न मूर्खजनसम्पर्कः सुरेन्द्रभवनेष्वपि
हिंदी में अर्थ- बियावान जंगल और पर्वतों के बीच खूंखार जानवरों के साथ रहना अच्छा है किंतु अगर मूर्ख के साथ इंद्र की सभा में भी बैठने का अवसर मिले तो भी उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।
यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवम्
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिपतं मम मनः
यदा किञ्चित्किाञ्चिद् बुधजनसकाशादवगतम्
तदा मूर्खोऽस्मीति जवन इव मदो में व्यपगतः
हिंदी में अर्थ-जब मुझे कुछ ज्ञान हुआ तो मैं हाथी की तरह मदांध होकर उस पर गर्व करने लगा और अपने को विद्वान समझने लगा पर जब विद्वानों की संगत में बैठा और यथार्थ का ज्ञान हुआ तो वह अहंकार ज्वर की तरह उतर गया तब अनुभव हुआ कि मेरे समान तो कोई मूर्ख ही नहीं है।
संपादकीय व्याख्या-आदमी को अपने ज्ञान का अहंकार बहुत होता है पर जब वह आत्म मंथन करता है तब उसे पता लगता है कि वह तो अभी संपूर्ण ज्ञान से बहुत परे है। कई विषयों पर हमारे पास काम चलाऊ ज्ञान होता है और यह सोचकर इतराते हैं कि हम तो श्रेष्ठ हैं पर यह भ्रम तब टूट जाता है जब अपने से बड़ा ज्ञानी मिल जाता है। अपनी अज्ञानता के वश ही हम ऐसे अल्पज्ञानी या अज्ञानी लोगों की संगत करते हैं जिनके बारे में यह भ्रम हो जाता है वह सिद्ध हैं। ऐसे लोगों की संगत का परिणाम कभी दुखदाई भी होता है। क्योंकि वह अपने अज्ञान या अल्पज्ञान से हमें अपने मार्ग से भटका भी सकते हैं।
हम सभी के सामने कभी अपनी गलती नहीं स्वीकार करते पर कई पर यह अनुभव हमें होता है कि किसी विषय पर अपने को बहुत ज्ञानी समझते थे उससे संबंधित विद्वान से मिलने पर जब कोई नई जानकारी मिलती है तब पता लगता है कि हमारा ज्ञान अधूरा है पर उस समय भी अपने आपको धोखा देते हैं कि नहीं हम पूर्ण हैं। सच तो यह है कि आदमी जितना अहंकार दूसरों को दिखाता है उससे ज्यादा अपने आपको दिखाता है। सच बात तो यह है कि दिन प्रतिदिन नई तकनीकी आती जा रही है और कोई भी आदमी सभी तरह से अपने विषय में पारंगत नहीं हो सकता पर वह मानता नहीं है।
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