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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Wednesday, October 29, 2008

शायद तब सच ढूंढना कठिन होगा-संपादकीय

भारत के किसी भी भाग में जाकर वहां रह रहे किसी ऐसे आदमी से बात करिये जिस पर अपने परिवार के पालन पोषण और रक्षा का जिम्मा है। उससे सवाल करिये कि क्या वह अपने समाज से विपत्ति के समय सहायता की आशा करता है तो उसका जवाब होगा ‘‘नहीं’
उससे पूछिये कि ‘क्या वह अपने समाज के शीर्षस्थ लोगों से कभी किसी प्रकार के सहयोग या रक्षा की आशा करता है? तब भी उसका जवाब होगा ‘नहीं’’।

यह आश्चर्य की बात है कि इस देश में एक भी आदमी अपनी भाषा,धर्म,जाति,और क्षेत्र के नाम पर बने हुए समूहों के प्रति एक सीमित सद्भाव रखता है वह भी भविष्य में किसी प्रकार बच्चों आदि के विवाह के समय। सामान्य आदमी अपने कार्य के सिलसिले में प्रतिदिन अपने से पृथक समूहों और समुदायों के संपर्क में आता है पर उस समय उसका ध्यान केवल अपने काम तक ही सीमित रहता है न तो उसके दिमाग में अपने समूह का ध्यान रहता है न ही दूसरे का। शायद उसे कभी अपने समूहों या समाज याद भी न आये-क्योंकि लोग आपस बातचीत में भी किसी के समूह में रुचि नहंी दिखाते- पर कहीं न कहीं कुछ लोग ऐसे होते हैं जो इन समूहों को नाम लेकर चर्चा करते हैं क्योंकि उनके अपने स्वार्थ होते हैं।
आजकल तो दूसरी स्थिति है कि प्रचार माध्यमों मेें विभिन्न समूहों और समाजों के आपसी झगड़ों का जमकर प्रचार हो रहा है। अगर न ध्यान हो तो भी आदमी के सामने उनके नाम आ जाते हैं। कितनी मजे की बात है कि जितनी एकता की बात की जाती है उतनी समाजों के बीच विभाजन रेखा बढ़ती जाती है। अब यह समझना कठिन है कि यह विभाजन रेखा कहीं इसलिये तो नहंी बढ़ाई जा रही कि एकता की बात करते रहना चाहिये या वास्तव में एकता की बात इसलिये की जा रही है कि क्योंकि विभाजन रेखा बढ़ रही है।

पिछले एक डेढ़ वर्ष से विभिन्न समाजों, जातियों,भाषाओं,धर्मों और क्षेत्रों के बीच जिस तरह तनाव बढ़ रहा है वह आश्चर्य का विषय है। इधर भारत की प्रगति की चर्चा हो रही है-अभी भारत ने चंद्रयान छोड़ा है और उसके कारण विज्ञान जगत मं उसका रुतबा बढ़ा है-उधर ऐसे विवाद बढ़ते जा रहे हैं। पहले अनेक घटनाओं में विदेशी हाथ होने का संदेह किया जाता था पर अब तो ऐसा लगता है कि इस देश के ही कुछ लोग भी अब सक्रिय है। सबसे बड़ी बात यह है कि अब तो कोई विदेशी हाथ की बात अब कम ही हो रही है अंंदरूनी संघर्ष में कुछ लोग खुलेआम सक्रिय हैंं। विदेशी हस्तक्षेप की संभावना को तो अब नकारा भी नहीं जा सकता-क्योंकि भारत के बढ़ती ताकत कई अन्य देशों के लिये ईष्र्या का विषय है।

प्रसंगवश याद आया कि पाकिस्तान अभी विदेशी मुद्रा की कमी के कारण दिवालिया होने की हालत में था पर उसके संरक्षक अमेरिका ने उसे मदद नहीं दी। उसके राष्ट्रपति ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोश और विश्व बैंक से मदद मांगी तो उन्होंने कड़ी शर्तें रख दीं। इससे पहले वह अपने चीन से भी निराश होकर आये थे। फिर अचानक ही क्या हुआ कि चीन ने उसकी मदद करना स्वीकार कर लिया। उसने उसके 1.5 अरब डालर की मदद तत्काल रूप से दी और वर्ष 2009 तक के अंत तक चार अरब डालर वहां संचार क्षेत्र में विनिवेश करना स्वीकार कर लिया। इसी दौरान चीन के पत्रकारों का एक दल भी वहां गया और उसने एक सेमीनार में भारत के खिलाफ विषवमन किया। यह समाचार तो कई अखबारों ने दिया पर इस पर अपने विचार विस्तार रूप से नहीं लिखे गये। शायद यह पहला अवसर है कि चीन ने पहली बार पाकिस्तान को आर्थिक मदद दी है और इसकी वजह से जो राजनीतिक समीकरण बदल सकते हैं-क्योंकि अभी तक पाकिस्तान अमेरिका की शरण में था। वहां गये पत्रकारों ने नाईजिरिया और पाकिस्तान में चीनी इंजीनियरों की हत्या में भी किसी देश का हाथ होने की बात कही गयी पर उसमें किसी का नाम नहीं लिया गया।
चीन अपना वार खामोशी से करता है। पाकिस्तान को दिया गया पैसा हमेशा ही भारत में आतंक का वातावरण बनाने के काम आता है। अभी तक भारत अमेरिका से कहता था पर चीन से तो यह कहना भी संभव नहीं है। अमेरिका अभी तक विश्व का सर्वशक्तिमान राष्ट्र था इसलिये अपनी रक्षा के लिये इधर-उधर अशंाति फैलाता था। अब चीन भी इस श्रेणी में आ गया है और हो सकता है वह भी ऐसे काम करने लगे जिससे उसकी ताकत बनी रहे। पाकिस्तान को दिवालिया होने से बचाकर चीन ने अमेरिका के कम होते प्रभुत्व का संकेत दिया है। विश्व में चल रही आर्थिक मंदी को लेकर पहले ही यह आशंका बनी थी कि इससे विश्व में राजनीतिक समीकरण बदल सकते हैं और उसकी शुरुआत हो चुकी है। ऐसे में देश के बुंिद्धजीवी वर्ग को इस पर ध्यान रखना चाहिये था पर देश में इतने विवाद हो रहे है कि उससे उनका ध्यान ही नहीं हट रहा है।

वैसे तो पूरे विश्व में उथल पुथल है पर भारत में कुछ अधिक ही लग रही है। पहले कहा जाता था कि भारत में जाति,भाषा,धर्म,और क्षेत्रों के नाम बने समूहों के आपसी तनावों की वजह से विकास नहंीं हो रहा है क्योंकि लोग अपनी अशिक्षा के वजह से इन झगड़ों में फंसे रहते हैं पर अब तो उल्टी ही हालत लग रही है। जिन लोगों को हम अशिक्षित और गंवार कहते हैं वह तो चुप बैठे हैं पर जो पढ़े लिखे हैं वही ऐसे झगड़े का काम रहे हैं। आखिर यह शिक्षा किस काम की?
दरअसल हमारे देश की शिक्षा तो गुलाम पैदा करती है और नौकरी के लिये आदमी इधर से उधर भाग रहे हैं। इतनी नौकरियां हैं नहीं जितनी लोग ढूंढ रहे हैं और इसलिये बेरोजगार युवकों में कुंठा बढ़ रही है और वह उन्हीं समूहों और समाजों के आधार पर चल रहे संघर्षों में शामिल हो जाते हैं जिनसे वह स्वयं नफरत करते हैं।
सच तो यह है कि जाति,भाषा,धर्म,और क्षेत्रों के नाम पर बने समूहों का अस्तित्व शायद अभी तक समाप्त ही हो जाता पर लगता है कि कुछ लोग अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति पर चलते हुए उनको बनाये रखना चाहते हैं। यही कारण है कि वर्तमान युग में अस्तित्व हीन हो चुके समाज और समूह केवल नाम से चल रहे हैं। सभी लोग धन कमाने में लगे हैं-सभी को अपने लिये रोटी के साथ सुख साधन भी चाहिये-किसी को अपने समाज या समूह से कोई मतलब नहीं है पर कुछ लोग ऐसे हैं जो ऐसे द्वंद्वों से लाभ उठाते हैं। यह लाभ सीधे आर्थिक रूप से होता है या धुमाफिराकर यह अलग बात है पर उसी के लिये यह सब कर रहे है। ऐसे में भारत की प्रगति से चिढ़ने वाले अन्य देश भी अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूप से लाभ दे सकते हैं।

अक्सर विदेशी हाथ में पाकिस्तान का नाम लिया जाता है पर वह तो केवल मुहरा है। अभी तक पश्चिम देश उसकी पीठ पर हाथ रखे हुए थे और अब जिस तरह चीन इस तरफ बढ़ा है वह ध्यान देने योग्य है। ऐसे में देश के बुद्धिजीवी वर्ग को गहनता से विचार करना चाहिये कि देश की स्थिति में जो इस तरह के उतार-चढ़ाव हैं उसकी वजह क्या है? जबकि हो रहा है उसका उल्टा! सभी बुद्धिजीवी हमेशा की तरह अपने पक्षों की बात ही आंखें बंद कर रख रहे हैं। गहन चिंतन और मनन का अभाव है। वह अपने आसपास चल रही घटनाओं को अनदेखा करते हैं जबकि उनका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हमारे देश की स्थिति पर प्रभाव पड़ता है। अगर देश के अंदरूनी विषयों पर ही विचार करते हुए वादविवाद करते रहेंगे और बाहरी घटनाओं का अध्ययन नहीं करेंगे तो शायद तब सच ढूंढना कठिन होगा कि आखिर क्या कोई अन्य देश हैं जो हमारे देश को अस्थिर करना चाहते हैं। इसलिये बुद्धिजीवी वर्ग को देश में एकता और सद्भाव बनाये रखने के लिये काम करना चाहिये। शेष अगले अंक में।
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Monday, October 27, 2008

दीपावली पर जलाओ ज्ञान और ध्यान का दिव्य दीपक

सामने दिये जलता हुआ हो और आंखों से न दिखे तो फिर उसकी रोशनी किस काम की? प्रतिवर्ष दीपावली के अवसर पर लोग अपने घरों में दीपक जलाते हैं। अब तो रौशनी करने के अनेक नये सामान आ गये हैं पर फिर भी लोग तेल के दीपक जलाते हैं। अगर वह दीपक न भी जलायें तो भी अन्य सामानों से बहुत रौशनी होती है-इतनी के तेल का दीपक जलाने पर उससे हुई रौशनी में वृद्धि की अनुभूति ही नहीं होती। इसके बावजूद लोग परंपरा के निर्वाह के लिये जलाते हैं। नयेपन और पुरानेपन के बीच फंसा समाज अपने आपको भंवर में फंसा तो पाता है पर उससे बाहर निकलने का रास्ता नहीं ढूंढता। बाहर रौशनी के फैले बड़े बल्ब हैं और उसकी चकाचैंध ने आदमी के अंदर के ज्ञान के दीपक को प्रज्जवलित होने से रोक लिया है। जिसे देखो वह अपने जीवन को पद, वैभव और शक्ति की ऊर्जा से चमकते हुए देखना चाहता है।
जब केवल प्राक्रृतिक मिट्टी से बना तेल का दीपक रौशनी करता था तो लोगों की लालसायें और आकांक्षायें इतनी अधिक नहीं थी। जैसे रौशनी के लिये कृत्रिम सामान बनते गये वैसे वह उसकी आकांक्षायें और लालसायें बढाती गयीं।

बस आदमी को रौशनी चाहिये। पद,पैसा और प्रतिष्ठा में ही अपने जीवन की रौशनी ढूंढने वाला आदमी उनको पाकर भी संतुष्ट नहीं रह पाता। उसके मन में अंधेरा ही रहता है क्योंकि वह ज्ञान के दीपक नहीं जलाता। पहले यह चाहिये! वह मिल गया तो वह चाहिये। बस चाहिये। किसी को कुछ देना नहीं है। आदमी का सोच बस एक ही है कि ‘मुझे को खुश करे’ पर वह स्वयं किसी को खुश न तो करता और न देख पाता है। ज्ञान प्राप्त करने वालों ने तेल से जलते हुए दीपक में अपना काम चलाया और जिनको केवल माया प्राप्त करनी है उनका मन तेज रौशनी की ट्यूबलाईट में भी बुझा रहता है। जितना धन उतनी उसकी रक्षा की चिंता, जितना बड़ा पद वहां से नीचे गिरने का भय और जितनी अधिक प्रतिष्ठा उतनी अधिक बदनामी की आशंका आदमी को अंधेरे में डाल देती है। वह घबड़ाता हुआ रौशनी की तरफ भागता है। कभी टीवी देखता है कभी शराब पीता है तो कभी अन्य व्यसनों के सहारे अपने लिये खुशी जुटाना चाहता है। वह बढ़ता जाता है अंधेरे की तरफ।
पश्चिम की मायावी संस्कृति में अपनी सत्य संस्कृति मिलाकर जीवन बिताने वाले इस देश के लोगों के लिये दीपावली अब केवल रौशनी करने और मिठाई खाने तक ही सीमित रह गयी है। अंधेरे में डूबा आदमी रौशनी कर रहा है-वह आंखों से दिखती है पर उसका अहसास नहीं कर पाता। पर्यावरण प्रदूषण,मिलावटी सामान और चिंताओं से जर्जर होते जा रहे शरीर वाला आदमी अपनी आंखों से रौशनी लेकर अंदर कहां ले जा पाता है। अपने हाथों से आदमी ने काटा है अपने स्वस्थ और प्रसन्न जीवन का सामान।
मनुष्य के अपने मन के भटकाव को नहीं समझ पाता। वह उस आध्यात्म ज्ञान से घबड़ाता है जिसकी वजह से पश्चिम आज भी भारत को अध्यात्मक गुरु मानता है। इतनी संपन्नता के बाद भी वह अपने मन से नहीं भागता तो इस देश में व्यवसायी साधु,संतों,फकीरों और सिद्धों के दरवाजे पर भीड़ नहीं लगती। स्वयं ज्ञान से रहित लोग उनके गुरू बनकर उनका दोहन नहीं करते। अपने पुराने ग्रंथों में लिखी हर बात को पौंगापंथी कहने वाले लोग नहीं जानते कि इस प्रकृति के अपने नियम हैं। वह यहां हर जीव को पालती है। हर जीव अपने जीवन में विकास कर फिर दुनियां से विदा हो जाता है।

यहां के आदमी को सुना दिये गये हैं कुछ ऐसे श्लोक और दोहे जो अपने समय में प्रासंगिक थे पर अब नहीं। यह योजनापूर्वक किया गया ताकि वह आज भी प्रासंगिक ज्ञान से वंचित रहे। उसके सामने रख दी गयी हैं विदेशों से आयातित कुछ पंक्तियां जिन पर लिखी जा रही है आधुनिकता और विकास की नयी कहानियां। जीवन के सत्य नहीं बदलते पर उन्हें समझता कौन है? पूरा का पूरा समाज अव्यवस्था की चपेट में हैं। कहते हैं कि यह समाज पहले बंटा हुआ था इसलिये गुलाम रहा पर आज तो उसे और अधिक बांट दिया गया है। परिवारों में महिला,पुरुष,बालक और वृद्ध के विभाजन करते हुए उनकी रक्षा के लिये नियम बनाये गये। समाज को नियंत्रित करने के लिये राज्य से अपेक्षा की जा रही है-मान लिया गया है कि इस देश में अब भले लोग नहीं हैंं। इतना बड़ा विश्वास लोग स्वीकार कर रहे हैंं। डंडे के जोर पर आदमी को अपने परिवार से निर्वाह करने के प्रयास दर्शाते हैं कि देश के आदमी पर भरोसा नहीं रहा।

विज्ञान में प्रगति आवश्यक है यह बात तो हमारा अध्यात्म मानता है पर जीवन ज्ञान के बिना मनुष्य प्रसन्न नहीं रह सकता यह बात भी कही गयी है। जीवन का ज्ञान न तो बड़ा है न गुढ़ जैसा कि इस देश के कथित महापुरुष और विद्वान कहते हैं। वह सरल और संक्षिप्त है पर बात है उसे धारण करने की। अगर उनको धारण कर लो तो ज्ञान का ऐसा अक्षुण्ण और दिव्य दीपक प्रकाशित हो उठेगा जिसका प्रकाश न केवल इस देह के धारण करते हुए बल्कि उससे विदा होती आत्मा के साथ भी जायेगा। इस दिव्य दीपक की रौशनी से प्रतिदिन दीपावली की अनुभूति होगी फिर देख सकते हो कि किस तरह वर्ष में केवल एक दिन लोग दीपावली मनाते हुए भी उसकी अनुभूति नहीं कर पाते। फिर जाकर देखो वहां जहां सफेद और गेहुंऐ वस्त्र पहने उन ज्ञान के व्यापरियों को जो स्वयं अंधेरे में हैं और लोग उनसे रौशनी खरीद रहे हैं। देखो उनके सत्संग के उपक्रम को जो ऐसे स्वर्ग को दिलवाता है जो कहीं बना ही नहीं।

देखो जाकर सन्यासियों को्! इस धरा पर सन्यास लेना संभव है ही नहीं। हां, भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीगीता में इसको एक तरह से खारिज कर दिया है क्योंकि यह संभव नहीं है कि इस धरती पर रहते हुए आदमी अपनी इंद्रियों से काम न ले। सन्यास का अर्थ है कि आदमी अपनी सभी इंद्रियों को शिथिल कर केवल भगवान के नाम का स्मरण कर जीवन गुजार दे। मगर आजकल के सन्यासी कहते हैं कि आजकल यह संभव नहीं हैं कि केवल भगवान का स्मरण करने के लिये पूरा जीवन कंदराओं में गुजार दे क्योंकि समाज को मार्ग दिखाने का भी तो उनका जिम्मा है। वह झूठ बोलते हैं कंदराओं में केवल बुढ़ापे में जाया जाता है और उसे सन्यास नहीं बल्कि वानप्रस्थ कहा जाता है क्योंकि उसमें वन में आदमी अपनी इंद्रियों से कार्य करता है।
ज्ञान और ध्यान बेचने वाले व्यापारी ढोंग करते हैं। उनसे दीक्षा लेने से अच्छा है तो बिना गुरु के रहा जाये या फिर एकलव्य बनकर किसी गुरू की तस्वीर रखकर ज्ञान का अभ्यास किया जाये। गलत गुरु की दीक्षा अधिक संकटदायक होती है। यह गुरु मोह और मायाजाल के भंवर में ऐसा फंसे कि वहां से स्वयं नहीं निकल सकते तो किसी अन्य को क्या निकालेंगे। वहां जाकर देखो कि किस तरह शारीरिक और मानसिक विकारों से ग्रस्त लोग किस तरह वहां अपने लिये औषधि ढूंढ रहे हैं।

निष्काम भक्ति और निष्प्रयोजन दया ही वह शक्ति जो आदमी के अंदर प्रज्जवलित ज्ञान के दिव्य दीपक की रौशनी के रूप में बाहर फैलती दिखाई देती है। ज्ञान खरीदा नहीं जा सकता जबकि गुरु उसे बेच रहे हैं। कहते हैं कि हम कुछ देर के लिये आदमी के लिये आदमी का संताप कम कर देते हैं पर देखा जाये तो अगर थोड़ी देर के लिये ध्यान बंट जाये तो कुछ स्फूर्ति अनुभव होती है पर अगर यह ध्यान किसी प्रस्तर की प्रतिमा के सामने बैठकर स्वयं प्रतिदिन लगाया जाये तो वह पूरा दिन ऊर्जा देती है। जब भी कहीं मानसिक संताप हो तो भृकुटि पर दृष्टि कर बंद आखों से ध्यान किया जाये तो एकदम राहत अनुभव होती है। इसके लिये ज्ञान और ध्यान बेचने वालों के पास जाने की आवश्यकता नहीं क्योंकि वहां आप प्रतिदिन नहीं जा सकते। अगर गये तो वह अपनी फीस मांगेंगे या फिर उनके खास चेले आपत्ति करेंगे।

यह लेखक कोई सिद्ध नहीं है पर अपने अनुभव सुनाते हुए अच्छा लगता हैं। दीपावली पर ढेर सारे बधाई संदेश मिले। उनका यह जवाब है। यह लेखक देखना चाहता है ज्ञानी के दिव्य दीपक की रौशनी से ओतप्रोत लोगों का एक समूह जिससे पूरा समाज प्रकाशित हो। दिखावा कर तो एक दिन भी प्रसन्नता नहीं मिल सकती। अपने अंदर जला लो ज्ञान और ध्यान का दिव्य दीपक तो जीवन पर दीपावली की अनुभूति होगी। किसी एक दिन किसी की शुभकामनाओं की प्रतीक्षा नहीं रहेगी। बल्कि बाकी दिनों में मिलने वाला हर शुभकामना संदेश वैसा ही लगेगा जिससे दिल प्रसन्न हो उठेगा। अपने अंतर्मन में ज्ञान और ध्यान के जलते दीपक की रौशनी में देख सकते हो और खुलकर हंस भी सकते हो और सुख की अनुभूति ऐसी होगी जो अंदर तक स्फूर्ति प्रदान करेगी।
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Sunday, October 26, 2008

आतंकी हिंसा पर अपराध शास्त्र के अनुसार दृष्टि डालना जरूरी-आलेख

देश में आतंकी घटनाओं पर नित कोई नयी बात सामने आती है। अभी तक यह कोई नहीं समझा पा रहा है की क्या आतंकी हिंसा कोई अपराध शास्त्र से अलग विषय है कि नहीं। न ही कोई यह बता पा रहा है कि आखिर बिना लाभ के यह अपराध कैसे किया जा सकता है। इसके लिए आर्थिक मदद कौन करता हैयह सही है कि कई बार अपराधी आक्रोश या हताशा में किसी पर हमला करता है पर यह हिंसक प्रतिक्रिया किसी घटना के तत्काल बाद होती है। यह अपराध शास्त्रियों के शोध का विषय है कि क्या अब कोई योजनापूर्वक अपने क्रोध या निराशा की वजह से हिंसा करने की प्रवृति भी मनुष्यों में विकसित हो गयी है। जागरूक और बुद्धिजीवी जिस तरह आतंकी घटनाओं को लेकर जिस तरह बहस कर रहे हैं उसका कोई अर्थ नहीं है।
अपराध शास्त्र के अनुसार धन,स्त्री,और ज़मीन की वजह से अपराध होते हैं। जब आतंकी हिंसा पर देश के बुद्धिजीवी और जागरूक लोग आपस में बहस करते हैं तो इस तथ्य पर कोई दृष्टिपात नहीं करता। धर्मों,भाषाओं,विचारधाराओं और क्षेत्रों के नाम पर बने समूहों से ऐसी आतंकी हिंसा को जोड़ना अपने आप को धोखा देना है। इसी होता यह है कि आज एक समूह का नाम आया तो के दूसरे का आयेगा। उनमें जो सभ्य लोग होते हैं उनके मन में हताशा और निराशा घर कर जाती है।

अपने समूहों पर लोगों को निराशा होने की बजाय यह सवाल उठाना चाहिए कि "आखिर आतंकी हिंसा को कैसे अपराध शास्त्र से अलग रखा जा सकता है"? उन्हें यह भी सवाल उठाना चाहिए कि आखिर इसका भौतिक या अभौतिक तथा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष लाभ किसे होता है?
भले ही प्रचार माध्यम या बुद्धिजीवी कितने भी दावे या प्रतिदावे कर लें मगर सच यह है कि कुछ लोगों ने आतंकी हिंसा को व्यापार बना लिया है। यह काम सोच समझकर किया जा रहा है। भाषा,धर्म,विचारधारा और क्षेत्र के आधार पर बने समूहों के आम लोगों को इससे कोई लाभ नहीं है-यह सब जानते हैं। फिर जो ज्ञान और विज्ञानं से परिपूर्ण हैं और उनको समाज में वैसे ही सम्मान मिलता है वह ऐसा नहीं करते। अल्पज्ञानी और ढोंगी लोग हैं जो ऐसे काम करते हैं। इसलिए किसी भी समूह के लोगों को अपने अन्दर निराशा या हताशा पालने की आवश्यकता नहीं है। इस विषय पर दीपक भारतदीप का चिंतन ब्लॉग/पत्रिका पर लिखा गया लेख आज भी कितना प्रासंगिक है यह पढ़कर समझा जा सकता है।
क्या आतंकी हिंसा अपराध शास्त्र से बाहर का विषय है-संपादकीय
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एक शवयात्रा में दो आदमी पीछे जा रहे थे
एक ने कहा-‘बेकार आदमी था। किसी के काम का नहीं था’
दूसरे ने कहा-‘नहीं कैसी बात करते हो। वह दरियादिल आदमी था। मेरे तो दस काम किये। कभी काम के लिये मना नहीं किया।
दूसरे ने कहा-‘मेरे भी उसने दस काम किये पर एक काम के लिये मना लिया। इसलिये ही तो कहता हूं कि वह ठीक आदमी नहीं था। अगर होता तो एक काम के लिये मना क्यों करता?’

उनके पीछे एक आदमी चल रहा था। उसने पूछा‘-आप यह तो बताओ। उसका देहावसान कैसे हुआ। क्या बीमार थे? क्या बीमारी थी?’
दोनों ने कहा‘-हमें इससे क्या मतलब हमें तो शवयात्रा में दिखावे के लिये शामिल हुए हैं।’
वह तीसरा आदमी चुपचाप उनके पीछे चलता रहा।’
उसने देखा कि दोनों के साथ उनके समर्थक भी जुड़ते जा रहे थे। कोई मृतक की बुराई करता कोई प्रशंसा। तीसरा आदमी सबसे मृत्यु की वजह पूछता पर कोई नहीं बताता। एक ने तो कह दिया कि अगर हमारी चर्चा में शामिल नहीं होना तो आगे जाकर मुर्दे को कंधा दे। देख नहीं रहा हमारे उस्ताद लोग बहस में उलझे हैं।’
यह कहानी एक तरह देश में चल रही अनेक बहसों के परिणामों का प्रतीक है। देश में बढ़ती कथित आंतकी हिंसा घटनाओं के बाद प्रचार माध्यमों में अनेक तरह की सामग्री देखने को मिलती है। बस वही रुटीन है। ऐसी घटनाओं के बाद सभी प्रचार माध्यम रटी रटाई बातों पर चल पड़ते हैं। अखबारों में तमाम तरह के लेख प्रकाशित होते हैं। इन घटनाओं के पीछे ऐसी कौनसी बात है जो किसी की समझ में नहीं आ रही और इनकी संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है।
अभी दिल्ली में हुए हादसे के बाद अगर प्रचार माध्यमों-जिनमें अंतर्जाल पर ब्लाग भी शामिल हैं-में आये आलेखों को देखा जाये तो एक बात साफ हो जाती है कि लोगों की सोच वहीं तक ही सीमित है जहां तक वह देख पाते हैं या जो उनको बताया जाता है। न तो उनमें मौलिक चिंतन करने की क्षमता है और न ही कल्पना शक्ति।

वैसे तो तमाम तरह की खोजबीन का दावा अनेक लोग करते हैं पर इन आतंकी हिंसक घटनाओं के पीछे का राजफाश कोई नहीं कर पाता। नारों और वाद पर चलते बुद्धिजीवी भी गोल गोल घूमते हुए रटी रटाई बातें लिखते हैं। लार्ड मैकाले ने ऐसी शिक्षा पद्धति का निर्माण किया कि जिसमें भारतीय पढ़ खूब लेते हैं पर फिर भूल जाते हैं।
आतंकी हिंसा अपराध है और अपराध शास्त्र के अनुसार तीन कारणों से लोग गलत काम करते हैं-जड़ (धन), जोरु (स्त्री) और जमीन। वैसे तो अपराध शास्त्र के विद्वान बहुत होंगे पर हर आम आदमी को उसका मूल सिद्धांत पता है कि इन तीन कारणों से ही अपराध होते हैं।’

अब सवाल यह है कि आतंकी हिंसा क्या अपराध शास्त्र से बाहर हैं और लोग मानकर चले रहे हैं कि यह अपराध से अलग कोई घटना है। देखा जाये तो आतंकी हिंसा के विरुद्ध सब हैं पर बहसें हो रही हैं धर्म,भाषा और जाति के लेकर। इतिहास सुनाया जा रहा है और वाद और नारे लग रहे हैं। देश के बुद्धिजीवियों पर तरस आता है। आतंकी हिंसा में सबसे अधिक कष्ट उन लोगों का होता है जिनका नजदीकी मारा जाता है। उनसे हमदर्दी दिखाने की बजाय लोग ऐसी बहसें करते हैं जिनका कोई अर्थ नहीं है। और तो छोडि़ये लोगों ने इस आतंकी हिंसा को भी सभ्य शब्द दे दिया‘आतंकवाद’। फिर वह किसी दूसरे वाद को लेकर फिकरे कस रहे हैं?

ऐसी चर्चायें दो चार दिन चलतीं हैं फिर बंद हो जातीं हैं। जिनके परिवार का सदस्य मारा गया उनकी पीड़ा की तो बाद में कोई खबर नहीं लेता। इसी बीच कोई अन्य घटना हो जाती है और फिर शुरू हो जाती है बहस। कोई इस बात में दिलचस्पी नहीं लेता कि आख्रि इस हिंसा में किसका फायदा है? यकीनन यह फायदा आर्थिक ही है। सच तो यह है कि यह एक तरह का व्यवसाय बन गया लगता है। अगर नहीं तो इस सवाल का जवाब क्या है कि कोई इन घटनाओं के लिये कैसे पैसे उपलब्ध कराता है। जो लोग इन कामों में लिप्त हैं वह कोई अमीर नहीं होते बल्कि चंद रुपयों के लिये वह यह सब करते हैं। तय बात है कि यह धन ऐसे लोग देते हैं जिनको इस हिंसा से प्रत्यक्ष रूप से लाभ होता है। यह फायदा उनको ऐसे व्यवसायों से होता है जो समाज के लिये बुरे माने जाते हैं और उसे निरंतर बनाये रखने के लिये समाज और प्रशासन का ध्यान बंटाये रखना उनके लिये जरूरी है और यह आतंकी हिंसा उनके लिये मददगार हो।
कुछ जानकार लोगों ने दबी जबान से ही सही यह बात लिखी थी कि जब कश्मीर में आतंकवाद चरम पर था तब वहां से भारत और पाकिस्तान के बीच दो नंबर का व्यापार दोगुना बढ़ गया। कभी इस पर अधिक बहस नहीं हुई। कहीं ऐसा तो नहीं कि लोगों और सरकारों का ध्यान बंटाने के लिये इस तरह की घटनायें करवायीं जाती हों।
जहां तक किसी समूह विशेष से जोड़ने का सवाल है तो ऐसी हिंसा कई जगह हो रही है और उसमें जाति, धर्म, भाषा ओर वर्ण के आधार पर बने समूह लिप्त हैं। यह सच है कि जब कहीं ऐसी घटना होती है तो उसकी जांच स्थानीय स्तर पर होती है पर राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय अपराध विशेषज्ञों को अब इस बात पर दृष्टिपात करना चाहिये कि इसके लिये धन कौन दे रहा है और उसका फायदा क्या है?’

धर्म, जाति, और भाषा के नाम पर समूह बने भ्रम की राह पर चले रहे हैं और तय बात है कि इसी का लाभ उठाकर आर्थिक लाभ उठाने का प्रयास कई तरह से हो रहा है-यह अलग से चर्चा का विषय है पर ऐसे मामलों में हम उनका नाम लेकर अपराधियों का ही महिमा मंडल करते हैं। अगर इनके आर्थिक स्त्रोतो पर नजर रखते हुए काम किया जाये तभी इन पर नियंत्रण किया जा सकता है।
धर्म,जाति,भाषा और वर्ण के आधार पर कौन कितना अपने समूह का है सब जानते हैं। अमरीका ने पहले इस बात के प्रयास किये कि इनके इस प्रकार के हिंसातंत्र को प्रायोजित करने वाले आर्थिक स्त्रोतों पर ही वह हमला करेगा पर लगता है कि वह इराक युद्ध में उलझकर स्वयं भी भूल गया। यह धन अपने हाथ से कौन दे रहा है उसका पता लग जाये तो फिर यह पता लगाना भी जरूरी है कि उसके पास पैसा कहां से आया? इनके पास पैसा उन्हीं व्यवसायों से जुड़ लोगों से आता होगा जिनमें धर्म के दूने जैसा लाभ है। यह हो सकता है कि ऐसा व्यवसाय करने वाले सीधे आतंकी हिंसा करने वालों को पैसा न दें पर उनसे पैसा लेने वाले कुछ लोग इसलिये भी ऐसी हिंसा करा सकते हैं कि इससे एक तो उनको धन देन वाले चुपचाप धन देते रहें और दूसरा दो नंबर का काम करने वालों का धंधा भी चलता रहे।

जड़,जोरू और जमीन से अलग कोई अपराध नहीं होता। चाहे देशभर के बुद्धिजीवी शीर्षासन कर कहें तब भी वह बात जंचती नहीं। विचारधाराओं और कार्यशैली पर विभिन्न समूहों में मतभेद हो सकते हैं पर किसी में ऐसी ताकत नहीं है जो बिना पैसे कोई लड़ने निकल पड़े और पैसा वही देगा जिसका कोई आर्थिक फायदा होगा। कहीं कहीं आदमी डर के कारण चंदा या हफ्ता देता है पर वह इसलिये क्योंकि तब वह अपने अंदर शारीरिक सुरक्षा का भाव उत्पन्न होने के साथ उसका व्यापार भी चलता है। इधर यह भी हो रहा है कि अपराधियों का महिमा मंडन भी कम नहीं हो रहा। यही कारण है कि लोग प्रचार के लिये भी ऐसा करते हैं जो अंततः उनके आर्थिक लाभ के रूप में ही परिवर्तित होता है। जो अपराधी पकड़े जाते हैं उनके प्रचारकों को प्रचार माध्यम उनकी तरफ से सफाई देते हुए दिखाते हैं। सच तो यह है कि आतंकी हिंसा की आड़ में अनेक लोगों ने नाम और नामा कमाया है और यह सब पैसा कहीं न कहीं देश के लोगों की जेब से ही गया है। हालांकि इनके आर्थिक स्त्रोतों का पता स्थानीय स्तर पर नहीं लग सकता। इसके लिये आवश्यक है कि राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय लोग इसके लिये सक्रिय हों। इसके लिये जरूरी है कि देश में चल रहे दो नंबर के व्यवसायियों में कौन किस किस को धन देते हैं और उसका उनको क्या लाभ है यह देखा जाना जरूरी है। अनेक अपराधी पकड़ जाते हैं पर असली तत्व दृष्टिगोचर नहीं होते। हो सकता है कि हिंसा करने वाले कंपनियों के रूप में सक्रिय हों पर उनके कर्ताधर्ता का पता लगाना जरूरी है।

बुद्धिजीवी लोग इन हिंसक घटनाओं से उत्पन्न बिना मतलब के विषयों पर चर्चा के इस पर बहस क्यों नहीं करते कि आखिर इसका लाभ किसको कैसे हो सकता है। अगर यही बहसों का हाल रहा तो एक दिन देश को आतंकवाद के मसले पर विश्व में मिल रही सहानुभूति समाप्त हो जायेगी ओर यह यहां का आंतरिक मामला मान लिया जायेगा और विदेशों में देश के अपराधियों को शरण मिलती रहेगी। अगर कोई अपराध विशेषज्ञ इसे अलग प्रकार का अपराध मानता है तो फिर कुछ कहना बेकार है पर ऐसा कहने वाले बहुत कम मिलेंगे अगर मिल जाये तो लार्ड मैकाले की प्रशंसा अवश्य करें जिसने इस देश के लोगों की बुद्धि कोई हमेशा के लिये कुंठित कर दिया। ऐसे विषयों पर अपराध विज्ञानियों को चर्चा करना चाहिये पर यहां केवल विचारधाराओं के आधार चलने वाले बुद्धिजीवी बहस करते हैं तब यही लगता है कि वह केवल तयशुदा वाद और नारों पर ही चलते हैं।
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Saturday, October 25, 2008

हिन्दी, हिन्दू और हिंदुत्व:नए सन्दर्भों में चर्चा (१)

हिन्दी,हिन्दू और हिंदुत्व शब्दों में जो आकर्षण है उसका कारण कोई उनकी कानों को सुनाई देने वाली ध्वनि नहीं बल्कि वह भाव जो उनके साथ जुड़ा है। यह भाव हिन्दी भाषा के अध्यात्मिक, हिन्दू व्यक्ति के ज्ञानी,और हिंदुत्व के दृढ़ आचरण होने से उत्पन्न होता है। हिन्दी भाषा के विकास, हिन्दू के उद्धार और हिंदुत्व के प्रचार का कीर्तन सुनते हुए बरसों हो गये और इनका प्रभाव बढ़ता भी जा रहा है पर यह उन व्यवसायिक कीर्तनकारों की वजह से नहीं बल्कि हिन्दी भाषा,हिन्दू व्यक्तित्व और हिंदुत्व के आचरण की प्रमाणिकता की वजह से है।

स्वतंत्रता के तत्काल बाद अंग्रेजों के जाते ही उनके द्वारा ही निर्मित शिक्षा पद्धति से शिक्षित महानुभावों को इस देश के लोगों को वैसे ही भेड़ की तरह भीड़ में शामिल करने का भूत सवार हुआ जैसे अंग्रेज करते थे। बस! जिसको जैसा विचार मिला वही उसके नाम पर पत्थर लगाता गया। बाद में उनकी आगे की पीढियों ने उन्हीं पत्थरों को पुजवाते हुए इस समाज पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। पत्थरों से आगे कुछ नहीं हो सकता था। वहां से कोई नए विचार की धारा प्रवाहित होकर नहीं आ सकती थी। नारे और वाद हमेशा लोगों को आकर्षित करने के लिए बनाए जाते हैं। उनमें कोई गहरा विचार या चिंत्तन ढूँढना अपने आप को धोखा देना है। फिर अंग्रेजों द्वारा ही बनायी गयी आदमी को गुलाम बनाने वाली शिक्षा से पढ़े हुए सभी लोगों से यह आशा भी नहीं की जा सकती कि वह अपने अन्दर कोई स्वतन्त्र विचार कर सकें। फिर भी जिन लोगों ने इस शिक्षा पद्धति को अक्षरज्ञान मानते हुए अपने प्राचीन धार्मिक तथा साहित्यक पुस्तकों को भक्ति और ज्ञान की दृष्टि से पढा वह ज्ञानी बने पर उन्होंने उसका व्यापार नहीं किया इसलिए लोगों तक उनकी बात पहुंची नहीं।
कुछ लोग तेजतर्रार थे उन्होंने इस ज्ञान को तोते की तरह रट कर उसे बेचना शुरू कर दिया। वह न तो अर्थ समझे न उनमें वह भाव आया पर चूंकि उन्होंने हिन्दी,हिन्दू और हिंदुत्व को उद्धार और प्रचार को अपना व्यवसाय बनाया तो फिर ऐसी सजावट भी की जिससे भक्त उनके यहाँ ग्राहक बन कर आये। यह हुआ भी! प्रकाशन और संचार माध्यमों में इन व्यापारियों की पकड़ हैं इसलिए वह भी इनके साथ हो जाते हैं। नित नयी परिभाषाएं और शब्द गढ़ जाते हैं।

कई किश्तों में समाप्त होने वाले इस आलेख में हिन्दी भाषा,हिन्दू व्यक्ति और हिंदुत्व के रूप में आचरण पर विचार किया जायेगा। इससे पहले यह तय कर लें कि आखिर उनकी संक्षिप्त परिभाषा या स्वरूप क्या है।

हिन्दी भाषा-संस्कृत के बाद विश्व की एकमात्र ऐसी भाषा है जो आध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण है। दिलचस्प बात यह है कि यह एकमात्र ऐसी भाषा है जो आध्यात्म ज्ञान धारण करने में सहज भाव का अनुभव करा सकती है। भले ही संस्कृत से ज्ञान से किसी अन्य भाषा में अनुवाद कर उसे प्रस्तुत किया जाये पर वह प्रभावी नहीं हो सकता जब तक उसे हिन्दी में न पढा जाए। इसलिए जिन लोगों को अध्यात्म ज्ञान के साथ जीवन व्यतीत करना है उनको यह भाषा पढ़नी ही होगी। इसमें जो भाव है वह सहज है और अध्यात्मिक ज्ञान के लिए वह आवश्यक है। जिस तरह विश्व में भौतिकता का प्रभाव बढा है वैसे ही लोगों में मानसिक संताप भी है। वह उससे बचने के लिए अध्यात्म में अपनी शांति ढूंढ रहे है और इसलिए धीरे धीरे हिन्दी का प्रचार स्वत: बढेगा। अंतर्जाल पर भी पूंजीपति प्रभावी हैं पर इसके बावजूद यहाँ स्वतंत्र लेखन की धारा बहती रहेगी। इसलिए स्वतन्त्र सोच वाले उस ज्ञान के साथ आगे बढ़ेंगे जो ज्ञान और कल्याण का व्यापार करने वालों की पास ही नहीं है तो दूसरे को बेचेंगे क्या? अत: कालांतर में अंतर्जाल पर हिन्दी अपने श्रेष्ठतम रूप में आगे आयेगी। हिंदी भाषा के साथ सबसे अच्छी बात यह है कि यह किसी एक धर्म, प्रदेश या देश की भाषा नहीं है। इसका प्रचार पूरे विश्व में स्वत: हो रहा है। भारत में तो हर धर्म और प्रांत का आदमी इसे अपना चुका है।

हिन्दू व्यक्ति-मानसिक,आध्यात्मिक और आचरण की दृष्टि से परिपूर्ण,दूसरे पर निष्प्रयोजन दया करने वाला,भगवान की निष्काम भक्ति में तल्लीन,विज्ञान के नित नए रूपों में जीवन की सहजता को अनुभव करते हुए उसके साथ जुड़ा हुआ, अपने मन, बुद्धि और विचारों की विकारों को योगासन और ध्यान द्वारा प्रतिदिन बाहर विसर्जित करने में सक्षम,समय समय पर वातावरण और पर्यावरण की शुद्धता के लिए यज्ञ हवन में संलिप्त, त्याग में ही प्रसन्न रहने वाला, लालच और लोभ रहित,तत्व ज्ञान धारी और हर स्थिति में सभी के प्रति समदर्शिता का भाव रखने वाला व्यक्ति सच्चा हिन्दू है। अहिंसा और ज्ञान हिंदू के ऐसे अस्त्र-शस्त्र हैं जिसस वह अपने विरोधियों को परास्त करता है।

हिंदुत्व-हिन्दू व्यक्ति के रूप में किये गए कार्य ही हिंदुत्व की पहचान होते हैं। हिंदुत्व की सबसे बड़ी पहचान यह है कि विरोधी या शत्रु को हिंसा से नहीं बल्कि बुद्धि और ज्ञान की शक्ति से परास्त किया जाए। इसके लिये उसे हिंसा करने की आव्श्यकता ही नहीं होती बल्कि वह हालातों पर बौद्धिक चातुर्य से विजय पा लेता है। देखिए कितने हमले इस देश पर हुए। इसे लूटा गया। यहाँ तमाम तरह के प्रलोभन देकर धर्म परिवर्तन कराये गए, पर उस ज्ञान को कोई नहीं मिटा पाया जिसके वजह से इस देश को आध्यात्म गुरु कहा जाता है। यही पहचान है हिंदुत्व की शक्ति की। हिंदुत्व का एक अर्थ आध्यात्मिक ज्ञान भी है जो सत्य रूप है। आगे पीछे इसे बढ़ना ही है।

यह कोई अंतिम परिभाषा नहीं। आलेख बढा न हों इसलिए यह तात्कालिक रूप से लिखीं गयीं हैं। आगे हम और भी चर्चा करेंगे। यह जानने का प्रयास करेंगे कि आखिर इसके नाम पर पाखण्ड कैसे बिक रहा है। यह बताने का प्रयास भी करेंगे कि इसे बदनाम करने वाले भी कैसे कैसे स्वांग रचते हैं।ऐसी एक नहीं कई घटनाएँ जब लोगों ने अपने हिसाब से अपने विचार बदले या कहें कि उन्होंने अपने नारे और वाद बदले। कभी धर्म के भले के नाम पर आन्दोलन चलाया तो कभी भाषा की रक्षा का ठेका लिया। कहते हैं अपने को हिंदुत्व का प्रचारक पर उनके आचरण उसके अनुसार बिलकुल नहीं है।
यह आलेख उनकी आलोचना पर नहीं लिखा जा रहा है बल्कि यह बताने के लिये लिखा जा रहा है कि एक हिंदी भाषी हिंदू के रूप में हमारा आचरण ही हिंदुत्व की पहचान होती है और उसे समझ लेना चाहिये। आने वाले समय में कई ऐसी घटनाएँ होनी वाली हैं जिससे सामान्य भक्त को मानसिक कष्ट हो सकता है। इसी कारण उनको अपने अध्यात्म ज्ञान को जाग्रत कर लेना चाहिए। आखिर इसकी आवश्यकता क्यों अनुभव हुई? देखा गया है कि सनातन धर्मी-हिन्दू धर्म-अपने धर्म की प्रशंसा तो करते हैं पर उसके समर्थन में उनके तर्क केवल विश्वास का सम्मान करने के आग्रह तक ही सीमित रहते हैं। उसी तरह जब कोई सनातन धर्म की आलोचना करता है तो लड़ने को दौड़ पड़ते हैं। यह अज्ञानता का परिणाम है।
इसका एक उदाहरण एक अन्य धर्मी चैनल पर देखने को मिला। वहां एक अन्य धर्म के विद्वान वेदों की उन ऋचाओं को वहां बैठे लोगों को सुनाकर सनातन धर्म की आलोचना कर रहे थे तब वहां बैठे कुछ लोग उन पर गुस्सा हो रहे थे। ऋचाएं भी वह जिनकी आलोचना सुनते हुए बरसों हो गये हैं। लोगों का गुस्सा देखकर वह विद्वान मुस्करा रहे थे। अगर वहां कोई ज्ञानी होता तो उनको छठी का दूध याद दिला देता, मगर जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि ज्ञान और कल्याण का व्यापार करने वाले समाज के शिखर पर जाकर बैठे हैं और समाज ने भी एक तरह से मौन स्वीकृति दे दी है। इसका कारण ज्ञान का अभाव है। ऐसे ही लोग अपने अल्पज्ञान को साथ लेकर बहस करने पहुंचते हैं और जब आलोचना होती है तो तर्क देने की बजाय क्रोध का प्रदर्शन कर अपने को धर्म का ठेकेदार साबित करते हैं। ज्ञानी की सबसे बड़ी पहचान है कि वह वाद विवाद में कभी उतेजित नहीं होता। उत्तेजित होना अज्ञानता का प्रमाण है। अपने अध्यात्म ज्ञान के मूल तत्वों के बारे में अधिक जानकारी न होने से वह न तो उसकी प्रशंसा कर पाते न आलोचना का प्रतिवाद कर पाते हैं।

इस आलेख का उद्देश्य किसी धर्म का प्रचार नहीं बल्कि धर्म की नाम फैलाए जा रहे भ्रम का प्रतिकार करने के साथ सत्संग की दृष्टि से सत्य का अन्वेषण करना है, जो लिखते लिखते ही प्राप्त होगा। इन पंक्तियों का लेखक कोई सिद्ध या ज्ञानी नहीं बल्कि एक सामान्य इंसान है जिसे भारतीय अध्यात्म में आस्था है। इसलिए अगर कहीं कोई त्रुटि हो जाए तो उसे अनदेखा करें। यहाँ किसी के विश्वास का खंडन नहीं करना बल्कि अपने विश्वास की चर्चा करना है। बिना किसी योजना के लिखे जा रहे इस लेख के लंबे चलने की संभावना है और यह विवादास्पद टिप्पणियाँ न रखें तो ही अच्छा होगा। ऐसी सार्थक टिप्पणियों का स्वागत है जिससे लेखक और पाठक दोनों को ज्ञान मिले। वह ज्ञान जो हमारे अक्षुणण अध्यात्म की सबसे बड़ी तात्कत है। शेष इसी ब्लॉग/पत्रिका पर जारी रहेगा। इस आलेख को प्रस्तावना ही समझें क्योंकि आगे इस पर व्यापक रूप से लिखना पर पढ़ना है।
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Friday, October 24, 2008

शायद कभी तुम भी बन जाओगे-हिंदी कविता

क्रिकेट जमकर खेलो
मिल जाये तो पर्दे पर भी
कूल्हे मटकाकर लोगों का दिल बहलाओ
खूब जमकर पैसा कमाओ
विज्ञापनों में अभिनय कर
कंपनियों का सामान बिकवाओ
यही है आजकल सच्ची सेवा
खाते रहोगे जीवन भर मेवा
कभी न कभी न महानतम बन जाओगे
पर्दे पर असल जिंदगी नहीं होती
पर नकल सभी की पसंद होती
जमाने के मासूमों से सच में
हमदर्दी का कभी ख्याल भी न करना
उसमें तो बिना फायदे के ही मरना
लोगों की असल सेवा मेंं कभी
अपना नाम नहीं कर पाओगे

विद्यालयों की किताबों में
सच बोलना और सेवा करना
पढ़कर जो चले उसकी राह
जमाने में इज्जत पाने के लिये
वह तरसते हुए भरते हैंं आह
चमकते हैं सितारे वह यहां
पत्थर की तरह किसी काम के न हों
पर चमकते हैं हीरे की तरह
हर कोई उन्हें देखकर कहता है ‘वाह’
उनको देखकर यह भ्रम मत पालना कि
वह कोई फरिश्ते हैं
तुम एक आम आदमी
नहीं तो दर्शकों की भीड़ में खो जाओगे

अगर चमक की चाह नहीं है
डरते हो अपने ईमान से
सच के चमकने की कोई राह नहीं
हीरे की तरह उसकी चमक
हर कोई देख नहीं पाता
अपने जौहरी तुम खुद ही बन जाओ
सत्य पथ ही अग्निपथ है
चलते जाओ
अपने मजबूत इरादों के साथ
अपने काम खुद ही दो इज्जत
जमाने का क्या
पल पल रंग बदलता है
कई चमके लोग नकली चमक के साथ
फिर भी कुछ नहीं आया उनके साथ
सच के साथ खड़े रहे जो लोग
वही बने इतिहास पुरुष
शायद कभी तुम भी बन जाओगे

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Tuesday, October 21, 2008

दूसरे की रोटी छीनना है शैतान का काम-व्यंग्य कविता

हो जाता है जिन लोगों को
अपने खास होने का वहम
चेहरे चमका लेते हैं सौंदर्य प्रसाधन से
आईने के सामने खड़े होकर
छोटे पर जुर्म ढाकर दिखाते
अपनी ताकत का सबूत बड़े होकर

लेते हैं सर्वशक्तिमान का नाम
करते हैं अपने घर भरने का
बताते लोगों के भले का काम
फरिश्तों की तस्वीरों पर चढ़ाते हैं माला
झूठी हंसी के साथ
लगाते नारे और चलाते वाद
हो जाये जैसे आदमी मतवाला
फैंके चाहे किसी पर पत्थर
चाहे घौंपे किसी में भाला
पवित्र किताबों पर सिर माथे लगाने की बात करते
पर इस सच से मूंह छिपाते कि
इस दुनियां की सबसे बड़ी शैतानियत है
लगाना दूसरे के रोजगार पर ताला
करते हैं वह सब काम जो शैतान करते हैं
पर वह फरिश्तों के बंद होने का दम भरते हैं
लोगों को भेड़ की तरह भीड़ में जुटाकर
दुकानों को लगाकर आग
तोड़कर वाहनों को भी नहीं शर्माते
हंसते हैं अपनी शैतानियत पर अड़े होकर

घमंड रावण का नहीं रहा
तो उनका क्या रहेगा
सर्वतशक्तिमान का नियम है
जो दूसरों की रोटी छीनेगा
वह कभी अपनी लिये दाने बीनेगा
उसका नाम लेने से
कोई तर नहीं जाता
सभी बंदों पर सर्वशक्तिमान की होती नजर
कुछ लोगों को अपने ताकतवर होने का
केवल भ्रम हो जाता
दिखते हैं शहंशाह पर
नाचते हैं कठपुतली की तरह खुद
कोई नट नचाये जाता पीछे खड़े होकर

कहैं महाकवि दीपक बापू
दुकानें जलाने से आंदोलन नहीं चलते
भूखे को रोटी दिलाने के दावा करने वाले
एक नहीं हजारों देखे
पर किया नहीं किसी भूखे के लिये
एक वक्त के छोटे टुकड़े का इंतजाम
पर जलाकर ठेले छीन लेते हैं किसी की रोटी
जो है शैतान का काम
पर फरिश्तों के गुण गाते दिखाने के लिये
हर चौराहे पर खड़े होकर

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Tuesday, October 14, 2008

संत कबीर सन्देश:मसखरों को मिलता है साधू जैसा सम्मान

कबीर कलियुग कठिन हैं, साधू न मानै कोय
कामी क्रोधी मसखरा तिनका आदर होय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अब इस घोर कलियुग में कठिनाई यह है कि सच्चे साधू को कोई नहीं मानता बल्कि जो कामी, क्रोधी और मसखरे हैं उनका ही समाज में आदर होने लगा है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर हम कबीरदास जी के इस कथन के देखें तो हृदय की पीडा कम ही होती है यह सोचकर कि उनके समय में भी ऐसे लोग थे जो साधू होने के नाम पर ढोंग करते थे। हम अक्सर सोचते हैं कि हम ही घोर कलियुग झेल रहे हैं पर ऐसा तो कबीरदास जी के समय में भी होता था। धर्म प्रवचन के नाम पर तमाम तरह के चुटकुले सुनकर अनेक संत आजकल चांदी काट रहे हैं। कई ने तो फाईव स्टारआश्रम बना लिए हैं और हर वर्ष दर्शन और समागम के नाम पर पिकनिक मनाने तथाकथित भक्त वहाँ मेला लगाते हैं। सच्चे साधू की कोई नहीं सुनता। सच्चे साधू कभी अपना प्रचार नहीं करते और एकांत में ज्ञान देते हैं और इसलिए उनका प्रभाव पड़ता है। पर आजकल तो अनेक तथाकथित साधू-संत चुटकुले सुनाते हैं और अगर अकेले में किसी पर नाराज हो जाएं तो क्रोध का भी प्रदर्शन करते हैं। उनके ज्ञान का इसलिए लोगों पर प्रभाव नहीं पड़ता भले ही समाज में उनका आदर होता हो।
अनेक कथित संत और साधु अपने प्रवचनों के चुटकलों के सहारे लोगों का प्रभावित करने का प्रयास करते हैं। लोग भी चटखारे लेकर अपने दिल को तसल्ली देते हैं कि सत्संग का पुण्य प्राप्त कर रहे हैं। यह भक्ति नहीं बल्कि एक तरह से मजाक है। न तो इससे मन में शुद्धता आती है और न ज्ञान प्राप्त होता है। सत्संग करने से आशय यह होता है कि उससे मन और विचार के विकार निकल जायें और यह तभी संभव है जब केवल अध्यात्मिक ज्ञान की चर्चा हो। इस तरह चुटकुले तो मसखरे सुनाते हैं और अगर कथित संत और साधु अपने प्रवचन कार्यक्रमों में सांसरिक या पारिवारिक विषय पर सास बहु और जमाई ससुर के चुटकुले सुनाने लगें तो समझ लीजिये कि वह केवल मनोरंजन करने और कराने के लिये जोगी बने है। ऐसे में न तो उनसे लोक और परलोक सुधरना तो दूर बिगड़ने की आशंका होती है।
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Sunday, October 12, 2008

पति पत्नी के पृथक होने की प्रक्रिया को सरल बनाया जाये-आलेख चिंतन

मिलन के साथ वियोग भी आसान होना चाहिए-आलेख

कुछ ऐसी घटनाएँ अक्सर समाचारों में सुर्खियाँ बनतीं है जिसमें पति अपनी पत्नी की हत्या कर देता है
१. क्योंकि उसे संदेह होता है की उसके किसी दूसरे आदमी से उसके अवैध संबंध हैं।
२. कहीं पुरुष की पत्नी उसके अवैध संबंधों में बाधक होती है।
इसके उलट भी होता है। ऐसी घटनाएँ जो अभी तक पाश्चात्य देशों में होतीं थीं अब यहाँ भी होने लगीं है और कहा जाये कि यह सब अपनी सभ्यता छोड़कर विदेशी सभ्यता अपनाने का परिणाम है तो उसका कोई मतलब नहीं है। यह केवल असलियत से मुहँ फेरना होगा और किसी निष्कर्ष से बचने के लिए दिमागी कसरत से बचना होगा।
हम कहीं न कहीं सभी लोग पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण कर ही रहे हैं। फिर भी समाज में बदनामी का डर रहता है इसलिए पुराने आदर्शों की बात करते हैं पर विवाह और जन्म दिन के अवसर पर हम सब भूलकर उसी ढर्रे पर आ जाते हैं जिस पर पश्चिम चल रहा है। जब अपनी ही कर्मों से परेशानी होती है तब अपने संस्कारों और संस्कृति की याद आती है.
एक दार्शनिक की तरह समाज को जब देखें हूँ तो कई लोगों को ऐसे तनावों में फंसा पायेंगे जिसमें आदमी का धन और समय अधिक नष्ट होता देखता हूँ। कई माँ-बाप अपने बच्चों की शादी कराकर अपने को मुक्त समझते हैं पर ऐसा होता नहीं है। लड़कियों की कमी है पर लड़के वालों के अंहकार में कमी नहीं है। हम इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि लडकी के बाप के रूप में आदमी झुकता है लड़के के बाप के रूप में अकड़ता है। यह इतना स्वाभिक ढंग से होता है कि आदमी अपने वक्त पर सारे तर्क भूल जाता है. अपने आसपास जब कुछ लोगों को बच्चों के विवाह के बाद भी उनके अभिभावकों को तनाव झेलते हुए तो हम लोग अक्सर देखते है।

रिश्ते करना सरल है और निभाना और मुश्किल है और उससे अधिक मुश्किल है उनको तोड़ना। कई जगह लडकी भी लड़के के साथ रहना नहीं चाहती पर लड़के वाले दहेज़ और अन्य खर्च की वापसी न करनी पड़े इसलिए मामले को खींचते हैं। कई जगह कामकाजी लडकियां घरेलू तनाव से बहुत परेशान होती हैं और वह अपने पति से अलग होना चाहतीं है पर यह काम उनको कठिन लगता है। लंबे समय तक मामला चलता है। कुछ घर तो ऐसे भी देखे हैं कि जिनका टूटना तय हो जाता है पर उनका मामला बहुत लंबा चला जाता है। दरअसल अधिकतर सामाजिक और कानूनी कोशिशे परिवारों को टूटने से अधिक उसे बचाने पर केन्द्रित होतीं है। कुछ मामलों में मुझे लगा कि व्यर्थ की देरी से लडकी वालों को बहुत हानि होती है।

अधिकतर मामलों में लडकियां तलाक नहीं चाहतीं पर कुछ मामलों में वह रहना भी नहीं चाहतीं और छोड़ने के लिए तमाम तरह की मांगें भी रखतीं है। कुछ जगह लड़किया कामकाजी हैं और पति से नहीं बनतीं तो उसे छोड़ कर दूसरा विवाह करना चाहतीं है पर उनको रास्ता नहीं मिल पाता और बहुत मानसिक तनाव झेलतीं हैं। ऐसे मामले देखकर लगता है कि संबंध विच्छेद की प्रक्रिया बहुत आसान कर देना चाहिए। इस मामले में महिलाओं को अधिक छूट देना चाहिऐ। जहाँ वह अपने पति के साथ नहीं रहना चाहतीं वह उन्हें तुरंत तलाक लेने की छूट होना चाहिए। जिस तरह विवाहों का पंजीयन होता है वैसे ही विवाह-विच्छेद को भी पंजीयन कराना चाहिए। जब विवाह का काम आसानी से पंजीयन हो सकता है तो उनका विच्छेद का क्यों नहीं हो सकता।

कहीं अगर पति नहीं छोड़ना चाहता और पत्नी छोड़ना चाहती है उसको एकतरफा संबंध विच्छेद करने की छूट होना चाहिए। कुछ लोग कहेंगे कि समाज में इसे अफरातफरी फ़ैल जायेगी। ऐसा कहने वाले आँखें बंद किये बैठे हैं समाज की हालत वैसे भी कौन कम खराब है। अमेरिका में तलाक देना आसान है पर क्या सभी तलाक ले लेते हैं। देश में तलाक की संख्या बढ रही हैं और दहेज़ विरोधी एक्ट में रोज मामले दर्ज हो रहे हैं। इसका यह कारण यह है कि संबंध विच्छेद होना आसान न होने से लोग अपना तनाव इधर का उधर निकालते हैं। वैसे भी मैं अपने देश में पारिवारिक संस्था को बहुत मजबूत मानता हूँ और अधिकतर औरतें अपना परिवार बचाने के लिए आखिर तक लड़ती है यह भी पता है पर कुछ अपवाद होतीं है जो संबध विच्छेद आसानी से न होने से-क्योंकि इससे लड़के वालों से कुछ नहीं मिल पाता और लड़के वाले भी इसलिए नहीं देते कि उसे किसी के सामने देंगे ताकि गवाह हों-तमाम तरह की नाटकबाजी करने को बाध्य होतीं हैं। कुछ लड़कियों दूसरों के प्रति आकर्षित हो जातीं हैं पर किसी को बताने से डरती हैं अगर विवाह विच्छेद के प्रक्रिया आसान हो उन्हें भी कोई परेशानी नहीं होगी।

कुल मिलकर विवाह नाम की संस्था में रहकर जो तनाव झेलते हैं उनके लिए विवाह विच्छेद की आसान प्रक्रिया बनानी चाहिऐ। हालांकि देश के कुछ धर्म भीरू लोग आलेख की बात से असहमत होंगें पर जैसा याद रखिये वाद और नारों से समाज नहीं चला करते और उनकी वास्तविकताओं को समझना चाहिऐ। अगर हम इस बात से भयभीत होते हैं तो इसका मतलब हमें अपने मजबूत समाज पर भरोसा नहीं है और उसे ताकत से नियंत्रित करना ज़रूरी है तो फिर मुझे कुछ कहना नहीं है-आखिर साठ से इस पर कौन नियंत्रित कर सका।

Saturday, October 11, 2008

भृतहरि शतकः काम पर नियंत्रण करने वाले विरले ही वीर होते हैं

मत्तेभकुम्भदलने भुवि सन्ति शूराः केचित्प्रचण्डमृगराजवधेऽपि दक्षाः।
किन्तु ब्रवीमि बलिनां मुरतः प्रसह्य कंदर्पदर्पदलने विरला मनुष्याः

हिंदी में भावार्थः इस संसार में मदमत्त हाथियों पर नियंत्रण करने वाले अनेक योद्धा हैं। ऐसे अनेक वीर है जो शेर से लड़कर उसे पराजित कर देते हैं पर कोई ऐसा विरला ही मनुष्य होता है जो काम के मद पर नियंत्रण कर पाता हैं। काम में इतनी शक्ति है कि वह कई वीरों और ज्ञानियों को अपने पथ से विचलित कर देता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अनेक कथित साधु और संत मनुष्य को अपनी काम भावना पर नियंत्रण करने का उपदेश देते हैं पर वह स्वयं ही उसके वशीभूत होते हैं। ऐसे अनेक उदाहरण हमारे सामने आते हैं जब संतों पर काम के वशीभूत होकर दुष्कृत्य करने के समाचार आते हैं। काम पर निंयत्रण का उपाय तो भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान में है अन्य किसी में नहीं पर इसके बावजूद कथित रूप से ऐसे अनेक कथित महापुरुष हुऐ हैं जिन्होंने हमेशा काम पर निंयत्रण का संदेश दिया पर यह उनका केवल बाहरी आवरण ही था जबकि उनका जीवन ही काम के वशीभूत होकर पूरा जीवन गुजारा।

स्त्रियों को अपने गुरु और सम्मानीय लोगों के प्रति अधिक सर्तक रहना चाहिये क्योंकि काम पर नियंत्रण करने की ताकत विरलों में होती है। स्त्रियों और उनके परिवार वालों को हमेशा ही ऐसे ढोंगी और पाखंडी गुरुओं से दूर रहना चाहिये जो बात तो अध्यात्म ज्ञान की करते है पर उनकी देह में काम और कामनाओं का वर्चस्व रहता है। यह बात समझ लेना चाहिये कि बहुत कम ऐसे लोग होते हैं जो काम पर निंयत्रण कर समाज का हित कर पाते हैं। अतः जब तक परख न लें किसी पर विश्वास न करें।
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Friday, October 10, 2008

रहीम सन्देश: प्रीति और प्रतिष्ठा में धीरे धीरे वृद्धि होती है

रहिमन अति न कीजिए, गहि रहिए निज कानि
सैंजन अति फूलै तऊ, डार पात की हानि

कविवर रहीम कहते हैं कि कभी भी किसी कार्य और व्यवहार में अति न कीजिये। अपनी मर्यादा और सीमा में रहें। इधर उधर कूदने फांदने से कुछ नहीं मिलता बल्कि हानि की आशंका बलवती हो उठती है

यही रहीम निज संग लै, जनमत जगत न कोय
बैर प्रीति अभ्यास जस, होत होत ही होय


कविवर रहीम कहते हैं कि प्रीति, अभ्यास और प्रतिष्ठा में धीरे धीरे ही वृद्धि होती है। इनका क्रमिक विकास की अवधि दीर्घ होती है क्योंकि यह सभी आदमी जन्म के साथ नहीं ले आता। इन सभी का स्वरूप आदमी के व्यवहार, साधना और और आचरण के परिणाम के अनुसार उसके सामने आता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-यह मानवीय स्वभाव है कि वह अपनी जिससे प्रीति करना चाहता है उससे तत्काल ही वैसी आशा करता है। उसी तरह वह अगर कोई सार्वजनिक कार्य करता है तो तत्काल अपनी प्रतिष्ठा बढ़ते देखना चाहता है जबकि वह स्वयं न तो किसी को तत्काल प्रीति करता है और न ही किसी के कार्य को तत्काल सराहता है। जो पुरुष मानवीय स्वभाव के ज्ञानी हैं वह तो धीरज धारण करते हैं पर जो अज्ञानी हैं वह तत्काल परिणाम न मिलने से निराश भी जल्दी हो जाते हैं। जीवन में धैर्य का बहुत महत्व है। खासतौर से जब दूसरे मनुष्यों में अपने लिये प्रीति या सम्मान पैदा करना हो तो ऐसे धैर्य की आवश्यकता होती हैं। एक या दो काम से न तो लोग प्रीति करते हैं और प्रतिष्ठा मिलती है। इसके लिये आवश्यक है कि सतत समाज हित का काम किया जाये और यह तभी संभव है जब हमारे अंदर धैर्य हो।
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Thursday, October 09, 2008

वाल्मीकीय रामायण से-राजा को 14 दोषों से दूर रहना चाहिये

वाल्मीकी रामायण में अयोध्याकांड के सौवें सर्ग में भगवान श्रीराम ने बनवास के बाद वन में पहली बार मिलने आये अपने लघुभ्राता श्री भरत जी को राजनीति का उपदेश दिया है। इनमें कुछ आज भी प्रासंगिक और दिलचस्प लगते हैं। इनके अध्ययन ने राम राज्य की जो कल्पना है उसका स्वरूप उभर सामने आता है।

1. रघुनंदन! क्या तुम्हारी आय अधिक और व्यय बहुत कम है? तुम्हारे खजाने का धन अपात्रों क हाथ में तो नहीं चला जाता।54
2.कभी ऐसा तो नहीं होता कि कोई मनुष्य किसी श्रेष्ठ निर्दोष और शुद्धात्मा पुरुष पर भी दोष लगा दे तथा शास्त्रज्ञान में कुशल विद्वानों द्वारा उसके विषय में विचार कराये बिना ही लोभवश उसे आर्थिक दंड दे दिया जाता हो। 56
3.नास्तिकता,असत्य भाषण,क्रोध,प्रमाद,दीर्घसूत्रता,ज्ञानी पुरुषों का संग न करना,आलस्य,नेत्र अति पांचों इंद्रियों के वशीभूत होना,राजकार्यों में अकेले ही विचार,प्रयोजन को न समझने वाले विपरीतदर्शी मूर्खों से सलाह लेना, निश्चित किये हुए कार्यो का शीघ्र प्रारंभ न करना, गुप्त मंत्रणा को सुरक्षित न रखकर प्रकट कर देना,मांगलिक आदि कार्यों का अनुष्ठान न करना तथा सब शत्रुओं पर एक ही साथ आक्रमण करना-यह राजा के चैदह दोष हैं। तुम इन दोषो का सदा परित्याग करते हो न! 65-67
4.इस प्रकार धर्म के अनुसार दण्ड धारण करने वाला विद्वान राजा प्रजाओं का पालन करके समूची पृथ्वी को यथावत् रूप से अपने अधिकार में कर लेता है तथा देहत्याग करने के पश्चात् स्वर्ग में निवास करता है।

संपादकीय व्याख्या-पुराने ग्रंथों में अनेक प्रसंग राजाओं के संबंध में कहे जाते हैं पर इसका आशय यह यह कतई नहीं है कि उनका सामान्य व्यक्ति से कोई संबंध नहीं हैं। जिस तरह राजा अपने राज्य का मुखिया होता है उसी तरह सामान्य मनुष्य भी अपने परिवार का मुखिया होता है। अगर कोई राजा मेंं होना जरूरी है तो उतना ही सामान्य मनुष्य में जरूरी है। जिस दोष से राजा को परे होना चाहिये उससे सामान्य मनुष्य को भी परे होना चाहिये।
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Sunday, October 05, 2008

रहीम सन्देश:इस शरीर में होती हैं सहने की अपार क्षमता

जसी परै सो सहि रहै, कहि रहीम यह देह
धरती पर ही परत है, शीत घाम और मेह

कविवर रहीम कहते हैं कि इस मानव काया पर किसी परिस्थिति आती है वैसा ही वह सहन भी करती है। इस धरती पर ही सर्दी, गर्मी और वर्षा ऋतु आती है और वह सहन करती है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-पश्चिमी चिकित्सा विशेषज्ञों तमाम तरह के शोधों के बाद यह कह पाये कि हमारी देह बहुत लोचदार है उसमें हालतों से निपटने की बहुत क्षमता है। इसके लिये पता नहीं कितने मेंढकों और चूहों को काटा होगा-फिर इस निष्कर्ष पर पहुंचे । हमारे मनीषियों ने अपनी योग साधना और भक्ति से अर्जित ज्ञान से बहुत पहले यह जान लिया कि इस देह में बहुत शक्ति है और वह परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढाल लेती है। ज्ञान या तो योग साधना से प्राप्त होता है या भक्ति से। रहीम तो भक्ति के शिखर पुरुष थे और अपनी देह पर कतई ध्यान नहीं देते थे पर फिर भी उनको इस मनुष्य देह के बारे में यह ज्ञान हो गया पर आजकल अगर आप किसी सत्संग में जाकर बैठें तो लोग अपनी दैहिक तकलीफों की चर्चा करते हैं, और वहां ज्ञान कम आत्मप्रवंचना अधिक करते हैं। कोई कहेगा ‘मुझे मधुमेह हो गया है’ तो कोई कहेगा कि मुझे ‘उच्च रक्तचाप’ है। जिन संत लोगों का काम केवल अध्यात्मिक प्रवचन करना है वह उनकी चिकित्सा का ठेका भी लेते हैं। यह अज्ञान और भ्रम की चरम परकाष्ठा है।

मैने अपने संक्षिप्त योग साधना के अनुभव से यह सीखा है कि देह में भारी शक्ति होती है। मुझे योगसाधना का अधिक ज्ञान नहीं है पर उसमें मुझे अपने शरीर के सारे विकार दिखाई देते हैं तब जो लोग बहुत अधिक करते हैं उनको तो कितना अधिक ज्ञान होगा। पहले तो मैं दो घंटे योगसाधना करता था पर थोड़ा स्वस्थ होने और ब्लाग लिखने के बाद कुछ कम करता हूं (वह भी एक घंटे की होती है)तो भी सप्ताह में कम से कम दो बार तो पूरा करता हीं हूं। पहले मुझे अपना शरीर ऐसा लगता था कि मैं उसे ढो रहा हूं पर अब ऐसा लगता है कि हम दोनों साथ चलते हैं। मेरे जीवन का आत्मविश्वास इसी देह के लड़खड़ाने के कारण टूटा था आज मुझे आत्मविश्वास लगता है। आखिर ऐसा क्या हो गया?

इस देह को लेकर हम बहुत चिंतित रहते हैं। गर्मी, सर्दी और वर्षा से इसके त्रस्त होने की हम व्यर्थ ही आशंका करते हैं। सच तो यह है कि यह आशंकाएं ही फिर वैसी ही बीमारियां लातीं हैं। हम अपनी इस देह के बारे में यह मानकर चलें यह हम नहीं है बल्कि आत्मा है तो ही इसे समझ पायेंगे। इसलिये दैहिक तकलीफों की न तो चिंता करें और न ही लोगों से चर्चा करें। ऐसा नहीं है कि योगसाधना करने से आदमी कभी बीमार नहीं होता पर वह अपने आसनों से या घरेलू चिकित्सा से उसका हल कर लेता है। यह बात मैने अपने अनुभव से सीखी है और वही बता रहा हूं। योगसाधना कोई किसी कंपनी का प्राडक्ट नहीं है जो मैं बेच रहा हूं बल्कि अपना सत्य रहीम के दोहे के बहाने आपको बता रहा हूं।
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Saturday, October 04, 2008

कबीर के दोहे: आशा और तृष्णा हैं समुद्र की लहरों के सामान

आस आस घर घर फिरै, सहै दुखारी चोट
कहैं कबीर भरमत फिरै,ज्यों चैसर की गोट

संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि अपने हृदय मं आशा कर मनुष्य घर घर भटकता है पर पर उसे दूसरे के मुख से अपने लिये अपमान के वचन सुनने पड़ते हैं। केवल आशा पूरी होने के लिये अपनी अज्ञानता के कारण मनुष्य चैसर के गोट की तरह कष्ट उठाता है।
आशा तृस्ना सिंधु गति, तहां न मन ठहराय
जो कोइ आसा में फंसा, लहर तमाचा खाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं आशा और तृष्णा और समुद्र की लहरों के समान है हो उठती और गिरती हैं जो मनुष्य इसके चक्कर में फंसता है वह इसके तमाचा खाता रहता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अपना हर कार्य अपने ऊपर ही रखना चाहिए। इस सांसरिक जीवन में सारे कार्य अपने नियत समय पर होते हैं और मनुष्य को केवल निष्काम भाव से कार्य करते हुए ही सुख की प्राप्त हो सकती हैं। श्रीगीता में निष्काम भाव से कार्य करने का उपदेश इसलिये दिया गया है। यह संसार अपनी गति से चल रहा है और उसमें सब कर्मों का फल समय पर प्रकट होता। मनुष्य सोचता है कि मैं इसे चला रहा हूं इसलिये वह अपने ऐसे कार्यों के लिये दूसरों से आशा करता है जो स्वतः होने हैं और अगर मनुष्य उसके लिये अपने कर्म करते हुए परिणाम की परवाह न करे तो भी फलीभूत होंगे। जब अपने आशा पूर्ति के लिये आदमी किसी दूसरे घर की तरफ ताकता है तो उसे उसे अपना आत्मसम्मान भी गिरवी रखना पड़ता है। वैसे अपना कर्म करते जाना चाहिये क्योंकि फल तो प्रकट होगा ही आखिर वह भी इस संसार का एक ही भाग है। आशा और कामना का त्याग कर इसलिये ही निष्काम भाव से कार्य करने का संदेश दिया गया है।
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कबीर के दोहेः किसी व्यक्ति को एक ही बार परखें

संत कबीरदास जी के अनुसार
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जो जैसा उनमान का, तैसा तासो बोल
पोता का गाहक नहीं, हीरा गांठि न खोल


आशय-जिस तरह का व्यक्ति हो उससे वैसा ही व्यवहार तथा वार्तालाप करो। जो कांच खरीदने वाली भी नहीं है उसके सामने हीरे की गांठ खोलकर दिखाने का फायदा ही नहीं।

एक ही बार परिखए, न वा बारम्बार
चालू तौहू किरकिरी, जो छानै सौ बार


आशय-किसी व्यक्ति को उसके कृत्य से एक ही बार परखना चाहिए। बार बार किसी की परखने का कोई फायदा नहीं। बालू की रेत को सौ बार भी छाना जाये तो उसकी किरकिरी नहीं जा सकती।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में हमारा प्रतिदिन अनेक व्यक्तियों से संपर्क होता है। इनमें कुछ व्यक्ति केवल दिखावे के लिये हितैषी बनते तो कुछ वास्तव में होतेे भी है। हम कई बार अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों पर अधिक दृष्टिपात नहीं करते पर जिनके स्वार्थ होते हैं वह अपनी पैनी नजरें रखते हैं कि कब हम चूकें और वह अपना हित साधकर नजरों से ओझल हो जायेंं। ऐसा हो सकता है कि कोई व्यक्ति लंबे समय तक साथ हो और हमें लगता है कि वह तो वफादार होगा तो यह भ्रम नहीं पालना चाहिये-क्योंकि कि वह कोई बड़ा स्वार्थ सिद्ध करने के लिये आपके साथ चिपका हो और उसकी पूर्ति के बाद छोड़ जाये। फिर जिन लोगों ने छोटे मोटे अवसरों पर धोखा दिया हो तो उनसे बड़े अवसर पर वफादारी की उम्मीद करना व्यर्थ है। अगर किसी ने एक बार आपका काम न करने पर बहाना बना दिया है तो वह दूसरी बार भी न करने पर कोई बहाना बना देगा। इसलिये सोच समझकर ही लोगों से व्यवहार करना चाहिये। जिस पर विश्वास न हो उसे अपने मन की बात और उद्देश्य नहीं बताना चाहिये

इसी तरह कुछ लोग दिखावे के लिये प्रेम से व्यवहार करते हैं पर वास्तव में उनका हमारे लिये प्रति उनके हृदय में किसी प्रकार का मोह नहीं होता। इसका आभास उनके व्यवहार से लग भी जाता है। साथ ही यह भी लगता है कि उनसे हमारा संपर्क अधिक नहीं चलेगा फिर भी उनके साथ संबंध बनाने की चेष्ट हम लोग करते हैं और यह जानते हुए भी कि वह व्यर्थ हो जायेगी। सच तो यह है कि जिनसे संपर्क अधिक चलने की न आशा है और भविष्य में किसी अवसर पर सहायता न मिलने की आशा है उनके सामने अपने दिल का हाल बयान करने का कोई लाभ नहीं हैं।

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