वह स्वीकार करने योग्य नहीं है।
पर-प्रोक्तगुणो वस्तु निर्गृणऽपि गुणी भवेत्।
इन्द्रोऽ लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गृणैः।।
हिन्दी में भावार्थ-
चाहे कोई मनुष्य कम ज्ञानी हो पर अगर दूसरे उसके गुणों की प्रशंसा करते हैं तो वह गुणवान माना जायेगा किन्तु जो पूर्ण ज्ञानी है और स्वयं अपना गुणगान करता है तो भी वह प्रशंसनीय नहीं माना जा सकता, चाहे भले ही स्वयं देवराज इंद्र हो।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-थोथा चना बाजे घना इसलिये ही कहा जाता है कि जिसके पास गुण नहीं है वह अपने गुणों की व्याख्या स्वयं करता है। यह मानवीय प्रकृत्ति है कि अपने घर परिवार के लिये रोटी की जुगाड़ में हर कोई लगा है और विरले ही ऐसे लोग हैं जो दूसरों के हित की सोचते हैं पर अधिकतर तो खालीपीली प्रशंसा पाने के लिये लालायित रहते हैं। धन, वैभव और भौतिक साधनों के संग्रह से लोगों को फुरसत नहीं है पर फिर भी चाहते हैं कि उनको परमार्थी मानकर समाज प्रशंसा प्रदान करे। वैसे अब परमार्थ भी एक तरह से व्यापार बन गया है और लोग चंदा वसूल कर यह भी करने लगे हैं पर यह धर्म पालन का प्रमाण नहीं है। यह अलग बात है कि ऐसे लोगों का कथित रूप से सम्मान मिल जाता है पर समाज उनको ऐसी मान्यता नही देता जैसी की वह अपेक्षा करते हैं। ऐसे लोग स्वयं ही अपनी प्रशंसा में विज्ञापन देते हैं या फिर अपनी प्रशंसा में लिखने और बोलने के लिये दूसरे प्रचारकों का इंतजाम करते हैं। कहीं कहीं तो ऐसा भी होता है कि ‘तू मुझे चाट, मैं तुझे चाटूं’, यानि एक दूसरे की प्रशंसा कर काम चलाते हैं। इसके बावजूद यह वास्तविकता है कि हृदय से केवल सम्मान उसी को प्राप्त होता है जो ईमानदारी सें परमार्थ का काम करते हैं।
धन प्राप्त तो कहीं से भी किया जा सकता है पर उसका स्त्रोत पवित्र होना चाहिये। दूसरों को क्लेश पहुंचाकर धन का संग्र्रह करने से पाप का बोझ सिर पर चढ़ता है। उसी तरह ऐसा धन भी प्राप्त करने का प्रयास नहीं करना चाहिये जो शत्रु के सामने सिर झुकाकर प्राप्त होता है। आखिर मनुष्य धन किसी लिये प्राप्त करता है? यश अर्जित करने के लिये! अगर शत्रु के आगे सिर झुका दिया तो फिर वह कहां रह जायेगा। धन आखिर आदमी प्राप्त करता ही किसलिये है? उसका लक्ष्य अपना पेट पालने के अलावा समाज में प्रतिष्ठा अर्जित करना भी होता है। ऐसे में जो धन अपयश से प्राप्त हो उसका कोई महत्व नहीं रह जाता।
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