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Monday, December 28, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-अभ्यास न करने से ज्ञान नष्ट हो जाता है (abhyas aur gyan-hindu dharm sandesh)

भर्तृहरि महाराज के अनुसार
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दौर्मन्त्र्यान्नृपतिर्विनष्यति यतिः सङगात्सुतालालनात् विप्रोऽन्ध्ययनात्कुलं कुतनयाच्छीलं खलोपासनात्
ह्यीर्मद्यादनवेक्षणादपि कृषिः स्नेहः प्रवासाश्रयान्मैत्री चाप्रणयात्सृद्धिरनयात् त्यागपमादाद्धनम्


हिंदी में भावार्थ-कुमित्रता से राजा, विषयासक्ति और कामना योगी, अधिक स्नेह से पुत्र, स्वाध्याय के अभाव से विद्वान, दुष्टों की संगत से सदाचार, मद्यपान से लज्जा, रक्षा के अभाव से कृषि, परदेस में मित्रता, अनैतिक आचरण से ऐश्वर्य, कुपात्र को दान देने वह प्रमाद से धन नष्ट हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ संक्षिप्त व्याख्या-आशय यह है कि जीवन में मनुष्य जब कोई कर्म करता है तो उसका अच्छा और बुरा परिणाम यथानुसार प्राप्त होता है। कोई मनुष्य ऐसा नहीं है जो हमेशा बुरा काम करे या कोई हमेशा अच्छा काम करे। कर्म के अनुसार फल प्राप्त होता है। अच्छे कर्म से अर्थ और सम्मान की प्राप्ति होती है। ऐसे में अपनी अपनी उपलब्धियों से जब आदमी में अहंकार या लापरवाही का भाव पैदा होता है तब अपनी छबि गंवाने लगता है। अतः सदैव अपने कर्म संलिप्त रहते हुए अहंकार रहित जीवन बिताना चाहिये। मद्यपान, परनिंदा, अपने कार्य में लापरवाही, तथा दुष्ट लोगों से मित्रता करने की प्रवृत्ति से बचना चाहिये अन्यथा जीवन कष्ट मय होता है।

यह मानकर चलना चहिये कि हमें मान, सम्मान तथा लोगों का विश्वास प्राप्त हो रहा है वह अच्छे कर्मों की देन है और उनमें निरंतरता बनी रहे उसके लिये कार्य करना चाहिये। अगर अपनी उपलब्धियों से बौखला कर जीवन पथ से हट गये तो फिर वह मान सम्मान और लोगों का विश्वास दूर होने लगता है। अधिक अहंकार से दूसरे लोग सामने भले ही कुछ न कहें पर पीठ पीछे निंदा करने लगते हैं और यह हमारी स्वयं की छवि के लिये अच्छा नहीं होता।
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Saturday, December 26, 2009

चाणक्य नीति शास्त्र-दुष्ट की संगत कर ली तो सांप क्या कर लेगा?

नीति विशारद चाणक्य महाराज का कहना है कि
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क्षान्तिश्चत्कवचेन किं किमनिरभिः क्रोधीऽस्ति चेद्दिहिनां ज्ञातिश्चयेदनलेन किं यदि सहृदद्दिव्यौषधं किं फलम्।
किं सर्पैयीदे दुर्जनाः किमु धनैर्विद्याऽनवद्या चदि व्रीडा चेत्किमुभूषणै सुकविता यद्यपि राज्येन किम्।।
हिंदी में भावार्थ-
यदि क्षमा हो तो किसी कवच की आवश्यकता नहीं है। यदि मन में क्रोध है तो फिर किसी शत्रु की क्या आवश्यकता? यदि मंत्र है तो औषधियो की आवश्यकता नहीं है। यदि अपने दुष्ट की संगत कर ली तो सांप की क्या कर लेगा? विद्या है तो धन की मदद की आवश्यकता नहीं। यदि लज्जा है तो अन्य आभूषण की आवश्यकता नहीं है।
वर्तमान में संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- ध्यान दें तो भर्तृहरि महाराज ने पूरा जीवन सहजता से व्यतीत करने वाला दर्शन प्रस्तुत किया है। अगर आदमी विनम्र हो और दूसरे के अपराधों को क्षमा करे तो उसे कहीं से खतरा नहीं रहता। जैसा कि हम देख रहे हैं कि आजकल अस्त्र शस्त्र रखने का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। इसका कारण यह है कि लोगों का विश्वास अपने ऊपर से उठ गया है। अपने छोटे छोटे विवादों के बड़े हमले में परिवर्तित होने का भय उनको रहता है इसलिये ही लोग हथियार रखते हैं। उनको यह भी विश्वास है कि वह किसी को क्षमा नहीं करते इसलिये उनके क्रोध या हिंसा का शिकार कभी भी उन पर हमला कर सकता है। जिन लोगों में क्षमा का भाव है वह किसी प्रकार की आशंका से रहित होकर जीवन व्यतीत करते हैं। क्षमा का भाव होता है तो क्रोध का भाव स्वतः ही दूर रहता है। ऐसे में अन्य कोई शत्रु नहीं होता जिससे आशंकित होकर हम अपनी सुरक्षा करें।

उसी तरह अपनी संगत का भी ध्यान रखना चाहिये। जिनकी सामाजिक छबि खराब है उनसे दूर रहें इसी में अपना हित समझें। वैसे आजकल तो हो यह रहा है कि लोग दादा और गुंडा टाईप के लोगों से मित्रता करने में अपनी इज्जत समझते हैं मगर सच तो यह है कि ऐसे लोग उसी व्यक्ति को तकलीफ देते हैं जो उनको जानता है। इसके अलावा अपने दोस्तों से रुतवे के बदल अच्छी खासी कीमत भी वसूल करते हैं भले ही उनका कोई काम नहीं करते हों पर भविष्य में सहयोग का विश्वास दिलाते हैं। देखा यह गया है कि दुष्ट लोगों की संगत हमेशा ही दुःखदायी होती है।
अपनी देह को स्वस्थ रखने के लिये प्रतिदिन योग साधना के साथ अगर मंत्र जाप करें तो फिर आप औषधियों के नाम जानने का भी प्रयास न करें। राह चलते हुए फाईव स्टार टाईप के अस्पताल देखकर भी आपको यह ख्याल नहीं आयेगा कि कभी आपको वहां आना है।
जहां तक हो सके अच्छी बातों का अध्ययन और श्रवण करें ताकि समय पड़ने पर आप अपनी रक्षा कर सकें। याद रखिये जीवन में रक्षा के लिये ज्ञान सेनापति का काम करता है। अगर आपके पास धन अल्प मात्रा में है और ज्ञान अधिक मात्रा में तो निश्चिंत रहिये। ज्ञान की शक्ति के सहारे दूसरों की चालाकी, धूर्तता तथा लालच देकर फंसाने की योजनाओं से बचा जा सकता है। अगर ज्ञान न हो तो दूसरे लोग हम पर शासन करने लगते हैं।
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Thursday, December 24, 2009

मनु दर्शन-अध्यात्मिक ज्ञान से ही सुख पूर्वक विचरण संभव (adhyatmik gyan aur sukh-hidnu dharm sandesh)

अध्यात्मरतिरासीनो निरपेक्षो निरामिषः
आत्मनैव सहायेन सुखार्थी विचरेदिह

हिंदी में भावार्थ-अध्यात्म विषयों में अपनी रुचि रखते हुए सभी वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रति निरपेक्ष भाव रखना चाहिये। इसके साथ ही शाकाहारी तथा इद्रियों से संबंधित विषयो में निर्लिप्त भाव रखते हुए अपने अध्यात्म उत्थान के लिये अपने प्रयास करते रहना चाहिये। इससे मनुष्य सुखपूर्वक इस दुनियां में विचरण कर सकता है।
अति वादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन
न चेमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित्
न क्रुद्धयंन्तं प्रतिक्रुध्येदाक्रृष्टः कुशलं वदेत्
सप्तद्वाराऽवकीर्णां च न वाचमनृतां वदेत्

हिंदी में भावार्थ-दूसरे के कड़वे वचनों को सहना करना चाहिये। अभद्र शब्द (गाली)का उत्तर कभी वैसा ही नहीं देना चाहिये। न ही किसी का अपमान करना चाहिये। यह शरीर तो नश्वर है इसके लिये किसी से शत्रुता करना ठीक नहीं माना जा सकता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-खानपान और रहन सहन में आई आधुनिकता ने लोगों की सहनशीलता को कम कर दिया है। लोग जरा जरा सी बात पर उत्तेजित होकर झगड़ा करने पर आमादा है। स्वयं के पास कितना भी बड़ा पद,धन और वैभव हो पर दूसरे का सुख सहन नहीं कर पाते। गाली का जवाब गाली से देना के लिये सभी तत्पर हैं। अध्यात्म विषय के बारे में लोगों का कहना है कि उसमें तो वृद्धावस्था में ही जाकर दिलचस्पी रखना चाहिये। इस अज्ञानता का परिणामस्वरूप आदमी वृद्धावस्था में अधिक दुखी होता हैं। अगर बचपन से ही अध्यात्म में रुचि रखी जाये तो फिर बुढ़ापे में आदमी को अकेलापन नहीं सताता। जिसकी रुचि अध्यात्म में नहीं रही वह आदमी वृद्धावस्था में चिढ़चिढ़ा हो जाता है। ऐसे अनेक वृद्ध लोग हैं जो अपना जीवन शांतिपूर्वक व्यतीत करते हैं क्योंकि वह बचपन से मंदिर आदि में जाकर अपने मन की शुद्धि कर लेते हैं और अध्यात्म विषयों पर चिंतन और मनन भी करते हैं।
बदले की भावना इंसान को पशु बना देती हैं और वह तमाम तरह के ऐसे अपराध करने लगता है जिससे समाज में उसे बदनामी मिलती है। कई लोग ऐसे हैं जो गाली के जवाब में गाली देकर अपने लिये शत्रुता बढ़ा लेते है। कुछ लोग ऐसे हैं जिनको अभद्र शब्द बोलने और लिखने में मजा आता है जबकि यह अंततः अपने लिये ही दुःखदायी होता है। अपने मस्तिष्क में अच्छी बात सोचने से रक्त में भी वैसे ही कीटाणु फैलते हैं और खराब सोचने से खराब। यह संसार वैसा ही जैसा हमारा संकल्प होता है। अतः अपनी वाणी और विचारों में शुद्धता रखना चाहिये। दूसरे के व्यवहार या शब्दों से प्रभावित होकर उनमें अशुद्धता लाना अपने आपको ही कष्ट देना है। आधुनिक शिक्षा के कारण आजकल अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करना भले ही एक फालतु विषय समझा जाता है पर सच यह है कि उसके बिना मनुष्य केवल गुलाम बनकर रह जाता है। नौकरी चाहे कोई भी हो उसे गुलामी ही माना जाता है। धन की उपलब्धि ही दिल को चैन नहीं दिला सकती उसके लिये जीवन रहस्य को समझना जरूरी है ताकि अल्पज्ञानियों को आपको गुलाम न बना सकें।
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Saturday, December 19, 2009

संत कबीरदास के दोहे-निच्छल हृदय बिना भक्ति नहीं होती (saf dil ke bina bhakti nahin hoti-kabir vani)

भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव
भक्ति भाव इक रूप है, दोअ एक सुभाव

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक हृदय में निच्छल और निर्मल भाव नहीं है तब तक इस जगत में भक्ति का भाव नहीं बन सकता है। भक्ति के भाव तो रूप एक है पर उसके दो प्रकार के स्वभाव हैं-एक सकाम भाव दूसरा निष्काम भाव।
भक्ति दुवारा सांकरा, राई दशवें भाव
मन मैंगल होम रहा, कैसे आये जाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि भक्ति का द्वार कि राई के दाने के दसवें भाग के बराबर संकरा होता है उसमें पागली हाथी की तरह मतवाला विशाल मन में कैसे प्रवेश कर सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भक्ति और ज्ञान का स्वरूप अत्यंत सूक्ष्म है। संत और साधु लोग प्रवचन देते हुए तमाम तरह की कहानियां और संस्मरण जोड़ देते हैं तो ऐसा लगता है कि ज्ञान का कोई बृहद स्वरूप है। अक्सर ऐसे संत लोग कहते हैं कि श्रीगीता का ज्ञान गूढ और रहस्यपूर्ण है पर यह उनका भी भ्रम है। श्रीगीता का ज्ञान सरल और सहज है पर प्रश्न यह है कि उसका अध्ययन और श्रवण करने वाला किस मार्ग पर स्थित है। जो भक्त सकाम भाव में स्थित हैं उसके लिये वह राई के बराबर है और वह उसमें प्रवेश नहीं कर सकता क्योंकि उसका मन तो अपने अंदर इच्छायें और आकांक्षाओं को पालकर मदमस्त हाथी हो जाता है। उसको निष्काम भक्ति का यह द्वार दिखाई ही नहीं देगा। जिसने निष्काम भाव अपनाते हुए श्रीगीता का अध्ययन और श्रवण किया वह सहजता से समझ सकता है।इसलिये श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन अवश्य करना चाहिए।
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Friday, December 18, 2009

रहीम संदेश-जिससे निर्वाह न हो उससे दूरी भली (nirvah-rahim ke dohe)

कहु रहीम कैसे बनै, अनहोनी हो जाय
मिला रहै और ना मिलै, तासों कहा बसाय

कविवर रहीम कहते हैं कि जब कोई हम कार्य करना चाहें और उसके विपरीत अनहोनी हो जाये तो क्या किया जा सकता है? उसी तरह जो व्यक्ति ऐसा हो जो मिलकर भी दूरी बनाये रखे उसे निर्वाह नहीं हो सकता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिंदगी में अनेक लोग मिलते हैं। कुछ तो पास ही रहते हैं पर वह एक मानसिक दूरी बनाये रखते हैं ऐसे भला उनसे आत्मीयता का भाव कैसे स्थापित हो सकता है। अपने शैक्षणिक, व्यवसायिक और आवासीय स्थानों में ऐसे अनेक लोग प्रतिदिन मिलते हैं जिनके प्रति हमारा झुकाव इसलिये हो जाता है कि क्योंकि उनसे नियमित संपर्क रहता है। ऐसे में यह वहम भी हो जाता है कि वह हमारे अपने हैं और समय पर काम आयेंगे-पर ऐसा होता नहीं है। दरअसल अपने स्वार्थ की वजह से हम और वह पास होते हैं पर हमारे अपने स्वार्थ ही होते हैं जो जोड़े रहते हैं इससे मानसिक एकात्मकता का पता नहीं लगता। अगर हम उनके साथ अपने संबंधों का विश्लेषण करें तो एक दूरी अनुभव होगी और तब लगेगा कि उनके अपने होने का वहम है।
इसके अलावा अपने नियमित संपर्क में आने वाले व्यक्ति को केवल इसलिये ही अच्छा नहीं मान लेना चाहिये कि हम उसे जानते हैं और वह मीठा बोलता है। उसके घरेलू इतिहास, संस्कार और आस्था का भी पता करना चाहिये क्योंकि अगर मानसिक धरातल पर कोई व्यक्ति हम जैसा और हम उस जैसे नहीं है तो आत्मीयता का भाव स्थापित नहीं किया जा सकता। अगर जबरन यह प्रयास किया जाता है तो बाद में पछतावा होता है। जब तक संस्कार, विचार, लक्ष्य और कार्यशैली में साम्यता नहीं है तब तक संबंध स्थाई नहीं हो पाते। तत्कालिक आकर्षण में स्थापित संबंध बाद में दुःखदायी साबित होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जिससे निर्वाह नहीं हो सकता उससे दूर हो जाना ही अच्छा है।
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Sunday, December 13, 2009

हिन्दू अध्यात्मिक संदेश-अहित करने वाले मित्र का त्याग करें (ahit karne vala mitra-hindu dharm sandesh)

अमित्राण्यपि कुर्वीत मित्रण्युपचयावहान्।
अहिते वत्र्त मानानि मित्राण्यपि परित्यजेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
यदि अपना हित करने वाला शत्रु भी हो तो भी उसे मित्र बनाना चाहिये। यदि मित्र अहित करने वाला हो तो उसका त्याग करना ही अच्छा है।
भोगप्राप्तं विकुर्वाणं मित्रमप्युपपीडयेत्।
अत्यंतं विकृतं हन्यात्स पापीया् रिपुर्मतः।।
हिंदी में भावार्थ-
जो मित्र भोगों में लिप्त होते हुए भी उपकार करने वाला है तो भी वह पीड़ा देता है। अगर वह अपकार करने वाला है तो उसे अपना शत्रु ही समझते हुए उसे दंडित करें या उसका साथ ही छोड़ दें।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मित्र बनाने में हमेशा सतर्कता बरतना चाहिए। आधुनिक समय में युवक युवतियों को अपना मित्र बनाते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उनका मित्र हमेशा हित की सोचने वाला हो। युवक युवतियों छोटी छोटी बातों पर नाराज और प्रसन्न होते हैं, पर उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि इससे जीवन में अधिक आनंद नहीं आता। आजकल विलासिता के सामान बहुत सस्ते आते हैं अतः वह तोहफे में देने वालों को अपना सच्चा मित्र नहीं मान लेना चाहिए। साथ ही यह भी देखना चाहिए कि मित्र का आचरण, चरित्र और विचार कैसे हैं? कुछ मित्र सामने बहुत मीठा बोलते हैं पर पीठ पीछे दूसरों के सामने निंदा करते हैं या मजाक बनाते हैं। खासतौर से युवतियों को अपने युवक मित्रों से अधिक सतर्क रहना चाहिये। कहने को तो कहा जाता है कि आजकल आधुनिक समय है पर कुछ यथार्थ विचार बदल नहीं सकते। कहा जाता है कि युवक की इज्जत को पीतल के लोटे की तरह होती है जो खराब होने पर फिर मिट्टी से भी साफ हो जाता है पर युवती की इज्जत तो मिट्टी के बर्तन की तरह है एक बार बिगड़ी तो फिर उसकी भरपाई नहीं होती। ऐसे मित्र जिनका आचरण, चरित्र और विचार संदिग्ध हों उनसे युवक युवतियों को बचना चाहिये। यह बात याद रखने योग्य है कि संगत का मनुष्य के न केवल आचरण पर प्रभाव पड़ता है बल्कि सामाजिक छवि भी उससे प्रभावित होती है। अतः अपनी संगत अच्छी बनाने का प्रयास करना चाहिए।
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Friday, December 11, 2009

संत कबीरदास के दोहे-संसार के बाजार में स्वाद ही ठग (hindu dharm sandesh-bazar aur svad)

कूकट कूटै कन बिना, बिन करनी का ज्ञान।
ज्यौं बन्दूक गोली बिना, भड़क न मरि आन।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि बिना अनुभव के ज्ञान देना, चावल की भूसी कूटने के समान है।
सुर नर मुनि सबको ठगै, मनहिं लिया औतार।
सुन जो कोई बाते बचै, तीन लोग ते न्यार।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि यह चंचल मन सामान्य मनुष्य हों या असाधारण सभी को ठगता है।
जग हटबारा स्वाद ठग, माया वेश्या लाय।
राम नाम गाढ़ा गहो, जनि जहु जन्म गंवा।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार के बाजार में स्वाद ही ठग और माया ही वैश्या की तरह व्यवहार करती है। इसलिये राम का नाम का दिल की गहराई से स्मरण करें वरना पूरा जीवन व्यर्थ चला जायेगा।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-टीवी चैनलों और पत्र पत्रिकाओं में किसी भी कंपनी का उत्पाद देखिये उसके समर्थन में प्रस्तुत विज्ञापन की भाषा बहुत आकर्षक और मन लुभावनी होती है। खाने पीने की वस्तुओं का विज्ञापन तो इस तरह होता है कि पढ़ते ही मूंह में पानी आ जाता है। यह सब आदमी के जेब से पैसे या माया निकालने की कला है जिसका नाम बाजार है। आदमी के जेब अगर पैसा या माया अधिक है तो उसकी बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाती है और वह उन चीजों को खरीदने चला जाता है।
अगर हम आज की उपभोक्ता संस्कृति का सूक्ष्म विश्लेषण करें तो अनुभव होगा कि कुछ लोगों के पास पैसा वाकई बहुत अधिक आ गया है वरना इतना सारा विज्ञापन जगत चल ही नहीं सकता। इसके अलावा खाने पीने की वस्तुओं में ऐसे पदार्थों का उपयोग बढ़ रहा है जो जीभ के लिये स्वादिष्ट हैं पर पेट के लिये पाचन योग्य नहीं। परिणाम स्वरूप नयी नयी बीमारियों की उत्पत्ति हो रही है और फिर उनके लिये दवा निर्माण के लिये नये कारखाने खुलते हैं फिर उनका विज्ञापन हमारे समक्ष प्रस्तुत होता है। यह बाजार और माया का चक्र में जिसके अंदर विज्ञापन आदमी को अपनी सवारी कर घुमाता है।
यह सब हमारे देश में अधिक हो रहा है क्योंकि यहां अब नये नये धनवान अधिक हो गये हैं और इसलिये जिन चीजों को पुराने अमीर देशों के लोगों ने त्याग कर दिया है उनको यहां ग्रहण किया जा रहा है। हमारे देश के प्राचीन अध्यात्मिक ज्ञान को एक तरफ उठाकर रख दिया गया है और अगर उसे कुछ लोग प्रस्तुत भी कर रहे हैं तो वह स्वयं के लिये धनार्जन और विज्ञापन के लिये। राम की चर्चा करते हैं पर माया का संग पाने की इच्छा के साथ। ऐसे लोग अध्यात्मिक ज्ञान की पुस्तकों के संदेश तो रट लेते हैं पर धारण करना उनके वश में भी नहीं होता।
सच बात तो यह है कि अगर हृदय से भगवान का स्मरण किया जाये तो मन में एक नयापन आता है जबकि उपभोक्ता वस्तुओं के प्रति आकर्षण अंततः मनोविकारों का कारण बनता है। भक्ति से जहां हमारे अंदर सकारात्मक भाव का निर्माण होता है वहीं मनोविकारों से मुक्ति मिलती है, वहीं जीवन स्वयमेव तनाव से मुक्त हो जाता है ।
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Friday, December 04, 2009

संत कबीरदास के दोहे-हिन्दू कहें राम प्यारा, तुर्क कहें रहीम (ram rahim-kabir ke dohe in hindi)

कहै हिन्दु मोहि राम पिआरा, तुरक कहे रहिमाना।
आपस में दोऊ लरि-लरि मुए, मरम न कोऊ जाना।।
संत शिरोमणि कबीरदास अपने समय के धार्मिक विवादों की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं कि एक तरफ भारतीय हैं जो कहते हैं कि हमें राम प्यारा है दूसरी तरफ तुर्क हैं जो कहते हैं कि हम तो रहीम के बंदे हैं। दोनों आपस में लड़कर एक दूसरे को तबाह कर देते हैं पर धर्म का मर्म नहीं जानते।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जैसा कि इतिहास गवाह है कि भारत पर विदेशी हमले हुए। शुरुआती दौर में हमलावर केवल धन के लिये आये पर बाद में उनको लगा कि यह देश सोने का अंडा देने वाली मुर्गी है तो यहीं अपना स्थाई निवास बना लिया। उनका उद्देश्य यहां शासन करना था पर इसमें भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान शक्ति उनके लिये बाधा थी। वह आसानी शासन करते पर भारत में ऐसे लोगों की तादाद अधिक थी जो किसी के राजा होने की परवाह नहीं करते थे। उनके लिये भगवान के बाद राजा का नंबर आता था जबकि विदेशी शासक चाहते थे कि भगवान से पहले उनकी प्रतिष्ठा बने। इसलिये उन्होंने अपने साथ कथित रूप से धार्मिक संत भी रखे। इसके अलावा शासन के कार्यक्षेत्र का विस्तार किया जिससे कि यहां के लोगों के जनजीवन में राज्य का दखल अधिक हो। कुछ लोग कहते हैं कि विदेशी लोगों ने इस देश को सभ्य बनाया है-यह दावा हास्यास्पद है। दरअसल विदेशी लोगों ने राज्य का समाज के कार्यक्षेत्र में दखल बढ़ाया ही है। यही कारण है कि अनेक ऐसे क्षेत्र जहां राज्य का काम नहीं है वहां भी उसका विस्तार इस तरह हो गया जिससे समाज कमजोर हो गये हैं। फिर फूट डालो राज्य करो की तर्ज पर विदेशी शासक यहां जमे रहे और उन्हें अपने धर्म से इस देश की अध्यात्मिक विचाराधारा का कमतर साबित करने का प्रयास किया। इसलिये झगड़े बढ़े और आज तक उनको देखा जा सकता है। तुर्क यानि मध्य एशिया के देशों के लोग अपने रहीम (कविवर रहीम नहीं) को मानते जबकि भारत में तो भगवान राम की महिमा गायी जाती रही है। इस तरह झगड़े शुरु हुए जो अभी तक जारी हैं जिससे देश का आर्थिक, सामाजिक, तथा वैचारिक विकास अवरुद्ध हो गया है।
मुख्य बात है धर्म का मर्म। भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथ किसी धर्म की संज्ञावाचक पहचान नहीं देते बल्कि कर्म की शुद्धता ही धर्म की पहचान मानी जाती है। इसके विपरीत बाहर से आयी विचाराधारायें न केवल नाम से पहचाने जाते हैं बल्कि उनके इष्ट की पूजा के तरीके और स्वयं के पहनावे को लेकर भी अनेक प्रतिबंध हैं। भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान शुद्ध निष्काम कर्म और हृदय से की गयी भक्ति को ही धर्म का रूप मानता है जबकि बाहर से आयातित विचार तो आदमी के जन्म और मरण में भी रीतियां सिखाते हैं। भारतीय अध्यात्मिक गं्रथों में धर्म का अर्थ भले ही छोटा है पर उसका दायरा व्यापक है। सबसे बड़ी बात यह है कि अहिंसा धर्म की प्रधानता है जबकि विदेशी हमलावर यहां लूटने आये तो उनके लिये हिंसा करने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। इस तरह के हमलों ने ही यहां के निवासियों को शायद इतना विचलित कर दिया कि उन्हें अपने नाम और पहचार के साथ हिन्दू धर्म जोड़कर संगठित होने का विचार किया। इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि अंततः यह एक राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति का एक अच्छा प्रयास रहा होगा जिसकी बाध्यता रही होगी।

बहरहाल जो बीत गया उसे भुलाना चाहिये था पर आज भी कुछ लोग ऐसे हैं जो इस प्रकार के विवाद का जारी रखना चाहते हैं। जब हमारे लिये धर्म का सूक्ष्म अर्थ होते हुए भी उसका दायरा बड़ा है तो हमें किसी भी विचाराधारा या धर्म पर आक्षेप न करते हुए अपने भारतीय होने की अनुभूति के साथ जीना चाहिये। हम अगर इतिहास गर्व या कुंठा के साथ जीना चाहेंगे तो सिवाय संताप के कुछ नहीं मिलना है। इस देश में विभिन्न देशों से लोग आये पर अब यहीं के होेकर रह गये। अब हमें नये सिरे से सोचना चाहिए पर समस्या यह है कि समाज में संघर्ष पैदा कर कुछ लोग अपने हित साध रहे हैं। वह धर्म पर बहसें और विवाद खड़े करते हैं पर जानते ही नहीं कि उसका आशय क्या है? सच तो यह है कि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान ही सत्य की अनुभूति कराता है जहां तक धर्म का सवाल है तो उसके नाम पर ढेर सारे भ्रम हैं और इतिहासकार क्या कहते हैं यह अलग बात है पर हमारा विचार तो यह है कि कोई धार्मिक विचाराधारा केवल राजनीतिक संबल पाने के लिये प्रतिपादित की गयी हैं और उनका उद्देश्य प्रेम या अमन लाना नहीं है जैसा कि कुछ शायर यह कवि कहते हैं। बेहतर यही है कि हम अपना मार्ग भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों में ही ढूंढें। उससे भी बड़ी बात यह है कि हम दूसरों को हानि पहुंचाने वाले विचारों से परे होकर सभी के सुख पर विचार करें। यह प्रेम कोई सिखाने या समझाने का विषय नहीं है। मनुष्य में यह गुण स्वाभाविक रूप से रहता है। कुछ लोग दुनियां को प्रेंम सिखाने की बात करते हैं पर यह नहीं जानते कि उसका मर्म क्या है और उसका निबाह कैसे होता है।
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Saturday, November 28, 2009

यो नोद्धतं कुरुते जातु वेषं न पोरुषेणापि विकत्धरोऽन्यान्।
न मूर्चि्छत्रः कटुकान्याह किंचित् प्रियं सदा तं कुरुते जनति।।
हिंन्दी में भावार्थ-
जो कभी उद्दण्ड जैसा वेष नहीं बनाता, दूसरों के सामने अपने पराक्रम की डींग नहीं हांकता, गुस्सा होने पर कट् वाक्य नहीं बोलता वह सभी का प्यारा हो जाता है।

न स्वे सुखे वै कुरुते नान्यस्य दुःखे भवित प्ररहृष्टः।
दत्तवा च पश्चात्कुरुतेऽनुतायं स कथ्यते सत्पुरुषार्यशीलः।।
हिंदी में भावार्थ-
महात्मा विदुर के कथानुसार जो अपने सुख में दूसरे के दुःख में प्रसन्न नहीं होता और दान देकर उसका स्मरण नहीं करता वही सदाचारी है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर हम देश के वातावरण को देखें तो अनुभव होगा कि आजकल भले काम कम किये जाते हैं पर उनका प्रचार अधिक होता है। देशभर की सामाजिक तथा आर्थिक हालत देखें तो ऐसे विरोधाभास सामने आते हैं जिनसे इस बात की अनुभूति होती है कि लोगों की चिंतन क्षमता अपह्त कर ली गयी है। टीवी, अखबार और रेडियो पर विज्ञापन देखने और सुनने के आदी हो चुके लोग अपना विज्ञापन स्वयं करने लगते हैं भले ही अपने परिवार के बाहर किसी का भला नहीं करते हों।
एक मजे की बात है कि इस देश में इतने महापुरुष और सामाजिक कार्यकर्ता हैं जिनके नाम पर जन्म दिन मनते हैं या उनकी तस्वीरों को लोग अपने घर में लगाकर उनकी पूजा करते हैं फिर भी इस देश की इतनी दुर्दशा क्यों है, इस पर कोई विचार नहीं करता। फिल्मों में कल्पित पात्रों की भूमिका निभाने वाले पात्रों को लोगों ने अपना भगवान मान लिया है। लोग अपनी हालतों से इतना डरते हैं कि वह प्रचार माध्यमों से बने हुए भगवानों की चर्चा अधिक करते हैं।
उसके बाद जो समय बचता है उसमें वह आत्म विज्ञापन में व्यतीत करते हैं। हर आदमी यह बताता है कि ‘उसने अमुक भला काम किया’। अब उसका प्रमाण कौन ढूंढने जाता है।
इससे दूसरे शब्दों में कहें तो लोग दूसरे से सदाचार की अपेक्षा करते हैं पर स्वयं उस राह पर चलना नहीं चाहते। समाज में प्रतिष्ठा अर्जित करने के लिये अपने व्यवहार को सयंमित रखना पड़ता है। उद्दण्डता के व्यवहार से दूसरे आदमी में भय पैदा किया जा सकता है प्रेम नहीं।
कभी कभी तो ऐसा लगता है कि लोग अपने दुःख से कम दूसरे के सुख से अधिक दुःखी हैं। यह विकृत मानसिकता है और जितना हो सके इससे बचा जाये। अपने मुख से अपनी तारीफ करना व्यर्थ है। इसकी बनिस्पत अगर दूसरे का वास्तव में भला किया जाये तभी यह अपेक्षा की जा सकती है कि सम्मान प्राप्त हो। साथ ही यह भी दूसरे का भला कर उसे गाने का लाभ नहीं है इससे एक तो आत्मप्रवंचना हो जाती है दूसरा पुण्य भी नहीं मिलता। जो चुपचाप ही समाज सेवा और भक्ति करता है वही सच्चा संत है।
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Saturday, November 21, 2009

चाणक्य नीति-शील स्वभाव हो तो कुरूपता कौन देखता है (shital savbhaav- chankya niti in hindi)

दरिद्रता श्रीरतया विराजते कुवस्त्रता शुभ्रतया विराजते।
कदन्नता चोष्णतया विराजते कुरूपता शीतया विराजते।।
हिंदी में भावार्थ-
अगर मनुष्य में धीरज हो तो गरीबी की पीड़ा नहीं होती। घटिया वस्त्र धोया जाये तो वह भी पहनने योग्य हो जाता है। बुरा अन्न भी गरम होने पर स्वादिष्ट लगता है। शील स्वभाव हो तो कुरूप व्यक्ति भी सुंदर लगता है।

अधमा धनमिच्छन्ति मानं च मध्यमाः।
उत्तमा मानमिच्छन्ति मानो हि महतां धनम्।।
हिंदी में भावार्थ-
अधम प्रकृत्ति का मनुष्य केवल धन की कामना करता है जबकि मध्यम प्रकृत्ति के धन के साथ मान की तथा उत्तम पुरुष केवल मान की कामना करते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस विश्व में धन की बहुत महिमा दिखती है पर उसकी भी एक सीमा है। जिन लोगों के अपने चरित्र और व्यवहार में कमी है और उनको इसका आभास स्वयं ही होता है वही धन के पीछे भागते हैं क्योंकि उनको पता होता है कि वह स्वयं किसी के सहायक नहीं है इसलिये विपत्ति होने पर उनका भी कोई भी अन्य व्यक्ति धन के बिना सहायक नहीं होगा। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने ऊपर यकीन तो करते हैं पर फिर भी धन को शक्ति का एक बहुत बड़ा साधन मानते हैं। उत्तम और शक्तिशाली प्रकृत्ति के लोग जिन्हें अपने चरित्र और व्यवहार में विश्वास होता है वह कभी धन की परवाह नहीं करते।
धन होना न होना परिस्थितियों पर निर्भर होता है। यह लक्ष्मी तो चंचला है। जिनको तत्व ज्ञान है वह इसकी माया को जानते हैं। आज दूसरी जगह है तो कल हमारे पास भी आयेगी-यह सोचकर जो व्यक्ति धीरज धारण करते हैं उनके लिये धनाभाव कभी संकट का विषय नहीं रहता। जिस तरह पुराना और घटिया वस्त्र धोने के बाद भी स्वच्छ लगता है वैसे ही जिनका आचरण और व्यवहार शुद्ध है वह निर्धन होने पर भी सम्मान पाते हैं। पेट में भूख होने पर गरम खाना हमेशा ही स्वादिष्ट लगता है भले ही वह मनपसंद न हो। इसलिये मन और विचार की शीतलता होना आवश्यक है तभी समाज में सम्मान प्राप्त हो सकता है क्योंकि भले ही समाज अंधा होकर भौतिक उपलब्धियों की तरफ भाग रहा है पर अंततः उसे अपने लिये बुद्धिमानों, विद्वानों और चारित्रिक रूप से दृढ़ व्यक्तियों की सहायता आवश्यक लगती है। यह विचार करते हुए जो लोग धनाभाव होने के बावजूद अपने चरित्र, विचार और व्यवहार में कलुषिता नहीं आने देते वही उत्तम पुरुष हैं। कहने का आशय यह है कि अगर अपने अदंर गुण पैदा करें तो फिर चेहरे की सुंदरता का कोई अर्थ नहीं हर जाता। सुंदरता से अधिक देर तक सम्मान नहीं मिलता जबकि गुणों की वजह से हमेशा लोग प्यार करते हैं।
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Tuesday, November 17, 2009

विदुर नीति-बुद्धिमान को सहारा देते हैं संत (buddhiman aur sant-hindu adhyatmik sandesh)

गतिरात्मवतां सन्तः सन्त एवं सतां गतिः।
असतां च गतिः सन्तो न त्वसन्तः सतां गतिः।।
हिंदी में भावार्थ-
मतिमान और गतिमान पुरुषों को सहारा देने वाले संत हैं। संतों को भी सहारा देने वाले संत हैं। असत्य पुरुषों को भी संत सहारा देते हैं पर दुष्ट लोग किसी को सहारा नहीं देते।
विद्यामदो धनमदस्तृतीयोऽभिजनो मदः।
मदा एतेऽवलिसानामेत एवं सतां दमः।।
हिंदी में भावार्थ-
विद्या, धन, और अभिजातीय वर्ग होने का मद अहंकारी के लिए दोष तथा सज्जन पुरुषों के लिये शक्ति होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जैसे संसार भौतिकवादी होता जा रहा है वैसे मनुष्य की बुद्धि कुंठित होती जा रही है। शिक्षा और धन की अधिक उपलब्धता ने अभिजातीय वर्ग का दिमाग सातवें आसमान पर पहुंचा दिया है। लोग इस बात से संतुष्ट नहीं है कि उनके संपन्नता और प्रतिष्ठा है बल्कि वह उसका प्रमाणीकरण चाहते हैं। अपनी योग्यता से अधिक धन प्राप्त करने वाले लोगों का अहंकार तो देखते ही बनता है। समय ने ऐसी करवट ली है कि परिश्रम से काम करने वालों का सम्मान कम होता गया है और झूठ, अपराधी तथा ठगी से पैसा कमाने वालों को-उनके दोष जानते हुए भी-समाज के लोग इज्जतदार मानते हैं। ऐसे लोग किसी का भला करने से तो रहे। सच तो यह है कि अगर आप शिक्षित, धनी और अभिजात वर्ग के हैं तो तभी सज्जन माने जा सकते हैं जब अपने गुण से किसी अन्य की सहायता करें। शक्ति और गुण होने पर केवल उसका दिखावा करें तो अहंकारी कहलायेंगे।

भले आदमी का काम है सभी की अपने आसपास गरीब और बेसहारा की सहायता करे न कि मूंह फेरकर अपने अभिमान में चलता जाये। किसी की भी सहायता करने वाला व्यक्ति ही सज्जन कहलाता है और जो समर्थ होते हुए भी ऐसा नहीं करता उसे अहंकारी और दुष्ट कहा जाता है। जब हम यह कहते हैं कि मनुष्य को समाज की साथ चलना चाहिए तब यह भी जरूरी है कि समर्थ और ज्ञानी लोग निरीह आदमी के सहायता करें। यही मनुष्यता का प्रमाण है।
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Saturday, November 14, 2009

विदुर नीति-पाप से परे होने पर ही आती है बुद्धि (paap aur buddhi-hindu adhyatmik sandesh(

यस्यात्मा विरतः पापाद कल्याणे च निवेशितः।
तेन स्र्वमिदं बुद्धम् प्रकृतिर्विकृतिश्चय वा।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर कहते हैं कि जिसकी बुद्धि पाप से परे होकर कल्याण के मार्ग पर आ जाये वह इस संसार में हर वस्तु कि प्रकृतियों और विकृतियों को अच्छी तरह से जान लेता है।

अर्थसिद्धि परामिच्छन् धर्ममेवादितश्चरेत्।
न हि धर्मदपैत्यर्थः स्वर्गलोकादिवामृतम्।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर कहते हैं कि जिस मनुष्य के हृदय में अर्थ प्राप्त करने की इच्छा है उसे धर्म का दृढ़तापूर्वक पालन करना चाहिए। जिस तरह स्वर्ग से अमृत दूर नहीं होता उसी प्रकार धर्म से अर्थ को अलग नहीं किया जा सकता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह कहना गलत है धर्म के मार्ग पर अर्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती। धर्म-ईमानदारी, सहजता, परमार्थ, और अपने कर्तव्य से प्रतिबद्धता-का परिणाम ही अर्थ की प्राप्ति ही है। यह अलग बात है कि जल्दी अमीर बनने या आवश्यकता से अधिक धनार्जन के के लिये लोग अपने जीवन में आक्रामक और बेईमानी की प्रवृत्ति अपना लेते हैं। इस संसार में ऐसे लोग भी है जो बेईमानी से धन कमाकर कथित रूप से प्रतिष्ठा अर्जित करते हैं। ऐसे लोगों के व्यक्तित्व का आकर्षण समाज के युवाओं को आकर्षित करता है पर उनको यह समझ लेना चाहिये कि बेईमान और भ्रष्ट लोगों को धन, प्रतिष्ठा और बाहुबल की शक्ति की वजह से सामने कोई कुछ नहीं कहता पर पीठ पीछे सभी लोग उनके प्रति घृणा का भाव दिखाने से नहीं चूकते। फिर भ्रष्ट और बेईमान लोग का धन जिस तरह बर्बाद होता है उसे भी देखना चाहिये।

नीति विशारद विदुर जी के अनुसार जिस व्यक्ति ने ज्ञान प्राप्त कर लिया वह इस संसार में व्यक्तियों, वस्तुओं और स्थितियों की प्रकृतियों और विकृतियों को अच्छी तरह समझ जाते हैं। इस ज्ञान से वह विकृतियों से परे रहने में सफल रहते हैं और प्रकृतियां उनका स्वतः ही मार्ग प्रशस्त करती हैं। अत: जितना हो सके योग साधना तथा अन्य उपायों द्वारा अपनी बुद्धि को शुद्ध रखने का प्रयास करना चाहिए।
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Friday, November 13, 2009

कबीर के दोहे-भक्ति के रूप बदलना अपराधपूर्ण (bhakti ke roop-kabir sandesh)

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि
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मुख से नाम रटा करैं, निस दिन साधुन संग
कहु धौं कौन कुफेर तें, नाहीं लागत रंग

साधुओं के साथ नियमित संगत करने और रात दिन भगवान का नाम जाप करते हुए भी उसका रंग इसलिये नहीं चढ़ता क्योंकि आदमी अपने अंदर के विकारों से मुक्त नहीं हो पाता।

सौं बरसां भक्ति करै, एक दिन पूजै आन
सौ अपराधी आतमा, पड़ै चैरासी खान


कई बरस तक भगवान के किसी स्वरूप की भक्ति करते हुए किसी दिन दुविधा में पड़कर उसके ही किसी अन्य स्वरूप में आराधना करना भी ठीक नहीं है। इससे पूर्व की भक्ति के पुण्य का नाश होता है और आत्मा अपराधी होकर चैरासी के चक्कर में पड़ जाती है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भगवान का नाम लेना और साधुओं के आश्रमों में जाकर हाजिरी देना कोई भक्ति का प्रमाण नहीं हैं। भीड़ में बैठकर भगवान का नाम लेकर शोर मचाने से भी कोई भक्ति नहीं हो जाती। लोग बरसों तक ऐसा करते हैं पर मन में फिर भी चैन नहीं पाते। मन में शांति तभी संभव है जब एकाग्र होकर हृदय भगवान के नाम का स्मरण किया जाये। ऐसा नहीं कि आंखें बंद कर मूंह से भगवान का नाम जाप कर रहे हैं और अंदर कुछ और ही विचार आ रहे हैं। कुछ लोग विशेष अवसर पर प्रसिद्ध मंदिरों और आश्रमों में जाकर मत्था टेक कर अपनी भक्ति को धन्य समझते हैं-ऐसा करना भगवान को नहीं बल्कि अपने आपको धोखा देना है। सबसे बड़ी बात यह है कि अगर अपने आचरण में पवित्रता नहीं है तो इसका मतलब यह है कि भक्ति एक धोखा है। जब तक आचार विचार और व्यवहार में पवित्रता नहीं रहेगी तब तक भगवान के नाम लेने का सकारात्मक प्रभाव नहीं हो सकता।

कुछ लोग अपने जीवन में बरसों तक भगवान के किसी एक ही स्वरूप की आराधना करते हैं। धीरे धीरे उनके अंदर भक्ति का रंग चढ़ने लगता है पर अचानक ही उनको कोई दूसरे स्वरूप या गुरु को पूजने के लिये प्रेरित करता है तो वह उसकी तरफ मुड़ जाते हैं। यह उनकी बरसों से की गयी भक्ति की कमाई को नष्ट कर देता है। जब सभी कहते हैं कि भगवान तो एक ही फिर उसके लिये स्वरूप में बदलाव करना केवल धोखा है यह अलग बात है कि उसकी प्रेरणा देने वाला भक्त को कोई दे रहा है या भक्त स्वयं ही उसकी लिये उत्तरदायी है। इतना तय है कि भगवान का रूप बदलकर उसका स्मरण करना अपने कष्ट का कारण बनता है।
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Thursday, November 12, 2009

रहीम सन्देश-गरीब पर कृपा करे वही है बड़ा आदमी (garib aur amir-rahin ke dohe)

जे गरीब पर हित करै, ते रहीम बड़लोग
कहाँ सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग


कविवर रहीम कहते हैं जो छोटी और गरीब लोगों का कल्याण करें वही बडे लोग कहलाते हैं। कहाँ सुदामा गरीब थे पर भगवान् कृष्ण ने उनका कल्याण किया।

आज के संदर्भ में व्याख्या- आपने देखा होगा कि आर्थिक, सामाजिक, कला, व्यापार और अन्य क्षेत्रों में जो भी प्रसिद्धि हासिल करता है वह छोटे और गरीब लोगों के कल्याण में जुटने की बात जरूर करता है। कई बडे-बडे कार्यक्रमों का आयोजन भी गरीब, बीमार और बेबस लोगों के लिए धन जुटाने के लिए कथित रूप से किये जाते हैं-उनसे गरीबों का भला कितना होता है सब जानते हैं पर ऐसे लोग जानते हैं कि जब तक गरीब और बेबस की सेवा करते नहीं देखेंगे तब तक बडे और प्रतिष्ठित नहीं कहलायेंगे इसलिए वह कथित सेवा से एक तरह से प्रमाण पत्र जुटाते हैं। मगर असलियत सब जानते हैं इसलिए मन से उनका कोई सम्मान नहीं करता।

जिन लोगों को इस इहलोक में आकर अपना मनुष्य जीवन सार्थक करना हैं उन्हें निष्काम भाव से अपने से छोटे और गरीब लोगों की सेवा करना चाहिऐ इससे अपना कर्तव्य पूरा करने की खुशी भी होगी और समाज में सम्मान भी बढेगा। झूठे दिखावे से कुछ नहीं होने वाला है।वैसे भी बड़े तथा अमीर लोगों को अपने छोटे और गरीब पर दया के लिये काम करते रहना चाहिये क्योंकि इससे समाज में समरसता का भाव बना रहता है। जब तक समाज का धनी तबका गरीब पर दया नहीं करेगा तब तक आपसी वैमनस्य कभी ख़त्म नहीं हो सकता है।


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Wednesday, November 11, 2009

कौटिल्य दर्शन-बुद्धि से कार्य करने पर संपन्न हो जाते हैं

सम्यगारभ्यमानं हि कार्ये यद्यपि निष्फलम्।
न तत्तथा तापयपि यथा मोहसनीहितम्।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस कार्य को शास्त्रों के अनुसार बुद्धिपूर्वक संपन्न करने का प्रयास किया जाता है वह शीघ्र फल दिलाने वाले होते हैं।
प्रारब्धानि यथाशास्त्रं कार्याण्यासनबुद्धिभिः।
बनानीय मनोहारि प्रयच्छन्त्यचिसत्फलम्।।
हिंदी में भावार्थ-
भली प्रकार प्रारंभ किया कोई काम या अभियान निष्फल भी हो जाये तो उससे मन को कष्ट नहीं होता जैसा कि मोह या अभिमान के वशीभूत होकर करने से होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-अपने जीवन में कोई उद्देश्य निर्धारित करने से पहले उसका सही स्वरूप, अपने सामथ्र्य तथा उससे प्राप्त होने वाले फल पर विचार कर लेना चाहिए। कोई व्यक्तिगत कार्य बिना किसी उद्देश्य के केवल इसलिये नहीं प्रारंभ करना चाहिए कि उसके न करने से अपने परिवार, रिश्तेदार या मित्र समूह में प्रतिष्ठा खराब होगी। यह भ्रम हैं। अगर हमें कार नहीं चलाना आता तो केवल इसलिये दिखाने के लिये उसे चलाने का प्रयास नहीं करना चाहिए कि किसी व्यक्ति ने हमको चुनौती दी है या किसी के सामने अपनी कला का अनावश्यक प्रदर्शन करना है। अगर आप देश में दुर्घटनाओं का अवलोकन करें तो पायेंगे कि उसमें अधिकतर शिकार लोग अपने सामथ्र्य से अधिक कार्य करने के लिये प्रेरित होने के कारण कष्ट में आये।

तात्पर्य यह है कि अपना दिमागी संतुलन बनाये रखना चाहिए। किसी छोटे या बड़े काम को पूरी तरह से विचार कर प्रारंभ करना चाहिए। ऐसे काम में नाकाम होने पर भी दुःख नहीं होता। तब हमें इस बात का अफसोस नहीं होता कि हमने अपने कर्म में कोई कमी की। अगर बिना विचारे काम प्रारंभ किये जाते हैं तो उनमें शक्ति भी अधिक खर्च होती है और उनमें नाकामी मन को बहुत परेशान भी कर देती है। अत:अपना दिमागी संतुलन कभी नहीं खोना चाहिए।
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Tuesday, November 10, 2009

चाणक्य दर्शन-इंसान जैसा अन्न खाता है वैसे ही उसके विचार होते हैं jaisa anna vaisa man-chankya darshan)

दीपो भक्षयते थ्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते।
यदन्नं भक्षयतेन्नित्यं जायते तादृशी प्रजा।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि जिस तरह दीपक अंधेरे को खाकर काजल को उत्पन्न करता है वैसे ही इंसान जिस तरह का अन्न खाता है वैसे उसके विचार उत्पन्न होते हैं और उसके इर्दगिर्द लोग भी वैसे ही आते हैं। उनकी संतान भी वैसी ही होती है।
अधमा धनमिच्छन्ति धनं माने च मध्यमा।
उत्तमा मानमिच्छन्ति मानो हि महतां धनम्।।
हिंदी में भावार्थ-
अधम केवल धन की कामना करता है जबकि मध्यम पुरुष धन और मान दोनों की इच्छा करता है किन्तु उत्तम पुरुष केवल मान की कामना करते हुए अपन कर्म करता है। उसके लिये मान ही धन्न है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या -यह एक तरह का दर्पण है जिसमें हर इंसान अपने चरित्र का चेहरा देख सकता है। केवल धन की कामना पूरी करने के लिये कोई भी कार्य करने के लिये तैयार होना निम्नकोटि होने का प्रमाण है। कहने को तो सभी कहते हैं कि यह पेट के लिये कर रहे हैं पर जिनके पास वास्तव में धन और अन्न का अभाव है वह आजकल किसी अपराध में नहीं लिप्त दिखते जितने धन धान्य से संपन्न वर्ग के लोग बुरे कामों में व्यस्त हैं। धन का आकर्षण लोगों को लिये इतना है कि वह उसके लिये अपना धर्म बदलने और बेचने के लिये तैयार हो जाते हैं। उनके लिये मान और अपमान का अंतर नहीं रह जाता। आजकल शिक्षित और सभ्रांत वर्ग के लोगों ने यह मान्यता पाल ली है कि धन से सम्मान होता है और वह स्वयं भी निर्धनों से घृणा करते हैं। सच बात तो यह है कि अधम प्रकृति के लोग धन प्राप्त कर उच्चकोटि का दिखने का प्रयास करते हैं।
समाज में अनैतिक धनार्जन की बढ़ती प्रवृति ने नैतिक ढांचे को ध्वस्त कर दिया है और जिस वर्ग के लोगों पर समाज का मार्गदर्शन करने का दायित्व है वही कदाचार और ठगी में लगे हुए हैं। परिणामतः उनके इर्दगिर्द ऐसे ही लोगों का समूह एकत्रित हो जाता है और उनकी संतानें भी अब ऐसे काम करने लगी हैं जो पहले नहीं सुने जाते थे। नयी पीढ़ी की बौद्धिक और चिंतन क्षमता का हृास हो गया है और कहीं पुत्र तो कहीं पुत्री ही माता पिता पर दैहिक आक्रमण के लिये आरोपित हो जाती है। नित प्रतिदिन समाचार पत्रों और टीवी चैनलों पर ऐसे समाचार आते हैं जिसमें संतान ही उस माता पिता को तबाह कर देती है जिसकों उन्होंने जन्म दिया है।
ऐसे में ज्ञानी लोगों को यह ध्यान रखना चाहिये कि जो धन वह कमा रहे हैं उनका स्त्रोत पवित्र हो। अल्प धन होने से कोई समस्या नहीं है क्योंकि चरित्र से सम्मान सभी जगह होता है पर बेईमानी और ठगी से कमाया गया धन अंततः स्वयं के लिये कष्टदायी होता है।
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Saturday, November 07, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-कामना की अग्नि कुलीनता को जला देती है (hindu adhyatm-kulinta aur kamana)

तावन्महत्तवं पाण्डित्यं कुलीनत्वं विवेकता
यावज्जवलति नांगेषु हतः पञ्वेषु पावकः


हिंदी में भावार्थ-हृदय में विद्वता, कुलीनता और विवेक का प्रभाव तब तक ही रहता है जब तक ही जब तक कामना, वासना और इच्छा की अग्नि प्रज्जवलित नहीं हो उठती है। मन में लोभ और लालच का भाव आते ही सब सदगुण नष्ट हो जाते है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में मनुष्य के जीवन व्यतीत करने के दो ही मार्ग हैं-एक है ज्ञान मार्ग और दूसरा मोहमाया का मार्ग। मनुष्य तो अपने मन का दास है जैसे वह कहता है उसकी पांव वही चलते जाते है। यह उसका भ्रम है कि वह स्वयं चल रहा है। कुछ मनुष्य अपना जीवन ज्ञान के साथ व्यतीत करते हैं। वह सासंरिक कार्य करते हुए भी धन और मित्र के संग्रह में लोभ नहीं करते। जितना धन मिल गया उसी में संतुष्ट हो जाते हैं पर कुछ लोगों की लालच और लोभ का अंत ही नहीं है। वह धन और मित्र संग्रह से कभी संतुष्ट नहीं होते हैं और मोहमाया के मार्ग पर चलते जाते हैं।

हां, कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अधिक अवसर न मिल पाने की वजह से धन और मित्र संग्रह सीमित मात्रा में कर पाते हैं। वह तब खूब ज्ञान की बातें सुनते और करते हैं। उनकी बातों ये यह भ्रम भी हो जाता है कि वह संत या साधु प्रवृत्ति के हैं पर ऐसे लोगों को जब धन और मित्र बनाने के अधिक अवसर अचानक प्राप्त होते हैं तब वह सारा ज्ञान भूलकर उसका लाभ उठाते है।। तब उनका सारा ज्ञान एक तरह से बह जाता है। फिर वह पूरी तरह से धन संपदा और अपने निजी संबंधों के विस्तार पर अपना ध्यान केंद्रित कर देते हैं और उनके लिये पहले अर्जित ज्ञान निरर्थक हो जाता है। मन में जो आदमी अंदर इच्छाएं पैदा होती हैं उसका चिंतन करते हुए आदमी अपने गुणों पर दृष्टिपात नहीं करता और इसी वजह से उनका क्षय हो जाता है।
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Friday, November 06, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-मित्र वह जो अधर्म से बचाए (bhartrihari shatak-mitra dharm)

पापान्निवारयति योजयते हिताय
गुह्मं निगूहति गुणान्प्रकटीकरोति।
आपद्गतं च न जहाति ददाति काले
सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः


हिन्दी में भावार्थ- अपने मित्र को अधर्म और पाप से बचाना, उसके हित में संलग्न रहते हुए उसके गुप्त रहस्य किसी अन्य व्यक्ति के सामने प्रकट न करना, विपत्ति काल में भी उसके साथ रहना और आवश्यकता पड़े तो उसकी तन, मन और धन से सहायता करना यही मित्रता का लक्षण है।

संक्षिप्त व्याख्या-अक्सर हम लोग कहते है कि अमुक हमारा मित्र है और यह दावा करते हैं कि समय आने पर वह हमारे काम आयेगा। आजकल यह दावा करना मिथ्या है। देखा जाये तो लोग अपने मित्रों पर इसी विश्वास के कारण संकट में आते हैं। सभी परिचित लोगों को मित्र मानने की प्रवृत्ति संकट का कारण बनती है। कई बार हम लोग अपने गुप्त रहस्य किसी को बिना जांचे-परखे मित्र मानकर बता देते हैं बाद में पता लगता है कि उसका वह रहस्य हजम नहीं हुए और सभी को बताता फिर रहा है। वर्तमान में युवा वर्ग को अपने मित्र ही अधिक भ्रम और अपराध के रास्ते पर ले जाते हैं।

आजकल सच्चे और खरे मित्र मिलना कठिन है इसलिये सोच समझकर ही लोगों को अपना मित्र मानना चाहिए। वैसे कहना तो पड़ता ही है कि‘अमुक हमारा मित्र है’ पर वह उस मित्रता की कसौटी पर वह खरा उतरता है कि नहीं यह भी देख लेना चाहिए। भले जुबान से कहते रहे पर अपने मन में किसी को मित्र मान लेने की बात बिना परखे नहीं धारण करना चाहिए। देखा जाये तो आजकल सबसे अधिक धोखा मित्र बनकर ही दिया जाता है।
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Wednesday, November 04, 2009

योगासन और प्राणायाम के साथ ध्यान भी आवश्यक-आलेख (yogasan, pranayam aur dhyan-hindi lekh)

प्राचीन भारतीय योग साधना पद्धति की तरफ पूरे विश्व का रुझान बढ़ना कोई अस्वाभाविक घटना नहीं है। आज से दस वर्ष पूर्व तक अनेक लोग योगसाधना को अत्यंत गोपनीय या असाधारण बात समझते थे। ऐसी धारणा बनी हुई थी कि योग साधना सामान्य व्यक्ति के करने की चीज नहीं है। इसका कारण यह था कि शरीर के लिये विलासिता की वस्तुओं का उपभोग बहुत कम था और लोग शारीरिक श्रम के कारण बीमार कम पड़ते थे।
आज की नयी पीढ़ी के लोगों जहां भी वाहन का स्टैंड देखते हैं वहां पर पैट्रोल चालित वाहनों को अधिक संख्या में देखते हैं जबकि पुरानी पीढ़ी के लोगों के अनुभव इस बारे में अलग दिखाई देते हैं। पहले इन्हीं स्टैंडों पर साइकिलें खड़ी मिलती थीं। सरकारी कार्यालय, बैंक, सिनेमाघर तथा उद्यानों के बाहर साइकिलों की संख्या अधिक दिखती थी। फिर स्कूटरों की संख्या बढ़ी तो अब कारों के काफिले सभी जगह मिलते हैं। पहले जहां रिक्शाओं, बैलगाड़ियों तथा तांगों की वजह से जाम लगा देखकर मन में क्लेश होता था वहीं अब कारें यह काम करने लगी हैं-यह अलग बात है कि गरीब वाहन चालकों को लोग इसके लिये झिड़क देते थे पर अब किसी की हिम्मत नहीं है कार वाले से कुछ कह सके।

योगसाधना की शिक्षा बड़े लोगों का शौक माना जाता था। यह सही भी लगता है क्योंकि परंपरागत वाहनों तथा साइकिल चलाने वालों का दिन भर व्यायाम चलता था। उनकी थकान उनको रात को चैन की नींद का उपहार प्रदान करती थी। उस समय ज्ञानी लोगों का इस तरफ ध्यान नहीं गया कि लोगों को योगासन से अलग प्राणायाम तथा ध्यान की तरफ प्रेरित किया जाये। संभवतः योगासाधना के आठों अंगों में से पृथक पृथक सिखाने का विचार किसी ने नहीं किया। अब जबकि विलासिता पूर्ण जीवन शैली है तब योगसाधना की आवश्यकता तीव्रता से अनुभव की जा रही है तो उसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए। पहले जब लोग पैदल अधिक चलने के साथ ही परिश्रम करते थे इसलिये उनका स्वास्थ्य सदैव अच्छा रहता था । बाद में साइकिल युग के चलते भी लोगों के स्वास्थ्य में शुद्धता बनी रही। फिर योग साधना को केवल राजाओं, ऋषियों और धनिकों के लिये आवश्यक इसलिये भी माना गया क्योंकि वह शारीरिक श्रम कम करते थे जबकि बदलते समय के साथ इसे जनसाधारण में प्रचारित किया जाना चाहिये था। भले ही शारीरिक श्रम से लोगों का लाभ होता रहा है पर प्राणायाम से जो मानसिक लाभ की कल्पना किसी ने नहीं की। श्रमिक तथा गरीब वर्ग के लिये योगासन के साथ प्राणायाम और ध्यान का भी महत्व अलग अलग रूप से प्रचारित किया जाना जरूरी लगता है। यह बताना जरूरी है कि जो लोग शारीरिक श्रम के कारण रात की नींद आराम से लेते हैं उनको भी जीवन का आनंद उठाने के लिये प्राणायाम और ध्यान करना चाहिये।

अब योग साधना के आठ भाग देखकर तो यही लगता है कि उसके आठ अंगों को -यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि-एक पूरा कार्यक्रम मानकर देखा गया। सच तो यह है कि जो लोग परिश्रम करते हैं या सुबह सैर करके आते हैं उनको नियम, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि जैसे अन्य सात अंगों का भी अध्ययन करना चाहिये। योगासन या सुबह की सैर के बाद प्राणायम और ध्यान की आदत डालना श्रेयस्कर है। जो लोग गरीब, मजदूर तथा अन्य शारीरिक श्रम करते हैं उनके लिये भी प्राणायाम के साथ ध्यान बहुत लाभप्रद है। इस बात का प्रचार बहुत पहले ही होना चाहिये था इसलिये अब इस पर भी इस पर काम होना चाहिये।
प्राणायाम से प्राणवायु तीव्र गति से अंदर जाकर शरीर और मन के विकारों को परे करती है। उसी तरह ध्यान भी योगासन और प्राणायाम के बाद प्राप्त शुद्धि को पूरी देह और मन में वितरित करने की एक प्रक्रिया है। जब कभी आप थक जायें और सोने की बजाय आंखें बंद कर केवल बैठें और अपने ध्यान को भृकुटि पर केंद्रित करके देखें। शुरुआत में आराम नहीं मिलेगा पर पांच दस मिनट बाद आप को अपने शरीर और मन में शांति अनुभव होगी। जैसे मान लीजिये आप किसी समस्या से परेशान हैं। वह उठते बैठते आपको परेशान करती है। आप ध्यान लगा कर बैठें। समस्या हल होना एक अलग मामला है पर ध्यान के बाद उससे उपजे तनाव से राहत अनुभव करेंगे। सच बात तो यह है कि हम अपने दिमाग और शरीर को बहुत खींचते हैं और उसको बिना ध्यान के विराम नहीं मिल सकता। यह को व्यायाम नहीं है एक तरह से पूर्णाहुति है उस यज्ञ की जो हम अपनी देह के लिये करते हैं। शेष फिर कभी।

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Tuesday, November 03, 2009

कबीर दास के दोहे-मन शांत हो तो कोई शत्रु नहीं (man aur shatru-hindi gyan)

दुख लेने जावै नहीं, आवै आचा बूच।
सुख का पहरा होयगा, दुख करेगा कूच।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि दुःख लेने कोई नहीं जाता। आदमी को दुखी देखकर लोग भाग जाते हैं। किन्तु जब सुख का पहरा होता होता है तो सभी पास आ जाते हैं।
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अगर अपने मन में शीतलता हो तो इस संसार में कोई बैरी नहीं प्रतीत होता। अगर आदमी अपना अहंकार छोड़ दे तो उस पर हर कोई दया करने को तैयार हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब आदमी के पास कोई दुःख आता है तो रिश्तेदार, मित्र और साथी उसे छोड़कर परे हो जाते हैं। उनको डर लगता है कि उनसे वह आदमी कोई सहायता की याचना न करे। अगर आदमी के पास धन संपदा और पद है तो उसके आसपास अनेक लोग आशाओं के साथ मंडराते हैं कि पता नहीं कब उससे काम पड़ जाये। यह दुनियां का एक नियम हैं। इसलिये अपने जीवन में संयम, शांति और विनम्रता के पथ पर ही अपने पांव रखना चाहिये। किसी के कहने में आकर असंयमित, क्रोधित और अहंकारी होना मनुष्य के लिये हमेशा घातक होता है।

अहंकार तो एक तरह से मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। आदमी को जब धन, पद और प्रतिष्ठा प्राप्त होती है तब वह यह समझता है कि यह सब उसे अपनी मेहनत और पराक्रम से मिला है। तब वह यह विचार नहीं करता कि उस तरह की मेहनत अन्य लोग भी करते हैं पर सभी शिखर पर नहीं पहुंच जाते। इस तरह का अहंकार होने से आदमी अपने लिये शत्रु बना लेता है। अगर आदमी यह अहंकार छोड़ कर मन में विनम्रता का भाव रख तो उसे सभी मित्र नजर आयेंगे। विनम्रता का भाव रखने वाले पर जब कोई विपत्ति आती है तब उसकी सहायता करने के लिये हर कोई तैयार हो जायेगा।
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Saturday, October 31, 2009

कौटिल्य का दर्शन- सभी को रोटी देना राजा का कर्तव्य (kotilya ka arthshastra in hindi)

आचार्य कौटिल्य महाराज कहते हैं कि
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आजीव्यः सर्वभूतानां राजा पज्र्जन्यवद्भुवि।
निराजीव्यं त्यजन्त्येनं शुष्कवृक्षभिवाउढजाः।।
हिंदी में भावार्थ-
राजा मेघों के समान सब प्राणियों को आजीविका देता है। जो राजा प्रजा को आजीविका नहीं दे पाता उसका साथ सभी छोड़ जाते हैं, जिस प्रकार पेड़ को पक्षी छोड़ जाते हैं।
उत्थिता एवं पूज्यन्ते जनाः काय्र्यर्थिभिर्नरःै।
शत्रुवत् पतितं कोऽनुवन्दते मनावं पुनः।।
हिंदी में भावार्थ-
जो व्यक्ति कार्य सिद्धि की अभिलाषा रखते हैं वह उत्थान की तरफ बढ़ रहे पुरुष का सम्मान करते हैं और जो पतन की तरफ जाता दिखता है उसे त्याग देते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अपने जीवन में अपनी भौतिक उपलब्धियों को लेकर कोई भ्रम नहीं रखना चाहिये। यदि आप धनी है पर समाज के किसी काम के नहीं है तो कोई आपका हृदय से सम्मान नहीं करता। जिस तरह जो राजा अपनी प्रजा को रोजगार नहीं उपलब्ध कराता उसे प्रजा त्याग देती है वैसे ही अगर धनी मनुष्य समाज के हित पर धन व्यय नहीं करता तो उसे कोई सम्मान नहीं देता। तात्पर्य यह है कि अगर आप समाज के शिखर पुरुष हैं तो जितना हो सके अपने आसपास और अपने पर आश्रित निर्धनों, श्रमिकों और बेबसों पर रहम करिये तभी तो आपका प्रभाव समाज पर रह सकता है वरना आपके विरुद्ध बढ़ता विद्रोह आपका समग्र भौतिक सम्राज्य भी नष्ट कर सकता है।
हमारे प्राचीन महापुरुष अनेक प्रकार की कथा कहानियों में समाज में समरसता के नियम बना गये हैं। उनका आशय यही है कि समाज में सभी व्यक्ति आत्मनियंत्रित हों। जिसे आज समाजवाद कहा जाता है वह एक नारा भर है और उसे ऊपर से नीचे की तरफ नारे की तरह धकेला जाता है जबकि हमारे प्राचीन संदेश मनुष्य को पहले ही चेता चुके हैं कि राजा, धनी और प्रभावी मनुष्य को अपने अंतर्गत आने वाले सभी लोगों को प्रसन्न रखने का जिम्मा लेना चाहिए। उनका आशय यह है कि समाजवाद लोगों में स्वस्फूर्त होना चाहिये जबकि आजकल इसे नारे की तरह केवल राज्य पर आश्रित बना दिया गया है। इस सामाजिक समरसता के प्रयास की शुरुआत भले ही राज्य से हो पर समाज में आर्थिक, सामाजिक, और प्रतिष्ठत पदों पर विराजमान लोगों को स्वयं ही यह काम करना चाहिये। इसके लिये हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों से जीवन के नियम सीखें न कि पश्चिम या पूर्व से आयातित नारे गाते हुए भ्रम में रहना चाहिए। सच तो समाज में सामंजस्य बनाये रखने का दायित्व बड़े और धनी लोगों का है क्योंकि उससे उनको ही सुरक्षा मिलती है।
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Thursday, October 29, 2009

संत कबीरदास के दोहे-शब्द किसी का मुख नहीं ताकता (shabd aur mukh-kabir das ke dohe)

शब्द न करैं मुलाहिजा, शब्द फिरै चहुं धार।
आपा पर जब चींहिया, तब गुरु सिष व्यवहार।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि शब्द किसी का मूंह नहीं ताकता। वह तो चारों ओर निर्विघ्न विचरण करता है। जब शब्द ज्ञान से अपने पराये का ज्ञान होता है तब गुरु शिष्य का संबंध स्वतः स्थापित हो जाता है।

कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै सब छार।
साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि कटु वचन बहुत बुरे होते हैं और उनकी वजह से पूरा बदन जलने लगता है। जबकि मधुर वचन शीतल जल की तरह हैं और जब बोले जाते हैं तो ऐसा लगता है कि अमृत बरस रहा है।


वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- पिछले दिनों समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ कि अब लोगों में अपशब्द बोलना एक तरह से फैशन बनता जा रहा है। लोग अंतर्जाल पर गाली गलौच लिखना एक फैशन बना रहे हैं। यह वर्तमान विश्व समुदाय में अज्ञान और अहंकार की बढ़ती प्रवृत्ति का परिचायक है। पहले तो यह विचार करना जरूरी है कि हमारे शब्दों का प्रभाव किसी न किसी रूप में होता ही है। एक बात यह भी है कि हम जो शब्द बोलते हैं वह समाप्त नहीं हो जाता बल्कि हवा में तैरता रहता है। फिर समय पढ़ने पर वह उसी मुख की तरफ भी आता है जहां से बोला गया था। ऐसे में अगर हम अपने मुख से अपशब्द प्रवाहित करेंगे तो वह लौटकर कभी न कभी हमारे पास ही आने हैं। आज हम किसी से अपशब्द अपने मुख से बोलेंगे कल वही शब्द किसी अन्य द्वारा हमारे लिये बोलने पर लौट आयेगा। इस तरह तो अपशब्द बोलने और सुनने का क्रम कभी नहीं थमेगा।

इसलिये अच्छा यही है कि अपने मुख मधुर और दूसरे को प्रसन्न करने वाले शब्द बोलें जाये। लिखने का सौभाग्य मिले तो पाठक का हृदय प्रफुल्लित हो उठे ऐसें शब्द लिखें। पूरे विश्व समुदाय में गाली गलौच का प्रचलन कोई अच्छी बात नहीं है। ब्रिटेन हो या भारत या अमेरिका इस तरह की प्रवृत्ति ही विश्व में तनाव पैदा कर रही है। हम आज आतंकवाद और मादक द्रव्यों से विश्व समुदाय को बचाने का प्रयास कर रहे हैं पर इसके के लिये यह जरूरी है कि अपने शब्द ज्ञान का अहिंसक उपयोग करें तभी अन्य को समझा सकते हैं।  शब्दों की अभिव्यक्ति  में अभद्रता और अश्लीलता का प्रदर्शन न केवल दूसरे को दुःख देता है बल्कि अपनी छबि भी ख़राब करता है.  
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Monday, October 26, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-बड़े पद पर बने रहने की चिंता नीचे गिरा देती है

उच्चेरुच्चस्तरामिच्छन्पदन्यायच्छतै महान्।
नवैनींचैस्तरां याति निपातभयशशकया।।
हिंदी में भावार्थ-
जीवन में ऊंचाई प्राप्त करने वाला व्यक्ति महान पद् पर तो विराजमान हो जाता है पर उससे नीचे गिरने की भय और आशंका से वह नैतिक आधार पर नीचे से नीचे गिरता जाता है।
प्रमाणश्चधिकश्यापि महत्सत्वमधष्ठितः।
पदं स दत्ते शिरसि करिणः केसरी यथा।।
हिंदी में भावार्थ-
प्रमाणित योग्यता से अधिक पद की इच्छा करने वाला व्यक्ति भी उस महापद पर विराजमान हो जाता है उसी प्रकार जैसे सिंह हाथी पर अधिष्ठित हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समाज के सभी क्षेत्रों में शिखर पर विराजमान पुरुषों से सामान्य पुरुष बहुत सारी अपेक्षायें करते हैं। वह उनसे अपेक्षा करते हैं कि आपात स्थिति में उनकी सहायता करें। ज्ञानी लोग ऐसी अपेक्षा नहीं करते क्योंकि वह जानते हैं कि शिखर पर आजकल कथित बड़े लोग कोई सत्य या योग्यता की सहायता से नहीं पहुंचते वरन कुछ तो तिकड़म से पहुंचते हैं तो कुछ धन शक्ति का उपयोग करते हुए। ऐसे लोग स्वयं ही इस चिंता से दीन अवस्था में रहते हैं कि पता नहीं कब उनको उस शिखर से नीचे ढकेल दिया जाये। चूंकि उच्च पद पर होते हैं इसलिये समाज कल्याण का ढकोसला करना उनको जरूरी लगता है पर वह इस बात का ध्यान रखते हैं कि उससे समाज का कोई अन्य व्यक्ति ज्ञानी या शक्तिशाली न हो जाये जिससे वह शिखर पर आकर उनको चुनौती दे सके। उच्च पद या शिखर पर बैठे लोग डरे रहते हैं और डर हमेशा क्रूरता को जन्म देता है। यही क्रूरता ऐसे शिखर पुरुषों को निम्न कोटि का बना देती है अतः उनमें दया या परोपकार का भाव ढूंढने का प्रयास नहीं करना चाहिए।
यही हाल उन लोगों का भी है जिनको योग्यता से अधिक सम्मान या पद मिल जाता है। मायावी चक्र में सम्मान और पद के भूखे लोगों से ज्ञानी होने की आशा करना व्यर्थ है। उनको तो बस यही दिखाना है कि वह जिस पद पर हैं वह अपनी योग्यता के दम पर हैं और इसलिये वह बंदरों वाली हरकतें करते हैं। अपनी अयोग्यता और अक्षमता उनको बहुत सताती है इसलिये वह बाहर कभी मूर्खतापूर्ण तो कभी क्रूरता पूर्ण हरकतें कर समाज को यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि वह योग्य व्यक्ति हैं। ऐसे लोगों की योग्यता को अगर कोई चुनौती दे तो वह उसे अपने पद की शक्ति दिखाने लगते हैं। अपनी योग्यता से अधिक उपलब्धि पाने वाले ऐसे लोग समाज के विद्वानों, ज्ञानियों और सज्जन पुरुषों को त्रास देकर शक्ति का प्रदर्शन करते हैं। वह अपने मन में अपनी अयोग्यता और अक्षमता से उपजी कुंठा इसी तरह बाहर निकालते हैं। अतः जितना हो सके ऐसे लोगों से दूर रहा जाये। कहा भी जाता है कि घोड़े के पीछे और राजा के आगे नहीं चलना चाहिये। इस बात का ध्यान रखना चाहिये।
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Sunday, October 25, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-दुश्मन दो प्रकार के होते हैं (dushman ke prakar-hindu adhyatm sandesh)

उच्छेदापचयो काले पीडनं कर्षणन्तथा।
इति विधाविदः प्राहु, शत्रौ वृतं चतुविंघम्।।
हिंदी में भावार्थ-
उच्छेद, अपचय, समय पर पीड़ा देना और कर्षण यह चार प्रकार की स्थिति विद्वान बताते हैं।
सहज कार्यजश्वव द्विविधः शत्रु सच्यते।
सहज स्वकुलोत्पन्न कार्यजः स्मृतः।
हिंदी में भावार्थ-
शत्रु दो प्रकार के होते हैं-एक तो जो स्वाभाविक रूप से बनते हैं दूसरे वह जो कार्य से बनते हैं। स्वाभाविक शत्रु कुल में उत्पन्न होता है तो दूसरा अपने कार्य के कारण बन जाता है।
वर्तमान संबंध में संपादकीय-ऐसा कोई जीव इस प्रथ्वी पर नहीं है जिसका कोई शत्रु न हो। बड़े बड़े महापुरुष इस प्रकृत्ति के नियम का उल्लंघन नहीं कर पाये। शत्रु दो प्रकार के बनते हैं। एक तो जो स्वाभाविक रूप होते ही हैं दूसरे हमारे कार्य से बनते हैं। स्वाभाविक रूप शत्रु या विरोधी परिवार, समाज तथा कुल की वजह से बनते हैं। जैसे बिल्ली चूहे की तो कुत्ता बिल्ली का दुश्मन होता है। उसी तरह इंसानों में भी कुछ रिश्ते आपस में प्रतिस्पर्धा पैदा करते हैं। जहां कुल बड़ा होता है वहां आपस में लोग एक दूसरे के विरोधी या दुश्मन पैदा होते हैं। आपने देखा होगा कि किसी आदमी को तब हानि नहीं पहुंचाई जा सकती जब उसका अपना कोई शत्रु न हो। बड़े शत्रु को हराने के लिये छोटे शत्रु से समझौता करना चाहिये यह इसलिये कहा गया है कि क्योंकि दो शत्रुओं से एक साथ लड़ना संभव नहीं होता।

हम यहां शत्रु के साथ विरोधी की भी चर्चा करें तो बात आसानी से समझी जा सकती है। हम जब कोई अपना कार्य करते हैं तो वही कार्य करने वाला अन्य व्यक्ति स्वाभाविक रूप से हमें शत्रु भाव से देखता है। वह इस बात से आशंकित रहता है कि कहीं उसका प्रतिस्पर्धी उससे आगे न निकल जाये। तब वह इस बात का प्रयास भी करता है कि आपको नाकाम किया जाये, आपकी मजाक उड़ायी जाये और तमाम तरह का दुष्प्रचार कर आपका मनोबल गिराया जाये। वह आपके ही छोटे शत्रु या विरोधी को अपना मित्र बना लेता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि इस दैहिक जीवन में शत्रु या विरोधी से मुक्त रहना संभव नहीं है। अतः शत्रु और विरोधी की गतिविधियों को नजर रखें। वह आपकी उपेक्षा करने के साथ ही आपके कार्यसिद्धि के साधनों को हानि पहुंचा सकते हैं। शत्रु या विरोधी की प्रकृत्ति को समझें तो हमेशा सतर्क रहकर उसका मुकाबला कर सकते हैं। याद रहे आपके शत्रु या विरोधी कभी भी आपकी सफलता को न तो स्वीकार कर सकते हैं न ही पचा सकते हैं। इसलिए उनसे हमेशा सतर्क रहना चाहिए।
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Saturday, October 24, 2009

मनुस्मृति-जीवन निर्माण का कार्य दीमक से सीखें (manu smruti-jivan nirman)

दृढ़कारी भृदुदन्तिः क्रूराचारैरसंवसन्।
अहिंस्त्रों दमदानाभ्यां ज्येत्स्वर्ग तथावतः।।
हिंदी में भावार्थ-
दृढ़ निश्चय, स्वभाव से दयालु तथा आत्मसंयम रखने व्यक्ति ही स्वर्ग का अधिकारी बनता है अर्थात इस लोक में उसकी कीर्ति मरने के बाद भी बनी रहती है और वह स्वर्ग का अधिकारी भी बनता है।

धर्म शनै संचनुयाद्वल्मीकमिव पुत्तिकाः।
परलोक सहायार्थ सर्वभुतान्यपीडयन्ः।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस तरह दीमक अपने निवास के निर्माण के लिये धीरे धीरे बंाबी बनाती है उसी तरह परलोक में अपना जीवन सुधार हेतु किसी अन्य जीव को कष्ट पहुंचाये बिना पुण्य कर्मों का संग्रह करना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अपने जीवन में सफलता बहुत जल्दी पाने की उतावली सभी को होती है। आज के कंप्यूटर युग में हर कोई आगे बढ़ने के लिए संक्षिप्त मार्ग अपनाना चाहता है। चाहे जीवन में कामयाबी हो या स्वर्ग पाने का मोह हर आदमी यही सोचता है कि वह ऐसा काम करे जिससे आसानी से उसको लक्ष्य प्राप्त हो जाये।
दीमक अपने रहने के लिये बहुत धीरे धीरे घर बनाती है। उसी तरह सामान्य मनुष्य को जीवन में सफलता पाने के लिये संघर्ष करना पड़ता है। हमारे यहां खरगोश और कछुए की कहानी भी सुनाई जाती है। उसने यह जानते हुए भी खरगोश की चुनौती स्वीकार की कि वह तेज दौड़ता है। उसका विचार सही निकला खरगोश को अति आत्मविश्वास ले डूबा। जिसे पैतृक रूप से पैसा, पद और प्रतिष्ठा विरासत में नहीं मिली उसे तो इस बात का विचार भी नहीं करना चाहिये कि सभी कुछ जल्दी मिल जाये। एक आम व्यक्ति के रूप में हमेशा धीरे धीरे ही अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ते हुए जाने की सोचना ही अच्छा है। अगर सफलता के लिये उतावलापन दिखायेंगे तो नाकामी मिलेगी या फिर दूसरों के दबाव में गलत मार्ग का अनुसरण करना पड़ेगा। अपना लक्ष्य तय करने के बाद अपने कर्म में लगना चाहिये। समय आने पर उसका फल आवश्यक प्रकट होगा-इस विश्वास करना ही मनुष्यता का प्रमाण है।
यह धैर्य केवल जीवन में सफलता के लिये ही नहीं वरन् परलोक में अपना स्तर सुधारने के लिये भी आवश्यक है। याद रखिये दृढ़ निश्चय, अहिंसा और दया ही वह मार्ग है जिससे न केवल जीवन में सफलता मिलती है बल्कि उससे देह विसर्जन के बाद भी कीर्ति बनी रहती है। जिसने यहां लोगों के हृदय जीत लिये समझो स्वर्ग जीत लिया।
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Friday, October 23, 2009

कौटिल्य दर्शन-बड़े पद से गिरने की चिंता और गिरा देती है (kautilya darshan-bada pad aur chinta)

प्रमाणश्चधिकश्यापि महत्सत्वमधष्ठितः।
पदं स दत्ते शिरसि करिणः केसरी यथा।।
हिंदी में भावार्थ-
प्रमाणित योग्यता से अधिक पद की इच्छा करने वाला व्यक्ति भी उस महापद पर विराजमान हो जाता है उसी प्रकार जैसे सिंह हाथी पर अधिष्ठित हो जाता है।
उच्चेरुच्चस्तरामिच्छन्पदन्यायच्छतै महान्।
नवैनींचैस्तरां याति निपातभयशशकया।।
हिंदी में भावार्थ-
जीवन में ऊंचाई प्राप्त करने वाला व्यक्ति महान पद् पर तो विराजमान हो जाता है पर उससे नीचे गिरने की भय और आशंका से वह नैतिक आधार पर नीचे से नीचे गिरता जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समाज के सभी क्षेत्रों में शिखर पर विराजमान पुरुषों से सामान्य पुरुष बहुत सारी अपेक्षायें करते हैं। वह उनसे अपेक्षा करते हैं कि आपात स्थिति में उनकी सहायता करें। ज्ञानी लोग ऐसी अपेक्षा नहीं करते क्योंकि वह जानते हैं कि शिखर पर आजकल कथित बड़े लोग कोई सत्य या योग्यता की सहायता से नहीं पहुंचते वरन कुछ तो तिकड़म से पहुंचते हैं तो कुछ धन शक्ति का उपयोग करते हुए। ऐसे लोग स्वयं ही इस चिंता से दीन अवस्था में रहते हैं कि पता नहीं कब उनको उस शिखर से नीचे ढकेल दिया जाये। चूंकि उच्च पद पर होते हैं इसलिये समाज कल्याण का ढकोसला करना उनको जरूरी लगता है पर वह इस बात का ध्यान रखते हैं कि उससे समाज का कोई अन्य व्यक्ति ज्ञानी या शक्तिशाली न हो जाये जिससे वह शिखर पर आकर उनको चुनौती दे सके। उच्च पद या शिखर पर बैठे लोग डरे रहते हैं और डर हमेशा क्रूरता को जन्म देता है। यही क्रूरता ऐसे शिखर पुरुषों को निम्न कोटि का बना देती है अतः उनमें दया या परोपकार का भाव ढूंढने का प्रयास नहीं करना चाहिए।
यही हाल उन लोगों का भी है जिनको योग्यता से अधिक सम्मान या पद मिल जाता है। मायावी चक्र में सम्मान और पद के भूखे लोगों से ज्ञानी होने की आशा करना व्यर्थ है। उनको तो बस यही दिखाना है कि वह जिस पद पर हैं वह अपनी योग्यता के दम पर हैं और इसलिये वह बंदरों वाली हरकतें करते हैं। अपनी अयोग्यता और अक्षमता उनको बहुत सताती है इसलिये वह बाहर कभी मूर्खतापूर्ण तो कभी क्रूरता पूर्ण हरकतें कर समाज को यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि वह योग्य व्यक्ति हैं। ऐसे लोगों की योग्यता को अगर कोई चुनौती दे तो वह उसे अपने पद की शक्ति दिखाने लगते हैं। अपनी योग्यता से अधिक उपलब्धि पाने वाले ऐसे लोग समाज के विद्वानों, ज्ञानियों और सज्जन पुरुषों को त्रास देकर शक्ति का प्रदर्शन करते हैं। वह अपने मन में अपनी अयोग्यता और अक्षमता से उपजी कुंठा इसी तरह बाहर निकालते हैं। अतः जितना हो सके ऐसे लोगों से दूर रहा जाये। कहा भी जाता है कि घोड़े के पीछे और राजा के आगे नहीं चलना चाहिये। बड़े लोगों में अपने पद, वैभव और शक्ति का अहंकार अवश्य होता है और रुष्ट होने पर वह हानि पहुंचा सकते हैं।
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Thursday, October 22, 2009

रहीम संदेश-मतलब का प्यार कम होने लगता है (matlab ka pyar-rahim ke dohe)

कविवर रहीम कहते हैं कि
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वहै प्रीति नहिं रीति वह, नहीं पाछिलो हेत
घटत घटत रहिमन घटै, ज्यों कर लीन्हे रेत

स्वाभाविक रूप से जो प्रेम होता है उसकी कोई रीति नहीं होती। स्वार्थ की वजह से हुआ प्रेम तो धीरे धीरे घटते हुए समाप्त हो जाता है। जब आदमी के स्वार्थ पूरे हो जाते हैं जब उसका प्रेम ऐसे ही घटता है जैसे रेत हाथ से फिसलती है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-जीवन में कई ऐसे लोग आते हैं जिनका साथ हमें बहुत अच्छा लगता है और हम से प्रेम समझ बैठते हैं। फिर वह बिछड़ जाते हैं तो उनकी याद आती है और फिर एकदम बिसर जाते हैं। उनकी जगह दूसरे लोग ले लेत हैं। यह प्रेमी की ऐसी रीति है जो देह के साथ आती है। यह अलग बात है कि इसमेें बहकर कई लोग अपना जीवन दूसरे को सौंप कर उसे तबाह कर लेते हैं।

सच्चा प्रेम तो परमात्मा के नाम से ही हो सकता है। आजकल के फिल्मी कहानियों में जो प्रेम दिखाया जाता है वह केवल देह के आकर्षण तक ही सीमित है। फिर कई सूफी गाने भी इस तरह प्रस्तुत किये जाते हैं कि परमात्मा और प्रेमी एक जैसा प्रस्तुत हो जाये। सूफी संस्कृति की आड़ में हाड़मांस के नष्ट होने वाली देह में दिल लगाने के लिये यह संस्कृति बाजार ने बनाई है। अनेक युवक युवतियां इसमें बह जाते हैं और उनको लगता हैकि बस यही प्रेम परमात्मा का रूप है।

सच तो यह है परमात्मा को प्रेम करने वाली तो कोई रीति नहीं है। उसका ध्यान और स्मरण कर मन के विकार दूर किये जायें तभी पता लगता है कि प्रेम क्या है? यह दैहिक प्रेम तो केवल एक आकर्षण है जबकि परमात्मा के प्रति ही प्रेम सच्चा है क्योंकि हम उससे अलग हुई आत्मा है। सांसरिक प्रेम को लेकर जितनी भी बातें कही और लिखी जाती हैं वह केवल मनोरंजन के लिए हैं उनका कोई तार्किक और आध्यात्मिक आधार नहीं होता।
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Wednesday, October 21, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-कभी कटु वाणी न बोलें (katu vani n bolen-hindu adhyatm sandesh)

हृदि विद्ध इवात्यर्थ यदा सन्तप्यते जनः।
पीडितोऽपि हि न मेघावीन्तां वाचमुदीरयेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
क्रूर वाणी से हर आदमी का मन त्रस्त हो जाता है इसलिये विद्वान लोगों को चाहिए कि वह कठोर वाणी न बोलें। भले ही अन्य लोग अपनी कठोर वाणी से संताप देते रहें।
अनिन्दापरकृत्येषु स्वधम्र्मपरिपालनम्।
कृपणेषु दयालुत्वं सव्र्वत्र मधुरा गिरः।।
हिंदी में भावार्थ-
दूसरे के कार्य की निंदा न करते हुए अपना धर्म पालन करना , दीनों पर दया करना तथा मीठे वचनों से दूसरों को तृप्त करना ही धर्म है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस दुनियां में प्रचलित अनेक धर्मों की व्याख्या करती हुई अनेक किताबें मौजूद हैंे पर फिर भी अशांति व्याप्त है। कहीं आतंकवाद है तो कहीं युद्ध की आशंकायें। इसके अलावा लोगों के अंदर मानसिक तनाव की ऐसी धारा प्रवाहित हो रही है जिससे किसी की मुक्ति नहीं है। दरअसल धर्म के नाम सभी जगह भ्रम फैलाया जा रहा है। कहने को तो कहा जाता है कि हिन्दू धर्म है पर वास्तव में यह एक जीवन शैली है। वैसे हिन्दू धर्म के नाम पर कर्मकांडों का प्रचार भी भ्रम से कम नहीं है। धर्म का मूल स्वरूप इतना बड़ा और कठिन नहीं है जितना बताया जाता है। धर्म से आशय यह है कि हम मनुष्य हैं और न केवल अपनी देह का पालन करें बल्कि दूसरों की भी सहायता करें, किसी को कष्ट न पहुंचायें। सभी को अपनी मधुर वाणी से प्रसन्न करते हुए अपनी मनुष्य यौनि का का आनंद उठायें।
मगर इसके विपरीत धर्म के नाम पर भ्रम का प्रचार करने वाले लोगों की कमी नहीं है, जो यह बताते हैं कि कर्मकांड करने पर स्वर्ग मिलता है। कई तो ऐसे भी हैं जो बताते हैं कि यह खाओ, यह पहनो, इस तरह चलो तो स्वर्ग मिलेगा। स्वर्ग की यह कपोल कल्पना आदमी की बुद्धि को बंधक बनाये रखती है और धर्म के ठेकेदार अपने इन्हीं बंधकों के सहारे राज्य कर रहे हैं। कई तो ऐसे भी हैं जो अपने धर्म का राज्य लाने के लिये प्रयत्नशील हैं तो कुछ ऐसे है जो तमाम तरह की किताबों से ज्ञान उठाकर बताते हैं कि उनका धर्म श्रेष्ठ है। सच तो यह है कि धर्म से आशय केवल इतना ही है कि अपने कर्तव्यों का पालने करते हुए दूसरे पीड़ितों की भी मदद करें। हमेशा ही मधुर वाणी में बोलें और यह सिद्ध करें कि आपको परमात्मा ने जो जिव्हा दी है उसका आप सदुपयोग कर रहे हैं।
दूसरे की निंदा कर अपने को श्रेष्ठ साबित करना या कड़े शब्दों का उपयोग कर किसी को दुःख देना तो बहुत आसान है मुश्किल तो दूसरे को खुश करने में आती है जो कि धर्म का सबसे बड़ा परिचायक है। स्वयं बेहतर काम कर अपने धर्म पर दृढ़ होने का प्रमाण दिया जाता है, जबकि कहने और करने में अंतर रखकर अपने को पाखंडी ही साबित किया जा सकता है।
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Tuesday, October 20, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-दिल न मिले तो निकट बैठा आदमी भी दूर लगता है (dil aur doori-adhyatm sandesh in hindi)

विरहेऽपि संगमः खलु परस्परं संगतं मनो येषाम्
हृदयमपि विघट्ठितं चित्संगी विरहं विशेषयति

हिंदी में भावार्थ-जिनके हृदय आपस में मिले हों वह विरह होने पर साथ रहने की अनुभूति करते हैं और जिनके मन न मिलते हों वह साथ भी रहें तो ऐसा लगता है कि बहुत दूर हैं।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सारी दुनियां में प्रेम का संदेश फैलाया जाता है पर सच यह है कि प्रेम वह भाव है जो स्वाभाविक रूप से होता है। प्रेम में अगर कोई दैहिक,आर्थिक या सामाजिक स्वार्थ हो तो वह प्रेम नहीं रहता। ऐसे स्वार्थ के संबंध आदमी एक दूसरे से निभाते हैं पर उनमें आपस में हार्दिक प्रेम हो यह समझना गलत है। हमारा अध्यात्म दर्शन स्पष्ट रूप से कहता है कि प्रेम दो अक्षरों का सीमित अर्थ वाला शब्द नहीं है बल्कि उसका आधार व्यापक है। जो व्यक्ति एक दूसरे के प्रति निस्वार्थ भाव रखते हैं वही प्रेम करते हैं।
वैसे आजकल प्रेम का शब्द चाहे जहां सुनाई देता है पर उसका भाव कोई जानता हो यह नहीं लगता। आजकल तो प्रेम स्त्री पुरुष के दैहिक संबंधों तक ही सीमित माना जाता है। कभी प्रेम दिवस तो कभी मित्र दिवस के नाम पर युवक युवतियों की दैहिक भावनाओं को भड़काने के लिये तमाम तरह के प्रयास उनको बाजार के उत्पादों के प्रयोक्ता बनाने के लिये किये जाते हैं पर यह क्षणिक आकर्षण कभी प्रेम नहीं होता। अनेक ऐसे प्रसंग भी सामने आते हैं जब कथित प्रेम के आकर्षण में फंसकर युवक युवती विवाह कर लेते हैं पर बाद में घर गृहस्थी के बोझ तले दोनों एक दूसरे के लिये अपरिचित होते जाते हैं। जहां हृदय के प्रेम की बात होती थी वहां जब अन्य जरूरतों की पूर्ति के लिये संघर्ष की बात आती है तो सब कुछ हवा हो जाता है। ऐसे तनाव होता है कि एक छत के नीचे रहने वाले पति पत्नी एक दूसरे के लिये दूर हो जाते हैं।
नौकरी और व्यापार में अनेक लोगों से संपर्क प्रतिदिन बनता है पर सभी मित्र या प्रेमी नहीं बन जाते। कई बार तो ऐसा होता है कि अपने परिवार के सदस्यों से अधिक अपने निकट सहकर्मियों या निकटस्थ लोगों के साथ समय व्यतीत होता है पर फिर भी वह अपने नहीं बन पाते। उनसे मानसिक दूरी बनी रहती है। इसके विपरीत परिवार के सदस्य दूर हों तो भी हृदय के निकट होते हैं।
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Monday, October 19, 2009

कौटिल्य दर्शन-हमेशा उद्यमशील बने रहें (hamesha udyam karen-hindu adhyatm sandesh)

भोक्तं पुरुषकारेण दृष्टसित्रयमिव वियम्।
व्यवसायं सदैवेच्छेन्न हि कलीववदाचरेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
दुष्ट स्त्री के समान धन पाने की इच्छा यानि लक्ष्मी को पुरस्कार से भोगने के लिये सदा उद्योग करते रहें। कभी आलस्य न करें।
प्रयत्नप्रेर्यर्वमणेन महता चितहस्तिना।
रूढ़वैरिद्रु मोत्खतमकृत्देव कुतः सुखम्।।
हिंदी में भावार्थ-
चित्त रूपी हाथी को अपने नियंत्रण में करने के प्रयास के साथ ही वैर रूपी वृक्ष को उखाउ़ फैंके बिना भला सुख कहां प्राप्त हो सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह सच है कि जीवन में मानसिक शांति के लिये अध्यात्मिक ज्ञान आवश्यक है पर दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति और सांसरिक दायित्वों के निर्वहन के लिये धन की आवश्यकता होती है। इसकी प्राप्ति के लिये भी उद्योग करना चाहिये। कभी जीवन में आलस्य न करें। भगवान श्री कृष्ण ने भी गीता में यही कहा है कि अपने सांसरिक कर्म करते हुए भक्ति करने के साथ ही ज्ञान प्राप्ति का प्रयास करें। निष्काम कर्म का श्रीगीता में आशय अक्सर गलत बताया जाता है। सच तो यह है उसमें धन की उपलिब्धयों को फल नहीं माना गया बल्कि उनसे तो सांसरिक कार्य का ही हिस्सा कहा जाता है। अपने परिश्रम से जो धन प्राप्त होता है उससे हम दूसरे दायित्वों का निर्वहन करते हैं। वह अपने साथ नहीं ले जाते इसलिये उसे फल नहीं मानना चाहिये। सांसरिक कार्य के लिये धन जरूरी है और उसी से ही दान और यज्ञ भी किये जाते हैं।

इसके अलावा अपने मन में दूसरे की भौतिक उपलब्धियां देखकर निराशा या बैर नहीं पालना चाहिये। हमारे मानसिक दुःख का कारण यही है कि हम दूसरों के प्रति अनावश्यक रूप से द्वेष और बैर पाल लेते हैं। उनसे अगर विरक्त हो जायें तो आधा दुःख तो वैसे ही दूर हो जाये। जब हम दूसरों की उपलब्धि या सफलता देख कर दु:खी या कुंठित होते हैं तो हमारा शरीर तनाव और आलस्य का शिकार हो जाता है जिससे हम अपना काम न करने के कारण नाकामी झेलते हैं।
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Saturday, October 17, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-नीच गुणों वाले से मेल नहीं हो सकता (kautilya ka arthshastra in hindi)

निरालोके हिः लोकेऽस्मिन्नासते तत्रपण्डिताः।
जात्यस्य हिं मणेयंत्र काचेन समता मताः।।
हिंदी में भावार्थ-
जो व्यक्ति ज्ञान के अंधेरे में रहते हैं उनके समीप विद्वान लोग नहीं बैठते। जहां भला मणि हो वहां कांच के साथ कैसा व्यवहार किया जा सकता है।
उतमाभिजनोपेतानम न नीचैः सह वर्द्धयेतु।
कृशीऽपि हिवियेकहो याति संश्रयणीयाताम्।।
हिंदी में भावार्थ-
जो उत्तम गुणों वाले हों उनको नीच गुणों वालों से मेल नहीं करना चाहिये। इसमें संदेह नहीं है कि संकट में आये उत्तम गुणी विद्वान को राज्य का आश्रय अवश्य प्राप्त होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आदमी को अपने गुणों की पहचान करते हुए समान गुणों वाले लोगों से ही मेल मिलाप करना चाहिये। अगर कोई व्यक्ति अधिक शिक्षित व्यक्ति है और वह अशिक्षितों में बैठकर अपने ज्ञान का बखान करता है तो वह लोग उसकी मजाक बनाते हैं। कई तो कह देते हैं कि ‘पढ़े लिखे आदमी किस काम के?’
उसी तरह अशिक्षित व्यक्ति जब शिक्षितों के साथ बैठता है तो वह उसकी मजाक उड़ाते हैं कि देखोे बेचारा यह पढ़ नहीं पाया। इस तरह समान स्तर न होने पर आपस में एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति मनुष्य में स्वाभाविक रूप से होती है।
कहने को कहा जाता है कि यहां झूठे आदमी का बोलबाला है पर यह एक वहम है। अगर व्यक्ति शिक्षित, ज्ञानी और कर्म में निरंतर अभ्यास में रत रहने वाला है तो विपत्ति आने पर उसे राज्य का संरक्षण अवश्य प्राप्त होता है। बेईमानी, भ्रष्टाचार और अनैतिक व्यापार करने वालों को हमेशा राज्य से भय लगा रहता है। उनके पास बहुत सारा धन होने के बावजूद उनका मन अपने पापों से त्रस्त रहता है। कहते हैं कि पाप की हांडी कभी न कभी तो फूटती है। यही हालत अनैतिक आचरण और कर्म से कमाने वालों की है। वह अगर इस प्रथ्वी के दंड से बचे भी रहें तो परमात्मा के दंड से बचने का उनके पास कोई उपाय नहीं है। वह अनैतिक ढंग से धन कमाकर अपने परिवार का भरण भोषण करते हैं पर उनके साथ शारीरिक विकार लगे रहते हैं। इसके अलावा उनके काले धन के प्रभाव से उनके परिवार के सदस्यों का आचरण भी निकृष्टता और अहंकार से परिपूर्ण हो जाता है जिसका बुरा परिणाम आखिर उनको ही भोगना पड़ता है।
उसी तरह जो लोग अपने जीवन में नैतिकता और ईमानदारी के सिद्धांतों का पालन करते हैं उनके परिवार सदस्यों पर भी उसका अच्छा प्रभाव पड़ता है। चाहे लाख कहा जाये सत्य के आगे झूठ की नहीं चल सकती जैसे मणि के आगे कांच का कोई मोल नहीं रह जाता।  उसी  तरह उच्च गुणों सा संपन्न  लोगों की अपने से विपरी संस्कार वालों से मेल नहीं हो सकता।
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Thursday, October 15, 2009

विदुर नीति-दूसरे लोगों के घरों में झगड़ा न करायें (vidur niti in hindi)

मद्यपापनं कलहं पुगवैरं भार्यापत्योरंतरं ज्ञातिभेदम्।
राजद्विष्टं स्त्रीपुंसयोर्विवादं वज्र्यान्याहुवैश्चं पन्थाः प्रदुष्टः।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर कहते हैं कि शराब पीना, कलह करना, अपने समूह के साथ शत्रुता, पति पत्नी और परिवार में भेद उत्पन्न करना, राजा के साथ क्लेश करने तथा किसी स्त्री पुरुष में झगड़ा करने सहित सभी बुरे रास्तों का त्याग करना ही श्रेयस्कर  है।
सामुद्रिकं वणिजं चोरपूर्व शलकाधूर्तं च चिकित्सकं सं।
अरि च मित्रं च केशलीचवं च नैतान् त्वधिकुवीत सप्तः।।
हिंदी में भावार्थ-
नीतिवेता विदुर कहते हैं कि हस्तरेखा विशेषज्ञ, चोरी का व्यापार करने वाला,जुआरी,चिकित्सक,शत्रु,मित्र और नर्तक को कभी अपना गवाह नहीं बनायें।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कभी अगर किसी मुकदमे का सामना करना पड़े तो ऐसे व्यक्ति को ही अपना गवाह बनाना चाहिये जो सत्य कहने के साथ अपना न तो आत्मीय मित्र हो न ही शत्रु। इसके अलावा कुछ व्यवसायों में कुशल लोगों-चिकित्सक,हस्तरेखा विशेषज्ञ,नर्तक,जुआरी, तथा चोरी का व्यापार करने वाले को भी अपना गवाह नहीं बनाना चाहिये। दरअसल मित्र जहां हमारे दोषों को जानते हैं पर कहते नहीं है पर जब वह कहीं गवाही देने का समय आये तो उनकी दृष्टि में हमारे दोष भी आते हैं इसलिये भावनात्मक रूप से हमारे हितैषी होने के बावजूद वह वाणी से हमारी दृढ़ता पूर्वक समर्थन नहीं कर पाते या वह लड़खड़ाती है।
शराब पीना तो एक बुरा व्यसन है पर साथ दूसरे घरों में पति पत्नी या परिवार के अन्य सदस्यों के बीच भी झगड़ा कराना एक तरह से पाप है। अनेक जगह लोग स्त्रियों और पुरुषों के बीच झगड़ा कराने के लिये तत्पर रहते हैं। इस तरह का मानसिक विलास भी एक बुरा काम है और इनसे बचना चाहिये। यह न केवल दूसरे के लिए बल्कि कालांतर में अपने लिए भी कष्टकारक बनता है।
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Wednesday, October 14, 2009

चाणक्य नीति-कपटी होने पर भी विद्वान पशु समान (kapti vidavan pashu saman-chankya niti

नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि 
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परकार्यविहन्ता च दाम्भिकः स्वार्थसाधकः।
छली द्वेषी मृदः क्रूरो विप्रो मार्जार उच्यते।।
हिंदी में भावार्थ-
जो मनुष्य दूसरे के कार्यों को बिगाड़ने वाला, पाखंडी, अपना मतलबी साधने वाला, छलिया, दूसरों की उन्नति देखकर जलने वाला तथा बाहर से कोमल और अंदर कपट भाव रखने वाला है वह भले ही विद्वान क्यों न हो पशु के समान है।
चापी-कूप-तडागानामाराम-सुर-वेश्मनाम्।
उच्छेद निरऽऽशंकः स विप्रो म्लेच्छ उच्यते।।
हिंदी में भावार्थ-
जो मनुष्य बावड़ी, कुआं तालाब, बगीचे और धर्म स्थानों में तोड़फोड़ और उनको नष्ट करने से जो डरते नहीं है वह भले ही विद्वान हों म्लेच्छ कहलाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सभी को अपने जीवन में अपना स्वयं के धर्म और कर्म केंद्रित करना चाहिये। कुछ ऐसे मनुष्य भी हैं जो केवल धर्म का दिखावा करते हैं पर उनका लक्ष्य उसकी आड़ में व्यवसाय या उसके सहारे अपना समाज पर वर्चस्व स्थापित करना है। ऐसे लोग धर्म के आधार पर निकृष्ट कर्म करते हैं जो केवल पाप की श्रेणी में आते हैं। हालांकि कहा जाता है अशिक्षित और गंवार लोग ही ऐसे हैं जो धर्म की आड़ में पाप काम करते हैं पर चाणक्य महाराज की बात को देखें तो यह काम पहले भी विद्वान और शिक्षित लोगों के द्वारा होता रहा है। बस अंतर इतना है कि अब यह काम केवल विद्वान आर शिक्षित लोग ही कर नजर आते हैं। कथित अशिक्षित और गंवार लोगों को तो अपनी रोजी रोटी कमाने से ही आजकल फुरसत कहां मिल पाती है?
देश, प्रदेश, और शहर की संपत्ति और धार्मिक स्थानों पर तोड़फोड़ करने वाले भारी पाप करते हैं और उनको एक तरह से म्लेच्छ कहा जाता है। चाहे अपने धर्म का हो या दूसरे धर्म का उसमें तोड़फोड़ करने वाले महापापी हैं और उनका कभी समर्थन न करे। ऐसे लोग धर्म के नाम पर विवाद कर समाज का ध्यान अपनी ओर ध्यान आकर्षित कर उसका लाभ उठाते हैं। अगर हम उनकी तरफ देखें तो भी समझ लेना चाहिये कि पाप हो गया।
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Sunday, October 11, 2009

कबीरदास के दोहे-देह जंगल और मन हाथी है (kabir das ke dohe-man hathi hai)

काया कजरी बन अहै, मन कुंजर महमन्त।
अंकुस ज्ञान रतन है, फेरै साधु संत।।

संत शिरामणि कबीरदास जी का यह आशय है कि यह शरीर तो जंगल की तरह जिसमें मन रूपी हाथी मस्ती से विचरण करता है। उस पर ज्ञान रूपी अंकुश ही नियंत्रण रख सकता है वरना तो यह साधु और संतों को भी विचलित कर देता है।
काया देवल मन धजा, विषय लहर फहराय।
मन चलते देवल चले, ताका सरबय जाय।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि शरीर देवालय और मन झंडे की तरह है। विषय लहरों की तरह हैं। चंचल मन के वेग से देवालय यानि यह शरीर भी चलायमान होता है। अंततः सब नष्ट हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-मनुष्य का मन ऐसी शय है जिस पर नियंत्रण कर लिया जाये तो फिर वह नियंत्रणकर्ता का गुलाम बन जाता है। इसी प्रवृत्ति के कारण विज्ञापन एक व्यवसाय बन गया है। आधुनिक संचार माध्यमों ने तो एक तरह से मनुष्य को गुलाम बना दिया है। जिस उत्पाद का विज्ञापन आधुनिक संचार माध्यमों में दिखता है उसकी बिक्री बढ़ जाती है। कोई गाना आदमी सुनता है तो उसे गुनगुनाने लगता है। कहने का तात्पर्य है कि इस मायावी संसार में मायापति अब विज्ञापन के जरिये ही मनुष्य को उपभोक्ता बनाकर उसे अपने नियंत्रण में लेते हैं।
हमारे समाज पर फिल्मों का बहुत प्रभाव पड़ता है इसी कारण उसमें जो दिखाया जाता है लोग उसे ही सच मान लेते हैं। काल्पनिक पात्रों का अभिनय करने वाले कलाकार आजकल नये भगवान बन गये हैं। वह भारतीय जनमानस पर ऐसे छाये हुए हैं कि व्यवसायिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक क्षेत्र के शिखर पुरुष भी इन अभिनेताओं के साथ फोटो खिंचवाकर अपने को धन्य समझते हैं-केवल इस कारण कि आम जनमानस उनका भी चेहरा अवश्य देखेंगे। अनेक विचार समूह इन्हीं फिल्मों के जरिये अप्रत्यक्ष रूप से इन्ही फिल्मों और धारावाहिकों के जरिये अपना प्रचार कर रहे हैं। इन फिल्मों और धारावाहिकों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष से प्रायोजित करने वाले व्यवसायी अपने धार्मिक, सामाजिक, तथा आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं। इसके लिये अब उनको अलग से प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। वजह यह है कि भारतीय जनमानस अपने अध्यात्मिक ज्ञान से परे हो गया है और काल्पनिक पात्रों में ही अपना अस्तित्व ढूंढने का प्रयास करता है और इसी कारण वह आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक रूप से गुलाम बना हुआ है। सभी जानते हैं कि बाजार पर केवल स्वार्थी लोगों का नियंत्रण है पर फिर भी उसके प्रचार में बह जाते हैं। इनसे अपने मन को बचाने के लिये अंकुश केवल भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान ही है पर वह तभी अपने हाथ में आ सकता है जब उसके लिये थोड़ा प्रयास किया जाये।
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Tuesday, October 06, 2009

चाणक्य दर्शन-बिना ज्ञान मनुष्य जल्दी नष्ठ हो जाता है (chankya niti-bina gyan)

नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि
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हर्त ज्ञार्न क्रियाहीनं हतश्चाऽज्ञानतो नर।
हर्त निर्नायकं सैन्यं स्त्रियो नष ह्यभर्तृकाः ।।

हिंदी में भावार्थ- जिस ज्ञान को आचरण में प्रयोग न किया जाये वह व्यर्थ है। अज्ञानी पुरुष हमेशा ही संकट में रहता हुआ ऐसे ही शीघ्र नष्ट हो जाता है जैसे सेनापति से रहित सेना युद्ध में स्वामीविहीन स्त्री जीवन में परास्त हो जाती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- मनुष्य का सेनापित उसका ज्ञान होता है। उसके बिना वह किसी का गुलाम बन जाता है या फिर पशुओं की तरह जीवन जीता है। ज्ञान वह होता है जो जीवन के आचरण में लाया जाये। खालीपीली ज्ञान होने का भी कोई लाभ नहीं है जब तक उसको प्रयोग में न लाया जाये। हमारे देश में ज्ञानोपदेश करने वाले ढेर सारे लोग है जो ‘दान, तत्वज्ञान, तपस्या, धर्म, अहिंसा, प्रेम, और भक्ति की महिमा’ का बखान करते हैं पर उनका जीवन उसके विपरीत विलासिता, धन संग्रह, और अपने बड़े होने के अभिमान में व्यतीत होता है। देखा जाये तो उनके लिये ज्ञान विक्रय और उनके अनुयायियों के लिये क्रय की वस्तु होती है। उसके आचरण से न तो गुरु का और न ही शिष्य का लेना देना होता है।

यही कारण है कि हमारा समाज जितना धार्मिक माना जाता है उतना ही व्यवसायिक भी। भारतीय प्राचीन ग्रथों का तत्वज्ञान का मूल सभी जानते हैं पर उसके भाव को कोई नहीं जानता। अनेक गुरु ज्ञानोपदेश करते हुए बीच में ही यह बताने लगते हैं कि ‘धर्म के प्रचार के लिये धन की आवश्यकता है’। वह अपने भक्तों में दान और त्याग का भाव पैदा कर अपने लिये धन जुटाते है। भक्त भी अपने मन में स्थित दान भाव की शांति के लिये उनकी बातों में आकर अपनी जेब ढीली कर देते हैं। कथित गुरु अपने शिष्यों को ज्ञान के पथ पर लाकर उनका भौतिक दोहन कर फिर उनको अज्ञान के पथ पर ढकेल देते हैं। यही कारण है कि अध्यात्मिक गुरु कहलाने वाला अपना देश भौतिकता के ऐसे जंजाल में फंस कर रह गया है जहां विकास केवल एक नारा है जिसकी अंतिम मंजिल विनाश है। इसलिये जितना हो सके सांसरिक अनुभव के साथ आध्यात्म्कि ज्ञान भी प्राप्त किया जाये अच्छा होगा।
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Monday, October 05, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-हाथी की तरह तीक्ष्ण दृष्टि रखें (hathi ki nazar-hindi sandesh

यद चेतनोऽपिपादैः स्पृष्टः प्रज्वलति सवितुरिनकान्तः।
तत्तेजस्वी पुरुषः परकृत निकृतिंक कथं सहते ।।
हिंदी में भावार्थ-
सूर्य की रश्मियों के ताप से जब जड़ सूर्यकांन्त मणि ही जल जाती है तो चेतन और जागरुक पुरुष दूसरे के द्वारा किये अपमान को कैसे सह सकता है।

लांगल चालनमधश्चरणावपातं भू मौ निपत्य बदनोदर दर्शनं च।
श्चा पिण्डदस्य कुरुते गजपुंगवस्तु धीरं विलोकपति चाटुशतैश्चय भुंवते।।
हिंदी में भावार्थ-
श्वान भोजने देने वाले के आगे पूंछ हिलाते हुए पैरों में गिरकर पेट मूंह और पेट दिखाते हुए अपनी दीनता का प्रदर्शन करता है जबकि हाथी भोजन प्रदान करने वालो को गहरी नजर से देखने के बाद उसके द्वारा आग्रह करने पर ही भोजन ग्रहण करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भले ही आदमी के पास अन्न और धन की कमी हो पर मनुष्य को स्वाभिमानी होना चाहिए नहीं तो अधिक धनवान, उच्च पदस्थ तथा बाहूबली लोग उसे गुलाम बनाये रखने के लिये हमेशा तत्पर रहते हैं। आजकल सुख सुविधाओं ने अधिकतर लोगों को शारीरिक और मानसिक तौर से सुस्त बना दिया है इसलिये वह उन्हें बनाये रखने के लिये अपने से अधिक शक्तिशाली लोगों की चाटुकारिता में लगना अपने लिये निज गौरव समझते हैं। यही कारण है कि निजी क्षेत्र में स्त्रियों और पुरुषों का शोषण बढ़ रहा है। हमारे यहां की शिक्षा कोई उद्यमी नहीं पैदा करती बल्कि नौकरी के लिये गुलामों की भीड़ बढ़ा रही है। कितनी विचित्र बात है कि आजकल हर आदमी अपने बच्चे को इसलिये पढ़ाता है कि वह कोई नौकरी कर अपने जीवन में अधिकतम सुख सुविधा जुटा सके। ऐसे में बच्चों के अंदर वैसे भी स्वाभिमान मर जाता है। उनका अपने माता पिता और गुरुजनों से अच्छा गुलाम बनने की प्रेरणा ही मिलती है।

ऐसी स्थिति में हम अपने देश और समाज के प्रति कथित रूप से जो स्वाभिमान दिखाते हैं पर काल्पनिक और मिथ्या लगता है। स्वाभिमान की प्रवृत्ति तो ऐसा लगता है कि हम लोगों में रही नहीं है। ऐसे मेें यही लगता है कि हमें अब अपने प्राचीन साहित्य का अध्ययन भी करते रहना चाहिये ताकि पूरे देश में लुप्त हो चुका स्वाभिमान का भाव पुनः लाया जा सके।
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Saturday, October 03, 2009

चाणक्य नीति-बैर रुपी वृक्ष को उखाडे बिना शान्ति कहाँ (chankya sandesh in hindi)

प्रयत्नप्रेर्यर्वमणेन महता चितहस्तिना।
रूढ़वैरिद्रु मोत्खतमकृत्देव कुतः सुखम्।।
हिंदी में भावार्थ-
चित्त रूपी हाथी को अपने नियंत्रण में करने के प्रयास के साथ ही वैर रूपी वृक्ष को उखाउ़ फैंके बिना भला सुख कहां प्राप्त हो सकता है।
भोक्तं पुरुषकारेण दृष्टसित्रयमिव वियम्।
व्यवसायं सदैवेच्छेन्न हि कलीववदाचरेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
दुष्ट स्त्री के समान धन पाने की इच्छा यानि लक्ष्मी को पुरस्कार से भोगने के लिये सदा उद्योग करते रहें। कभी आलस्य न करें।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह सच है कि जीवन में मानसिक शांति के लिये अध्यात्मिक ज्ञान आवश्यक है पर दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति और सांसरिक दायित्वों के निर्वहन के लिये धन की आवश्यकता होती है। इसकी प्राप्ति के लिये भी उद्योग करना चाहिये। कभी जीवन में आलस्य न करें। भगवान श्री कृष्ण ने भी गीता में यही कहा है कि अपने सांसरिक कर्म करते हुए भक्ति करने के साथ ही ज्ञान प्राप्ति का प्रयास करें। निष्काम कर्म का श्रीगीता में आशय अक्सर गलत बताया जाता है। सच तो यह है उसमें धन की उपलिब्धयों को फल नहीं माना गया बल्कि उनसे तो सांसरिक कार्य का ही हिस्सा कहा जाता है। अपने परिश्रम से जो धन प्राप्त होता है उससे हम दूसरे दायित्वों का निर्वहन करते हैं। वह अपने साथ नहीं ले जाते इसलिये उसे फल नहीं मानना चाहिये। सांसरिक कार्य के लिये धन जरूरी है और उसी से ही दान और यज्ञ भी किये जाते हैं।

इसके अलावा अपने मन में दूसरे की भौतिक उपलब्धियां देखकर निराशा या बैर नहीं पालना चाहिये। हमारे मानसिक दुःख का कारण यही है कि हम दूसरों के प्रति अनावश्यक रूप से द्वेष और बैर पाल लेते हैं। उनसे अगर विरक्त हो जायें तो आधा दुःख तो वैसे ही दूर हो जाये। दूसरों के सुख को देखकर दु:खी होना ही हमारे लिए तनाव का कारण बनता है और अगर यह प्रुवृति छोड़ दें तो ही अच्छा है।
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Friday, October 02, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-इस धरती पर सभी जीवों की प्रकृति अलग अलग (hindu sandesh in hindi)

वैराग्ये संचरत्तयेको नीतौ भ्रमति चापरः
श्रृंगारे रमते कश्चिद् भुवि भेदाः परस्परम्

इस दुनियां में कोई वैरागी होकर मोक्ष प्राप्त करना चाहता तो कोई नीति शास्त्र का अध्ययन कर रहा है कोई कोई तो श्रृंगार रस का आनंद उठा रहा है। इस भूमि पर रहने वाले प्राणियों के स्वभाव अलग अलग हैं।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-पांचों उंगलियां बराबर नहीं हैं। प्रकृत्ति में जो विविधता है उसी में संसार को चलने वाली प्रक्रिया में सामंजस्य छिपा हुआ है। अगर पांचों उंगलियां बराबर होती तो शायद इंसान काम नहीं कर पाता। आज कंप्यूटर युग में जरा अपनी उंगलियों का अवलोकन करें। अगर उंगलियां बराबर होती तो क्या इसके कीबोर्ड पर काम किया जा सकता था? कतई नहीं! उंगलियां छोटी बड़ीं हैं इसलिये कीबोर्ड पर नाचते समय आपस में नहीं टकराती। हम उन्हें पंक्ति में एक साथ इसलिये खड़ा कर पाते हैं क्योंकि वह छोटी बड़ीं हैं। अगर कल्पना करें यह समान लंबाई की होती तो इन्हें एक पंक्ति में खड़ा कर काम नहीं कर सकते थे। हमारे पांवों की उंगलियां भी बराबर नहीं हैं। अगर वह बराबर होती तो हम अपनी देह के बोझ को उन पर खड़ा नहीं कर पाते। यह विविधता ही शरीर को लचीला बनाये रखते है।
इसी तरह जीवों के स्वभाव की विविधता की वजह से ही यह संसार चल रहा है। यह अंतर मनुष्यों में भी है। कुछ लोगों का स्वभाव हमें रास नहीं आता पर उस पर चिढ़+ना नहीं चाहिए। सभी लोगों के स्वभाव के साथ सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास ही जीवन में प्रसन्नता का बोध करा सकता है। यहां हर व्यक्ति अपने स्वभाव के वश होकर अपना कर्म करता है। इसे हम ऐसा भी कहते हैं कि हर व्यक्ति को उसका स्वभाव अपने वश में कर किसी कार्य करने के लिये प्रेरित करता है। उसी के अनुसार उसे फल प्राप्त होता है।  सभी मनुष्य एक जैसा काम एक जैसे करें यह संभव नहीं है।                                                   
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Thursday, October 01, 2009

कबीरदास जी के दोहे-गालियों से क्लेश पैदा होता है (kabirdas ji ke dohe-gaaliyon se hota hai klesh

गारी ही से ऊपजै,कलह कष्ट और मीच।
हारि चले जो सन्त है, लागि मरै सो नीच।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि गालियां बकने से ही कलह और कष्ट पैदा होता है। गाली सुनकर जो उसका जवाब न दे वह संत और जो लड़ मरे वह नीच है।

आवत गारी एक है, उलटत होय अनेक।
कहैं कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब गाली आती है तो एक ही होती है पर उसका जवाब देने पर उसकी संख्या बढ़ती जाती है। अगर कोई मूर्ख आदमी गाली बकता है तो बुद्धिमान का काम है कि वह चुप हो जाये तो एक ही गाली होकर रह जायेगी।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-गालियां देना एक तरह से फैशन हो गया है। अपढ़ या गंवार ही नहीं बल्कि जिनको शिक्षित और सभ्य समझा जाता है वह लोग भी आपसी बातचीत में गालियों का प्रयोग करते हैं। कई बार तो वार्तालाप के दौरान ही लोग अनावश्यक रूप से गालियां प्रयोग करते हुए इस बात का उनको आभास तक नहीं होता कि उससे उनका पूरा वाक्य अर्थहीन हो जाता है। श्रोता का दिमाग गाली सुनकर उसी पर केंद्रित हो जाने के कारण वाक्य के अन्य शब्दों का अर्थ समझने में असमर्थ रहता है या उनका उसकी दृष्टि में महत्व कम हो जाता है।
इसके अलावा अधिकतर वाद विवाद हिंसा में इसलिये ही बदल जाते हैं कि गालियों का प्रयोग प्रारंभ होने से दोनों पक्ष अपना संयम खो बैठते हैं। अगर एक आदमी गाली देता है तो उसके प्रत्तयुत्तर में दूसरा भी गाली देता है और इस तरह उनकी संख्या बढ़ती जाती है। अगर गाली का जवाब नही दिया जाये तो वह एक ही होकर रह जाती है। गाली देने वाला मूर्ख और उसे सुनकर जवाब न देने वाला संत ही कहा जाता है।
कुछ लोगों की आदत होती है कि वह आपसी बातचीत में गालियाँ अनावश्यक रूप से प्रयोग करते हैं। ऐसे लोगों की बातचीत की गंभीरता को स्वयं ही समाप्त करते हैं।
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