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Friday, December 30, 2011

सामवेद से संदेश-विद्वान में तेज हो तभी पूज्यनीय होता है (vidavan mein tej ho tabhi pujyaniya hota hai)

            मनुष्य का मन माया में आसानी से रमता है जबकि अध्यात्मिक चर्चा उसके लिये बोरियत पैदा करने वाली प्रक्रिया है। धन के पीछे भागने में हर मनुष्य अपनी पूरी ताकत लगा देता है। कई बार तो ऐसा लगता है कि अनेक लोगों के लिये मनोरंजन का साधन ही धनोपार्जन करना है।  अंग्रेज विद्वान जार्ज बर्नाड शॉ के अनुसार बिना बेईमानी के कोई भी धनी नहीं हो सकता। हमारे देश में अंग्रेजी राज व्यवस्था, भाषा, साहित्य, संस्कृति तथा संस्कारों ने जड़ तक अपनी स्थापना कर ली है जिसमे छद्म रूप की प्रधानता है। इसलिये अब यहां भी कहा जाने लगा है कि सत्य, ईमानदारी, तथा कर्तव्यनिष्ठा से कोई काम नहीं बन सकता। दरअसल हमारे यहां समाज कल्याण अब राज्य की विषय वस्तु बन गया है इसलिये धनिक लोगों ने इससे मुंह मोड़ लिया है। लोकतंत्र में राजपुरुष के लिये यह अनिवार्य है कि वह लोगों में अपनी छवि बनाये रखें इसलिये वह समाज में अपने आपको एक सेवक के रूप में प्रस्तुत कर कल्याण के ने नारे लगाते हैं। वह राज्य से प्रजा को सुख दिलाने का सपना दिखाते हैं। योजनायें बनती हैं, पैसा व्यय होता है पर नतीजा फिर भी वही ढाक के तीन पात रहता है। इसके अलावा गरीब, बेसहारा, बुजुर्ग, तथा बीमारों के लिये भारी व्यय होता है जिसके लिये बजट में राशि जुटाने के लिये तमाम तरह के कर लगाये गये हैं। इन करों से बचने के लिये धनिक राज्य व्यवस्था में अपने ही लोग स्थापित कर अपना आर्थिक साम्राज्य बढ़ात जाते हैं । उनका पूरा समय धन संग्रह और उसकी रक्षा करना हो गया है इसलिये धर्म और दान उनके लिये महत्वहीन हो गया है।
सामवेद में कहा गया है कि
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ऋतावृधो ऋतस्पृशौ बहृन्तं क्रतुं ऋतेन आशाये।
                ‘‘सत्य प्रसारक तथा सत्य को स्पर्श करने वाला कोई भी महान कार्य सत्य से ही करते हैं। सत्य सुकर्म करने वाला शस्त्र है।’’
‘‘वार्च वर्थय।
             ‘‘सत्य वचनों का विस्तार करना चाहिए।’’
वाचस्पतिर्मरवस्यत विश्वस्येशान ओजसः।
           ‘‘विद्वान में  तेज हो तो वह पूज्य होता है।’’
              कहने का अभिप्राय है कि हमारे देश में सत्य की बजाय भ्रम और नारों के सहारे ही आर्थिक, राजकीय तथा सामाजिक व्यवस्था चल रही है। राज्य ही समाज का भला करेगा यह असत्य है। एक मनुष्य का भला दूसरे मनुष्य के प्रत्यक्ष प्रयास से ही होना संभव है पर लोकतांत्रिक प्रणाली में राज्य शब्द निराकार शब्द बन गया है। करते लोग हैं पर कहा जाता है कि राज्य कर रहा है। अच्छा करे तो लोग श्रेय लेेते हैं और बुरा हो तो राज्य के खाते में डाल देते हैं। इस एक तरह से छद्म रूप से ही हम अपने कल्याण की अपेक्षा करते हैं जो कि अप्रकट है। भारतीय अध्यात्म ज्ञान से समाज के परे होने के साथ ही विद्वानों का राजकीयकरण हो गया है। ऐसे में असत्य और कल्पित रचनाकारों को राजकीय सम्मान मिलता है और समाज की स्थिति यह है कि सत्य बोलने विद्वानों से पहले लोकप्रियता का प्रमाणपत्र मांगा जाता है। हम इस समय समाज की दुर्दशा देख रहे हैं वह असत्य मार्ग पर चलने के कारण ही है।
              सत्य एक ऐसा शस्त्र है जिससे सुकर्म किये जा सकते हैं। जिन लोगों को असत्य मार्ग सहज लगता है उन्हें यह समझाना मुश्किल है पर तत्व ज्ञानी जाते हैं कि क्षणिक सम्मान से कुछ नहीं होता इसलिये वह सत्य के प्रचार में लगे रहते है और कालांतर में इतिहास उनको अपने पृष्ठों में उनका नाम समेट लेता है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
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Tuesday, December 27, 2011

यजुर्वेद से संदेश-नाम स्मरण से बुद्धि शुद्धि होती है

                अक्सर लोग यह सवाल करते हैं कि जब परमात्मा ने हमें काम करने के लिये हाथ, चलने के लिये पैर, बोलने की लिये जीभ, सुनने के लिये कान, देखने के लिये आंख और सूंघने के लिये नाक देकर हमें अपने जीवन के लिये उत्तरदायित्वों के निर्वहन योग्य बना दिया है तो फिर उसका नाम लेकर समय खराब क्यों करें? कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि जब हम अपना कर्म शुद्ध हृदय से नित्य करते हैं तो भगवान का नाम लेने की आवश्यकता क्या है? कुछ लोग तो यह भी कहकर अपना ज्ञान बघारते हैं कि जीवन में चुपचाप अपना काम करना तथा कर्मकांड में लिप्त रहना ही धर्म है।
          दरअसल हम भले ही अपना नित्य कर्म शुद्ध हृदय से करें पर जब तक हमें अपने अध्यात्म का ज्ञान नहीं होगा तब कभी सुख की अनुभूति नहीं हो सकती। इस तरह तो मानसिक और वैचारिक रूप से हम एक ही धारा में बहते जायेंगे तो यह पता ही नहीं चलेगा कि जीवन का रहस्य क्या है? वैसे भी मनोविज्ञानिक मानते हैं कि नियमित रूप से एक ही कर्म करते रहना या मस्तिष्क को एक ही राह पर जाकर एक ही जगह ध्यान लगाये रखना भी स्वास्थ्य के लिये ठीक नहंी है। जो बहुत बड़े ज्ञानी और ध्यानी हैं वह तो अपने अभ्यास से एक ही जगह खड़े रहकर भी नित्य पल नवीनता का अनुभव करते हुए जीवन का सुख और आनंद उठाते हैं पर सामान्य आदमी का मन उसे इधर उधर चलने के लिये प्रेरित करता है-इसी कारण हमारे समाज में फिल्म देखना, पिकनिक मनाना या किटी पार्टी करने जैसी परंपरा प्रारंभ हो गयी हैं जो कि कालांतर में अधिक दुखदायी होती हैं। इन पर व्यय होने के साथ ही शारीरिक तथा मानसिक परेशानियों का दौर भी प्रारंभ होता है। आमतौर से लोग मनोरंजन की राह पर चले जाते हैं जहां दूसरे मनुष्य मन के व्यापारी बनकर उनका दोहन करते हैं। अपने नियमित कर्म के बाद परमात्मा की भक्ति से भले ही कोई लाभ न हो पर एक नवीन सुखद अनुभूति अवश्य होती है।
यजुर्वेद में कहा गया है कि
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तत्सवितुर्वरेण्य भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो न प्रचोदयात!
          ‘‘जग नियंता, जगकर्ता, दिव्य गुण युक्त परमात्मा के शुद्ध स्वरूप का ध्यान हम करते हैं जो हमारी बुद्धि को श्रेष्ठ मार्ग पर लगाता है।’’
                 इसमें ओम भूर्भव स्वः शब्द जुड़ने से यह गायत्री मंत्र हो जाता है जो कि मंत्रों का राजा माना जाता है। इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि नाम स्मरण करने से मन की शुद्ध होती है और बुद्धि परिष्कृत होती है। हम अपने अध्यात्म ग्रंथों की बातों को भले ही न माने पर पश्चिमी विशेषज्ञों की इस धारणा को तो नहीं भुलाना चाहिए कि हमें अपनी नियमित दिनचर्या में एकरसता से बचना चाहिए।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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Sunday, December 25, 2011

तुलसी के दोहे-मीठे बोल सुनकर बहकना नहीं चाहिए (tusli ke dohe-meethe bol suykar bahakna nahin chahiye)

           आजकल बाज़ार का प्रभाव धर्म तथा समाज के विषयों में बहुत अधिक हो गया है। उपभोग संस्कृति ने लोगों के अंदर अध्यात्म ज्ञान के प्रति विरक्ति पैदा की है जिसके कारण उनके पास सामान्य व्यवहारिक ज्ञान भी नहीं रहा है। लोगों के अंदर पैसा पाने का मोह इतना अधिक हो गया है कि दूसरों की बातों में आकर अपना कमाया भी सब कुछ गंवा बैठते हैं। हमने ऐसे अनेक समाचार सुने और देखे होंगे कि लोगों को अतिशीघ्र अपने धन का दोगुना या चार गुना देकर उनसे भारी रकम की ठगी की गयी। अनेक कंपनियों ने तो शहर में एक नहंी बल्कि चार पांच सौ लोगों को चूना सामूहिक रूप से चूना लगा लिया। यह समाज में अपराध बढ़ने की प्रवृत्ति का परिचायक है पर साथ ही आम जनमानस में बौद्धिक सोच के अभाव का प्रमाण भी है। इस तरह की घटनायें चिंताजनक हैं। दो चार व्यक्ति हों तो ठीक पर यहां तो हजारों के हजारों एक साथ ठगे जाते हैं।
          ठगी करने वाले लोग अपनी मीठी बातों के साथ ही आकर्षण प्रलोभन भी देते हैं। कहीं तो आरंभ में ही उपहार भी दे दिया जाता है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि आखिर इतने सारे लोग कैसे जाल में फंस जाते हैं। इसमें फंसने वाले लोग ग्रामीण या अशिक्षित पृष्ठभूमि वाले नहीं वरन् पढ़े लिखे और नौकरीशुदा लोग ही होते हैं। इस तरह आधुनिक शिक्षा को लेकर भी संशय पैदा होता है।
महाकवि तुलसी दास जी कहते हैं कि
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‘तुलसी’ खल बानी मधुर, मुनि समुझिअं हियं हेरि।
राम राज बाधक भई, मूढ़ मंथरा चेरि।।
‘‘कभी किसी की मधुर वाणी सुनकर उस पर मोहित नहीं होना चाहिए। दासी मंथरा ने कैकयी को मधुर वाणी में समझाकार भगवान श्री राम के राज्याभिषेक में बाधा डाली थी।’’
         कभी कभी तो ऐसा लगता है कि हमारे देश के ग्रामीण तथा अशिक्षित लोग कथित आधुनिक समाज से अधिक चतुर हैं। वह भी ठगे अवश्य जाते हैं पर सामूहिक रूप से उनको कोई चूना नहीं लगा सकता। ऐसे में यह सवाल उठता है कि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान से परे रहकर आधुनिक समाज कहीं बौद्धिक क्षमता खो तो नहीं बैठा है?
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Friday, December 23, 2011

मनुस्मृति से संदेश-धन और जाति के आधार पर उपहास उड़ाना पापपूर्ण (manu smriti se sandesh-dhan aur jaati ka aadhar par uphas karna galat)

            हम अक्सर अपने भारतीय समाज के इतिहास को लेकर अनेक चर्चाऐं करते हैं। कहा जाता है कि भारतीय समाज मे जातिपाति का भेदभाव ही उसके पतन का कारण बन रहा है पर सच बात यह है कि ऐसा अपने अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव के कारण है। हमारे समाज में धन, जाति या भाषा के आधार पर किसी मनुष्य को  हेय मानना अत्यंत अनुचित माना जाता है।
                  यह कहना कठिन है कि पूरी दुनियां में ही अहंकार के भाव का बोलबाला है या भारतीय समाज में ही यह विकट रूप में दिखाई देता है। अलबत्ता इतना अवश्य है कि भारतीय समाज में अपने अहंकार में आकर दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति कुछ अधिक ही दिखाई देती है। हम जैसे चिंत्तक तो मानते हैं कि भारत का अध्यात्मिक दर्शन इसलिये ही अधिक समृद्ध हुआ है क्योंकि ऋषियों और मुनियों को अपने आसपास अज्ञान में लिपटा एक बृहद समाज मिला जिसे सुधारने के लिये उन्होंने तत्वज्ञान स्थापित किया। इसके लिये उनको एक सहज जमीन मिल गयी जहां वह अनुसंधान, चिंत्तन, मनन और अध्ययन से अध्यात्मिक ज्ञान का सृजन करने के साथ ही उसे सार्वजनिक रूप से व्यक्त भी कर सके। अगर सभी ज्ञानी होते तो आखिर वह किस पर अनुसंधान कर रहस्यों का पता लगाते। उनकी बात कौन सुनता? एक ज्ञानी के रूप में कौन उनको प्रतिष्ठत करता? एक टांग वाले को लंगड़ा, एक आंख वाले को काना, अक्षरज्ञान से रहित को गंवार और और काले रंग वाले को कुरूप कहकर उनका मजाक उड़ाना तो आम बात है। इसके अलावा हर आदमी अपनी जाति को श्रेष्ठ बताकर दूसरी जाति का मजाक उड़ाता है। कभी कभी तो अपने प्रथक जाति वाले को नीच बताकर उसका अपमान किया जाता है। सच बात तो यह है कि कोई जाति नीच नहीं होती अलबत्ता जिनके पास धन, पद और बाहुबल है वह दूसरे की जाति को नीच बताते हैं। यह एक दम अधर्म और अज्ञान का प्रमाण है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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हीनांगनतिरिक्तांगहीनाव्योऽधिकान्।
रूपद्रव्यविहीनांश्च जातिहीनांश्च नाक्षिपेत्।।
           ‘‘ऐसे व्यक्तियों का मजाक  उड़ाना या अपमानित करना निंदनीय है जो किसी अंग से हीन, अधिक अंग वाले, शिक्षा से रहित, आयु में बड़े, कुरूप, निर्धन तथा छोटी जाति या वर्ण के हों।’’
         वैसे मनुमहाराज पर भारतीय समाज में जाति पांति स्थापित करने का आरोप लगता है। ऐसा लगता है कि आधुनिक शिक्षा से ओतप्रोत समाज नहीं चाहता कि भारत की प्राचीन शिक्षा का यहां प्रचार प्रसार हो। यही कारण एक तो वह लोग हैं जो मनुस्मृति के चंद उदाहरण देकर देश में उसे जातिपाति का प्रवर्तक मानते हैं बिना पढ़े ही उनका प्रतिकार यह कहते हुए करते हैं कि भारतीय समाज कभी उनके संदेशों के मार्ग पर नहीं चला। यह हैरानी की बात है कि इन्हीं मनुमहाराज ने अंगहीन, अशिक्षित, बूढ़े, असुंदर तथा जाति के आधार पर किसी के मजाक उड़ाने या अपमानित करने को वर्जित बताया है। लार्ड मैकाले की शिक्षा में रचेबसे आधुनिक बुद्धिजीवी चाहे वह जिस विचारधारा के हों मनुस्मृति का पूर्ण अध्ययन किये बिना ही अपना बौद्धिक ज्ञान बघारते हैं।
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Thursday, December 15, 2011

सामवेद से संदेश-दोगलापन कभी सुख नहीं देता (Dogalpan kabhi sukh nahin deta-samved se sandesh)

             मनुष्य की यह सामान्य प्रवृत्ति है कि वह स्वयं तो दूसरे से सुख चाहता है पर किसी को कोई सुख नहीं देता।  इतना ही नहीं कभी कभी तो स्थिति यह होती है कि अनेक लोगों को दुःख तो केवल इसी बात पर होता है कि दूसरे लोग सुखी हैं। संसार के जिस आदमी ने मिलो यही कहता है कि ‘मै दुखी हूं’, क्योंकि सामान्य मनुष्य सुख तो चाहते हैं पर उसे पाने का कौशल बहुत कम लोग हैं। इसका कारण यह भी है कि संसार में अधिकांश मनुष्य दोहरे आचरण के मार्ग पर चलने वाले हैं। आदर्शों, सिद्धांतों और नैतिकता की दुहाई सभी लोग देते हैं पर व्यवहार में सात्विकता केवल ज्ञानियों में ही दिखाई देती है। ज्ञानी इस बात को जानते हैं कि दोगला व्यवहार हमेशा स्वयं के लिये ही कष्टकारक है। लोग किसी के मित्र नहीं है भले ही दावा करते हों कि उन्होंने ढेर सारे मित्रों से व्यवहार निभाया है। अपने ही आत्मीय जनों की पीठ पीछे निंदा करते हैं। इस बात को जाने बिना बिना कि एक कान से दूसरे कान में पहुंच ही जाती है। नतीजा यह है कि समाज में वैमनस्य भी बढ़ रहा है। हम जब यह कहते हैं कि आजकल समाज में वैसा सद्भाव नहीं है तो यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि उसके लिये स्वयं ही जिम्मेदार हैं।
सामवेद में कहा गया है कि
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मा ते रसस्य मत्सत द्वयाविनः।
            ‘‘दोहरा आचरण करने वाले आनंदित नहीं होते।’
ऋतस्य जिह्वा पवते मधु।
           ‘‘सच्चे मनुष्य की जिह्वा से मधु टपकता है।’’
         लोगों की वाणी, विचार तथा व्यवहार स्वार्थों के अनुसार मधुर और कठोर होता है। ताकतवर के आगे सिर झुकाते हैं तो कमजोर पर आग की तरह झपटते हैं। आपसी वार्तालाप में ऐसी पवित्र बातें करते हैं गोया कि महान धार्मिक हों पर व्यवहार में शुद्ध रूप से स्वार्थ दिखता है। ऐसे में संसार या समाज को बिगड़ने का दोष देकर आत्ममंथन से बचना एक दोगला प्रयास है। ऐसे प्रयासों के चलते कोई सुख या आनंद नहीं प्राप्त कर सकता। इसके विपरीत निराशा, तनाव, तथा मानसिक विकारों को मनुष्य शरीर में शासन स्थापित हो जाता है। इसलिये जहां तक हो सके आत्ममंथन कर अपने दोषों का निराकरण करना चाहिए। संसार या समाज के दूषित होने की बात करना व्यर्थ है।
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Tuesday, December 13, 2011

मनुस्मृति-जिस खेल में धन की हार या जीत हो वह जुआ कहलाता है (fixing is gamling in paly-manu smriti in hindi)

            हमारे देश में क्रिकेट खेल को लेकर अनेक प्रकार की चर्चायें होती हैं। सच तो यह है कि इसे खेलने वाले बहुत कम हैं उससे ज्यादा अधिक तो इसे देखने वाले हैं। यह शुद्ध रूप से मनोरंजन का खेल है और इसके साथ ऐसे लोग भी जुड़ गये हैं जो इस पर सट्टा लगाते हैं।  आजकल खेलों में अनेक प्रकार की फिक्सिंग की चर्चा होती है। अभी हाल में पाकिस्तान के तीन क्रिकेट खिलाड़ियों को स्पॉट फिक्सिंग के आरोप में सजा भी हुई थी। ऐसा नहीं भारत कोई इस समस्या से बचा हुआ है। भारत के भी दो खिलाड़ियों पर इस अपराध में आजीवन खेलने पर प्रतिबंध लगाया गया था। विश्व में भारत की आर्थिक शक्ति पर ही क्रिकेट खेल चल रहा है। जिन पाकिस्तानियों को ब्रिटेन में क्रिकेट खेल फिक्स करने के आरोप में सजा हुई हैए बताया जा रहा है कि भारत के सट्टेबाज भी उनसे संबंधित हैं। इधर हम देख रहे हैं कि भारत में भी अनेक सट्टेबाज पकड़े जा रहे हैं। कहने को क्रिकेट एक खेल है पर जैसे जैसे इससे जुड़े काले कारनामों का पर्दाफाश हो रहा है उससे तो जुंआ ही अधिक दिखने लगा है। अनेक परिवार इसके चक्कर में बरबाद हो गये हैं। हैरानी तो इस बात की है कि इस खेल में पैसा लगाने वाले वह लोग भी हैं जो इसको कभी खेले ही नहीं है। भले ही वह इसे मनोरंजन मानते हों पर अंततः यह जुआ है।
इस विषय पर मनु स्मृति में कहा गया है कि
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अप्राणिभिर्यत्क्रियते तल्लोके द्यूतमच्यते।
प्राणिभिः क्रियतेयस्तु सः विज्ञेयः समाह्वयः।।
             ‘‘जिस खेल में धन आदि निर्जीव वस्तुओं से हार या जीत का निर्णय हो वह खेल जुआ कहलाता है। पशु-पक्षी या अन्य सजीव प्राणियों को दांव पर रखकर खेले जाने वाले खेल का नाम समाह्व्य है।’’
एते राष्ट्रे वर्तमाना राज्ञः प्रच्छन्नत्सकराः।
विकर्म क्रियर्यानित्य बाधन्ते भद्रिकाः प्रजाः।।
          ‘‘जो लोग  जुआ या समाह्वय जैसे कर्म करवाते हैं वह राष्ट्र के लिये डाकू की तरह होते हैं और सदैव अपने कुकर्मों से प्रजा को कष्ट देते हैं।’’
         देश में एक बहुत बड़ा सट्टा समूह सक्रिय हैं। ऐसा कोई मैच नहीं होता जिसके होने पर कहीं न कहीं सट्टेबाज न पकड़े जाते हों। हैरानी इस बात की है कि यह केवल भारतीय टीम के खेलने पर ही नही होता बल्कि प्रसिद्धि विदेशी टीमों के मैच पर भी हमारे देश में सट्टा लगता है। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि आज के अनेक युवा अधिक धन पर उसे पचा नहीं हो पाते और स्वयं जुआ खेलकर अपने खिलाड़ी होने का गर्व पालते हैं। उनको यह पता नहीं कि इन सट्टेबाजों का धन अंततः अपराध जगत के अन्य लोगों के पास पहुंचता है। सट्टेबाजी से जुड़े विदेश में बैठे अनेक भारतीयों के माध्यम से यह धन आतंकवादियों और अतिवादियों के पास पहुंचने के समाचार भी आते हैं। देश के युवाओं को यह बात समझना चाहिए कि वह सट्टा खेलकर ऐसे लोगों को साथ दे रहे हैं जो अंततः राष्ट्र के लिये डाकू की तरह होते हैं। वह ऐसे तत्वों को प्रोत्साहन देते हैं जो आमजनों को परेशान करते हैं।
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Sunday, December 04, 2011

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-अक्षम आदमी से संबंध बनाना व्यर्थ

          आम मनुष्य की यह सामान्य आदत होती है कि वह अपनी भौतिक उपलब्धियों तथा गुणों का बखान करता है। ऐसा करते हुए हर मनुष्य भूल जाता है कि इससे वह अपने शत्रु ही अधिक बनाता है। इस तरह की आत्मप्रवंचना से जो हीन पुरुष होते हैं वह बलशाली मनुष्य से जलते हैं। महान नीति विशारद चाणक्य का भी कहना है कि अपना स्वास्थ्य दूसरों से छिपाकर रखें। इसके अलावा श्रीमद्भागवत में श्री कृष्ण भी कहते हैं कि उनके ज्ञान का केवल भक्तों में ही प्रसारण करना चाहिए। इसके पीछे संभवत कारण यह है कि समाज में अपने व्यसनों, विचारों और द्वेष की भावना से ओतप्रोत लोगों की संख्या सदैव अधिक रहती है। इसलिये उनको विकार घेरे रहते हैं जो कि अंततः उनके लिये अस्वास्थ्यकर होते हैं। इतना ही धन, स्वास्थ्य तथा ज्ञान से हीन मनुष्यों की कुंठा इतनी तीव्रतर होती है कि वह उनका नकारात्मक सोच हो जाता है और किसी की खुशी देखकर उनके मन में द्वेष पैदा होता है। ऐसे में अस्वस्थ, चरित्रहीन तथा धन के लालची निर्धन लोगों से संपर्क बनाना अपने लिये ही अहितकारी भी हो सकता है।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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न सन्धिच्छिद्धीनैश्च तत्र हेतुरसंशयः।
तस्य विश्रम्भामलभ्य प्रहरेत्तं गतस्मृहः।
             ‘‘हीन पुरुष के साथ कभी संधि न करें। इसमें संदेह नहीं है कि उसके साथ विश्वासपूर्वक बातचीत करने पर इस बात की संभावना प्रबल रहती है कि वह समय मिलने पर अवश्य हानि करेगा।’’
           इसका यह आशय कदापि नही है कि निर्धन लोगों से धनियों को दूर रहना चाहिए। इतना अवश्य है कि धनिकों को चाहिए कि वह निर्धन लोगों के सामने अपने वैभव का प्रदर्शन करने की बजाय उनकी सहायता करें तो अच्छा है क्योंकि इसे समाज में सामंजस्य बना रहता है। हमारा मानना है कि धन का निर्धन, स्वास्थ्य का बीमार आदमी तथा अपने ज्ञान को मूर्ख के सामने प्रदर्शन करने से बचना चाहिए। ऐसा करने से हीन मनुष्य मन ही मन द्वेष करने लगता है जो कि अंततः समर्थशील मनुष्य के लिये कष्टकारी होता है।
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Friday, December 02, 2011

सामवेद से संदेश-महान लोग सत्य के साथ काम करते हैं (samves se sandesh-mahan log aur satya)

            अंग्रेज विद्वान जार्ज बर्नाड शॉ के अनुसार बिना बेईमानी के कोई भी धनी नहीं हो सकता। हमारे देश में अंग्रेजी राज व्यवस्था, भाषा, साहित्य, संस्कृति तथा संस्कारों ने जड़ तक अपनी स्थापना कर ली है जिसमे छद्म रूप की प्रधानता है। इसलिये अब यहां भी कहा जाने लगा है कि सत्य, ईमानदारी, तथा कर्तव्यनिष्ठा से कोई काम नहीं बन सकता। दरअसल हमारे यहां समाज कल्याण अब राज्य की विषय वस्तु बन गया है इसलिये धनिक लोगों ने इससे मुंह मोड़ लिया है। लोकतंत्र में राजपुरुष के लिये यह अनिवार्य है कि वह लोगों में अपनी छवि बनाये रखें इसलिये वह समाज में अपने आपको एक सेवक के रूप में प्रस्तुत कर कल्याण के ने नारे लगाते हैं। वह राज्य से प्रजा को सुख दिलाने का सपना दिखाते हैं। योजनायें बनती हैं, पैसा व्यय होता है पर नतीजा फिर भी वही ढाक के तीन पात रहता है। इसके अलावा गरीब, बेसहारा, बुजुर्ग, तथा बीमारों के लिये भारी व्यय होता है जिसके लिये बजट में राशि जुटाने के लिये तमाम तरह के कर लगाये गये हैं। इन करों से बचने के लिये धनिक राज्य व्यवस्था में अपने ही लोग स्थापित कर अपना आर्थिक साम्राज्य बढ़ात जाते हैं । उनका पूरा समय धन संग्रह और उसकी रक्षा करना हो गया है इसलिये धर्म और दान उनके लिये महत्वहीन हो गया है।
सामवेद में कहा गया है कि
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ऋतावृधो ऋतस्पृशौ बहृन्तं क्रतुं ऋतेन आशाये।
                ‘‘सत्य प्रसारक तथा सत्य को स्पर्श करने वाला कोई भी महान कार्य सत्य से ही करते हैं। सत्य सुकर्म करने वाला शस्त्र है।’’
‘‘वार्च वर्थय।
             ‘‘सत्य वचनों का विस्तार करना चाहिए।’’
वाचस्पतिर्मरवस्यत विश्वस्येशान ओजसः।
           ‘‘विद्वान तेज हो तो पूज्य होता है।’’
              कहने का अभिप्राय है कि हमारे देश में सत्य की बजाय भ्रम और नारों के सहारे ही आर्थिक, राजकीय तथा सामाजिक व्यवस्था चल रही है। राज्य ही समाज का भला करेगा यह असत्य है। एक मनुष्य का भला दूसरे मनुष्य के प्रत्यक्ष प्रयास से ही होना संभव है पर लोकतांत्रिक प्रणाली में राज्य शब्द निराकार शब्द बन गया है। करते लोग हैं पर कहा जाता है कि राज्य कर रहा है। अच्छा करे तो लोग श्रेय लेेते हैं और बुरा हो तो राज्य के खाते में डाल देते हैं। इस एक तरह से छद्म रूप से ही हम अपने कल्याण की अपेक्षा करते हैं जो कि अप्रकट है। भारतीय अध्यात्म ज्ञान से समाज के परे होने के साथ ही विद्वानों का राजकीयकरण हो गया है। ऐसे में असत्य और कल्पित रचनाकारों को राजकीय सम्मान मिलता है और समाज की स्थिति यह है कि सत्य बोलने विद्वानों से पहले लोकप्रियता का प्रमाणपत्र मांगा जाता है। हम इस समय समाज की दुर्दशा देख रहे हैं वह असत्य मार्ग पर चलने के कारण ही है।
              सत्य एक ऐसा शस्त्र है जिससे सुकर्म किये जा सकते हैं। जिन लोगों को असत्य मार्ग सहज लगता है उन्हें यह समझाना मुश्किल है पर तत्व ज्ञानी जाते हैं कि क्षणिक सम्मान से कुछ नहीं होता इसलिये वह सत्य के प्रचार में लगे रहते है और कालांतर में इतिहास उनको अपने पृष्ठों में उनका नाम समेट लेता है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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