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Sunday, December 29, 2013

अपने पाप की स्वीकृति कर मुक्ति पायें-मनुस्मृति के आधार चिंत्तन लेख(apne paap ki swikriti ka mukti paayen-manu smriti ke aadhan par chinntan



            जिनकी प्रवृत्ति अपराधिक है उनसे तो यह भी अपेक्षा की ही नहीं जा सकती कि पर कभी कभी सामान्य मनुष्य भी अपराध कर बैठत है और फिर परेशान होता है। इससे बचने का एक ही उपाय है अपने अपराध की सार्वजनिक रूप से हृदय से स्वीकृत्ति की जाये। यह बात सामान्य मनुष्य के लिये कही जा रही है जो जघन्य अपराध नहीं करते वरन् ऐसे कर्म कर बैठते हैं जो नैतिक रूप से अनुचित होते हैं। झूठ बोलना, परनिंदा तथा धोखा देने जैसे पाप शायद ही कोई ऐसा सामान्य मनुष्य हो जो कभी नहीं करता है। फिर उसे पीड़ा भी बहुत होती है। अनेक लोग तो ऐसे है जिन्हें कर्म करते समय उसके पापपूर्ण होने का अहसास नहीं होता पर बाद में वह पछताते हैं पर वह उसके प्रायश्चित का उपाय नहीं करते। 
मनुस्मृति में कहा गया है कि

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ख्यायनेनानुतायेन तपसाऽध्ययनेन च।

पापकृन्मुच्यते पापतथा दानेन चापदि।।

            हिन्दी में भावार्थ-पापी व्यक्ति अपने दुष्कर्म का सत्य लोगों को बताकर, पश्चाताप कर, तप तथा स्वाध्याय कर मुक्ति पा सकता है। संकट की घड़ी में तप तथा स्वध्याय न करे तो दान करने से भी वह शुद्ध हो जाता है।

यथा यथा नरोऽधर्म स्वयं कृत्याऽनुभाषते।

तथा तथा त्वचेवाहिस्तेनाधर्मेण मुच्यते।।

            हिन्दी में भावार्थ-अपने अपराध की स्वीकृति दूसरों के सामने करने पर आदमी पाप से मुक्त हो जाता है।
            अनेक भावुक लोग तो छोटी गलती कर ही मन ही मन पछताते हैं। इतना कि अपना पूरा जीवन ही तनावपूर्ण बना डालते हैं। इससे बचने का एक उपाय है तो यह है कि किसी दूसरे के सामने अतिशीघ्र अपनी गलती का बखान कर मन हलका करें अथवा हृदय में पछतावा करने के साथ ही यह बात भी तय करना चाहिये कि ऐसी गलती दोबारा नहीं करनी है।  दूसरा यह कि कहीं ध्यान लगाकर परमात्मा का स्मरण कर उसे अपनी गलती समर्पित करें अथवा धार्मिक ग्रंथ का अध्ययन कर अपना मन मजबूत करें। इसका अवसर न मिले तो फिर किसी सुपात्र को कोई वस्तु या धन देकर मन की शुद्धि करें।


संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Tuesday, December 24, 2013

तुलसी दास दर्शन-रसों में अमृत और विष की पहचान करने वाला ही सच्चा रसिक(tulsidas darshan-rason mein amrit aur vish ki pahachan karne wala hi sachcha rasik-tulsidas darsha)



            पूरे विश्व में उपभोग संस्कृति का प्रभाव बढ़ रहा है। धार्मिक गुरु तथा समाज चिंत्तक भले ही अपने समाजों के सांस्कृतिक, धार्मिक तथा श्रेष्ठ होने का दावा भले करें पर सच यह है कि अध्यात्मिक दृष्टि से लोगों की चेतना का एक तरह से हरण हो गया है।  स्थिति यह हो गयाी है कि विषयों में  अधिक लोग इस तरह लिप्त हो गये हैं कि उनकी वजह से जो दैहिक, मानसिक तथा शारीरिक विकार पैदा हो रहे हैं उनका आंकलन कोई नहीं कर रहा।  अनेक लोगों के पास ढेर सारा धन है पर उनका पाचन क्रिया तंत्र ध्वस्त हो गया है।  महंगी दवाईयां उनकी सहायक बन रही हैं। दूसरी बात यह है कि जिसके पास धन है वह स्वतः कभी किसी अभियान पर दैहिक तथा मानसिक बीमारी के कारण समाज का सहयोग नहीं कर सकता। उसके पास देने के लिये बस धन होता है। जहां समाज को शारीरिक तथा मानसिक सहायता की आवश्यकता होती है वह मध्यम तथा निम्न वर्ग का आदमी ही काम आ सकता है।
            अनेक लोग धन के मद में ऐसे वस्त्र पहनते हैं जो उनकी छवि के अनुरूप नहीं होते। उसी तरह औषधियों का निरंतर सेवन करने से  उनकी रोगप्रतिरोधक क्षमता का हृास हो जाता है। यहां तक कि अनेक लोगों को सामान्य जल भी बैरी हो जाता है। अनेक बीमारियों में चिकित्सक कम पानी पीने की सलाह देते हैं।  अधिक दवाईयों का सेवन भी उनके लिये एक तरह से दुर्योग बन जाता है।    
संत तुलसीदास कहते हैं कि
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ग्रह भेषज जल पवन पट, पाइ कुजोग सुजोग।
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग, लखहिं सुलच्छन लोग।।
            सामान्य हिन्दी में भावार्थ-ग्रह, वेशभूषा, पानी, वायु तथा औषधि समय अनुसार दुर्योग तथा संयोग बनाते हैं।
जो जो जेहि जेहि रस मगन, तहं सो मुदित मन मानि
रसगुन दोष बिचारियो, रसिक रीति पहिचानि।।
            सामान्य हिन्दी में भावार्थ-प्रत्येक मनुष्य अपने स्वभाव के अनुसार संसार के विषयों के रस में मग्न रहता है। उसे उसके रस के दोषों के प्रभाव को नहीं जानते। इसके विपरीत ज्ञानी लोग रसों के गुण दोष को पहचानते हुए ही आनंद उठाते है। एक तरह से ज्ञानी ही सच्चे रसिक होते हैं।
            जिन लोगों की भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में रुचि है वह जानते हैं कि हर विषय के उपभोग की सीमा होती है।  अति हमेंशा वर्जित मानी जाती है। योग और ज्ञान साधना का नियमित अभ्यास करने वाले जानते हैं कि सांसरिक विषयों में जब अमृत का आभास होता है तो बाद में परिवर्तित होकर विष बन जाते हैं जिसे योग तथा ज्ञान साधना से ही नष्ट किया जा सकता है। यही कारण है कि जब विश्व में उपभोग संस्कृति से जो दैहिक, मानसिक तथा वैचारिक विकारों का प्रभाव बढ़ा है तब भारतीय योग साधना तथा श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों की चर्चा हो रही है क्योंकि अमृत से विष बने सांसरिक विषयों के रस को जला देने की कला इन्हीं में वर्णित है।


संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Monday, December 09, 2013

अपने मनोबल को कभी गिरने न दें-हिन्दी चिंत्तन लेख(apne manobal ko kabhi girne na den-hindi chinttan lekh, a hindu thought aritcle)



            संकट कितना गहरा क्यों न हों, शत्रु चाहें कितने भी प्रबल क्यों न हों तथा हमारे बनते काम बिगड़ बार बार क्यों न बिगड़ जाते होें पर कभी विचलित नहीं होना चाहिए।  हमेशा अपनी स्थिति, बाह्य छवि तथा अपनी व्यक्तिगत शक्ति सीमा पर आत्म मंथन करते रहना चाहिये।  सर्वशक्तिमान परमात्मा ने हमारे अंदर प्राणवायु का संचार तो किया है पर शेष जीवन हम अपने ही कर्म तथा व्यवहार का परिणाम भोगते हैं।  इतना ही नहीं हमें अपने अंदर के गुणों तथा दोषों का अवलोकन करते हुए अपनी रणनीति बनानी चाहिये।  एक बात तय है कि कर्म के अनुसार परिणाम होता है और वह हमारी इच्छानुसार न भी मिले तो भी हमारे अंदर की शक्ति तथा गुणों को हमसे कोई नहीं छीन सकता।  इसलिये हमें अपने अंदर के गुणों तथा शक्ति का विस्तार करना चाहिये। अपने अंदर मौजूद कमियों को समाप्त करना संभव नहीं है पर ऐसी रणनीति बनाना चाहिये कि वह हमारी लक्ष्य प्राप्ति में बाधा न बने।
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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अम्भोजिनी वनविहार विलासमेव हंसस्य हन्ति नितरां कुपितो विधाता।
न तवस्य दुग्धजलभेविधौ प्रसिद्धां वैदग्ध्यकीर्तिमपहर्तुमसौ समर्थः।।
            हिन्दी में भावार्थ-परमात्मा हंस पर क्रोधित होने पर उस वनविहार अवरुद्ध कर सकता है पर जल और दूध में भेद करने के उसके गुण को छीन नहीं सकता।
            यह समझ लेना चाहिये कि हमारी देह में रहने वाली तीन प्रकृत्तियों-मन, बुद्धि और अहंकार-अपनी अनुसार काम करती है। उन पर नियंत्रण करने वाला ही जितेंद्रिय कहलाता है।  इस संसार में अच्छा बुरा समय सभी का आता है पर जितेंद्रिय पुरुष अपने पराक्रम से अपनी लक्ष्य की तरफ बढ़ता जाता है।  उसे पता होता है कि अगर अच्छा समय नहीं रहा तो बुरा समय भी नहीं रहेगा। उसे यह भी विश्वास होता है कि अपने गुणों के सहारे वह प्रतिकूल स्थिति को अनुकूल बनाकर अपना लक्ष्य प्राप्त करेगा।  उसका मनोबल सदैव बढ़ा हुआ रहता है।  यह मनोबल तभी बढ़ा हुआ रहा सकता है जब हम आत्ममंथन की प्रक्रिया में सदैव लगे रहें।

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Saturday, November 30, 2013

दूसरों का विकास देखकर उनको आदर्श पुरुष न माने-हिन्दी चिंत्तन लेख(dusron ka vikas dekhkar unko aadarsh purush n mane-hindi chinntan lekh)



                        विश्व के अधिकतर देशों में जो राजनीतक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्थायें हैं उनमें सादगी, सदाचार तथा सिद्धांतों के साथ विकास करते हुए उच्चत्तम शिखर पर कोई सामान्य मनुष्य नहीं पहुंच सकता।  अंग्रेज विद्वान जार्ज बर्नाड शॉ का मानना था कि कोई भी व्यक्ति ईमानदारी से अमीर नहीं बन सकता। अंग्रेजों  ने अनेक देशों में राज्य किया।  वहां से हटने से पूर्व  अपने तरह की व्यवस्थायें निर्माण करने के बाद ही किसी देश को आजाद किया।  यही कारण है सभी देशों में आधुनिक राज्यीय, सामाजिक, आर्थिक तथा प्रशासनिक व्यवस्थाओं के शिखर पर अब सहजता से कोई नहीं पहुंच पाता।  यही कारण है कि उच्च शिखर पर वही पहुंचते हैं जो साम, दाम, दण्ड और भेद सभी प्रकार की नीतियां अपनाने की कला जानते हैं। याद रहे यह नीतियां केवल राजसी पुरुष की पहचान है। सात्विक लोगों के लिये यह संभव नहीं है कि वह उस राह पर चलें। वैसे भी शिखर वाली जगहों पर राजसी वृत्ति से काम चलता है। ऐसे में उच्च स्थान पर पहुंचने वालों से यह आशा करना व्यर्थ है कि वह निष्काम भाव से कर्म तथा निष्प्रयोजन दया करें। 
मनु स्मृति में  कहा गया है कि
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अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति।
ततः सपत्नाञ्जयति समूलस्तु विनश्यति।।

            हिन्दी में भावार्थ-अधर्म व्यक्ति अपने अधार्मिक कर्मों के कारण भले ही उन्नति करने के साथ ही अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता दिखे पर अंततः वह जड़ मूल समेत नष्ट हो जाता है।
            राजसी पुरुषों का आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा अन्य क्षेत्रों में जो तेजी से विकास होता है उसे देखकर सात्विक प्रवृत्ति के लोग भी दांतों तले उंगली दबा लेते हैं। खासतौर से युवा वर्ग को शिखर पुरुषों का जीवन इस तरह का तेजी से विकास की तरफ बढ़ता देखकर उनके आकर्षण का शिकार हो जाते हैं।  जिनकी प्रकृति सात्विक है वह तो अधिक देर तक इस पर विचार नहीं करते पर जिनकी राजसी प्रवृत्ति है वह अपना लक्ष्य ही यह बना लेते हैं कि वह अपने क्षेत्र में उच्च शिखर पर पहुंचे। न पहुंचे तो  कम से कम किसी बड़े आदमी की चाटुकारिता उसके नाम का लाभ उठायें।  यह प्रयास सभी को फलदायी नहीं होता। सच बात तो यह है कि कर्म और और उसके फल का नियम यही है कि जो जैसा करेगा वैसा भरेगा। देखा यह भी जाता है कि उच्च शिखर पर येन केन प्रकरेण पर पहुंचते हैं उनका पतन भी बुरा होता है।  इतना ही नहीं भले ही बाह्य रूप से प्रसन्न दिखें आंतरिक रूप से भय का तनाव पाले रहते हैं।  अतः दूसरों का कथित विकास देखकर कभी उन्हें अपना आदर्श पुरुष नहीं मानना चाहिये।
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Saturday, November 09, 2013

सहज भाव से जीवन बिताना ही वास्तविक धर्म-हिन्दी चिंत्तन लेख



            हमारे देश में धर्म के विषय पर दो धारायें हमेशा प्रचलित रही हैं-एक निराकार भक्ति तथा दूसरी साकार भक्ति।  जहां तक हमारे प्राचीन धर्म ग्रंथों में वर्णित सामग्री की बात है तो उसमें दोनों ही प्रकार की भक्ति को ही मान्य किया गया है।  वैसे हमारे प्राचीन ऋषियों, मुनियां तथा तपस्वियों ने सदैव ही परमात्मा के निराकार रूप को ही श्रेष्ठ माना है पर देखा यह गया है कि समाज के सामान्य जनों ने हमेशा ही साकार भक्ति करने में ही अपनी सिद्धि समझी है।  समाज ने ऋषियों, मुनियों तथा तपस्वियों को अपने हृदय में तो स्थान दिया पर उनकी निराकार भक्ति से कभी प्रेरणा नहीं ली।  यही कारण है कि साकार भक्ति के कारण पूरा समाज धीरे धीरे तार्किक गतिविधियों की तरफ बढ़ता चला गया।  दरअसल साकार भक्ति में हर मनुष्य अपनी दैहिक सक्रियता न केवल स्वयं देखता है बल्कि दूसरों को भी दिखाकर सुख उठाना चाहता है।
                        मंदिर में जाकर फल, फूल, दूध तथा तेल चढ़ाने की परंपरा साकार तथा सकाम भक्ति का ही प्रतीक हैं। इसके अलावा भी प्रसाद तथा वस्त्र भी मूर्तियों पर चढ़ाये जाते हैं।  इन सब वस्तुओं की आपूर्ति बाज़ार करता है। अनेक मंदिरों में विशेष अवसरों पर पूजा सामग्री, प्रसाद तथा मूर्तियों की दुकानें लगी देखी जा सकती है। कहने का अभिप्राय यह है कि सकाम तथा साकार भक्ति के कारण बाज़ार को लाभ होता है जैसा कि हम जानते हैं कि आर्थिक प्रबंधक सदैव ही अपनी वस्तुओं के प्रचार तथा उनके विक्रय के लिये सक्रिय रहते है।  कभी वह अपनी वस्तुओं का विक्रय करने के लिये किसी स्थान को सिद्ध प्रचारित करते हैं तो कभी अपनी वस्तु को सिद्ध बताकर भगवान के लिये अर्पण करने के लिये लोगों को प्रेरित करते है। इतना ही नहीं मनुष्य में जीवन के रहस्यों को जानने की जो जिज्ञासा होती है उसके लिये मोक्ष तथा स्वर्ग के भी रूप भिन्न भिन्न रूप तैयार किये गये हैं।  जिस धर्म के सिद्धांत अत्यंत सीमित और संक्षिप्त हैं उस पर ही लंबी लंबी बहसें होती हैं। यह बहसें तत्वज्ञान के नारों से शुरु तो होती हैं और समाज अज्ञान के अंधेरे में होती हैं।  दान और दया के रूप को कोई समझ हीं नहीं आया।  गुरु हमेशा ही अपने आश्रमों के लिये दान मांगते हैं तो दया के के नाम पर अपने व्यवसाय के लिये चंदा प्राप्त करने के लिये रसीदें काटते हैं।
महर्षि चाणक्य कहते हैं कि
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यस्य चित्तं द्रवीभूतं कृपया सर्वजन्तुषु।
तस्य ज्ञानेन मोक्षेण किं जटाभस्मलैपनैः।।
                        हिन्दी में भावार्थ-जिसके चित्त में सभी प्राणियों के लिऐ दयाभाव है उसे शरीर पर भस्म लगाने, जटायें बढ़ाने, तत्वज्ञान प्राप्त करने तथा मोक्ष के लिये कोई प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है।
                        जिस मनुष्य में जीवन के प्रति सहज भाव है उसे कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। संत रविदास ने कहा है कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। इसके विपरीत बाज़ार के आर्थिक स्वामी तथा प्रचार प्रबंधक अपने शोर से लोगों के मन को ही भटकाते हैं। जिस धर्म का सही ढंग से एकांत में हो सकता है उसे उन्होंने चौराहे पर चर्चा का विषय बना दिया है। भारत ही नहीं अपितु पूरे विश्व में यही स्थिति है।  हर धर्म के ठेकेदार अपने निर्धारित विशिष्ट रंगों के वस्त्र पहनकर यह प्रमाणित करते हैं कि वह अपने समाज के माननीय है। यह अलग बात है कि किसी भी धर्म के मूल प्रवर्तक ने अपने समाज के लिये किसी खास रंग की पहचान नहीं बनायी।  इस तरह धर्म को लेकर एक तरह से भ्रम की स्थिति बन गयी है।
                        अगर हम प्राचीन ग्रंथों के आधार पर धर्म के सिद्धांत की पहचान करें तो वह आचरण के आधार पर बना हुआ होता है। उसको कोई निश्चित कर्मकांड नहीं है। यही कारण है कि धार्मिक रूप से हमारे यहां एकता है पर कर्मकांडों में स्थान और क्षेत्र के आधार पर भिन्नता पायी जाती है। जहां तक स्वयं घर्म के आधार पर चलने का प्रश्न है तो उस पर अवश्य विचार करना चाहिये। प्रातःकाल उठकर योगसाधना तथा पूजा आदि कर मन को स्वस्थ तथा प्रसन्न चित्त बनाना चाहिये। उससे पूरा दिन अच्छा निकलता है। धर्म को लेकर लोगों से अधिक चर्चा नहीं करना चाहिये क्योंकि अधिकतर लोग इस बारे में अपना ज्ञान बघारते हैं। हमारे आसपास धर्म के मार्ग  पर चलने वाले लोग उंगलियों पर गिनती करने लायक ही होते हैं।                       


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Saturday, October 26, 2013

न सोना दिखे न चांदी, चल गयी मेले में भीड़ की आंधी-हिन्दी चिंत्तन लेख(na sona dikhe n chanti,chal gayi mele mein bheed ki aandhi-hinci chinttan lekh)



                                                अभी तक उन्नाव के डौंडिया खेड़ा गांव की  उस पुरानी एतिहासिक इमारत में खुदाई चल ही रही है जिसमें एक हजार टन सोना दबे होने का दावा किया गया था।  भारतीय पुरातत्व विभाग के विशेषज्ञों का एक दल वहां लगा हुआ है और प्रचार माध्यमों की जानकारी को सही माने तो  इस तरह की कोई संभावना नहीं लग रही कि वहां एक हजार टन सोना मिल जायेगा।  एक हजार टन ही क्या एक ग्राम सोना भी मिल जाये तो बहुत है। कहा जाता है कि खोदा पहाड़ निकली चुहिया, पर यहां पर कुछ कांच की चूड़ियां मिली है इसलिये नयी कहावत का जन्म हुआ ही माना जा सकता है कि खोदा महल मिली कांच की चूड़ियां।
                        वाकई जंगहंसाई हुई है।  जब खुदाई शुरु हुई तब टीवी समाचार चैनलों ने अपने विज्ञापनों के विराम के दौरान थोड़े समाचार और थोड़ी बहस चलाई पर चूंकि लोग उसे सुनते हैं इसलिये इसकी चर्चा खूब हुई।  अभी तक हमने ऐसे किस्से तो सुने हैं कि अमुक संत या तांत्रिक के कहने पर किसी ने इधर तो किसी ने उधर खजाना पाने की लालच में खुदाई  करवाई पर यह पहली बार हुआ कि सरकारी स्तर पर यह काम हुआ।  हैरानी इस बात है कि भारत के पुरातत्वविद इस चक्कर में फंस कैसे गये? ऐसा लगता है कि उन्नाव के जिस संत के कहने पर यह खुदाई शुरु हुई उसकी स्थानीय छवि के प्रभाव का शिकार भारतीय पुरातत्त विशेषज्ञ भी हो गये जिस तरह आम लोग कभी कभी हो जाते हैं।  वैसे देश में पुराने महल में खुदाई  यह हैरान करने वाली बात नहीं है।  इस महल की खुदाई भी होना चाहिये थी पर जिस तरह का प्रचार हुआ उसने देश के लोगों को हैरान कर दिया है।  अनेक सामाजिक, अध्यात्मिक तथा पत्रकारिता क्षेत्र के विद्वानों ने तो तत्काल इस महल खुदाई बंद करने की मांग इस आधार पर की इससे आम लोगों में गलत संदेश जा रहा है।  खुदाई का काम बिना प्रचार के होता तो शायद कोई आपत्ति नहीं करता पर ऐसा लगता है कि संत समर्थकों को प्रचार पाने का मोह था इसलिये एक मामूली खबर भारी सनसनी बन गयी।  मजेदार बात यह कि खुदाई प्रारंभ होने से पहले ही वहां लोगों का एक संक्षिप्त समयकालीन मेला गया। खाने पीने के सामानों की अस्थाई दुकानें वहां लग गयी। न सोना न दिखे न चांदी, चली मेले में भीड़ की आंधी।
                        हम जैसे अध्यात्मिक ज्ञान साधकों के लिये सोना न मिलना निराशा की बात नहीं वरन् समाज की सच्चाई को समझने का एक बहुत अवसर मिला उससे खुशी हुई ।  आज भी समाज में शिक्षित पर अज्ञानी लोगों को एक बहुत बड़ा वर्ग है जो इस तरह की खबरों में विश्वास के साथ दिलचस्पी लेता है।  उस संत के प्रमुख शिष्य ने यहां तक दावा किया था कि उस संत में इतनी शक्ति है कि वह 21 हजार टन सोना देश को दिलवायेंगे। सोने के बाग लगा देंगे। उनके बोलते हुए देखकर ऐसा लगा कि उन जैसी बातें पहले भी हम कई बार सुने चुके हैं।  ऐसे एक नहीं दस लोग हैं जिनको हमने सोना के खजाने का पता बताने का दावा करते सुना है।  अगर लोग इस तरह की बातों पर यकीन कराने वाले होते तो हर घर खुदा हुआ मिलता है।  भारतीय पुरातत्व विभाग के मुखिया ने पहले ही इतनी मात्रा में सोना मिलने की संभावना से इंकार किया था पर संत के प्रमुख शिष्य ने सोने का राग अलापते हुए प्रचार माध्यमों को सनसनी फैलाये रखने की जो सुविधा प्रदान की वह आश्चर्यजनक थी।  वैसे एक बात लगी कि हमारे देश के लोगों एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसी बातों पर यकीन नहीं करता। भले ही प्रचार माध्यमों से बाबा के समर्थकों को दिखाकर यह साबित करने का प्रयास किया कि यह देश अंधविश्वासों को मानने वाला है पर हमने अपने आसपास के लोगों का रुझान देखा सभी लोगों ने इसका विरोध किया।  एक आदमी भी ऐसा नहीं मिला जिसे लगता हो कि वहां खोदने पर खजाना मिलने की संभावना से सहमत हो।
                        इस दौरान अध्यात्मिक विद्वानों ने स्पष्ट रूप से कह दिया था कि स्वयं संत कभी प्रचार पाने के लिये सामने नहीं आये और उनकी स्थानीय छवि उनके सत्कर्मों के कारण स्वच्छ भी है पर खजाने के विषय में उनकी भूमिका का भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान से कोई सरोकार नहीं है।  यही बात अच्छी लगी।  जब कथित संतों के साथ सांसरिक विषयों से जुड़े विवाद आते हैं तब सबसे अधिक भारतीय अध्यात्मिक दर्शन को संदिग्ध बनाया जाता है। कम से कम अध्यात्मिक विद्वानों ने अपने विचारों ऐसी बहसों में सकारात्मक पक्ष रखकर अपना दायित्व अच्छी तरह निभाया है। इसके लिये वह बधाई के पात्र हैं।
 

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Friday, October 18, 2013

दृश्यों के रस में न डूबना ही प्रतिदिन का मोक्ष-हिन्दी चिंत्तन लेख(drishyon ke rash mein n doobna hi pratidin ka moksh-hindi chinttan lekh)



                                    हमारी इंद्रियां हमेशा बाहर ही सक्रिय रहने को लालायित रहती है।  विशेष रूप से हमारी आंखें हमेशा ही दृश्य देखने को उत्साहित रहती है।  हम जिन दृश्यों को देखते हैं वह दरअसल प्रकृति में विचर रहे विभिन्न जीवों की लीला है।  जिनकी उत्पति भोग तथा मुक्ति के लिये होती है। कुंछ लोग अपने भोग करने के साथ ही उसके लिये साधन प्राप्त करने का उपक्रम करते हैं तो उनकी यह सक्रियता दूसरे मनुष्य के लिये दृश्य उपस्थिति करती है।  कुछ लोग मुक्ति के लिये योग साधन आदि करते हैं तो भी वह दृश्य दिखता है।  मुख्य विषय यह है कि हम किस प्रकार के दृश्य देखते हैं और उनका हमारे मानस पटल पर  क्या प्रभाव पड़ता है इस पर विचार करना चाहिये।
                        हम कहीं खिलते हुए फूल देखते हैं तो हमारा मन खिल उठता है। कहंी हम सड़क पर रक्त फैला देख लें तो एक प्रकार से तनाव पैदा होता है। यह दोनों ही स्थितियां भले ही विभिन्न भाव उत्पन्न करती हैं पर योग साधक के लिये समान ही होती है।  वह जानता है कि ऐसे दृश्य प्रकृति का ही भाग हैं। 
                        हम देख रहे हैं कि मनोरंजन व्यवसायी कभी सुंदर कभी वीभत्य तो कभी हास्य के भाव उत्पन्न करते हैं। वह एक चक्र बनाये रखना चाहते हैं जिसे आम इंसान उनका ग्राहक बना रहे। पर्दे पर फिल्म चलती है उसमें कुछ लोग  अभिनय कर रहे हैं।  वहां एक कहानी है पर उसे देखने वाले  व्यक्ति के हृदय में पर्दे पर चल रहे दृश्यों के साथ भिन्न भिन्न भाव आते जाते हैं। यह भाव इस तरह आते हैं कि जैसे वह कोई सत्य दृश्य देख रहा है।  ज्ञानियों के लिये पर्दे के नहीं वरन् जमीन पर चल रहे दृश्य भी उसके मन पर प्रभाव नहीं डालते।  वह जानता है कि जो घटना था वह तय था और जो तय है वह घटना ही है।  सांसरिक विषयों के जितने प्रकार के  रस हैं उतने ही मनुष्य तथा उसकी सक्रियता से उत्पन्न दृश्यों के रंग हैं।            

पतंजलि योग शास्त्र में कहा गया है कि
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प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थ दृश्यम
                        हिन्दी में भावार्थ-प्रकाश, क्रिया तथा स्थिति जिनका स्वभाव है भूत वह  इंद्रियां जिसका प्रकट स्वरूप है और  भोग और मुक्ति का संपादन करना ही जिसका लक्ष्य है ऐसा दृश्य है।

                        हम दृश्यों के चयन का समय या स्थान नहीं तय कर सकते पर इतना तय जरूर कर सकते हैं कि किस दृश्य का प्रभाव अपने दिमाग पर पड़ने दें या नहीं।  जिन दृश्यों से मानसिकता कलुषित हो उनकी उपेक्षा कर देनी चाहिये। हृदय विदारक दृश्य कोई शरीर का रक्त नहीं बढ़ाते।  हमें समाचारों में ऐसे दृश्य दिखाने का प्रयास होता है। आजकल सनसनी ऐसे दृश्यों से फैलती है हो हृदय विदारक होती हैं। लोग उसे पर्दे पर देखकर आहें भरते हैं।  अखबारों में ऐसी खबरे पढ़कर  मन ही मन व्यग्रता का भाव लाते हैं।  अगर आदमी ज्ञानी नहीं है तो वह यंत्रवत् हो जाता है। मनोरंजन व्यवसायी तय करते हैं कि इस यंत्रवत खिलौने में कभी श्रृंगार, तो कभी हास्य कभी वीभत्स भाव पैदा कर किस तरह संचालित किया जाये।  आनंद वह उठाते हैं यंत्रवत् आदमी सोचता है कि मैने आनंद उठाया। इस भ्रम में उम्र निकल जाती है। चालाक लोग कभी स्वयं इन रसों में नहीं डूबते। ठीक ऐसे ही जैसे हलवाई कभी अपनी मिठाई नहीं खाता। फिल्म और धारावाहिकों में अनेक पात्र मारे गये पर उनके अभिनेता हमेशा जीवित मिलते हैं मगर उनके अभिनय का रस लोगों में बना रहता है।  संसार के विषयों और दृश्यों  में रस है पर ज्ञानी उनमें डूबते नहीं यही उनके प्रतिदिन के मोक्ष की साधना होती है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Saturday, October 12, 2013

इस संसार में कमाना सबसे सरल काम लगता है-हिन्दी चिंत्तन लेख(is sansar mein kamana sabse saral kam lagta hai-hindi chinntan lekh,hindi thouhgt article)



                        इस संसार में मनुष्य के लिये हाथों से प्रत्यक्ष रूप में धनार्जन, आंख से सुंदर दृश्य का दर्शन, मुख से भोजन, जिव्हा से वाचन और कान से मधुर स्वर का श्रवण करना सरल काम है।  इन्हें कोई भी कर सकता है। हमारी इंद्रियों को हमेशा ही बाह्य विषय आकर्षित करते हैं पर अंततः थका भी देते हैं। सांसरिक विषयों से परे होने के बाद  ज्ञान साधना करने पर इन इंद्रियों और विषयों का संयोग  वास्तविक रूप से समझ मेें आता है।  अगर हम बाह्य विषयों की बात करें तो उनके साथ संबंध हमेशा ही विष का निर्माण करता है और जब तक हम उसका विसर्जन न करें तब तक मन परेशान रहता है। जिस तरह हम पेट में भोजन तथा पानी उदरस्थ करते हैं पर वह अंततः निष्कासन द्वारों से गंदा होकर ही निकलता है। उसी तरह अन्य विषयों का भी यही हाल है। हम सुंदर दृश्य देखते हैं पर थक जाते हैं। फिर विराम के बाद वही दृश्य जब दोबारा नहीं दिखता तब निराशा होती है। उसी तरह कोयल का मधुर स्वर सुनने की आदत होने पर जब वह नहीं सुनाई देता तब कान खालीपन का अनुभव करते हैं।  उसी तरह जब हमें हाथों से प्रत्यक्ष धन कमाने का अभ्यास हो जाता है तब सेवानिवृत्ति या व्यवसाय से प्रथक होने पर फिर कहीं दूसरी जगह धन कमाने की इच्छा होती है।
                        यह इच्छायें मनुष्य की देह को जिंदा रखती हैं पर उसकी आत्मा को मरने के लिये विवश भी करती है।  सबसे सरल लगने वाले यह काम हमेशा ही कठिनाई में डाले रहते हैं।  योग साधना, ध्यान, मंत्रजाप तथा एकांत में मौन बैठकर चिंत्तन करने वाले काम अत्यंत कठिन लगते हैं पर उनसे जो अमृत पैदा होता है उसकी अनुभूति करने वाले बहुत कम लोग दिखते हैं। सच तो यह है कि हाथ से कमाने की अपेक्षा त्याग करना, आंख को खोलकर हमेशा ही बाह्य दृश्य देखने की अपेक्षा ध्यान लगाना, मुख से भोजन में स्वाद का त्याग, कान से अपने अंदर की सुनना, और जीभ से बोलने की अपेक्षा मौन रहना अत्यंत दुष्कर लगता है पर सच यही है कि मनुष्य में उस अध्यात्मिक शक्ति का निर्माण इन्हीं कठिन कामों से होता है जो जीवन को कलात्मक रूप से रहने का अनुभव देती है।
                        अक्सर हमारे अनेक कथित गुरु विषयों का त्याग करने की बात करते हैं पर इसका आशय वह स्वयं ही नहीं जानते। सच तो यह है कि उन्होंने स्वयं ही विषयों का त्याग नहीं किया होता क्योंकि मनुष्य देह के रहते यह संभव नहीं है।  देह के साथ इंद्रियां हैं तो बाह्य विषयों से संपर्क किये बिना उनका प्रसन्न रहना संभव नही है।  इंद्रियों अपना काम करती हैं तो करने दीजिये पर विषयों में मन को लिप्त नहीं करना चाहिये। हाथ से काम करने पर मिलने वाले धन के रूप में लाभ को फल नहीं कहा जा सकता बल्कि वह तो कर्म का ही विस्तार है।  आप कहीं से धन लेकर अपने पास नहीं रखते बल्कि उसे अपने अन्य सांसरिक कर्मों पर व्यय करते हैं।
                        एक सज्जन ने एक ज्ञानी व्यक्ति से कहा-‘‘जब तुम ज्ञान की बात करते हो तो यह बताओ यह नौकरी क्यों करते हो? तुम्हें निष्काम  कैसे कहा जा सकता है क्योंकि तुम इसका वेतन पाते हों?’’
                        उस ज्ञानी ने जवाब दिया कि-‘‘यह वेतन लेना एक तरह से कर्म ही है। हाथ से धन लेकर मुझे यह कहीं दूसरी जगह खर्च करना है।  अपनी देह के साथ ही अपने परिवार का भी पालन पोषण करना है।  यह वेतन मेरे मन को प्रसन्नता नहीं देता बल्कि यह कर्म की बाध्यता है कि इसे लेकर में दूसरा कर्म करूं। पेट पालन फल नहीं होता वरन् यह दायित्व है ताकि में अपनी देह से भक्ति के साथ ही ज्ञानार्जन कर सकूं।’’
                        संसार में रहते हुए अनेक पारिवारिक समस्याओं से हमें जूझना होता है। उनकी निपटने पर हम यह सोचकर प्रसन्न होते हैं कि हमने फल पा लिया तो यह अज्ञान का प्रमाण है। पैसा पाया तो वह खर्च करेंगे या बैंक खाते जमा कर देंगे। हमारे खाते में रकम चमकती दिखेगी पर बैंक दूसरों को ऋण देकर उन्हें कृतार्थ करेगा।  बेटे की शादी पर नाचते हैं पर बाद में पता चलता है कि वह तो बहु का होकर रह गया।  तब चिढ़ते हैं पर यह भूल जाते हैं कि विवाह स्त्री पुरुष का नया जन्म होता है और प्राकृत्तिक रूप से दोनों एक दूसरे के निकट आते हैं तब पुराने जन्म के रिश्ते उन्हें निभाने का अवसर उनके पास नहीं रह जाता।  बेटी की शादी होने पर उसे सुयोग्य वर मिला यह देखकर हम समझते हैं कि हमारा जीवन धंन्य हो गया। यह भूल गये कि अब वह परायी हो गयी और उसे अब अपनी गृहस्थी देखनी होगी। आजकल तो सीमित संतान का समय है इसलिये लोगों को अपने बच्चों के विवाह आदि की प्रसन्नता क्षणिक ही रह पाती है।  कुछ समय बाद पता लगता है कि परिवार की जिम्मेदारी पूरी करने वाले दंपत्ति को बाकी जीवन अकेले ही बिताना होगा। हम शहरी समाज में ऐसे अनेक दंपत्ति देख सकते हैं जो अकेले हो गये हैं।
                        ऐसे में अध्यात्मिक ज्ञान होने वाले लोग ही अपने जीवन में सहजता अनुभव कर सकते हैं। अध्यात्मिक ज्ञान होने पर एक ही व्यक्ति दो और दो चार हो जाते हैं।  आत्मा और मन दो तत्व इस देह  का भाग हैं।  अगर मन अकेला उपयोग करता है तो वह थक जाता है और अगर आत्मा इसमें साथ देती है तो दोनों साथी हो जाते हैं।  योग साधना, ध्यान, मंत्र जाप तथा प्रातःकाल सैर करने वाले लोगों के चेहरे पर कभी ऐसे तनाव नहीं दिखते जो आलस्य के साथ जीवन बिताने वालों पर दिखते हैं।  इस जीवन की सार्थकता समझने वाले कभी अपना समय फालतु बातों में नष्ट नहीं करते वरन् प्रतिदिन उनका जन्म तथा मोक्ष होता है। योग साधना से जब आत्मा का इंद्रियों से संपर्क होता है तो वह शक्तिशाली हो जाती हैं और उन्हें विषयों के सहज तथा असहज रूप का आभास हो जाता है।                       

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Saturday, October 05, 2013

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-विषैले भोजन की पहचान जरूरी (vishaile bhojan ki pahachan jaroori-according kautilya economics)




             आजकल खाने पीने की वस्तुओं में मिलावट अधिक हो गयी है। स्थिति यह है कि अनेक धूर्त लोग खाने के सामान अभक्ष्य तथा अपच सामान मिलाकर बेचते हैं।  उससे भी अधिक दृष्ट लोग हैं जो यह जानते हुए कि उनकी सामग्री विषाक्त है वह उसे खाने पीने के लिये ग्राहक या प्रयोक्त को बेचते हैं। अभी हाल ही में बिहार में मध्यान्ह भोजन खाकर अनेक छात्रों की मृत्यु हो गयी थी। इतना ही प्रचार माध्यमों-समाचार पत्रों तथा टीवी चैनलों-में ऐसे समाचार लगातार आते रहे हैं कि मध्यान्ह भोजन में खराब या विषाक्त खाना परसो जा रहा है।  प्रचार माध्यमों का यह प्रयास प्रशंसनीय है पर यह कहना पड़ता है कि उनका ध्यान देर से गया है। देश में सरकारी तथा गैर सरकारी कार्यक्रमों में गरीबों को खाना खिलाने के नाम पर जिस तरह की खुले में व्यवस्था होती है उसमें ऐसी ढेर सारी शिकायते पहले से ही रही हैं पर उन पर बिहार की घटना से पहले ध्यान नहंी दिया गया।  बहरहाल अब स्थिति यह है कि हम हर जगह इस यकीन के साथ भोजन नहीं कर सकते कि वह स्वच्छ है।  सामान्य लोगों को भोजन के दूषित होने की जानकारी सहजता से नहीं रहती जबकि हमारा अध्यात्मिक दर्शन इस विषय में अनेक प्रमाण दिये गये हैं।

कौटिल्य के अर्थशासत्र में बताया गया है कि

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भोज्यमन्नम् परीक्षार्थ प्रदद्यात्पूर्दमग्नये।

वयोभ्यश्व तत दद्मातत्र लिङ्गानि लक्षयेत्।।

       हिन्दी में भावार्थ-भोजन योग्य अन्न की परीक्षा करने के लिये  पहले अग्नि को दें और फिर पक्षियों को देकर उनकी चेष्टा का अध्ययन किया जा सकता है।

धूमार्चिर्नीलता वह्नेः शब्दफोटश्व जायते।

अन्नेन विषदिग्धेन वयसां मरणभवेत्।।

        हिन्दी में भावार्थ-यदि अग्नि से नीला धुआं निकले और फूटने के समान शब्द हो, अथवा पक्षी खाने के बाद मर जाये तो मानना चाहिये कि वह अन्न विषैला है।

अस्विन्नता मादकत्यमाशु शल्यं विवर्णता।

अन्नस्य विषदिगधस्य तथाष्मा स्निगधमेचकः।।

                 हिन्दी में भावार्थ-विष मिला हुआ भोजन आवश्यकता से अधिक गर्म तथा चिकना होता है।

व्यञ्जनस्याशु शुष्कत्वं क्वथने श्यामफेनता।

गंधस्पर्शरसाश्वव नश्यन्ति विषदूषाणात्।।

    हिन्दी में भावार्थ-बने हुए व्यंजन का जल्दी सुखता है। पकाते समय काला फेल उठना  विष दूषित अन्न के ही लक्षण है।

           बिहार के विद्यालय में विषाक्त अन्न परोसने की जो घटना हुआ थी उसमें खाना पकाने वाली महिला ने वहां की प्राचार्या को पकाते समय ही तेल या अन्न के विषाक्त होने की बात कही थी पर उसने ध्यान नहंी दिया।  गरीब महिला ने खाना पकाया और स्वय तथा वहां उपस्थित अपने तीन बच्चों को भी खिलाया। परिणाम यह हुआ कि यहाँ ं उसके मृत 22 बच्चों में उसके दो बच्चे भी थे। तीसरा बीमार हुआ और वह स्वयं भी बुरी तरह बीमार हुई।  रसोई बनाने वाली महिला संभवतः अधिक शिक्षित नहीं थी पर ग्रंामीण परिवेश की होने के कारण उसे भोजन के विषाक्त होने का संदेंह हो हुआ पर महिला प्राचार्य ने उसकी बात को नज़रअंदाज कर दिया गया । दरअसल देखा जाये तो भारतीय अध्यात्म में वर्णित सूत्रों की जानकारी जितनी ग्रामीण लोग रखते हैं उतनी शहरी क्षेत्र में अंग्र्रेजी शिक्षा पद्धति से ज्ञान संपन्न लोगों को नहीं रहती शायद यही कारण है कि उससे अधिक शिक्षित प्राचार्या ध्यान नहीं दे पायी।
     हम अक्सर कहा करते हैं कि गांवों में अशिक्षित लोग रहते हैं पर सच यह है कि भारतीय अध्यात्म से वह गहराई से जुड़े रहते हैं कि वह शहरी लोगों से अधिक ज्ञानी होते हैं।  इसके विपरीत शहरी क्षेत्रों में रहने वाले लोग शिक्षित जरूर होते हैं पर ज्ञानी नहीं होते।  कोई बीमारी हो तो शहरी लोग आधुनिक चिकित्सा पद्धति की तरफ भागते हैं जबकि ग्रमीण परिवेश के लोग अचूक देशी नुस्खे आजमाते हैं और कभी दूसरों का भी सुझाते हैं।  देखा जाये तो शहरी लोगों में बीमारी का अनुपात अधिक ही रहता है। दूसरी बात यह भी है कि शहरी क्षेत्रों में दूषित और विषाक्त पदार्थ अधिक बिकते हैं क्योंकि वहां के लोगों को उसकी पहचान नहीं है।  अतः शहरी क्षेत्रों में ही दूषित तथा पवित्र खाद्य पदार्थै के प्रति चेतना लाने का प्रयास करना चाहिये।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 


Saturday, September 28, 2013

मनुस्मृति-भ्रष्ट राज्यकर्मियों की संपत्ति जब्त की जाना चाहिये (thought based on manu smriti-bhrasht rajyakarmilyon ki sampatti jabt ki jana chahiey,movement against corruption)



                        हम कहते हैं कि देश में राजकीय क्षेत्र में बहुत भ्रष्टाचार व्याप्त है। कुछ लोग तो अपने देश इस प्रकार के भ्रष्टाचार से इतने निराश होते हैं कि वह देश के पिछड़ेपन को इसके लिये जिम्मेदार मानते हैं। इतना ही नहीं  कुछ लोग तो दूसरे देशों में ईमानदारी होने को लेकर आत्ममुग्ध तक हो जाते हैं।  उन्हें शायद यह पता नहीं कि कथित रूप से पश्चिमी देशों में बहुत सारा भ्रष्टाचार तो कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त है इसलिये उसकी गिनती नहीं  की जाती वरना भ्रष्टाचार तो वहां भी बहुत है।  हमारा अध्यात्मिक दर्शन मानता है कि जिन लोगों के पास राज्यकर्म करने का जिम्मा है उनमें भी सामान्य मनुष्यों की तरह अधिक धन कमाने की प्रवृत्ति होती है और राजकीय अधिकार होने से वह उसका गलत इस्तेमाल करने लगते हैं। यह स्वाभाविक है पर राज्य प्रमुख को इसके प्रति सजग रहना चाहिये।  उसका यह कर्तव्य है कि वह अपने कर्मचारियों की गुप्त जांच कराता रहे और उनको दंड देने के साथ ही अन्य कर्मचारियों को अपना काम ईमानदारी से काम करने के लिये प्रेरित करे। 
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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राज्ञो हि रक्षाधिकृताः परस्वादायिनः शठाः।
भृत्याः भवन्ति प्रायेण तेभ्योरक्षेदिमाः प्रजाः।।
                        हिन्दी में भावार्थ-प्रजा के लिये राज्य कर्मचारी अधिकतर अपने वेतन के अलावा भी कमाई क्रने के इच्छुक रहते हैं अर्थात उनमें दूसरे का माल हड़पने की प्रवृत्ति होती है। ऐसे राज्य कर्मचारियों से प्रजा की रक्षा के लिये राज्य प्रमुख को तत्पर रहना चाहिये।
ये कार्यिकेभ्योऽर्थमेव गृह्यीयु: पापचेतसः।
तेषां सर्वस्वामदाय राजा कुर्यात्प्रवासनम्।।
                        हिन्दी में भावार्थ-प्रजा से किसी कार्य के लिये अनाधिकार धन लेने वाले राज्य कर्मचारियों को घर से निकाल देना चाहिये।  उनकी सारी संपत्ति छीनकर उन्हें देश से निकाल देना चाहिये।
                        हम आज के युग में जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था को देख रहे हैं उसमें राज्यप्रमुख स्थाई रूप पद पर नहीं रहता। उसका कार्यकाल पांच या छह वर्ष से अधिक नही होता।  ऐसे में पद पर आने पर उसके पास राजकाज को समझने में एक दो वर्ष तो वैसे ही निकल जाते हैं फिर बाकी समय उसे यह प्रयास करना होता है कि वह स्वयं एक बेहतर राज्य प्रमुख कहलाये।  दूसरी बात यह भी है कि राज्य कर्मचारियेां के विरुद्ध कार्यवाही सहज नहीं रही। हालांकि छोटे कर्मचारियों के  विरुद्ध कार्यवाही की जा सकती है पर राज्य के उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों  को स्वयं भी तो ईमानदार होना चाहिये।  उच्च पदों पर बैठे राज्य कर्मचारियों की शक्ति इतनी होती है कि वह राज्य प्रमुख को भी नियंत्रित करते हैं। राज्य प्रमुख अस्थाई होता है जबकि उच्च पदों पर बैठे अधिकारी स्थाई होते हैं। स्थिति यह है कि अनेक देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था के रहते वहां के बुद्धिजीवी  इन्हीं स्थाई उच्च अधिकारियों को आज का स्थाई राजा मानते हैं।  राज्य प्रमुख बदलते हैं  पर ऐसे उच्च अधिकारी स्थाई रहते हैं। कार्य का अनुभव होने से वह राज्य प्रमुख के पद का पर्दे के पीछे से संचालन करते हैं।
                        एक स्थिति यह भी है कि आज के लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव की प्रक्रिया अपनायी जाती है। जिसमें विजय प्राप्त करने वाला ही राज्य प्रमुख बनता है।  चुनाव जीतने वालों में राजनीति शास्त्र का ज्ञान हो यह अनिवार्य नहीं है।  यही कारण है कि येनकेन प्रकरेण सत्ता सुख लेने की चाहत वाले लोग राजनीति क्षेत्र में आ जाते हैं। इनमें से कई लोग बड़े पद पर बैठकर भी अपनी इच्छा का काम नहीं कर पाते। आधुनिक लोकतंत्र में राजकीय अधिकारी का पद सुरक्षित है जबकि चुनाव के माध्यम से चुने गये लोकतांत्रिक प्रतिनिधि की वर्ष सीमा तय होती है।  इस कारण कुछ ही लोकतांत्रिक प्रतिनिधि ऐसे होते हैं जो मुखर होकर काम करते हैं जबकि सामान्यतः तो केवल अपने पद पर बने रहने से ही संतुष्ट रहते हैं।  इस स्थिति ने उन राज्यकर्मियों को आत्मविश्वास दिया है कि वह चाहे जो करें।  अनेक राज्यकर्मी तो प्रजा को काम न कर चाहे जो करने की धमकी तक देते हैं।  यही कारण है कि अनेक देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था के होते भी उस प्रश्नचिन्ह लगाया जाता है।
                        हमारे देश में अध्यात्मिक दर्शन राजस कर्म की मर्यादा और शक्ति बखान करता है।  मनुष्य स्वयं सात्विक भले हो पर अगर उसके जिम्मे राजस कर्म है तो वह उसे भी दृढ़ता पूर्व निभाये यही बात हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है।  हमारे अध्यात्मिक दर्शन को शायद इसलिये ही शैक्षणिक पाठ्यक्रम से दूर रखा गया है क्योंकि उसके अपराधियों के साथ ही भ्रष्टाचार के विरुद्ध भी कड़े दंड का प्रावधान किया गया।  हालांकि अब देश में चेतना आ रही है और अनेक जगह भ्रष्ट राज्यकर्मियों के विरुद्ध कार्यवाही होने लगी है। अनेक जगह तो भ्रष्ट अधिकारियों और कर्मचारियों की संपत्ति जब्त की जाने लगी है पर अभी भी देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक बड़े अभियान की आवश्यकता है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Saturday, September 21, 2013

मनुस्मृति-रात्रि भोजन के बाद मनोरंजन करना चाहिये(manu smriti-ratru bhojan ke baad manoranjan karna aawashyak)



      आमतौर से लोग यह समझते हैं कि भारतीय अध्यात्म दर्शन इंद्रियों पर नियंत्रण करने के लिये हर विषय का त्याग करने की बात करता है। वह मनोरंजन तथा खेल आदि का विरोधी है।  यकीनन यह विचार किसी के भी अज्ञानी होने का ही प्रमाण है।  यह अलग बात है कि जहां भारतीय अध्यात्मिक दर्शन जहां भक्ति तथा ध्यान साधना को एकांत करने की बात कहता है वहीं वह सांसरिक विषयों के साथ निर्लिप्त भाव से  जुड़ने की राय भी देता है।  इस देह की सभी इंद्रियां हमेशा सक्रिय रहती हैं। इंद्रियों का यह स्वभाव है कि वह विभिन्न रसों में लिप्त होने के लिये हमेशा उत्सुक रहती हैं। एकरसता उनको उबा देती है। इसलिये समय और स्थिति कंे अनुसार इंद्रियों पथ बदलना चाहिये पर उनके विषयों से जुड़ने का भी एक समय होता है। हमेशा भक्ति और साधना नहीं हो सकती तो हमेशा मनोरंजन भी नहीं हो सकता।  हमारी देह है तो उसे सांसरिक विषयों से जोड़ना ही पड़ता हैं। प्रातःकाल योग साधना के दौरान आसन, ध्यान, मंत्र जाप तथा पूजा करने से जहां देह, मन और विचारों की शुद्धि होती है वहीं सांयकाल मनोरंजन के दौरान गीत संगीत सुनने से भी मनोविकार दूर होने के साथ ही थकान भी दूर होती है। आदमी की थकी देह में बैठा मन जब मयूर की तरह नाचता है उसमें वह दोपहर अर्थोपार्जन के दौरान एकत्रित विष का नाश होता है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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तत्र भुजत्वा पुनः किञ्चित्तूर्वघोषैः प्रहर्षितः।
संविशेत्तु यथाकालमत्तिष्ठेच्य यतवलमः।।
                        हिन्दी में भावार्थ-भोजन करने के बाद कुछ समय हृदय को प्रसन्न करने के लिये गीत संगीत सुनने के बाद अपनी थकान दूर करने के लिये शयन करना चाहिये।
                        हमारे यहां भक्ति और साधना के साथ ही मनोरंजन का भी समय तय कर जीवन नहीं बिताया जाता।  प्रातःकाल गीत संगीत के साथ मनोंरजन के नाम पर भक्ति होती है तो सांयकाल भी कहीं भक्ति संगीत के नाम पर मनोरंजन कार्यक्रम होते हैं।  हैरानी तब होती है जब अनेक जगह भक्ति संध्या के नाम पर लगते हैं। भक्ति संध्या अर्थात यह  दो शब्द  ज्ञानसाधकों को हतप्रभ कर देते हैं। तब उनके मन में यह विचार भी आता है कि क्या संध्या को भी भक्ति होती है क्या? हां, इतना अवश्य है कि अनेक अध्यात्मिक ज्ञानी रात्रि शयन से पूर्व ध्यान कर सोने की सलाह देते हैं पर वास्तव में इससे निद्रा अच्छी आती है। ध्यान करने से दिन भर जो मन में एकत्रित विष  नष्ट हो जाता है।  शयन करते समय उन विषयों का विचार नहीं आता पर इसका यह आशय कतई नहीं है कि भक्ति के नाम पर मनोरंजन कर उस स्थिति को पाया जा सकता है।
                        कहने का अभिप्राय है कि हमारा अध्यात्मिक दर्शन किसी विषय से जुड़ने पर प्रतिबंध लगाने की राय नहीं देता पर समय तथा सीमा के अनुसार काम करने की राय देता है।  प्रातःकाल जहां एकांत साधना जीवन में पवित्रता लाती है वहीं सांयकाल मनोरंजन करना भी मन को प्रसन्नता देता है। यह मनोरंजन भी एकांत में या सीमित समूह में होना चाहिये न कि उसके लिये भारी भीड़ एकत्रित की जाये।  भीड़ में मनोरंजन का लाभ वैसे ही कम होता है जैसे कि सार्वजनिक रूप से भक्ति करने पर मिलता है। किसी भी भाव की सुखद अनुभूति अंदर केवल एकांत में ही जा सकती है भीड़ में मचा शोर मनोरंजन कम तनाव का कारण अधिक होता है।


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