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Thursday, December 09, 2010

मनोरंजन के नाम पर मानसिक विलासिता से बचें-हिन्दी लेख (manoranjan ke nam par vilasita-hindi lekh)

न्यूजीलैंड को भारत ने लगातार तीसरा एकदिवसीय क्रिकेट मैच में क्या हरा दिया कि जैसे भारतीय प्रचार माध्यमों की लॉटरी लग गयी। बस गाये जा रहा है कि
‘‘उस खिलाड़ी के कंधों में आई ताकत से सब भौचक्के।’
‘उसकी स्पिन में जादू कहां से आया।’
‘अब वह धनी बन गया।’ आदि आदि।
एक मज़े की बात यह रहती है कि अगर आप कभी धंटे के मध्य-यानि साढ़े छह, सात या आठ बजे-घर पहुंच कर टीवी खोलें तो आपको एक जैसे ही प्रसारण मिलेंगे। क्रिकेट मैच पर चर्चा, किसी टीवी कार्यक्रम के (कु)पात्र का बखान या किसी बड़ी हस्ती का जन्म दिन! ऐसे में यह शक होता है कि सभी चैनल अलग अलग हैं। बल्कि ऐसा लगता है कि सभी टीवी चैनल किसी एक इशारे पर काम करते हैं। तय बात है कि विज्ञापन तो सभी कंपनियां देती हैं पर उनका निर्माण तथा प्रसारण कुछ बड़ी संस्थाओं को पास होता है जो शायद इन चैनलों को बता देती हैं कि उनके मॉडल एक ही समय सभी चैनल पर दिखाये जाने चाहिए ताकि आम दर्शक इस चैनल से उस चैनल पर जाये पर रहे हमारी पकड़ में। अनेक लोग हिन्दी अंतर्जाल पर ऐसे हैं जो आये दिन इन प्रचार माध्यमों की कुछ कथित शख्सियतों पर आक्षेप करते हुए यह दुआ करते हैं कि उनको अक्ल आये। वह गलत फहमी में हैं। दरअसल कथित रूप से जो चैनल पत्रकार हैं वह ऐसे प्रारूप में काम रहे हैं जो राज्य, अर्थ तथा कला के क्षेत्र में बरसों से निर्धारित कर दिया गया है। अब उसमें बदलाव इसलिये नहीं आ पा रहा क्योंकि उसके लिये जिस अध्यात्म ज्ञान या चिंतन की जरूरत है जिससे कोई जुड़ना नहंी चाहता। कुछ नया करने का उनमें आत्मविश्वास नहीं है। आधुनिक शिक्षा से सुसज्तित जो शिखर पुरुष अपनी जगह जमे हैं उनमें अध्यात्मिक शक्ति का अभाव है। उल्टे वह भारतीय अध्यात्म ज्ञान को हेय बताकर वाहवाही लूटते हैं।
भारत का समूचा प्रचार तंत्र एक तरह से हमेशा ही पूंजीपतियों और दलालों के हाथ में रहा है। जब रेडियो और टीवी पर केवल सरकारी एकाधिकार था तब समाचार पत्र पत्रिकाओं भी वही चलती थीं जो पूंजपतियों के हाथों में थी। अनेक संघर्षशील लोगों ने छोटे अखबार चलाने का प्रयास किया पर आर्थिक समर्थन के अभाव में नाकाम रहे। बड़े समाचार पत्र पत्रिकाओं शिखर पदों भी काम भी वही लोग करते जो लिखने पढ़ने के साथ ही मालिकों के अन्य व्यवसायिक कामों में भी सहयोग कर सकते थे। अधिकतर प्रसिद्ध समाचार पत्र पत्रिकाओं के मालिक अपने प्रकाशनों सहारे ही अन्य व्यवसायिक भी करते हैं। तय बात है उनको प्रकाशन उद्योग के कारण रुतवे का लाभ मिलता है। अब टीवी और रेडियो क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी है पर उनके कर्ताधर्ता भी पूंजीपति हैं। ऐसे में कम से कम हिन्दी का प्रचारतंत्र पूरी तरह से राज्य तथा पूंजी के तयशुदा प्रारूप में काम करता रहेगा। इसमें बदलाव संभव नहीं है।
अभी 2-जी स्पैक्ट्रम घोटाले में यह बात खुलकर सामने आ गयी है कि राजकीय पदों पर बैठे तथा पूंजीक्षेत्र के शिखर पुरुषों के बीच दलाली का काम कथित रूप से पत्रकारों ने किया है। यह बात चौंकाती नहीं है क्योंकि इसके अनुमान तो पहले से ही थे। ऐसे में जो लोग इन प्रचार माध्यमों में सुधार की आशा करते हैं उनको निराश होना पड़ेगा। आखिर यह कैसे संभव है कि टीवी या समाचार पत्र पत्रिकाओं के संपादक अपने पूंजीपतियों के बरसों पूर्व तय मार्गदर्शक सिद्धांतों का उल्लंघन कर जायें। पूंजीपतियों की स्थिति यह है कि जहां से धन मिलता है वहां अपने संबंध अच्छा बनाता है। यही कारण है कि जब हम देश के आतंकवाद के लिये पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराते हैं तब खाड़ी देशों के उसमें सहयोग को अनदेखा करते देते हैं क्योंकि वहां भारतीय पूंजीपतियों के आर्थिक संपर्क हैं। ऐसे एक नहीं अनेक प्रमाण हैं कि भले ही खाड़ी देश पाकिस्तान को पसंद करें या न करें पर भारत विरोध के लिये वह उनका एक बहुत बड़ा हथियार है। नंगा भूखा पाकिस्तान भारत में आतंकवाद का प्रायोजन जिस पैसे पर करता है उसका स्त्रोत बताने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि सभी को पता है। स्थिति यह है कि भारतीय टीवी चैनल और फिल्मों में पाकिस्तानियों को प्रवेश भी मिल जाता है और यकीनन इसके लिये कहीं न कहीं भारत के बाहर के प्रायोजक पाकिस्तानी आकाओं को प्रसन्न करते हैं।
कुछ बुद्धिजीवी और कलाकार तो अपने पाकिस्तान प्रेम के कारण ही मशहूर हैं। वह इसलिये नहीं कि उसकी कोई उनसे वास्तविक हमदर्दी है बल्कि उनके आर्थिक आका उनको बाध्य करते हैं या संभव है उनको प्रसन्न करने के लिये वह ऐसा करते हों। मज़े की बात यह है कि ऐसे लोग सार्वजनिक आलोचनाओं को भी पी जाते हैं। उनको पता है कि देश में प्रचारतंत्र का सक्रिय एक तबका कहीं न कहीं उनके साथ है जिनके आर्थिक स्त्रोत उन जैसे ही हैं।
अभी हाल ही में वाराणसी में हुए विस्फोट में दुबई और शारजाह में रह रहे आतंकवादियों का नाम आ रहा है, पर क्या किसी चैनल ने इन देशों के विरुद्ध एक शब्द भी कहा है? विकीलीक्स ने बताया कि एक पाकिस्तानी आतंकवादी सऊदी अरब से धर्म के नाम पर पैसा लेकर आतंकवादियों पर खर्च करता है? क्या किसी चैनल ने सऊदी अरब पर कोई आक्षेप किया। नहीं, क्योंकि पूंजीपतियों के इन खाड़ी देशों में आर्थिक संपर्क हैं और प्रचार तंत्र अंततः उनके ही हाथों में हैं। उनको नाराज नहीं करना है, इस बात की परवाह कोई शुद्ध पत्रकार नहीं करेगा पर दलाल पत्रकार कभी भी पाकिस्तान से आगे अपनी बात नहीं करेंगे। मुश्किल यह है कि पूंजी, विद्वान समाज, राज्य तंत्र में कुछ ऐसे लोग हैं जो शुद्ध पत्रकारों को भाव नहीं देते। उनको लगता है कि कहीं उनके आर्थिक पिता कहीं नाराज न हो जायें। सभी चैनल और अखबारों में अच्छे पत्रकार हैं। अपना काम कर रहे हैं पर जब शिखर पर बैठे पत्रकारों के नाम आये तो यह प्रश्न उठता ही है कि क्या इस देश में विदेशी विचाराधारा, संस्कृति और शिक्षा के प्रचार में क्या ऐसे ही लोग हैं जिनका उद्देश्य अपना हित साधना है न कि समाज में चेतना लाना। जब शिखर पर बैठे लोग ऐसे हों तो दूसरी पंक्ति के कर्मियों से स्वतंत्रता से काम करने की आशा करना बेकार है। क्रिकेट, टीवी कार्यक्रमों के अंशों तथा फूहड़ मज़ाक के सहारे चल रहे भारतीय चैनलों से यह आशा करना भी बेकार है कि वह अपना रास्ता बदलेंगे क्योंकि उनके आर्थिक आधार फिलहाल तो बदलने से ही रहे। यही कारण है कि वह हिन्दी की आड़ में अंग्रेजी, संस्कृति की आड़ में विदेशी कुचक्र तथा शिक्षा के नाम पर नंगापन परोसते जा रहे हैं। हम उनसे कोई आशा नहीं करते इसलिये लोगों से यही कहते हैं कि अपने मनोरंजन की भूख को कम करो। नंगे दृश्य या गाली सुनकर आनंद उठाने से अच्छा है तो स्वयं ही बैठकर कोई गाना गुनागुनाने लगो, या बिना कारण पार्क में टहलने चले जाओ। किसी भी हालत में मनोरंजन के नाम पर मानसिक विलासिता से बचो। सुबह योग साधना करें। दिन में ध्यान लगायें और शाम को कोई अध्यात्मिक पत्रिका पढ़ें। आवश्यक न हो तो गाड़ी की बजाय साइकिल की सवारी भी करो ताकि अपनी सक्रियता का आनंद मिले। तब दूसरे की सक्रियता या एक्शन में आनंद उठाने की इच्छा जाती रहती है। अपना चिंत्तन  करो ताकि दूसरे की राय पर विचार कर सको। जब किसी का अंधानुकरण नहीं करोगे तो कोई अंधेर में रहना सीख लोगे तो कोई  चिराग बेचने भी नहीं आयेगा।
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संकलक एवं संपादक-दीपक    'भारतदीप', ग्वालियर 
author aur writter-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

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Saturday, December 04, 2010

हिंदू धार्मिक विचार-ज्ञानी लोग खाने के लिए खानदान का नाम नहीं लेते

मनु महाराज के अनुसार 
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न भोजनार्थ स्वे विप्र कुलगोत्रे निवेदयेत्।
भोजनार्थ हि ते शंसन्न्वान्ताशीत्युच्यते बुधैः।।
हिन्दी में भावार्थ-
किसी भी ज्ञानी आदमी को कहीं से खाना प्राप्त करने के लिये अपने कुल या जाति की सहायता नहीं लेना चाहिए। ऐसा करने वाला व्यक्ति वान्ताशी यानि उल्टी किए गऐ भोजन को खाने वाला माना जाता है।

उपासते ये गृहस्थाः परपाकमबुद्धयः।
तेन ते प्रेत्य पशुतां व्रजन्त्यन्नांदिदायिजः।।
हिन्दी में भावार्थ-
मनु महाराज के अनुसार जो निर्बुद्धि मनुष्य अच्छे खाने की लालच में दूसरे स्थान पर जाकर आतिथ्य सत्कार पाने का प्रयास करता है वह अगले जन्म में अन्न खिलाने वाले मनुष्यों के घर में पशु का रूप धारण कर रहता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य की जीभ स्वाद के लालायित रहती है। जो ज्ञानी लोग भोजन को केवल पेट भरने के लिये मानते हैं वह तो हर प्रकार के भोजन में संतुष्ट हो जाते हैं पर पेट भरना ही जीवन मानते हैं वह अच्छे खाने के लिये इधर उधर मुंह मारते हैं। जीवन के लिये भोजन आवश्यक है पर कुछ लोग तो भोजन को ही जीवन मानकर उसके पीछे फिरते हैं। ऐसे लोग हमेशा भूखे रहते हैं और अपने घर के खाने को विष समझकर इधर उधर ताकते रहते हैं। एसे लोगों की बुद्धि अत्यंत निकृष्ट होती है।
भोजन हमें इस उद्देश्य से ग्रहण करना चाहिये कि उससे हमारे शरीर को नियमित ऊर्जा मिलती रहे। भोजन में ऐसे पदार्थ ग्रहण करना चाहिए जो भले ही स्वादिष्ट न हों पर सुपाच्य होना चाहिए। जीभ के स्वाद के चक्कर में अज्ञानी लोग ऐसे पदार्थ ग्रहण करते हैं जो पेट के लिए हानिकारक हैं। आजकल हम देख भी रहे है कि स्वादिष्ट पदार्थों के सेवन से बीमारियों का प्रकोप बढ़ रहा है। इसलिये सुपाच्य पदार्थों का ज्ञान प्राप्त कर ही भोजन ग्रहण करना चाहिए।
उसी तरह भोजन प्राप्त करने के लिऐ कभी अपने कुल या गौत्र का नहीं लेकर सदाशयी गृहस्थ की सद्भावना पर ही निर्भर रहना चाहिए। जो लोग अपने भोजन के लिये कुल या जाति का आसरा लेते हैं वह ऐसे ही होते हैं जैसे कि उल्टी का भोजन करने वाले पशु होते हैं।  वैसे  भी कहा जाता है कि जिसने पेट दिया है उसने उसके लिए भोजन भी बना दिया है।

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संकलक एवं संपादक-दीपक  राज कुकरेजा  'भारतदीप', ग्वालियर 
author aur writter-Deepak raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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Sunday, November 21, 2010

मांस की बरफी-हिन्दी व्यंग्य कविता (maans ki barfi-hindi vyangya kavita)

बेईमानी और भ्रष्टाचार के खिलाफ
दिखावे की जंग वह लड़ रहे हैं,
पर उनकी तलवारें म्यान में रखी हैं।
कमीज की आस्तीनें ऊपर वह कर रहे हैंे,
जैसे जीत की राह में बढ़ रहे हैं,
हकीकत नहीं है उनका यह नाटक
सभी के मुंह लग गया है खून
दूसरे के मांस की बरफी सभी ने चखी है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Friday, November 05, 2010

श्रीगुरुग्रंथ साहिब-अपने को पीर प्रचारित करने वालों के चरण स्पर्श न करें (shri guru granth sahib-apne ko peer kahane valon ke charan sparsh na karen)

‘गुरु पीरु सदाए मंगण जाइ।
त के मूलि न लगीअै पाई।।’
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरुग्रंथ साहिब की वाणी के अनुसार कुछ लोग अपने को गुरु और पीर कहते हुए अपने भक्तों से धन आदि की याचना करते हैं ऐसे लोगों के पांव कभी नहीं छूना चाहिये।

‘पर का बुरा न राखहु चीत।
तम कउ दुखु नहीं भाई मीत।
हिन्दी में भावार्थ-
दूसरे के अहित का विचार मन में भी नहीं रखना चाहिये। दूसरे के हित का भाव रखने वाले मनुष्य के पास कभी दुःख नहीं फटकता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- महान संत भगवान श्री गुरुनानक देव जी ने अपने समय में देश में व्याप्त अंधविश्वास और रूढ़िवादिता पर जमकर प्रहार कर केवल अध्यात्मिक ज्ञान की स्थापना का प्रयास किया। उनके समकालीन तथा उनके बाद भी अनेक संत और कवियों ने धर्म के नाम पर पाखंड का जमकर प्रतिकार किया पर दुर्भाग्यवश इसके बावजूद भी हमारे देश में अंधविश्वास का अब भी बोलाबाला है। इतना ही अनेक संत कथित रूप से गुरु या पीर बनकर अपने भक्तों का दोहन करते हैं। हैरानी की बात यह है कि आजकल उनके जाल में अनपढ़ या ग्रामीण परिवेश के काम बल्कि शिक्षित लोग अधिक फंसते हैं। आज से सौ वर्ष पूर्व तक तो अंधविश्वास तथा रूढ़िवादिता के लिये देश की अशिक्षा तथा गरीबी को बताया जाता था मगर आजकल तो धनी और शिक्षित वर्ग अधिक जाल में फंसता है और हम जिनको अनपढ़, अनगढ़ और गंवार कहते हैं वही समझदार दिखते हैं।
आधुनिक शिक्षा में अध्यात्मिक ज्ञान को स्थान नहीं मिलता। लोग तकनीकी तथा उच्च शिक्षा को सर्वोपरि मानते हैं पर मन की शांति और अध्यात्मिक ज्ञान के लिये वह ऐसे अनेक ढोंगियों महात्माओं और संतों के जाल में फंस जाते हैं जो खुलेआम पैसा मांगने के साथ ही धर्म का खुलेआम व्यापार करते हैं। आश्चर्य तब होता है जब उच्च शिक्षा प्राप्त और धनीवर्ग उनके चरण स्पर्श करने के लिये भागता नज़र आता है।
जीवन में खुश रहने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि सबके हित की कामना करें। किसी के लिये बुरा विचार मन में न लायें। कभी कभी तो यह भी होता है कि जैसा अब दूसरे के लिये बुरा सोचते हैं वैसा ही अपने साथ ही हो जाता है। अतः सभी के लिये अच्छा सोचा जाये ताकि अपने साथ भी अच्छा हो।
आजकल अनेक ऐसे गुरु हैं जो खुलेआम अपने शिष्यों से आर्थिक भेंट मांगते हैं। इनमें कुछ तो ऐसे हैं जो धन से ही धर्म की रक्षा का नारा देकर भक्तों के अंदर दान की भावना पैदा कर उसका दोहन करते हैं। सच बात तो यह है कि आदमी धर्म की रक्षा तभी कर सकता है जब उसके पास ज्ञान हो और उसके लिये जरूरी है कि स्वयं ही धार्मिक पुस्तको का एकांत में चिंतन कर ज्ञान प्राप्त किया किये जाये। भेंट या दक्षिण मांगने वाले गुरु कुछ देर तक हृदय में मनारंजन का भाव पैदा कर सकते हैं पर उससे मनुष्य के मन में स्थिरता नहीं आती। जब मन अस्थिर होता है तब मनुष्य अपने ही कार्यों से ताने में फंसता जाता है। इतना ही नहीं तब वह दूसरों के अहित की कामना करता है जो कि अंतत: उसके लिए ही कष्टदायक होता है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Saturday, October 30, 2010

धार्मिक विचार-मन शरीर और वाणी के दंड धारण करने वाला ही सुखी (dharmik vichar-man,sharir aur vani ke dand)

मनु महाराज के अनुसार 
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त्रिदण्डमेतिन्निक्षप्य सर्वभूतेषु मानवः।
कामक्रोधी तु संयभ्य ततः सिद्धिं नियच्छति।।
हिन्दी में भावार्थ-
जो मनुष्य सभी जीवों के साथ मन, शरीर वह वाणी तीनों प्रकार के दंडों का पालन करते हुए व्यवहार करता है वह किसी को पीड़ा नहीं देता। उसका काम व क्रोध के साथ ही अपने आचरण पर भी संयम रहता है जिसके कारण वह सिद्ध कहलाता है।

वाग्उण्डोऽडःकायादण्डस्तथैव च।
वसयैते निहिता बुद्धौ त्रिडण्डीति स उच्यते
हिन्दी में भावार्थ-
जो मनुष्य सोच विचार कर वाणी का प्रयोग करते हुए देह और मन पर अपना नियंत्रण बनाये रखते हैं उसे त्रिदंडी कह जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य अपने कर्मों से मन, शरीर और वाणी के द्वारा बंधा रहता है। जिस तरह का कोई कर्म करता है वैसा ही उसे परिणाम प्राप्त होता है। सिद्ध व्यक्ति वही है जो दृष्टा की तरह अपने मन, शरीर और वाणी को अभिव्यक्त होते देखता है। इसलिये वह उन पर नियंत्रण करता है। दृष्टा होने के कारण मनुष्य के किसी भी कर्म के प्रति अकर्ता का भाव पैदा होता है जिससे उसके अंतर्मन में विद्यमान अहंकार की भावना प्रायः समाप्त हो जाती है।
ऐसा निरंकार मनुष्य मन, वचन और शरीर से संयम पूर्वक जीवन व्यतीत करता है और इससे न केवल वह अपना बल्कि दूसरे लोगों के जीवन का भी उद्धार करता है। इससे दूसरे लोग भी प्रसन्न होते हैं और उसका सिद्ध की उपाधि प्रदान करते हैं। जिन मनुष्यों के पास तत्व ज्ञान है वह अपने मुख से आत्मप्रचार कर अपने व्यवहार और आचरण से ही अपनी सिद्धि को प्रमाण करते है। जिनको ऐसा सिद्ध बनना है उनको चाहिये कि वह मन, वचन और देह के दंडों पर अभ्यास से नियंत्रण करें। ऐसी सिद्धि योगासन, प्राणायाम तथा ध्यान से प्राप्त कि जा सकती है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक राज  कुकरेजा 'भारतदीप',ग्वालियर मध्य प्रदेश
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep' Gwalior Madhya Pradesh
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Friday, October 01, 2010

राम की लीला राम ही जाने (ram ki leela ram he jane)

घर से बाहर निकलकर जैसे ही स्कूटर पर सवार हुआ, वैसे ही पास से गुजरते दो आदमियों का वार्तालाप कानों में सुनाई दिया। एक दूसरे से कह रहा था कि ‘आज तो शहर में धारा 144 लागू है। अयोध्या के राम मंदिर पर फैसला आने वाला है।’
दूसरा बोला-हां, अयोध्या के राम मंदिर पर अदालत का फैसला साढ़े तीन बजे आयेगा। आज बच्चे भी स्कूल नहंी गये हैं। बता रहे हैं कि टैम्पो और ऑटो भी साढ़े तीन बजे के बंद हो जायेंगेे। एक तरह से शहर में सन्नाटा छा जायेगा।’’
मैं सोच रहा हूं कि मेरा इस विषय से संबंध नहीं है क्योंकि घर तो अपने ही वाहन से मुझे वापस आना है। राम मंदिर पर फैसला! याद आया, पिछले कई बरसों से मेरे जेहन में बसा है राम मंदिर! मन में तो राम भी बसे हैं पर मंदिर एक अलग विषय है। राम पर चर्चा करने में मज़ा आता है पर अयोध्या का राम मंदिर अब गुजरे ज़माने की बात लगता है। ऐसा लगता है कि मेरी बुद्धि समय दूसरों के विषय पर काम करती थी जब इस विषय पर लोगों से चर्चा करता था। अब स्वतंत्र रूप से सोचता हूं तो लगता है कि राम मंदिर तो मेरे पास ही है। अपने कार्यस्थल से आते जाते दोनेां की बार ही मार्ग में पड़ता है जहां समय मिलने पर अवश्य जाता हूं। एक विष्णु जी का भी मंदिर है जहां परिवार के साथ जाना होता है। मोहल्ले से थोड़ी दूरी पर ही हनुमानजी और शिवजी के मंदिर हैं और वहां ध्यान लगाने में बहुत मज़ा आता है। जिन मंदिरों में जाता हूं मुझे वही सिद्ध लगते हैं जहां नहीं गया उनको हृदय में अब स्थान नहीं दे पाता। पता नहीं कभी अयोध्या जाना होगा या नहंी, पर अभी तक अनेक बार वृंदावन और उज्जैन में जाकर ही मुझे आनंद प्राप्त करने का अवसर मिला है।
एक राम मेरे अंदर है जहां उनकी अयोध्या उनकेसाथ है तो दूसरी अयोध्या मुझसे बहुत दूर है। मेरी आस्था मेरे घर के आसपास ही सिमटती जाती है और अपना स्कूटर लेकर चल पड़ता हूं। सोचता हूं-‘शाम को आकर टीवी पर समाचार सुनूंगा।’
शाम को चार बजे हैं। एक मित्र से फोन पर पूछता हूं कि-‘क्या अयोध्या के राम मंदिर पर फैसले का कोई समाचार आया?’’
वह बताता है कि ‘अभी नहीं आया! साढ़े चार बजे तक आने की संभावना है।’
मैं घर चलने की तैयारी में हूं। एक मित्र रास्ते में मिल जाता है। उससे बात करता हूं तो वह कहता है कि चलो, थोड़ी दूर चलकर चाय पीते हैं।
मैं उसे बिठाकर बाज़ार मंे आता हूं। दुकानें बंद हैं! मैंने कहा-‘पता नहीं आज यह बाज़ार क्यों बंद है! वह होटल वाला भी बंद कर गया, सुबह तो खुला था!
मित्र ने कहा-‘अरे यार, याद आया आज तो अयोध्या में राम मंदिर पर फैसला आना था। इसलिये उपद्रव होने की आशंका में बाज़ार बंद हो गया है। चलो फिर कल मिलेंगे।’
वह स्कूटर से उतरता ही है कि एक अन्य मित्र वहां से कहीं से निकलकर आया। मैने उत्सुकतावश पूछा-‘तुमने राम मंदिर के फैसले पर समाचार सुना है।’
वह बोला-‘हां, पूरा तो सुन नहीं पाया पर विवादित ज़मीन को तीनों पक्षों में एक समान बांटने का निर्णय सुनाया गया है। बाकी पूरा सुनने ही घर जा रहा हूं। मुख्य बात यह है कि रामलला की मूर्तियां वहां से नहीं हटेंगी।’
पहला वाला मित्र जो अभी वहीं खड़ा था‘-यार आपकी पूरी बात समझ में नहीं आयी। अभी जाकर समाचार सुनते हैं।’
मैंने कहा-‘अभी तो पूरे समाचार आने हैं। घर जाकर देखते हूं कि क्या फैसला और कैसा है।’’
मैं चल पड़ता हूं। रास्ते भर सन्नाटा छाया लगता है। बाज़ार में कुछ ही दुकाने खुली हुईं हैं। आवागमन भी अत्यंत कम है। यह दृश्य या तो एकदम सुबह दिखता है या रात को दस बजे के बाद! जिन मार्गों पर जाम लगते हैं वहां पर आसानी से चला जा रहा हूं। कुछ जगह लड़के झुंड बनाकर खड़े हैं तो उनको देखता हूं कि कहंी वह किसी विवाद में तो नहीं लगे हैं। कुछ सड़कों पर बच्चे इधर से उधर बड़े आराम से जा रहे हैं जहां उनको वाहनों की कम आवाजाही के कारण भय नहीं रहता।
मेरा घर शहर से दूर है। सोचता हूं मेरे घर के आसपास ऐसा नहीं होगा। मगर जैसे ही अपने घर के पास पहुंचता हूं। सारी दुकाने बंद हैं। कहंी ठेले नहंी लगे। पूरा शहर भयाक्रांत लगता है? किसलिये? ऐसा लगता है कि जैसे सभी को डरा दिया गया है। इतिहास की पुनरावृत्ति की आशंकाऐं सभी को कंपित किये हुए हैं। लोग चिंतित हैं और मैने बड़ी बेफिक्री से अपना रास्ता तय किया है। अचानक मेरे मन में राम के प्रति भावनाओं का ज्वार उठने लगता है।
मैं सोच रहा हूं कि किस राम मंदिर पर फैसला आया है और मैं किस राम मंदिर में जाता हूं। वह राम कौनसे हैं और मेरे राम कौनसे हैं। मेरे राम ने मुझे इतनी बेफिक्री दी कि बिना बाधा के अपना मार्ग तय कर आया और कहीं भय नहीं लगा पर वह कौन से राम हैं जिन्होंने लोगों को फिक्र देकर घर में बंद कर दिया। जिस राम मंदिर पर फैसला आया उससे मेरे क्या लेना देना था और अपने शहर के जिस राम मंदिर में जाता हूं वह तो निर्विवाद खड़ा है। अंतर्मन दो राम मंदिरों में बंटता दिखाई देता है। मैं अंदर और बाहर स्थित राम के दोनों रूपों को मिलाने का प्रयास करता हूं। तब ऐसा लगता है कि मेरे राम और बाहर के राम अलग हैं। मेरे मन के बाहर स्थित राम के रूप के प्रति कोई आकर्षण क्यों नहीं है? मैं दिमाग पर जोर डालता हूं पर कोई उत्तर नहीं नज़र आता? तब सोचना बंद करता हूं। आखिर राम तो राम हैं! उनके अनेक रूप हैं! वह दिव्य है और मेरे अंदर और बाहर के चक्षु उतना ही देख सकते हैं जितना एक आम इंसान। मैं कोई सिद्ध नहीं हूं कि उनके चरित्र का वर्णन कर सकूं।
अपना स्कूटर लेकर मैं घर के अंदर प्रविष्ट हो जाता हूं जहां टीवी पर यही समाचार आ रहा है। उसमें भी दिलचस्पी नहंी रह जाती क्योंकि उसका सार मैं पहले ही सुन चुका हूं। मन ही मन कहता हूं कि‘-राम की लीला राम ही जाने। मेरे राम मेरे पास और उनका मंदिर भी दूर नहीं है चाहे जब जा सकता हूं फिर क्यों चिंता करूं।’
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संकलक लेखक  एवं संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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Saturday, September 25, 2010

श्री गुरुग्रंथ साहिब-जो न डरे न डराये वही ज्ञानी (shri gurugranth sahib-na daren n darayen)

‘भै काहू को देत नहि नहि भै मानत आनि।
कहु नानक सुनि रे मना गिआनी ताहि बखानि।।’
हिन्दी में भावार्थ-
गुरुग्रंथ साहिब के अनुसार जो व्यक्ति न किसी को डराता है न स्वयं किसी से डरता है वही ज्ञानी कहलाने योग्य है।

जाति का गरबु न करि मूरख गवारा।
इस गरब ते चलहि बहुतु विकारा।।
हिन्दी में भावार्थ-
गुरुवाणी में मनुष्यों को संबोधित करते हुए कहा गया है कि ‘हे मूर्ख जाति पर गर्व न कर, इसके चलते बहुत सारे विकार पैदा होते हैं।
‘हमरी जाति पाति गुरु सतिगुरु’
हिन्दी में भावार्थ-
गुरुग्रंथ साहिब में भारतीय समाज में व्याप्त जाति पाति का विरोध करते हुए कहा गया है कि हमारी जाति पाति तो केवल गुरु सत गुरु है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-प्राचीनकाल में भारत में जाति पाति व्यवस्था थी पर उसकी वजह से समाज में कभी विघटन का वातावरण नहीं बनता था। कालांतर में विदेशी शासकों का आगमन हुआ तो उनके बौद्धिक रणनीतिकारों ने यहां फूट डालने के लिये इस जाति पाति की व्यवस्था को उभारा। इसके बाद मुगलकाल में जब विदेशी विचारधाराओं का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा था तब सभी समाज अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिये संगठित होते गये जिसकी वजह से उनमें रूढ़ता का भाव आया और जातीय समुदायों में आपसी वैमनस्य बढ़ा जिसकी वजह से मुगलकाल लंबे समय तक भारत में जमा रहा। अंग्रेजों के समय तो फूट डालो राज करो की स्पष्ट नीति बनी और बाद में उनके अनुज देसी वंशज इसी राह पर चले। यही कारण है कि देश में शिक्षा बढ़ने के साथ ही जाति पाति का भाव भी तेजी से बढ़ा है। जातीय समुदायों की आपसी लड़ाई का लाभ उठाकर अनेक लोग आर्थिक, सामजिक तथा धार्मिक शिखरों पर पहुंच जाते है। यह लोग बात तो जाति पाति मिटाने की करते हैं पर इसके साथ ही कथित रूप से जातियों के विकास की बात कर आपसी वैमनस्य भी बढ़ाते है।
भारत भूमि सदैव अध्यात्म ज्ञान की पोषक रही है। हर जाति में यहां महापुरुष हुए हैं और समाज उनको पूजता है, पर कथित शिखर पुरुष अपनी आने वाली पीढ़ियों को अपनी सत्ता विरासत में सौंपने के लिये समाज में फूट डालते हैं। जो जातीय विकास की बात करते हैं वह महान अज्ञानी है। उनको इस बात का आभास नहीं है कि यहां तो लोग केवल ईश्वर में विश्वास करते हैं और जातीय समूहों से बंधे रहना उनकी केवल सीमीत आवश्यकताओं की वजह से है।
जातीय समूहों से आम लोगों के बंधे रहने की एक वजह यह है कि यहां सामूहिक हिंसा का प्रायोजन अनेक बार किया जाता है ताकि लोग अकेले होने से डरें। इस समय देश में बहुत कम ऐसे लोग होंगे जो अपने जातीय समुदायों के शिखर पुरुषों से खुश होंगे पर सामूहिक हिंसक घटनाओं की वजह से उनमें भय बना रहता है। आम आदमी में यह भय बनाये रखने के लिये निंरतर प्रयास होते हैं ताकि वह अपने जातीय शिखर पुरुषों की पकड़ में बने रहें ताकि उसका लाभ उससे ऊपर जमे लोगों को मिलता रहे। मुश्किल यह है कि आम आदमी में भी चेतना नहीं है और वह इन प्रयासों का शिकार हो जाता है। इसलिये सभी लोगों को यह समझना चाहिए कि यह जाति पाति बनाये रखकर हम केवल जातीय समुदायों के शिखर पुरुषों की सत्ता बचाते हैं जो दिखाने के लिये हमदर्द बनते हैं वरना वह तो सभी अज्ञानी है। अपने से बड़े से भय खाने और और अपने से छोटे को डराने वाले यह लोग महान अज्ञानी हैं और हमारे अज्ञान की वजह से हमारे सरताज बन जाते है। अत: न किसी से डरना चाहिए न ही किसी को डरना चाहिए।
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संकलक लेखक  एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप', Gwalior
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Tuesday, September 21, 2010

पतंजलि योग विज्ञान-मनुष्य चित्त सहकारिता के भाव वाला (patanjali yoga vigyan-manushya chita aur sahakarita ka bhav)

तदंसख्येयवासनाभिश्चिन्नमपि परार्थ संहृत्यकारित्वात।
हिन्दी में भावार्थ-
वह चित्त असंख्येय वासनाओं से चित्रित होने पर भी दूसरे के लिए है क्योंकि वह सहकारिता के भाव से काम करने वाला है।

द्रष्टृदृश्यघोपरक्तं चितं सर्वार्थम्
हिन्दी में भावार्थ-
द्रष्टा और दृश्य-इन दो रंगों से रंगा चित्त सभी अर्थवाला हो जाता है।
विशेषंषर्शिन आत्मभावभावनविनिवृत्तिः।।
हिन्दी में भावार्थ-चित्त और आत्मा के भेद को प्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष करने वाले योगी की आत्माभावविषयक भावना सर्वथा निवृत्त हो जाती है।
तदा विवेनिम्नं कैवल्यप्राग्भारं चित्तम्।
हिन्दी में भावार्थ-
उस समय चित्त विवेक की तरफ झुककर कैवल्य के अभिमुख हो जाता है।
तच्छिद्रेषु प्रत्ययान्राणि संसकारेभ्यंः।
हिन्दी में भावार्थ-
उसके अंतराल में दूसरे पदार्थों का ज्ञान पूर्वसंस्कारों से होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-महर्षि पतंजलि का योग सूत्र संस्कृत में है और उसके हिन्दी अनुवाद का अर्थ इतना किल्ष्ट होता है कि सीधी भाषा में बहुत कम विद्वान उसकी व्याख्या कर पाते हैं। हम यहां सीधी सादी भाषा में कहें तो हमारा चित्त या बुद्धि इस देह के कारण है और उसे आत्मा समझना अज्ञान का प्रमाण है। हमारे मन और बुद्धि में विचारों का क्रम आता जाता है जो केवल सांसरिक विषयों से संबंधित होता है। अध्यात्मिक विषयों के लिये हमें अपने अंदर संकल्प धारण करना पड़ता है और जब हम आत्मा और मन का अंतर समझ लेंगे तो दृष्टा की तरह जीने का आनंद ले पायेंगे।
एक तो संसार का दृश्य है और दूसरा वह दृष्टा आत्मा है जिसके बीच में यह देह स्थित है। पंच तत्वों से बनी इस देह की मन, बुद्धि तथा अहंकार की प्रकृतियों को अहंता, ममता और वासना की भावनायें बांधे रहती हैं। हम दृष्टा हैं पर कर्तापन का अहंकार कभी यह बात समझने नहीं देता। तत्वज्ञान के अभाव मनुष्य को दूसरा चतुर मायावी मनुष्य चाहे जब जहां हांक कर ले जाता है। इस संसार दो प्रकार के मनुष्य है एक वह जो शासक हैं दूसरे जो शासित हैं। निश्चित रूप से शासक चतुर मायावी मनुष्यों की संख्या कम और शासित होने वाले लोगों की संख्या अधिक है पर अगर तत्वज्ञान को जो समझ लें तो वह न तो शासक बनता है न शासित। योगी बनकर अपना जीवन आंनद से व्यतीत करता है।
एक बात दूसरी यह भी है इस विश्व में मनुष्य मन के चलने के दो ही मार्ग हैं-सहज योग और असहज योग। योग तो हर मनुष्य कर रहा है पर जो बिना ज्ञान के चलते हैं वह सांसरिक विषयों में चक्कर में अपना जीवन तबाह कर लेते हैं और जो ज्ञानी हैं वह उसे संवारते रहते हुए सुख अनुभव करते हैं। अतः आत्मा और चित्त का भेद समझना जरूरी है।
दूसरी बात हम समाधि या ध्यान के विषय में यह भी समझ लें कि जब हम उसमें लीन होने का प्रयास करते हैं तब हमारे अंदर विषयों का घेर आने लगता है। उनसे विचलित नहीं होना चाहिए क्योंकि यह उन विषयों से उत्पन्न विकार हैं जो उस समय भस्म होने आते हैं। जब वह पूरी तरह से भस्म होते हैं तब ध्यान आसानी से लग जाता है। ध्यान से जो मन को शांति मिलती है उससे बुद्धि में तीक्ष्णता आती है और प्रसन्न हो जाता है। इसलिए ही हमारे अध्यात्मा में ध्यान का महत्व प्रतिपादित किया गया है।
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संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Saturday, September 11, 2010

हिन्दू धर्म संदेश-मानसिक विकार दूर करने के लिये प्राणायाम आवश्यक (hindu dharma sandesh-pranaya aur mansik vikar)

मनु स्मृति के अनुसार 
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दह्यान्ते ध्यायमानानां धालूनां हि यथा भलाः।
तथेन्द्रियाणां दह्यान्ते दोषाः प्राणस्य निग्राहत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
अग्नि में सोना चादी, तथा अन्य धातुऐं डालने से जिस प्रकार उनकी अशुद्धता दूर होती है उसी प्राणायाम करने से इंद्रियों के सारे पाप तथा विकार नष्ट होते हैं।
प्राणायमाः ब्राहम्ण त्रयोऽपि विधिवत्कृताः।
व्याहृति प्रणवैर्युक्ताः विज्ञेयं परमं तपः।।
हिन्दी में भावार्थ-
किसी साधक द्वारा ओऽम तथा व्याहृति के साथ विधि के अनुसार किए गए तीन प्राणायामों को भी उसका तप ही मानना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भारतीय योग दर्शन की आजकल चारों तरफ चर्चा है। दरअसल योग विज्ञान अपने आप ही मनुष्य को स्वयं से जोड़ता है। आजकल सिकुड़ रहे समाज में हर मनुष्य अकेला है और उसमें आत्म विश्वास का अभाव है। अगर मनुष्य योग विज्ञान का अभ्यास करे तो वह इस बात को अनुभव कर सकता है कि वह स्वयं ही अपना पूरक है और उसे बाहर से किसी अन्य की सहायत की आवश्यकता नहीं है। विश्व में आर्थिक उदारीकरण तथा औद्योगिकीरण के कारण प्राकृतिक पर्यावरण बिगड़ने के कारण मनुष्य की मनस्थिति भी बिगड़ी है। एक सर्वेक्षण के अनुसार देश में मनोरोगियों की संख्या 40 प्रतिशत से अधिक है। कई लोगों को तो यह आभास ही नहीं है कि वह मनोरोगी है। हममें से भी अनेक लोगों को दूसरे के मनोरोगी होने का अहसास नहीं होता क्योंकि स्वयं हमें अपने बारे में ही इसका ज्ञान नहीं है। इसके अलावा कंप्यूटर, मोबाईल तथा पेट्रोल चालित वाहनों के उपयोग से हमारे शरीर के स्वास्थ्य पर जो बुरा असर पड़ने से दिमागी संतुलन बिगड़ता है यह तो सभी जानते हैं। इधर हम यह भी देख सकते हैं कि चिकित्सालयों में मरीजों की भीड़ लगी रहती है। कहने का अभिप्राय यह है कि आधुनिक साधनों की उपलब्धता ने रोग बढ़ाये हैं पर उसका इलाज हमारे पास नहीं है।
इधर हम यह भी देख सकते हैं कि विश्व में भारतीय योग साधना का प्रचार बढ़ रहा है। इसका कारण यह है कि योगासन तथा प्राणायाम से शरीर के विकार निकल जाते हैं। सच बात तो यह है कि प्राणायाम के मुकाबले इस धरती पर किसी भी रोग का कोई इलाज नहीं है। इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि प्राणायाम करने पर यह आभास हो जाता है कि इस धरती पर तो किसी रोग की कोई दवा ही नहीं है क्योंकि प्राणायाम करने से जो तन और मन में स्फूर्ति आती है उसका अभ्यास करने पर ही पता चलता है। अतः तीक्ष्ण बुद्धि तथा शारीरिक बल बनाये रखने के लिये प्राणायाम करना एक अनिवार्य आवश्यकता है। कम से कम आज विषैले वातावरण का सामना करने के लिये इससे बेहतर और कोई साधन नज़र नहीं आता।
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संकलक लेखक  एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप', ग्वालियर 
editor and writer-Deepak Raj kukreja 'Bharatdeep',Gwalior
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Saturday, September 04, 2010

मनुसंदेश-मन, वचन और वाणी के दंडों का उचित प्रयोग करें (man, vachan aur vani ke dand-manu sandesh)

त्रिदण्डमेतिन्निक्षप्य सर्वभूतेषु मानवः।
कामक्रोधी तु संयभ्य ततः सिद्धिं नियच्छति।।
हिन्दी में भावार्थ-
जो मनुष्य सभी जीवों के साथ मन, शरीर वह वाणी तीनों प्रकार के दंडों का पालन करते हुए व्यवहार करता है वह किसी को पीड़ा नहीं देता। उसका काम व क्रोध के साथ ही अपने आचरण पर भी संयम रहता है जिसके कारण वह सिद्ध कहलाता है।
वाग्उण्डोऽडःकायादण्डस्तथैव च।
वसयैते निहिता बुद्धौ त्रिडण्डीति स उच्यते
हिन्दी में भावार्थ-
जो मनुष्य सोच विचार कर वाणी का प्रयोग करते हुए देह और मन पर अपना नियंत्रण बनाये रखते हैं उसे त्रिदंडी कह जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य अपने कर्मों से मन, शरीर और वाणी के द्वारा बंधा रहता है। जिस तरह का कोई कर्म करता है वैसा ही उसे परिणाम प्राप्त होता है। सिद्ध व्यक्ति वही है जो दृष्टा की तरह अपने मन, शरीर और वाणी को अभिव्यक्त होते देखता है। इसलिये वह उन पर नियंत्रण करता है। दृष्टा होने के कारण मनुष्य के किसी भी कर्म के प्रति अकर्ता का भाव पैदा होता है जिससे उसके अंतर्मन में विद्यमान अहंकार की भावना प्रायः समाप्त हो जाती है।
ऐसा निरंकार मनुष्य मन, वचन और शरीर से संयम पूर्वक जीवन व्यतीत करता है और इससे न केवल वह अपना बल्कि दूसरे लोगों के जीवन का भी उद्धार करता है। इससे दूसरे लोग भी प्रसन्न होते हैं और उसका सिद्ध की उपाधि प्रदान करते हैं। जिन मनुष्यों के पास तत्व ज्ञान है वह अपने मुख से आत्मप्रचार कर अपने व्यवहार और आचरण से ही अपनी सिद्धि को प्रमाण करते है। जिनको ऐसा सिद्ध बनना है उनको चाहिये कि वह मन, वचन और देह के दंडों पर अभ्यास से नियंत्रण करें। एक बात रखना चाहिए कि इस संसार में हम अपने कर्म से ही अपना यात्रा करते हैं और मन, वचन और वाणी में पवित्रता हमारा मार्ग सहज करती है।
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Friday, August 27, 2010

श्री गुरुग्रंथ साहिब से-दहेज प्रथा केवल एक आडम्बर है (dowry sistem in india is not good)

‘हरि प्रभ मेरे बाबुला, हरि देवहु दान में दाजो।’
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरुग्रंथ साहिब में दहेज प्रथा का आलोचना करते हुए कहा गया है कि वह पुत्रियां प्रशंसनीय हैं जो दहेज में अपने पिता से हरि के नाम का दान मांगती हैं।
होर मनमुख दाज जि रखि दिखलाहि,सु कूड़ि अहंकार कच पाजो
श्री गुरू ग्रन्थ साहिब के अनुसार लड़की के विवाह में  ऐसा दहेज दिया जाना चाहिए जिससे मन का सुख मिले और जो सभी को दिखलाया जा सके। ऐसा दहेज देने से क्या लाभ जिससे अहंकार और आडम्बर ही दिखाई दे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-दहेज हमारे समाज की सबसे बड़ी बुराई है। चाहे कोई भी समाज हो वह इस प्रथा से मुक्त नहीं है। अक्सर हम दावा करते हैं कि हमारे यहां सभी धर्मों का सम्मान होता है और हमारे देश के लोगों का यह गुण है कि वह विचारधारा को अपने यहां समाहित कर लेते हैं। इस बात पर केवल इसलिये ही यकीन किया जाता है क्योंकि यह लड़की वालों से दहेज वसूलने की प्रथा उन धर्म के लोगों में भी बनी रहती है जो विदेश में निर्मित हुए और दहेज लेने देने की बात उनकी रीति का हिस्सा नहीं है। कहने का आशय यह है कि दहेज लेने और देने को हम यह मानते हैं कि यह ऐसे संस्कार हैं जो हमारी पहचान हैं  मिटने नहीं चाहिए।  कोई भी धर्म या  समाज हो  कथित रूप से इसी पर इतराता है।
इस प्रथा के दुष्परिणामों पर बहुत कम लोग विचार करते हैं। इतना ही नहीं आधुनिक अर्थशास्त्र की भी इस पर नज़र नहीं है क्योंकि यह दहेज प्रथा हमारे यहां भ्रष्टाचार और बेईमानी का कारण है और इस तथ्य पर कोई भी नहीं देख पाता। अधिकतर लोग अपनी बेटियों की शादी अच्छे घर में करने के लिये ढेर सारा दहेज देते हैं इसलिये उसके संग्रह की चिंता उनको नैतिकता और ईमानदारी के पथ से विचलित कर देती है। केवल दहेज देने की चिंता ही नहीं लेने की चिंता में भी आदमी अपने घर पर धन संग्रह करता है ताकि उसकी धन संपदा देखकर बेटे की शादी में अच्छा दहेज मिले। यह दहेज प्रथा हमारी अध्यात्मिक विरासत की सबसे बड़ी शत्रु हैं और इससे बचना चाहिये। यह अलग बात है कि अध्यात्मिक, धर्म और समाज सेवा के शिखर पुरुष ही अपने बेटे बेटियों की शादी कर समाज को चिढ़ाते हैं। सच बात तो यह है कि यह पर्थ हमारे समाज के अस्तित्व पर संकर खड़ा किये हुए है और अगर यह ख़त्म नहीं हुए तो एक दिन यह समाज भी कह्तं हो जाएगा।
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Saturday, August 14, 2010

हिन्दू धर्म संदेश-मूढ़ लोग बिना बुलाये मेहमान बनते हैं(bin bulaye mehman hote moorkh-hindu dharma sandesh)

अनाहूत प्रविशति अपुष्ठो बहु भाषते।
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः।।
हिन्दी में भावार्थ-
मूढ़ चित्तवाला अधर्मी मनुष्य बिना आमंत्रण के ही कहीं भी पहुंच जाता है। बिना कहे ही बोलने लगता है तथा ऐसे लोग पर विश्वास करता है जो अविश्वसनीय होते हैं।
अमित्रं कुरुते मित्रं मित्रं देष्टि हिनस्ति च।
कर्म चारभते दुष्टं तमाहुर्मूढचेतसम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
जो मनुष्य शत्रु को मित्र बनाता है और मित्र से ही द्वेष कर उसे कष्ट देता है वह सदैव ही बुरे कर्म में लिप्त रहता है। ऐसे मनुष्य को मूढ़ कहा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अपने आसपास चल रहे वातावरण का थोड़ा ध्यान से अवलोकन करें तो लोग मानसिक तनावों से इस कदर ग्रसित लगते हैं कि वह अपने हितैषी और शत्रु की पहचान नहीं कर पाते। स्थिति यह होती है कि अनेक लोग अपने मित्रों और हितैषियों को ही अपना शत्रु बनाकर संकट बुलाते हैं। ऐसे लोगों की गल्तियों से ही सीखना चाहिये।
कहा जाता है चतुर लोग अपने पत्ते आसानी से नहीं खोलते और न ही अपनी चाल चलने से पहले किसी को उसका पूर्वाभास होने देते हैं। सच तो यह है कि अधिकतर लोग जीवन में इसलिये नाकाम होते हैं क्योंकि वह अपने रहस्य दूसरों के सामने खोल देने के अलावा गैरों की बात पर आकर अपने ही लोगों पर अविश्वास करने लगते हैं। विदुर महाराज ऐसे लोगों को मूढ़ मानते हैं।
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि यह संसार एक रंगमंच है और हर प्राणी यहां अभिनय करता है। ऐसे गूढ़ संदेशों का मनन करते रहना चाहिये ताकि वह दिमाग में स्थापित हो सकें। फूट डालो राज करो केवल अंग्रेजों की नीति नहीं है बल्कि हर सामान्य सांसरिक व्यक्ति यही करता है। किसी को अपना बनाकर उसका शोषण करने के लिये पहले उसे आत्मीयजनों और मित्र से अलग करने के लिये उसे भड़काया जाता है। यह समझाया जाता है कि उसके आत्मीय जन और मित्र तो गद्दार हैं। अगर कोई नया मित्र या कम परिचित ऐसा करता है तो यह समझ लेना चाहिये कि वह कोई चाल खेल रहा है। अगर ऐसा नहीं करते तो आप मूढ़ ही कहलायेंगे।
दूसरों के कहने में आकर निर्णय लेना या उसकी बताई राह पर चलना मूर्खत है। इसलिये किसी की बात सुनकर तत्काल न तो निर्णय लें और न ही अपनों के प्रति द्वेष पालकर उन्हें दूर होनेे दें। इसके अलावा कहीं भी बिना बुलाय न जायें और न ही बिना किसी की इच्छा के उसके सामने अपना ज्ञान बघारें। इसी में ही चतुराई है।
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Saturday, August 07, 2010

पतंजलि योग सूत्र-सार्वभौमिक भाव मनुष्य को शक्तिशाली बना देता है (libral men is powar ful-patanjali yoga sootra in hindi)

जातिदेशकालसमयानमच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम्।
हिन्दी में भावार्थ
-जाति, देश, काल तथा व्यक्तिगत सीमा से रहित होकर सावैभौमिक विचार का हो जाने पर मनुष्य एक महावत की तरह हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मूलतः मनुष्य इस संसार में अकेला ही होता है और इसी भयावह अनुभूति से बचने के लिये वह तमाम तरह के पाखंड रच लेता है। इसी कारण विश्व में अनेक प्रकार के जातीय, भाषाई तथा धार्मिक समूह बन गये हैं जिसमें रहकर हर मनुष्य अपने अदंर एक काल्पनिक सुरक्षा का भाव पालता है। दरअसल वह इस सच्चाई से भागता है कि वह अकेला है और उसके इसी भाव का चतुर मनुष्य समूहों के शिखर पुरुष बनकर अपने हित में दोहन करते हैं। यही शिखर पुरुष अपने लिये दूसरे समूहों को खतरनाक बताकर अपने साथ जाति, भाषा तथा धर्म के आधार जुड़े लोगों को अपने हित में संगठित करते हैं। यह सच सभी जानते हैं कि गरीब और लाचार का इंसान नहीं भगवान होता है और कथित समाज या समूह किसी के काम के नहीं होते।
महर्षि पतंजलि यहां पर मनुष्य को संकीर्ण विचाराधाराओं से बाहर आने का संदेश दे रहे हैं। योगासन और प्राणायाम के बाद मनुष्य की देह तथा मन में स्फूर्ति आती है तब उसके हृदय में कुछ नया कर गुजरने की चाहत पैदा होती है। ऐसे में वह अपने लक्ष्य निर्धारित करता है। उस समय उसे अपने मस्तिष्क की सारी खिड़कियां खुली रखना चाहिए।
हमारे देश में जाति, भाषा, वर्ण तथा क्षेत्र को लेकर संकीर्णता का भाव लोगों में बहुत देखा जाता है। सभी लोग अपने समाज की श्रेष्ठता का बखान करते हुए नहीं थकते। हमारे देश में समाज का विभाजन कर कल्याण की योजनायें बनायी जाती हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप से काम करने में जातीय, भाषाई, तथा क्षेत्रीय भावनाओं की प्रधानता देखती है जाती है। इस संकीर्ण सोच ने हमारे देश के लोगों को कायर और अक्षम बना दिया है। भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल रहा है क्योंकि हर आदमी अपने व्यक्तिगत दायरों में होकर सोचता है और उसे समाज से कोई सरोकार नहीं  है।
जिन लोगों को कुशल महावत की तरह अपने जिंदगी रूपी हाथी पर नियंत्रण करना है उनको अपने अंदर किसी प्रकार की संकीर्ण सोच को स्थान नहीं देना चाहिये। जब आदमी जातीय, भाषाई, वर्णिक तथा क्षेत्रीय सीमाओं के सोचता है तो उसकी चिंता अपने समाज पर ही क्रेद्रित होकर रह जाती है। तब उसे लगता है कि वह कोई ऐसा काम न करे करे जिससे उसका समाज नाराज न हो जाये। यहां तक कि इस डर से वह दूसरे समाज के लिये हित का न तो सोचता है न करता है कि वह उसके समाज का विरोधी है। इससे उसके अंदर असहजता का भाव उत्पन्न होता है। जब आदमी उन्मुक्त होकर जीवन में में विचरण करता है तब वह विभिन्न जातीय, भाषाई, तथा क्षेत्रीय समूहों में भी उसको प्रेम मिलता है जिससे उसका आनंद बढ़ जाता है।
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Saturday, July 24, 2010

धर्म संदेश-संगीत सुनकर ही शयन करें (hindu dharma sandesh-sangeet sunkar shayan karen)

आजकल रेडियो या टेप में संगीत सुनने की बजाय टीवी और वीडियो पर उसका आनंद उठाने का प्रयास किया जा रहा है। सच तो यह है कि टीवी में हम आंख तथा कान दोनों को सक्रिय रखते हैं इसलिये मजा उठाने से अधिक कष्ट मिलता है। संगीत सुनने का आनंद तो केवल कानों से ही है। वैसे शायद यही वजह है कि टीवी पर हर शो में फिल्मी गानों को पृष्ठभूमि में जोड़कर दृश्य को जानदार बनाने का प्रयास किया जा रहा है। किसी धारावाहिक में अगर पात्र गुस्से में बोल रहा है तो भयानक संगीत का शोर जोड़कर उसे दमदार बनाने का प्रयास शायद इसलिये ही किया जाता है कि आजकल का अभिनय करने वाले पात्रों को न तो कला से मतलब है न उनमें योग्यता है। बहरहाल संगीत मानव मन की कमजोरी है और जहां तक मनोरंजन मिले वहां तक सुनना चाहिये। अति तो सभी जगह वर्जित है।
तत्र भुक्तपर पुनः किंचित्तूर्यघोषैः प्रहर्षितः।
संविशेत्तु यथाकालमुत्तिष्ठेच्च गतक्लमः।
हिन्दी में भावार्थ-
भोजन करने के बाद गीत संगीत का आनंद उठाना चाहिये। उसके बाद ही शयन के लिये प्रस्थान करना उचित है।
एतद् विधानमातिष्ठेदरोगः पृथिवीपतिः।
अस्वस्थः सर्वमेत्त्ु भृत्येषु विनियोजयेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
स्वस्थ होने पर अपने सारे काम स्वयं ही करना चाहिये। अगर शरीर में व्याधि हो तो फिर अपना काम विश्वस्त सेवकों को सौंपकर विश्राम भी किया जा सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-एक तरफ मनुस्मृति में प्रमाद से बचने का सुझाव आता है तो दूसरी जगह भोजन के बाद गीत संगीत सुनने की राय मिलती है। इसमें कहीं विरोधाभास नहीं समझा जा सकता। दरअसल मनुष्य की दिनचर्या को चार भागों में बांटा गया है। प्रातः धर्म, दोपहर अर्थ, सायं काम या मनोरंजन तथा रात्रि मोक्ष या निद्रा के लिये। जिस तरह आजकल चारों पहर मनोरंजन की प्रवृत्ति का निर्माण हो गया है उसे देखते हुए मनृस्मृति के संदेशों का महत्व अब समझ में आने लगा है।
आजकल रेडियो, टीवी तथा अन्य मनोंरजन के साधनों पर चौबीस घंटे का सुख उपलब्ध है। लोग पूरा दिन मनोरंजन करते हैं पर फिर भी मन नहीं भरता। इसका कारण यह है कि मनोंरजन से मन को लाभ मिले कैसे जब उसे कोई विश्राम ही नहीं मिलता। जब कोई मनुष्य प्रातः धर्म का निर्वहन तथा दोपहर अर्थ का अर्जन ( यहां आशय अपने रोजगार से संबंधित कार्य संपन्न करने से हैं) करता है वही सायं भोजन और मनोरंजन का पूर्ण लाभ उठा पाता है। उसे ही रात्रि को नींद अच्छी आती है और वह मोक्ष प्राप्त करता है।
शाम को भोजन करने के बाद गीत संगीत सुनना चाहिये। अलबत्ता टीवी देखने से कोई लाभ नहीं है क्योंकि उसमें आंखें ही थकती हैं और दिमाग को कोई राहत नहीं मिलती। इसलिये टेप रिकार्ड या रेडियो पर गाने सुनने का अलग मजा है। वैसे भी देखा जाये तो आजकल अधिकर टीवी चैनल फिल्मों पर गीत संगीत बजाकर ही गाने प्रस्तुत किये जाते हैं-चाहे उनके हास्य शो हों या कथित वास्तविक संगीत प्रतियोगितायें फिल्मी धुनों से सराबोर होती हैं। देश के व्यवसायिक मनोरंजनक प्रबंधक जानते हैं कि गीत संगीत मनुष्य के लिये मनोरंजन का एक बहुत बड़ा स्त्रोत हैं इसलिये वह उसकी आड़ में अपने पंसदीदा व्यक्तित्वों को थोपते हैं। प्रसंगवश अभी क्रिकेट में भी चौका या छक्का लगने पर नृत्यांगना के नृत्य संगीत के साथ प्रस्तुत किये जाते हैं। स्पष्टतः यह मानव मन की कमजोरी का लाभ उठाने का प्रयास है।
टीवी पर इस तरह के कार्यक्रम देखने से अच्छा है सीधे ही गाने सुने जायें। अलबत्ता यह भोजन करने के बाद कुछ देर तक ठीक रहता है। अर्थशास्त्र के उपयोगिता के नियम के अनुसार हर वस्तु की प्रथम इकाई से जो लाभ होता है वह दूसरी से नहीं होता। एक समय ऐसा आता है कि लाभ की मात्रा शून्य हो जाती है। अतः जबरदस्ती बहुत समय तक मनोरंजन करने का कोई लाभ नहीं है। सीमित मात्रा में गीत संगीत सुनना कोई बुरी बात नहीं है-मनोरंजन को विलासिता न बनने दें।
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Saturday, July 17, 2010

श्री गुरुवाणी-कलह बहुत बुरी बात है (shri guruvani-kalak buri bat hai)

यह मनुष्य स्वभाव है कि वह अपनी निंदा या आलोचना अपने सामने सह नहीं पाता। स्थिति यह है कि आत्मीय मित्रों या परिवार के सदस्यों की आलोचना ही किसी से सहन नहीं होती। इसके अलावा संसार में कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनको दूसरों के दोष ढूंढकर उनका बखान करने में मजा आता है। कुछ ऐसे भी हैं जो दूसरे के दर्द या पीड़ा का मजाक सामने ही उड़ाते हैं। ऐसे लोग अज्ञान में जीते हैं अतः उनसे दूरी बनाये रखना ही ठीक है। अगर ऐसे लोगों से वाद विवाद करेंगे तो झगड़ा बढ़ेगा संभव है वह हिंसा में बदल जाये।
कलह बुरी संसारि।’
हिन्दी में भावार्थ-
संसार में कलह बुरी चीज है।
‘झगरु कीए झगरउ पावा।‘
हिन्दी में भावार्थ-
झगड़ा करने से झगड़ा ही हासिल होता है।
‘उना पासि दुआसि न भिटीअै जिन अंतरि क्रोधु चंडालु।’
हिन्दी में भावार्थ-
जिन मनुष्यों के हृदय में क्रोध रूपी चंडाल रहता है उनके पास कभी न जाओ।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर इस संसार की गतिविधियों का अवलोकन ध्यान से करें तो पायेंगे कि अधिकतर झगड़े बिना बात के होते हैं। संत कबीर दास जी भी कह गये हैं कि ‘ न सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठमलट्ठा।’ हमारे देश में मुकदमों की संख्या बहुत है। कई मुकदमे तो ऐसे हैं जिनको दायर करने वालों की तीन तीन और चार पीढ़ियां गुजर गयी हैं पर उनका निपटारा नहीं हुआ। इसका कारण यह है कि लोग जरा जरा सी बात पर लड़ पड़ते हैं और जिन विवादों का निपटारा बातचीत और आपसी सहयोग से हो सकता है उसके लिये झगड़ा करते हैं। अहंकार वश अपने आपको श्रेष्ठ और विजेता साबित करने के लिये वह किसी भी हद तक चले जाते हैं। नतीजा यह होता है कि झगड़ा बढ़ जाता है। जिसमें धन, समय, और ऊर्जा का व्यर्थ क्षय होता है।
इतना ही नहीं जिन लोगों की छबि बाहूबली होने के साथ अनाचारी और दुराचारी की है लोग अपनी संभावित सरुक्षा के लिये उनसे संपर्क बनाते हैं। जबकि होना यह चाहिये कि उनसे दूर रहा जाये क्योंकि ऐसे लोग अपने अहंकार वश क्रोध में आकर कभी भी किसी पर आक्रमण कर सकते हैं।
कहने का अभिप्राय यह है कि जहां तक धन, पद तथा बाहूबल से संपन्न लोगों से मानवता की अपेक्षा नहीं करना चाहिये जब तक व्यवहार से उनके उत्तम पुरुष होने की अनुभूति न हो। निम्न प्रकृत्ति के लोगों से दूर रहना ही श्रेयस्कर है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Saturday, July 10, 2010

हिन्दू धर्म संदेश-अज्ञानी के साथ किसी दरबार में बैठना भी ठीक नहीं (agyani ka sath uchit nahin-hindu dharma sandesh

भारतीय समाज की समस्या यह नहीं है कि सभी लोग अज्ञानी हैं बल्कि ज्ञान के अहंकार ने ही यहां वातावरण को विषाक्त किया है। हमारे समाज में हर व्यक्ति पौराणिक ग्रंथों के ज्ञान को जानते है। निष्काम भक्ति निष्प्रयोजन दया का मतलब सभी जानते हैं पर आचरण में कोई नहीं लाता। उस समय सभी लोग व्यवाहारिकता के नाम पर हर बुरा काम करने को तैयार हो जाते हैं। निंदा तथा दोष देखने की प्रवृति जाग जाती है। जिन लोगों को अपने धार्मिक तथा अन्य वैचारिक ज्ञान पर अहंकार है उनका तो कहना ही क्या? वह सशस्त्र संघर्ष के द्वारा धर्म स्थापना की बात करते हैं। ऐसे में किसी ज्ञानी की पहचान करना कठिन लगता है पर जिन लोगों ने अहिंसा तथा शांति का मार्ग अपनाया है और लालच तथा लोभ की वजह से दूसरे की हानि नहीं करते उनको ही ज्ञानी माना जा सकता है। कम से कम मनु स्मृति में तो यही सन्देश दिया गया है 
यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवम्
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिपतं मम मनः
यदा किञ्चित्किाञ्चिद् बुधजनसकाशादवगतम्
तदा मूर्खोऽस्मीति जवन इव मदो में व्यपगतः
हिंदी में भावार्थ -जब मुझे कुछ ज्ञान हुआ तो मैं हाथी की तरह मदांध होकर उस पर गर्व करने लगा और अपने को विद्वान समझने लगा पर जब विद्वानों की संगत में बैठा और यथार्थ का ज्ञान हुआ तो वह अहंकार ज्वर की तरह उतर गया तब अनुभव हुआ कि मेरे समान तो कोई मूर्ख ही नहीं है।
वरं पर्वतदुर्गेषु भ्रान्तं वनचरैः सह
न मूर्खजनसम्पर्कः सुरेन्द्रभवनेष्वपि
हिंदी में भावार्थ - बियावान जंगल और पर्वतों के बीच खूंखार जानवरों के साथ रहना अच्छा है किंतु अगर मूर्ख के साथ इंद्र की सभा में भी बैठने का अवसर मिले तो भी उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।
वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य की पंच तत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि तथा अहंकार स्वाभाविक रूप से रहते हैं। अच्छे से अच्छे ज्ञानी को कभी न कभी यह अहंकार आ जाता है कि उसके पास सारे संसार का अनुभव है। इस पर आजकल अंग्रेजी शिक्षा पद्धति लोग तो यह मानकर चलते हैं कि उनके पास हर क्षेत्र का अनुभव है जबकि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के बिना उनकी स्थिति अच्छी नहीं है। सच तो यह है कि आजकल जिन्हें गंवार समझा जाता है वह अधिक ज्ञानी लगते हैं क्योंकि वह प्रकृति से जुड़े हैं और आधुनिक शिक्षा प्राप्त आदमी तो एकदम अध्यात्मिक ज्ञान से परे हो गये हैं। इसका प्रमाण यह है कि आजकल हिंसा में लगे अधिकतर युवा आधुनिक शिक्षा से संपन्न हैं। इतना ही नहीं अब तो अपराध भी आधुनिक शिक्षा से संपन्न लोग कर रहे हैं।
जिन लोगों के शिक्षा प्राप्त नहीं की या कम शिक्षित हैं वह अब अपराध करने की बजाय अपने काम में लगे हैं और जिन्होंने अंग्रेजी में शिक्षा प्राप्त की और इस कारण उनको आधुनिक उपकरणों का भी ज्ञान है वही बम विस्फोट और अन्य आतंकवादी वारदातों में लिप्त हैं। इससे समझा जा सकता है कि उनके अपने आधुनिक ज्ञान का अहंकार किस बड़े पैमाने पर मौजूद है।
आदमी को अपने ज्ञान का अहंकार बहुत होता है पर जब वह आत्म मंथन करता है तब उसे पता लगता है कि वह तो अभी संपूर्ण ज्ञान से बहुत परे है। कई विषयों पर हमारे पास काम चलाऊ ज्ञान होता है और यह सोचकर इतराते हैं कि हम तो श्रेष्ठ हैं पर यह भ्रम तब टूट जाता है जब अपने से बड़ा ज्ञानी मिल जाता है। अपनी अज्ञानता के वश ही हम ऐसे अल्पज्ञानी या अज्ञानी लोगों की संगत करते हैं जिनके बारे में यह भ्रम हो जाता है वह सिद्ध हैं। ऐसे लोगों की संगत का परिणाम कभी दुखदाई भी होता है। क्योंकि वह अपने अज्ञान या अल्पज्ञान से हमें अपने मार्ग से भटका भी सकते हैं।
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Sunday, July 04, 2010

श्रीगुरुवाणी-जाति पर घमंड करना व्यर्थ (jati par ghamand karna vyarth-shri guruvani)

श्री गुरुनानक देव ने हमारे अध्यात्मिक ज्ञान के पुनरोद्धार में अनुकरणीय योगदान दिया है। उनके समय में अंधविश्वास और रूढ़िवादिता का अत्यंत बोलबाला था और उन्होंने समाज को इनसे दूर रखने के लिये महान प्रयास किया। भारत में जांतपांत को लेकर निरर्थक विवाद होते हैं और हैरानी की बात यह है कि आधुनिक शिक्षा के बढ़ते प्रभाव के साथ जातीय और धार्मिक विवाद भी बढ़ते जा रहे हैं। यही कारण कि समाज और देश दोनों ही पिछड़े हुए है। आज जरूरत इस बात की है कि उनकी शिक्षाओं को ग्रहण कर उसे जीवन में उतरा जाये।
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जाति का गरबु न करि मूरख गवारा।
इस गरब ते चलहि बहुतु विकारा।।
हिन्दी में भावार्थ-
गुरुवाणी में मनुष्यों को संबोधित करते हुए कहा गया है कि ‘हे मूर्ख जाति पर गर्व न कर, इसके चलते बहुत सारे विकार पैदा होते हैं।
‘हमरी जाति पाति गुरु सतिगुरु’
हिन्दी में भावार्थ-
गुरुग्रंथ साहिब में भारतीय समाज में व्याप्त जाति पाति का विरोध करते हुए कहा गया है कि हमारी जाति पाति तो केवल गुरु सत गुरु है।
‘भै काहू को देत नहि नहि भै मानत आनि।
कहु नानक सुनि रे मना गिआनी ताहि बखानि।।’
हिन्दी में भावार्थ-
गुरुग्रंथ साहिब के अनुसार जो व्यक्ति न किसी को डराता है न स्वयं किसी से डरता है वही ज्ञानी कहलाने योग्य है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-प्राचीनकाल में भारत में जाति पाति व्यवस्था थी पर उसकी वजह से समाज में कभी विघटन का वातावरण नहीं बनता था। कालांतर में विदेशी शासकों का आगमन हुआ तो उनके बौद्धिक रणनीतिकारों ने यहां फूट डालने के लिये इस जाति पाति की व्यवस्था को उभारा। इसके बाद मुगलकाल में जब विदेशी विचारधाराओं का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा था तब सभी समाज अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिये संगठित होते गये जिसकी वजह से उनमें रूढ़ता का भाव आया और जातीय समुदायों में आपसी वैमनस्य बढ़ा जिसकी वजह से मुगलकाल लंबे समय तक भारत में जमा रहा। अंग्रेजों के समय तो फूट डालो राज करो की स्पष्ट नीति बनी और बाद मेें उनके अनुज देसी वंशज इसी राह पर चले। यही कारण है कि देश में शिक्षा बढ़ने के साथ ही जाति पाति का भाव भी तेजी से बढ़ा है। जातीय समुदायों की आपसी लड़ाई का लाभ उठाकर अनेक लोग आर्थिक, सामजिक तथा धार्मिक शिखरों पर पहुंच जाते है। यह लोग बात तो जाति पाति मिटाने की करते हैं पर इसके साथ ही कथित रूप से जातियों के विकास की बात कर आपसी वैमनस्य भी बढ़ाते है।
भारत भूमि सदैव अध्यात्म ज्ञान की पोषक रही है। हर जाति में यहां महापुरुष हुए हैं और समाज उनको पूजता है, पर कथित शिखर पुरुष अपनी आने वाली पीढ़ियों को अपनी सत्ता विरासत में सौंपने के लिये समाज में फूट डालते हैं। जो जातीय विकास की बात करते हैं वह महान अज्ञानी है। उनको इस बात का आभास नहीं है कि यहां तो लोग केवल ईश्वर में विश्वास करते हैं और जातीय समूहों से बंधे रहना उनकी केवल सीमीत आवश्यकताओं की वजह से है।
जातीय समूहों से आम लोगों के बंधे रहने की एक वजह यह है कि यहां सामूहिक हिंसा का प्रायोजन अनेक बार किया जाता है ताकि लोग अकेले होने से डरें। इस समय देश में बहुत कम ऐसे लोग होंगे जो अपने जातीय समुदायों के शिखर पुरुषों से खुश होंगे पर सामूहिक हिंसक घटनाओं की वजह से उनमें भय बना रहता है। आम आदमी में यह भय बनाये रखने के लिये निंरतर प्रयास होते हैं ताकि वह अपने जातीय शिखर पुरुषों की पकड़ में बने रहें ताकि उसका लाभ उससे ऊपर जमे लोगों को मिलता रहे। मुश्किल यह है कि आम आदमी में भी चेतना नहीं है और वह इन प्रयासों का शिकार हो जाता है। इसलिये सभी लोगों को यह समझना चाहिए कि यह जाति पाति बनाये रखकर हम केवल जातीय समुदायों के शिखर पुरुषों की सत्ता बचाते हैं जो दिखाने के लिये हमदर्द बनते हैं वरना वह तो सभी अज्ञानी है। अपने से बड़े से भय खाने और और अपने से छोटे को डराने वाले यह लोग महान अज्ञानी हैं और हमारे अज्ञान की वजह से हमारे सरताज बन जाते है।
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Tuesday, June 22, 2010

हिन्दू धर्म संदेश-वेद मंत्रों के जाप से मनोकामना पूरी होती है (ved mantra aur manokamna-hindu dharam sandesh)

अधियज्ञं ब्रह्म जपेदाधिदैविकमेव च।
आध्यात्मिकं च सतत। वेदान्ताभिहितं च यत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
वेदों में वर्णित यज्ञ तथा पूजा से संबंधित, आत्मा के विषय में संबंधित तथ वेदांत से संबंधित मंत्रों का धार्मिक मनुष्य को हमेशा जाप करते रहना चाहिए।

इदं शरणमज्ञानामिदमेव विजानताम्।
इदमन्विच्छतां स्वर्गमिदमानन्त्यमिच्छताम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
मनुष्य ज्ञानी हो या अज्ञानी वेद मंत्रों को जपने से उसे इच्छित फल प्राप्त होता है। उसी तरह इनके जाप से स्वर्ग की इच्छा करने वालो को स्वर्ग तथा मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा करने वाले को मोक्ष प्राप्त करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-वेदों का विषय बहुत व्यापक है। यह किसी एक काल में नहीं लिखे गये और न ही उनका कोई एक रचनाकार है। वेदों में उस हर कथन को स्थान दिया गया है जो विद्वानों द्वारा व्यक्त किया गया है। अतः अनेक जगह विरोधाभास है। इसके अलावा विभिन्न विद्वानों द्वारा अपनी तात्कालिक मनस्थिति क अनुसार प्रस्तुत विचारों के कारण वर्तमान समय में वह अप्रासंगिक भी दिखार्इ्र देते हैं। एक तरफ वेदों में दूसरों से कर्ज लेने का विरोध किया गया है तो वहीं चार्वाक ऋषि द्वारा कर्ज लेकर घी पियो जैसा संदेश भी दिखाई देता है-यह अलग बात है कि कुछ लोग उसका मजाक उड़ाते हैं पर उसका रहस्य कम लोग ं ही समझ पाये।
कहा जाता है कि वेदों में अस्सी फीसदी श्लोक सकाम भक्ति (अर्थात स्वर्ग दिलाने का लाभ)तथा बीस प्रतिशत मोक्ष (निष्काम भक्ति) से संबंधित हैं। श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्वर्ग से प्रीति रखने वाले वेदवाक्यों का उल्लंघन करने का संदेश देते हैं। समाज ने जिस तरह श्रीमद्भागवत गीता को स्वीकार किया उससे केवल बीस फीसदी वेदवाक्य ही उपयुक्त रह जाते हैं। उसके अलावा भी दैहिक जीवन सुविधा से गुजारने के लिये उसमें अनेक मंत्र है जिनके जाप से इस भौतिक संसार में लाभ होता है। सबसे बड़ी बात यह है कि श्रीमद्भागवत ने सभी जाति, वर्ण, तथा स्त्री पुरुष में भेद से दूर रहने का संदेश दिया है इसलिये जाति, वर्ण तथा स्त्रियों के विषय में जो विरोधाभासी कथन है उनका महत्व अब नहीं रह गया है। भारतीय अध्यात्म दर्शन के विरोधी अभी भी उन संदेशों को गा रहे हैं जबकि श्रीमद्भागवत गीता ने उनके उल्लंधन करने का आदेश दिया गया है और समाज भी ऐसे विरोधाभासी संदेशों से दूर हो गया है। अतः आलोचकों की परवाह न करते हुए अपने जीवन के लिये उपयुक्त वेदमंत्रों का जाप करते रहना चाहिये जिनसे मन को शांति के साथ ही इच्छित फल भी प्राप्त होता है।
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Sunday, June 20, 2010

संत कबीर के दोहे-जैसा खाना खायेंगे वैसे विचार हो जायेंगे

साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं
धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं
कबीर दास जीं कहते हैं कि संतजन तो भाव के भूखे होते हैं, और धन का लोभ उनको नहीं होता । जो धन का भूखा बनकर घूमता है वह तो साधू हो ही नहीं सकता।

जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय
संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है वैसा ही बन जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-श्रीमद्भागवत गीता के संदेश के अनुसार गुण ही गुणों में बरतते हैं। जिस तरह का मनुष्य भोजन ग्रहण करता है और जिस वातावरण में रहता है उसका प्रभाव उस पर पड़ता ही है। अगर हम यह मान लें कि हम तो आत्मा हैं और पंच तत्वों से बनी यह देह इस संसार के पदार्थों के अनुसार ही आचरण करती है तब इस बात को समझा जा सकता है। अनेक बार हम कोई ऐसा पदार्थ खा लेते हैं जो मनुष्य के लिये अभक्ष्य है तो उसके तत्व हमारे रक्त कणों में मिल जाते हैं और उसी के अनुसार व्यवहार हो जाता है।
आज जो हम समाज में तनाव और बीमारियों की बाहुलता देख रहे हैं वह सभी इसी खान पान के कारण उपजी हैं। कहते हैं कि स्वस्था शरीर में ही स्वस्थ मन निवास करता है, इसका आशय यही है कि सात्विक भोजन से जहां मन प्रसन्न रहता है वहीं तामस प्रकार का भोजन शरीर और मन के लिये कष्टकारक होता है। दूसरी बात यह है कि जो साधु प्रकृत्ति के लोग हैं वह खाने पीने या पैसा लेने के लालची नहीं होते बल्कि उनमें तो भाव की भूख होती है।  अधिक से सत्संगी पाकर वह अपने को धन्य समझते हैं।  जो अपने भक्त या सत्संगियों को ग्राहक समझते हैं उनको तो कभी संत कहना ही नहीं चाहिए। 
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Sunday, June 06, 2010

हिन्दू आध्यामिक दर्शन-भक्ति के विभिन्न स्वरूप मान्य (hindu adhyamik sandesh-bhakti ke alag laga roop)

विरोधः कर्मणीति चैन्नानेकप्रतिपत्तेर्दर्शनात्।।
हिन्दी में भावार्थ-यदि देवताओं की पूजा, यज्ञादि कर्म में विरोध आता है तो उसे ठीक नहीं मान लेना चाहिये क्योंकि उनके द्वारा एक ही समय में अनेक रूप धारण करना संभव है-ऐसा देखा गया है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे देश में सांस्कृतिक, सांस्कारिक, तथा सामाजिक विविधता है और यही विश्व में हमारी पहचान भी है।  भगवत्स्वरूप को हर जगह विविध रूप में स्थापित किया जाता है और देवों की पूजा में भी भिन्नता दिखाई देती है।  उत्तर से दक्षिण तक विवाह आदि घरेलू कार्यों के अवसर पर यह विविधता दिखाई देती है।  इस विविधता को विरोध का प्रमाण नहीं समझना चाहिये। हमारा देश अत्यंत बृहद है जहां पांच कोस पर बोली बदल जाती है वहां भक्ति तथा भजन का रूप भी बदलता है। फिर अपने यहाँ निष्कामं तथा सकाम दोनों प्रकार कि भक्ति को मान्यता है वहां किसी का विरोध नहीं करना चाहिए।
इसके अलावा हमारे यहां, भगवान विष्णु, ब्रह्मा, तथा शिव को अपने अपने ढंग से अनेक भक्त अपना इष्ट मानते हैं।  भगवान विष्णु के तो 14 अवतार माने जाते हैं।  इन विविध रूपों के अनुसार भी अनेक क्षेत्रों में स्थापित प्रतिमाओं में भी विविधता देखी जाती है।  इसका अन्य धर्मावलंबी मजाक बनाते हैं पर यह उनके अज्ञान का प्रमाण है।  भारतीय अध्यत्मिक रहस्यों को समझे बिना भारत के ही अनेक लोग भी विपरीत टिप्पणियां करते हैं।  दरअसल मुख्य विषय भक्ति है और विभिन्न स्वरूपों की प्रतिमायें पूजने का आशय आकार से निरंकार की तरफ जाना होता है।  अगर हम देश की सीमाओं से उठकर देखें तो यहां से बाहर स्थापित स्वरूप भी इसी तरह विरोध भाव से परे हैं और यही कारण है कि भारतीय अध्यात्मिक पुरुषों ने कभी किसी दूसरे धर्म पर आक्षेप न कर उनको व्यापक दायरे में मान्यता दी। भारतीय अध्यात्मिक ज्ञानी कभी किसी दूसरे के धर्म को निशाना नहीं बनाते।
मुख्य बात यह है कि अपने धर्म पर दृढ़ता से स्थित रहते हुए अपना कर्म करना चाहिये और जिस रूप में नारायण का मानते हैं उसका ही स्मरण करना चाहिये। चाहे कैसा भी समय हो उसके स्वरूप में बदलाव न करन  में ही हितकर  नहीं है बल्कि  अविश्वास, दबाव या लालच में आकर ऐसा करना भारी मानसिक कष्ट का कारण होता है। जो लोग अपने भक्ति या विश्वास में बदलाव करते हैं उनको हासिल तो कुछ नहीं होता उलटे लोगों में हंसी का पात्र बनते हैं।
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Sunday, May 30, 2010

श्रीमदभगवद्गीता गीता एक स्वर्णिम ग्रंथ है-रविवारीय चिंतन (shri madbhagvat geeta a golden book)

अपना अपना विचार है और उसके अभिव्यक्त होने की भी अलग अलग शैली होती है। इसलिये किसी के कुछ लिखने और पढ़ने पर उस आदमी के आंतरिक मनस्थिति की भी जानकारी मिल जाती है। इस देश की सबसे बड़ी समस्या यह है कि लोग पढ़ते कम हैं लिखने और कहने के लिये लालायित अधिक रहते हैं। समझते कम हैं दूसरे को समझाने के लिये दौड़ पड़ते हैं। सो जैसे लेखक वैसे पाठक, जैसे गुरु वैसे चेले और जैसे बुद्धिजीवी वैसे आम श्रोताओं का एक समाज यहां बन गया है जो अंततः जड़ता की स्थिति में हैं। जहां अनेक लोग मैंढक की तरह टर्र टर्र करते हुए समाज में बदलाव की बात करते हैं पर कहीं पता खड़कता तक नहीं दिखाई देता। समाज को बदलने की बात करने वाले स्वयं में बदलाव नहीं लाते केवल नारे लगाते हैं। जिनमें एक यह भी कि दुनियां के सारे धार्मिक ग्रंथ मानवता का संदेश देते हैं मगर दुनियां है कि सुधरती नहीं है।
यही कारण है कि दुनियां का स्वर्णिम ग्रंथ श्रीमदभगवद्गीता जितना प्रसिद्धि है उसकी सामग्री के बारे में बहुत कम लोग समझते हैं। स्थिति यह है कि एक धार्मिक संस्था के कैलेंडर पर बहुत अच्छी बातें लिखी गयी थीं और संदर्भ दिया गया श्रीगीता का मगर उसमें एक भी बात प्रमाणिक रूप से मौजूद नहीं है।
एक आदमी कभी पार्क के अंदर नहीं गया। वह तो उसके पास से गुजरता भर था। उसका पार्क के चारो और के मार्ग पर आना जाना था पर अंदर झांकने की उसने कोशिश नहीं की क्योंकि वह ऊंची झाड़ियों से घिरा हुआ था। इसके बावजूद दूसरों से वह बखान करता है कि उस पार्क में अनेक प्रकार के  फूलों की जोरदार खुशबू फैलती है। अनेक प्रकार के वृक्ष हैं।
एक ने पूछा-‘वहां कौनसे फूल खिलते हैं?
उस आदमी ने जवाब दिया कि-‘गुलाब, कमल, चंद्रमुखी तथा और भी बहुत से किस्म के फूल हैं जिनकी खुशबू से मन खुश हो जाता है।
इस तरह वह पार्क का एक बहुत बड़ा प्रचारक बन गया था। जहां भी जाता उस पार्क के लोगों को बताता, अलबत्ता वहां के फूल और पेड़ पौद्यों की वास्तविक जानकारी उसके पास नहीं थी। एक दिन एक वनस्पति ज्ञानी उस पार्क में गया और उसने वहां का अध्ययन कर एक बहुत बड़ा लेख अखबार में लिख डाला। उसकी चर्चा लोग उस आदमी से करने लगे तो वह कहने लगा कि ‘उंह, उससे ज्यादा तो हम जानते हैं क्योंकि उसने जितना लिखा है उससे ज्यादा तो हम लोगों को बता चुके हैं। जितने लोगों का  उसे पढ़कर इस पार्क में जाना नहीं होगा उससे ज्यादा तो हमारे मुंह से सुनकर लोग वहां आते हैं।
श्रीमद्भागवत गीता के बारे में जो उसके ज्ञान की चर्चा करते हैं उनकी स्थिति उस आदमी की तरह ही है जो कभी पार्क के अंदर नहीं गया। फिर अपने समाज में व्यवसायिक रूप से धार्मिक विचारक सक्रिय हैं। देश में जातीय,धार्मिक तथा भाषाई समुदायों में उनको अपने ग्राहक या भक्त ढूंढने होते हैं इसलिये वह एकता कराने के लिये भी प्रयास करते हैं ताकि वह सर्वप्रिय हो सकें।
कई संत या विचारक तो इतने शुद्ध व्यवसायिक हैं कि वह श्रीमदभगवद्गीता की तुलना अन्य धर्म ग्रंथों के साथ भी करते हैं तो कई ऐसे भी हैं जो अन्य धर्म ग्रंथ के ज्ञान जैसा ही श्रीमद्भागवत गीता का भी ज्ञान बताते हैं। चार पांच अन्य धर्म ग्रंथों की पुस्तकों का नाम लेकर श्रीगीता का नाम उसमें जोड़कर कह दिया जाता है कि ‘सारे ग्रंथ भाई चारे, प्रेम तथा अंिहसा का उपदेश देते हैं।
सच बात तो यह है कि यह सभी ऐसे संत और बुद्धिजीवी उस आदमी तरह हैं जो उस पार्क में गया ही नहीं जिसका प्रचार करते हैं। उनके मुख से श्रीमद्भागवत गीता का नाम सुनकरा हैरानी होती है क्योंकि इसका मतलब यह है कि वह उसे पढ़ते नहीं और पढ़ते है तो समझते नहीं। जबकि सत्य यह है कि एक बार जो पवित्र भाव से श्रीगीता का अध्ययन करेगा तो फिर उसे अन्य धर्म पुस्तकों से कोई प्रयोजन नहीं रह जाता । जिस तरह पार्क का प्रचाकर तो तो केवल उसके चारों ओर बाहर से घूमकर निकल जाता था वही स्थिति उन धार्मिक प्रचारकों की है जो दूसरे धर्म ग्रंथों के साथ श्रीमद्भागवत गीता की तुलना करते हैं।
जो वास्तव में श्रीगीता का ज्ञान रखते हैं वह वनस्पति ज्ञानी की तरह हैं जो केवल इसी पर बोला और लिखा करते हैं।
वैसे श्रीमदभगवद्गीतादुनियां का ऐसा अकेला ग्रंथ है जिसमें ज्ञान सहित विज्ञान है। श्रीगीता में भी प्रेम, भाईचारे, दया, सहिष्णुता तथा परोपकार की बात तो कही गयी है पर यह भी बताया गया है कि जब तक सहज योग की शरण नहीं लेंगे तब यह सब आप नहीं कर पायेंगे। शरीर के विकार निकाले बिना मन के विकार निकालना कठिन काम है। भक्त चार प्रकार के बताये गये हैं-आर्ती, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी।
दो तरह की प्रकृत्तियों के मनुष्य बताये हैं-आसुरी और देवीय।
तीन प्रकार के कर्म तथा कर्ता बताये गये हैं-सात्विक, राजस और तामसी।
सामाजिक समन्वय तथा स्वयं को तनाव रहित रखने के लिये निष्काम कर्म भक्ति, निष्प्रयोजन दया तथा योग में रत रहने के साधन बताये गये हैं।
श्रीमदभगवद्गीता के संदेशों का अध्ययन करें तो यह बात सामने आती है कि मनुष्य और उसके कर्म के उतने प्रकार इस धरती पर हमेशा रहेंगे और उनकी विविधता को मिटाना संभव नहीं है। मुख्य विषय यह है कि आप अपने कर्म और निश्चय पर ध्यान दें। इसके विपरीत अन्य धार्मिक पुस्तकें इस सत्य से परे हैं और वह सभी मनुष्यों की प्रकृत्तियों और कर्म में साम्यता लाने का असंभव सा प्रयास करने का संदेश देती हैं। व्यक्ति को अपने सुधार के बाद समाज में सुधार लाने का प्रयास करने का संदेश देती हैं जो कि एक तरह का तामसिक प्रयास है। जब आप दूसरे को अपनी तरह से भक्ति करने का ज्ञान देते हैं तो इसका आशय यह है कि आपने अपनी भक्ति का अहंकार दिखाया-‘मैं ऐसा करता हूं तू भी ऐसा कर तो तर जायेगा’, या ‘ऐसा करेगा तो तुझे स्वर्ग मिलेगा’-जो कि तामसी प्रवृत्ति का परिचायक है। इतना ही नहीं श्रीगीता में एकांत साधना करने की बात कही जाती है जबकि अन्य धर्म पुस्तकें सामूहिक प्रार्थनाओं का संदेश देती हैं।
ऐसी बहुत अन्य बातें हैं जो श्रीमद्भागवत गीता को अलौकिक तथा असाधारण प्रमाणित करती हैं। इसकी तुलना अन्य किसी भी धार्मिक पुस्तक से नहीं की जा सकती क्योंकि वह सभी सकाम भक्ति की प्रवर्तक हैं जिसका कोई लाभ अधिक नहीं होता क्योंकि मनुष्य अर्थार्थी होकर मतलबी हो जाता है। कुछ अज्ञात महापुरुषों ने इस शाब्दिक रूप से लघु तथा अर्थ की दृष्टि  से अत्यंत व्यापक इस ग्रंथ को इसलिये महाभारत जैसे महाग्रंथ से प्रथक किया क्योंकि वह जानते थे कि यह स्वर्णिम ज्ञान की खदान है। ऐसे महापुरुषों का आभारी इस समाज को रहना चाहिए जिन्होंने इस स्वर्णिम ज्ञान की खदान की खोज कर उसे प्रथक स्थापित किया।
shri madbhagavat geeta,bhagvan shri krishna
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Thursday, May 27, 2010

हिंदू धर्मं सन्देश-क्लेश वाला काम करने से बचें

मनुस्मृती  के अनुसार 
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यत्कर्मकुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्म्न्ः।
तत्प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस कार्य से मन को शांति तथा अंतरात्मा को खुशी हो वही करना चाहिये। जिस काम से मन को अशांति हो उसे न ही करें तो अच्छा।

यद्यत्परवशं कर्म तत्तद्यलेन वर्जयेत्।
यद्यदात्मवशं तु स्यात्तत्तत्सेवेत यत्नतः।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस काम के लिये दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता है उनका त्याग कर देना चाहिये तथा अपने हाथ से ही संपन्न होने वाले अनुष्ठान करना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में चाहे कोई भी कार्य हो उसे पूरा करने से पहले अपने सामर्थ्य, साधन तथा सहयोगियों की उपलब्धता पर विचार करना चाहिये। अनेक लोग किसी भी कार्य में परिणाम की अनिश्चितता के बावजूद उसे इस आशा से प्रारंभ करते हैं कि उनका ‘भाग्य’ साथ देगा या फिर ऊपर वाले की कृपा होगी-यह अंधेरे में तीर चलाने जैसा है। संभव है कुछ लोगों का निशाना लग जाये पर सभी को ऐसा सौभाग्य नहीं मिलता। अत: जहाँ तक हो सके ऐसा काम प्रारंभ करना चाहिए जिसकी पूर्णता अपने हाथ पर ही अधिक निर्भर हो।
दूसरों से अपने काम में सहयोग मिलने की अपेक्षा करना व्यर्थ है। अगर करें तो भी तो यह भी देखें कि आपने किसी को कितना सहयोग दिया है। फिर यह भी देखें कि जिसका सहयोग किया है कि उसमें प्रत्युपकार की भावना है कि नहीं। कहने का अभिप्राय यह है कि दूसरों पर निर्भर रहने वाले काम को प्रारंभ ही न करें तो अच्छा है।
इसके अलावा ऐसे भी काम न करें जिससे मानसिक क्लेश बढ़ता हो। आजकल खानपान तथा रहन सहन की वजह से लोगों में असहिष्णुता के साथ ही अहंकार की भावना बढ़ गयी है। अतः जरा जरा सी बात पर लोग उत्तेजित होकर लड़ने लगते हैं। अगर हमारे अंदर तनाव झेलने की क्षमता नहीं है तो फिर चुपचाप रहकर अपना काम करना चाहिये। अगर कोई व्यक्ति गलत काम कर रहा है तो उसे अनदेखा करें। कोई गलत व्यवहार करता है तो उसकी उपेक्षा कर दें। ऐस कुछ पल जिंदगी में आते हैं-यह सोचकर आगे बढ़ जायें। अगर आपने प्रतिवाद किया तो सामने वाले की उग्रता अधिक बढ़ेगी तब वह अधिक तनाव दे सकता है। ऐसे में हमें दूसरे का व्यवहार नहीं  बल्कि अपनी मनस्थिति को देखना चाहिये जो तनाव नहीं झेल पाती। जहाँ तक हो सके चुप होकर अपना काम करना ही श्रेयस्कर है।
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Thursday, May 20, 2010

चाणक्य नीति दर्शन-अपने गुणों की स्वयं प्रशंसा करना अज्ञान का प्रमाण (khud ki taarif agyan ka praman-chankya neeti)

पर-प्रोक्तगुणो वस्तु निर्गृणऽपि गुणी भवेत्।
इन्द्रोऽ लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गृणैः।।
हिन्दी में भावार्थ-
चाहे कोई मनुष्य कम ज्ञानी हो पर अगर दूसरे उसके गुणों की प्रशंसा अन्य लोग  करते हैं तो वह गुणवान माना जायेगा किन्तु जो पूर्ण ज्ञानी है और स्वयं अपना गुणगान करता है तो भी वह प्रशंसनीय नहीं माना जा सकता चाहे भले ही स्वयं देवराज इंद्र हो।
अतिक्लेशेन ये चार्था धर्मस्यातिक्रमेण तु।
शत्रूणां प्रणिपातेन ते ह्यर्था मा भवंतु में।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस धन की प्राप्ति दूसरों को क्लेश पहुंचाने या शत्रु के सामने सिर झुकाने से हो वह स्वीकार करने योग्य नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-थोथा चना बाजे घना इसलिये ही कहा जाता है कि जिसके पास गुण नहीं है वह अपने गुणों की व्याख्या स्वयं करता है। यह मानवीय प्रकृत्ति है कि अपने घर परिवार के लिये रोटी की जुगाड़ में हर कोई लगा है और विरले ही ऐसे लोग हैं जो दूसरों के हित की सोचते हैं पर अधिकतर तो खालीपीली प्रशंसा पाने के लिये लालायित रहते हैं। धन, वैभव और भौतिक साधनों के संग्रह से लोगों को फुरसत नहीं है पर फिर भी चाहते हैं कि उनको परमार्थी मानकर समाज प्रशंसा प्रदान करे। वैसे अब परमार्थ भी एक तरह से व्यापार बन गया है और लोग चंदा वसूल कर यह भी करने लगे हैं पर यह धर्म पालन का प्रमाण नहीं है। यह अलग बात है कि ऐसे लोगों का कथित रूप से सम्मान मिल जाता है पर समाज उनको ऐसी मान्यता नही देता जैसी की वह अपेक्षा करते हैं। ऐसे लोग स्वयं ही अपनी प्रशंसा में विज्ञापन देते हैं या फिर अपनी प्रशंसा में लिखने और बोलने के लिये दूसरे प्रचारकों का इंतजाम करते हैं। कहीं कहीं तो ऐसा भी होता है कि ‘तू मुझे चाट, मैं तुझे चाटूं’, यानि एक दूसरे की प्रशंसा कर काम चलाते हैं। इसके बावजूद यह वास्तविकता है कि हृदय से केवल सम्मान उसी को प्राप्त होता है जो ईमानदारी सें परमार्थ का काम करते हैं।
धन प्राप्त तो कहीं से भी किया जा सकता है पर उसका स्त्रोत पवित्र होना चाहिये। दूसरों को क्लेश पहुंचाकर धन का संग्र्रह करने से पाप का बोझ सिर पर चढ़ता है। उसी तरह ऐसा धन भी प्राप्त करने का प्रयास नहीं करना चाहिये जो शत्रु के सामने सिर झुकाकर प्राप्त होता है। आखिर मनुष्य धन किसी लिये प्राप्त करता है? यश अर्जित करने के लिये! अगर शत्रु के आगे सिर झुका दिया तो फिर वह  सम्मान कहां रह जायेगा।
मनुष्य को कभी अपनी प्रशंसा स्वयं नहीं करना चाहिये।  दरअसल आज यह स्थिति यह है कि हर आदमी अपने मुख से अपनी प्रशंसा स्वयं करता है। इसका कारण यह है कि लोगों ने परोपकार तथा परमार्थ का काम करना छोड़ दिया है और उनके बिना सम्मान मिल नहीं सकता। इसलिये ही जिसे देखो आत्मप्रवंचना करने लगे में लगा है। ‘मैंने यह किया’ और ‘मैंने वह किया’ जैसी बातें कर लोग दूसरों से प्रशंसा पाना चाहते हैं। कई तो ऐसे हैं जिन्होंने कभी किसी का भला नहीं किया पर दावे बहुत करते हैं।  यह सब अज्ञानी लोगों का काम है। ज्ञानी लोग भला काम करते है पर आत्मप्रवंचना से दूर रहते हैं क्योंकि उनके काम की प्रशंसा स्वयं ही होती है। 
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Friday, May 14, 2010

मनुस्मृति-भोजन करते समय मन को प्रसन्न रखें (hindu dharma sandesh-tanavmukt hokar bhojan grahan karen)

पूजयेदशनं नित्यमद्याच्चेतकुत्सयन्
दृष्टवा हृध्येत्प्रसीदेच्च प्रतिनन्देच्च सर्वशः।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुष्य को जैसा भोजन मिले उसे देखकर प्रसन्नता हासिल करना चाहिए। उसे ईश्वर प्रदत्त मानकर गुण दोष न निकालते हुए उदरस्थ करें। भोजन करते हुए अपनी झूठन न छोड़ें। यह कामना करें कि ऐसा अन्न हमेशा ही मिलता रहे।
पूजितं ह्यशनं नित्यं बलमूर्ज च यच्छाति।
अपूजितं च तद्भुक्तमूभयं नाशयेदिदम्।।
हिंदी में भावार्थ-
सदाशयता से ग्रहण किया भोजन बल और वीर्य में वृद्धि करता है जब निंदा करते हुए उदरस्थ करने से उसके तत्व नष्ट होते हैं। 
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिनको भोजन आराम से मिलता है उनको उसका महत्व नहीं पता इसलिये वह उसे ऐसे करते हैं जैसे कि उसकी उनको परवाह ही नहीं है। भोजन करते समय उनको यह अहंकार आता है कि यह तो हमारा अधिकार ही है और हमारे लिये बना है। सच तो यह है कि भोजन का महत्व वही लोग जानते हैं जिनको यह नसीब में पर्याप्त मात्रा में नहीं होता। स्वादिष्ट भोजन की चाह आदमी को अंधा बना देती है। अनेक बार ऐसा समय आता है जब वह सब्जी के कारण भोजन नहीं करता या उसे त्याग देता है। भोजन करते समय उसकी निंदा करेंगे। शादी विवाह में तो अब यह भी होने लगा है कि लोग भोजन थाली में भरकर लेते हैं पर उसमें से ढेर सारा झूठन में छोड़े देते हैं। सार्वजनिक अवसरों पर ऐसे भोजन की बरबादी देखी जा सकती है।
 हमें यह समझ लेना चाहिये कि भोजन तो ईश्वरीय कृपा से मिलता है। यह सही है कि दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम, पर यह भी नहीं भूलना कि अपने कर्म और भाव से भी भाग्य का निर्माण होता है। अगर हम भोजन करते हुए अहंकार पालेंगे तो संभव है कि दानों पर लिखा हमारा नाम मिट भी जाये। अपनी गृहिणी को कभी भी सब्जी आदि को लेकर ताना नहीं देना चाहिये। यह भगवान की कृपा समझें कि एक ऐसी गृहिणी आपके साथ है जो अपने हाथ से खाना बनाकर देती है वरना तो अनेक लोग घर के खाने के लिये तरस जाते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि खाते हुए अपना भाव सौम्य और सरल रखना चाहिए तभी भोजन के तत्व संपूर्ण रूप से काम करते हैं अगर मन में क्लेश या अप्रसन्नता है तो फिर खाना न खाना बराबर है। एक बात निश्चित है कि अगर तनाव में खाना खाया तो समझ लीजिये केवल पेट भरा पर उससे मिलने वाली ऊर्जा निरर्थक हो जाती है। आपने अक्सर सुना होगा कि जिनको दिमागी तनाव रहता है उन्हीं को उच्च रक्तचाप और मधुमेह की शिकायत होती है।
आजकल समस्या यह है कि लोग कमाने को ही सवौपरि मानते हैं और भोजन करना उनको बोझ जैसा लगता है इसलिये फास्ट फूड का सेवन करते हैं जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। यही कारण है कि छोटी आयु में अनेक लोगों को ऐसे रोग होने की बातेें सामने आती हैं जो बड़ी आयु में होते हैं। दूसरा यह भी है कि आज के युवक युवतियां अतिशीघ्र खास इंसान बनने की चाहते में इतना तनाव अपने सिर पर लेते हैं कि भोजन भी आराम से नहीं करते। इससे उनको बचना चाहिये। याद रखें पैसा भगवान नहीं है भोजन को भगवान ही समझें।
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Wednesday, May 12, 2010

पतंजलि योग साहित्य-जात पांत से मुक्त होने पर ही जीवन का आनंद

जातिदेशकालसमयानमच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम्।
हिन्दी में भावार्थ
-जाति, देश, काल तथा व्यक्तिगत सीमा से रहित होकर सावैभौमिक विचार का हो जाने पर मनुष्य एक महावत की तरह हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-महर्षि पतंजलि यहां पर मनुष्य को संकीर्ण विचाराधाराओं से बाहर आने का संदेश दे रहे हैं। योगासन और प्राणायाम के बाद मनुष्य की देह तथा मन में स्फूर्ति आती है तब उसके हृदय में कुछ नया कर गुजरने की चाहत पैदा होती है। ऐसे में वह अपने लक्ष्य निर्धारित करता है। उस समय उसे अपने मस्तिष्क की सारी खिड़कियां खुली रखना चाहिए।
हमारे देश में जाति, भाषा, वर्ण तथा क्षेत्र को लेकर संकीर्णता का भाव लोगों में बहुत देखा जाता है। सभी लोग अपने समाज की श्रेष्ठता का बखान करते हुए नहीं थकते। हमारे देश में समाज का विभाजन कर कल्याण की योजनायें बनायी जाती हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप से काम करने में जातीय, भाषाई, तथा क्षेत्रीय भावनाओं की प्रधानता देखती है जाती है। इस संकीर्ण सोच ने हमारे देश के लोगों को कायर और अक्षम बना दिया है। भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल रहा है क्योंकि हर आदमी अपने व्यक्तिगत दायरों में होकर सोचता है और उसे समाज से कोई सरोकार नहीं  है।
जिन लोगों को कुशल महावत की तरह अपने जिंदगी रूपी हाथी पर नियंत्रण करना है उनको अपने अंदर किसी प्रकार की संकीर्ण सोच को स्थान नहीं देना चाहिये। जब आदमी जातीय, भाषाई, वर्णिक तथा क्षेत्रीय सीमाओं के सोचता है तो उसकी चिंता अपने समाज पर ही क्रेद्रित होकर रह जाती है। तब उसे लगता है कि वह कोई ऐसा काम न करे करे जिससे उसका समाज नाराज न हो जाये। यहां तक कि इस डर से वह दूसरे समाज के लिये हित का न तो सोचता है न करता है कि वह उसके समाज का विरोधी है। इससे उसके अंदर असहजता का भाव उत्पन्न होता है। जब आदमी उन्मुक्त होकर जीवन में में विचरण करता है तब वह विभिन्न जातीय, भाषाई, तथा क्षेत्रीय समूहों में भी उसको प्रेम मिलता है जिससे उसका आनंद बढ़ जाता है। सच बात तो यह मनुष्य जीवन आनंद लेने के लिए है और यह तभी संभव है जब संकीर्ण मानसिकता से मुक्त हों।
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Saturday, May 08, 2010

मनुदर्शन-धर्म के विषय पर झूठ बोलने वाला नरक में गिरता है (manu smriti-dharma aur jhooth)

अवाविशरास्समस्यन्धे कित्वषी नरकं व्रजेत्।
च प्रश्नवितर्थ ब्रूयात्पृष्ठः सनधर्मनिश्चये।।
हिन्दी में भावार्थ-
धर्म के विषय पर पूछे जाने पर उसका उत्तर झूठा देने वाला भयानक अंधेरे से भरे नरक में गिरता है।

एकोऽहमस्मीत्यात्मानं यत्तवं कल्याण मन्यसे।
नित्यं स्थितस्ते हृद्येष पुण्यपापेक्षिता मुनिः।।
हिन्दी में भावार्थ-
यदि कोई मनुष्य यह सोचकर झूठा साक्ष्य दे रहा है कि वह अकेला है और उसे कोई नहीं देख रहा तो वह गलती पर है क्योंकि पाप और पुण्य को देखने वाला परमात्मा सभी के हृदय में रहता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कुछ लोगों की आदत होती है कि वह धर्म के नाम पवित्र ग्रंथों में लिखी गयी सामग्री की झूठी मूठी व्याख्या कर लोगों को बहकाते हैं। अनेक लोग इसका आर्थिक लाभ उठाते हैं तो अनेक सामजिक रूप से सम्मानीय बनने के लिये धर्मग्रंथों के संदेशों को तोड़ मरोड़कर लोगों भ्रमित करते हैं। सच बात तो यह है कि हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों में अनेक बातें व्यंजना विद्या में लिखी गयी है और उसके लिये भाषा, व्याकरण और साहित्य की समझ होना जरूरी है केवल शाब्दिक अर्थ से ही उनकी व्याख्यान करना अल्पज्ञान का प्रमाण देना ही है। इसके अलावा इन प्राचीन ग्रंथों में अनेक बार उसमें कही गयी बातों में विरोधाभास भी लगता है क्योंकि धार्मिक पुस्तकों में अलग अलग प्रसंगों में विद्वानों ने समय के अनुसार अपने विचार व्यक्त किये हैं। इसका लाभ कुछ अल्पज्ञानी अपने आपको ज्ञानवान प्रमाणिक करने के लिये उनकी गलत व्याख्या कर उठाते हैं। ऐसे लोग बहुत बड़े अपराध के भागी बनते हैं क्योंकि उनका यह दुष्कृत्य झूठी गवाही देने के समान है।
अनेक बार विवादों में लोग झूठे गवाह बन जाते हैं। तब वह सोचते हैं कि कोई उनको देख नहीं रहा पर यह उनका भ्रम है। हमारी देह में रहने वाला आत्मा तो परमात्मा का ही अंश है जो सब देखता है और कहीं न कहीं अपने अपराध के लिये धिक्कारता है यह अलग बात है कि कुछ लोग उसे समझ पाते हैं कुछ नहीं।फिर एक बात याद रखना चाहिए कि हमारे द्वारा बोला गया झूठ कभी न कभी पकड़ा जायेगा और उसके दुष्परणिाम भी हमको भोगने होंगे।  इसलिये कभी भी न तो किसी पर झूठा अभियोगलगाना चाहिये न किसी झूठे के लिये गवाही देना चहिये।
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Thursday, May 06, 2010

कौटिल्य दर्शन-डरपोक की संगत करना भी ठीक नहीं

प्रकृतिभिर्विरक्तप्रकृतिर्युधि।
सुखाभियोज्यो भवति विषयेऽप्यतिसक्तिमान्।।
हिन्दी में भावार्थ-
विरक्त प्रकृति वाले राजा को उसके लोग युद्ध में ही छोड़कर चले जाते हैं और विषयों में आसक्त पुरुष को थोड़ा सुख देकर ही जीत लिया जाता है।

भीरुर्यद्धपमित्यागात्स्वयमेवावसीदति।
धीरोऽप्यवीपुरुषै-संग्रामे तैर्विपुच्यते।।
हिन्दी में भावार्थ-
कायर मनुष्य युद्ध के त्याग से स्वयं ही नष्ट होता है। वीर पुरुष भी अगर युद्ध में किसी कायर को ले जाये तो स्वयं भी कायरता को प्राप्त होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में हर मनुष्य को संघर्ष करना पड़ता है। समय अत्यंत बलवान है अतः जब कष्ट और विरोधी सशक्त होकर आक्रमण कर रहे हों तब धीरज से काम लेकर मैदान में डटे रहना चाहिए। अपने अभियान या लक्ष्य का त्याग कर विरक्त होना कभी ठीक नहीं होता। जो मनुष्य अपने संकट और विरोधी देखकर अपने अभियान या लक्ष्य से विरक्त होकर बैठ जाता है उसके मित्र तथा सहयोग भी छोड़ जाते हैं। अतः चाहे जो भी हो मनुष्य को मैदान में डटे रहना चाहिये। जीवन में कभी कायरता नहीं दिखाना चाहिये और न ही ऐसे लोगों से संपर्क रखना चाहिये जो हमारे अन्दर डर पैदा करते हैं ।
एक समय जो लक्ष्य या अभियान विरोधियों की शक्ति और संकट के गहरे होने के कारण पूरा होता नहीं दिखता वही परिस्थितियां और समय बदलते हुए पूरा भी हो सकता है। ऐसा समय भी आ सकता है कि जब विरोधी निशक्त हो जायें और संकट स्वयं ही क्षीणता को प्राप्त हो तब मनुष्य को अपने लक्ष्य और अभियान में सफलता मिल सकती है।
अपने कार्य की सिद्धि के लिये साम, दाम, दण्ड और भेद की नीति का पूरी तरह प्रयोग करना चाहिये। जहां व्यक्ति अपने से अधिक ताकतवर हो वहां उसकी यह कमजोरी देखना चाहिये कि वह किस प्रकार के सुख से जीता जा सकता है अर्थात उसे दाम का सुख देकर अपने वश में करना चाहिए। जीवन के हर क्षण में अपने अन्दर दृढ भाव रखना चाहिए। जब हम अपने जीवन के मोर्चे पर डटे रहेंगे तभी दूसरे लोग भी हमारा साथ देंगे।
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Saturday, May 01, 2010

विदुर दर्शन-क्षमावन पुरुष की राह देवता भी देखते हैं (kshamavan purush aur devata)

अतिवादं न प्रवदेव वाद्येद् योऽनाहतः प्रतहन्यान्न घातयेत्।
हन्तुं च यो नेच्छति पापकं वै तस्मै देखाः समुहयन्त्यागताय।।
हिन्दी में भावार्थ-
जो स्वयं किसी के प्रति बुरी बात न स्वयं कहता न दूसरे को कहने के लिये प्रेरित करता, बिना मार खाये किसी को नहीं मारता और न मरवाता है, अपराधी को भी क्षमा करता है, ऐसे मनुष्य के आगमन की तो देवता भी बाट जोहते हैं।
यदि सन्तं सेवति यद्यसन्तं तपस्विनं यदि वा स्तेनमेव।
वासो तथा रंगवश्र प्रयानि तथा तेषा वशमभ्युवैति।।
हिन्दी में भावार्थ-
जैसे कोई वस्त्र जिस रंग में रंगा जाये, वैसा ही हो जाता है उसी तरह जब कोई सज्जन आदमी किसी तपस्वी, दुष्ट या चोर की सेवा करता है तो उनके वश में हो जाता है-उनका रंग उस पर चढ़ता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-कहा जाता है कि शक्ति ही सहनशीलता की पहचान होती है। जिसमें शक्ति नहीं है वह बहुत जल्दी उत्तेजित हो जाता है। आजकल तो सहनशीलता का लोगों को सर्वथा अभाव दिखता है। अशुद्ध खानपान, भौतिक पदार्थों के प्रति अधिक आकर्षण तथा विलासिता को जीवन के लिये अनिवार्य मानने की प्रवृत्ति ने लोगों को शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक रूप से कमजोर बना दिया है। किसी को न तो अपनी स्वयं की आलोचना सहन होती है और न ही कोई अपने विचार पर बहस सुनना चाहता है। कहते हैं कि थोथा चना, बाजे घना-इसके दर्शन अब हर कदम पर किये जा सकते हैं। अल्पज्ञानियों का झुंड बहस करता है। निष्कर्ष कुछ नहीं निकलता उल्टे झगड़े ही होते हैं। स्थिति यह है कि अमन का प्रयास करने के के लिये एक साथ निकलने वाले लोग आपस में लड़ पड़ते हैं।
यह सब हमारे समाज और लोगों की कमजोरी की निशानी है। अशुद्ध तथा मिलावटी पदार्थों के सेवन से हमारे देश के नागरिकों की शारीरिक शक्ति नित प्रतिदिन कम होती जा रही है। यह शक्तिहीनता अंततः चिढ़ में बदल जाती है। फिर संगत करने के लिये ऐसे ही लोग मिलते हैं तो जो सहज और सज्जन भाव वाले होते हैं उन पर भी रंग चढ़ जाता है। बहुत कम लोग हैं जो शांति के लिये सक्रिय रहते हैं वरना तो अधिकतर झगड़ा कर उसे देखने का शौक रखते हैं। अतः जहां तक हो सके अपने खान पान में शुद्धता के साथ अपने निजी संपर्क भी ऐसे तरह बनाये जहां से वैमनस्य फैलाने का संदेश न मिलता हो। एक बात याद रखें कि आदमी पर संगत की रंगत चढ़ती ही है, अत: इसकी उपेक्षा नहीं करना चाहिये।
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Wednesday, April 28, 2010

संत कबीरदास जी के दोहे-राम की भक्ति का रंग न चढ़े तो दोष किसे दें(ram ki bhakti ka rang-kabirdas ji ke dohe)

राम नाम को छाड़ि कर, करे और की आस।
कहैं कबीर ता नर को, होय नरक में वास।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं जो मनुष्य राम नाम का स्मरण छोड़कर विषय वासना में रत हो जाते हैं उनको नरक में जाकर निवास करना पड़ता है।
मुख से नाम रटा करैं, निस दिन साधुन संग।
कहु धौं कौन कुफेर तें, नाहीं लागत रंग।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि लोग दिन रात भगवान के नाम का जाप करते हैं, साधुओं के पास जाते हैं ऐसे में किसे दोष दें कि उनके जीवन में रंग नहीं चढ़ता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर हम अपने देश की वर्तमान दशा को देखें तो दुःख होने के साथ कभी कभी हंसी भी आती है।  शायद ही दुनियां में कोई ऐसा देश हो जहां भगवान नाम का स्मरण इतना होता हो पर जितना सामाजिक तथा आर्थिक भ्रष्टाचार है वह भी कहीं नहीं होगा।  लोग एक दूसरे को दिखाने के लिये भगवान का नाम लेने  साथ ही सत्संगों में जाकर साधुओं के प्रवचन सुनते हैं पर घर आकर सभी का व्यवहार मायावी हो जाता है। बड़े शहरों में नित प्रतिदिन धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन होने पर वहां लोगों के झुंड के झुंड शामिल होते हैं। कोई प्रवचन सुनता है तो कोई सुनते हुए दूसरे को भी सुनाता है।  कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान की भक्ति लोग केवल दिखावे के लिये करते हैं और उनका लक्ष्य केवल स्वयं को धार्मिक या अध्यात्मिक व्यक्तित्व का स्वामी होने का दिखावा करना होता है।
वैसे हम लोग विषयों के पीछे भागते हैं जबकि सच तो यह है कि वह हमें कभी छोड़ते ही नहीं अलबत्ता हम उनकी सोच को अपने दिमाग में इस तरह बसा लेते हैं कि भगवान का नाम स्मरण करने का विचार ही नहीं आता।  अगर आता भी है तो खाली जुबान से लेते हैं पर उसका स्पंदन हृदय में नहीं पहुंचता क्योंकि बीच रास्ते में विषयों की सोच रूपी पहाड़ उनका मार्ग अवरुद्ध करता है। यही कारण है कि भगवान भक्ति अधिक होने के बावजूद इस देश में नैतिक आचरण गिरता जा रहा है।  बहुत कम लोग ऐसे रह गये हैं जिनमें मानवीय संवेदनायें और सद्भावना बची है।
इस दिखावे का ही परिणाम है कि मायावी समृद्धि की तरफ बढ़ रहे देश में अहंकार, संवेदनहीनता तथा भ्रष्टाचार के कारण नारकीय स्थिति की अनुभूति होती है। जिसके परिणाम स्वरूप हम अपने देश में सामाजिक वैमनस्य की बढ़ती प्रवृत्ति भी देख सकते हैं। ऐसा अध्यात्मिक शिक्षा के प्रति अरुचि के कारण ही हो रहा है यह बात याद रखना चाहिये।
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Monday, April 26, 2010

मनु दर्शन-झूठी गवाही देने वाले को होता है जलोदर रोग (jhoothi gavahi dena bura-manu darshan)

साक्ष्येऽनृतं वदन्याशैर्बध्यते वारुणैर्भृशम्।
विवशः शमाजातीस्तरस्मात्साक्ष्यं वदेदृतम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
झूठी गवाही देने वाले मनुष्य, वरुण देवता के पाशों से बंधकर सैंकड़ों वर्षों तक जलोदर बीमारियों से ग्रसित जीवन गुजारता है। अतः हमेशा किसी के पक्ष में सच्ची गवाही ही देना चाहिये।
द्यौर्भूमिरापो हृदयं चंद्रर्काग्नि यमानिलाः।
रात्रिः सन्ध्ये च धर्मख्च वृत्तजाः सर्वदेहिनाम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
मनु महाराज के अनुसार आकाश, पृथ्वी, पानी, हृदय, चंद्र, सूर्य, अग्नि, यम, वायु, रात संध्या और धर्म सभी प्राणियों के सत् असत् कर्मों को देखते हैं। इनको देवता ही समझना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-क्या हम सोचते हैं कि हम कोई भी काम कर रहे हैं तो दूसरा कोई उसे नहीं देख रहा? ऐसी गलती कभी न पालें। इस धरा पर ऐसे कई जीव विचरण कर रहे हैं जिनको हम नहीं देख पाते पर वह हमें देख रहे हैं। दूसरों की छोड़िये अपने अंदर के हृदय को ही कहां देख पाते हैं। यह हृदय भी देवता है पर उसे कहां समझ पाते हैं? वह लालायित रहता है धर्म और परोपकार का कार्य करने के लिये पर मनुष्य मन तो हमेशा अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर विचरण करता है। एक नहीं अनेक बार झूठ बोलते हैं। दूसरों की निंदा करने के लिये प्रवृत्त होने पर उसके लिये ऐसे किस्से गढ़ते हैं कि जो हम स्वयं जानते हैं कि वह सरासर झूठ है। मगर बोलते हैं यह मानते हुए कि कोई देख नहीं रहा है।

ऐसे भ्रम पालकर हम स्वयं को धोखा देते हैं। इस चंद्रमा, सूर्य नारायण, प्रथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश के साथ हमारा हृदय देवता सब देख रहा है। समय आने पर यह देवता दंड भी देते हैं। अतः कोई भी अच्छा काम करते हुए इस बात की चिंता नहीं करना चाहिये कि कोई उसे देख नहीं रहा तो क्या सुफल मिलेगा तो बुरा कर्म करते हुए इस बात से लापरवाह भी न हों कि कौन देख रहा है जो सजा मिलेगी? झूठी गवाही देने वाले का बुरा हश्र होता है यह बात हमेशा याद रखना चाहिए।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

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Friday, April 23, 2010

श्रीगुरुवाणी-घमंड अनेक संकटों का कारण (shri guruvani-ghamand sankat ka karan

‘हउमै नावै नालि विरोध है, दोए न वसहि इक थाई।।’
हिन्दी में भावार्थ-
मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्गुण अहंकार है और इससे अन्य बुराईयां भी पैदा होती है।
जह गिआन प्रगासु अगिआन मिटंतु।
हिन्दी में भावार्थ-
गुरु ग्रंथ साहिब के मतानुसार जिस प्रकार अंधेरे को दूर करने के लिये चिराग की आवश्यकता होती है उसी तरह अज्ञान रूपी अंधेरे को दूर करने के लिये प्रकाश आवश्यक है।
‘हउमै दीरघ रोग है दारु भी इस माहि।
किरपा करे जो आपणी ता गुर का सब्दु कमाहि।।’
हिन्दी में भावार्थ-
अहंकार एक भयानक रोग है जिसकी जड़ें बहुत गहरे तक फैल जाती हैें। इसका इलाज गुरु की कृपा से प्राप्त शब्द ज्ञान से ही संभव हो सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सभी जानते हैं कि अहंकार करना एक बुराई है पर इस रोग को पहचानना भी कठिन है। इसकी वजह यह है कि पंच तत्वों से बनी इस देह में मन और बुद्धि के साथ अहंकार की प्रकृत्ति भी स्वयंमेव बनती है। अनेक बार एक मनुष्य को दूसरे का अहंकार दिखाई देता है पर स्वयं का नहीं। इतना ही नहीं जब कोई व्यक्ति आक्रामक होकर दूसरों के विरुद्ध विषवमन करता है तब सभी लोग उसे अहंकारी कहते हैं जबकि सच यह है कि अहंकार कभी न कभी किसी में आता है या यूं कहें कि यह सभी में रहता है।
किसी भी कर्म में अपने कर्तापन की अनुभूति करना ही अहंकार है। जब मन में यह विचार आये कि ‘मैंने यह किया’ या ‘वह किया’ तब समझ लीजिये कि वह हमारे अंदर बैठा अहंकार बोल रहा है। फिर इससे आगे यह भी होता है कि जब हम किसी का कार्य करते हैं और उसका प्रतिफल भौतिक रूप से नहीं मिलता तब भारी निराशा घेर लेती है। आजकल आप किसी से भी चर्चा करिये वह अपने रिश्तेदारेां, मित्रों और सहकर्मियों के विश्वासघात की शिकायत करता मिलेगा। अहंकार का एक रूप यह भी है कि किसी से एक मनुष्य का काम कर दिया तो वह इस कारण भी उसका काम नहीं करता क्योंकि उसको लगता है कि वह छोटा हो जायेगा-अधिकतर लोग ऐसे भी हैं जो दूसरे के द्वारा कार्य करने पर अहसान मानने की बजाय हक अनुभव करते हैं तो कुछ लोगों को लगता है कि उनके गुणों के कारण कोई स्वार्थवश सेवा कर रहा है तो यह हमारी श्रेष्ठता का प्रमाण है। यही अहंकार मनुष्यों के बीच संघर्ष का कारण बनता है। अतः समय समय पर आत्ममंथन करते हुए इस अहंकार रूप बीमारी से दूर रहना चाहिये।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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