समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Friday, March 29, 2013

ऋग्वेद का संदेश-जीवन में संकल्प धारण करें (jivan mein sankalp dharan karen-rigves se sandesh)

      इस संसार में जो सफल तथा  व्यक्ति प्रसिद्ध हुए हैं उन्होंने अपने लक्ष्य का निर्माण बाल्यकाल में ही कर लिया था। कुछ ने युवा होने पर संकल्प धारण किया पर उनके प्रयास निष्काम होने के साथ ही दृढ़ संकल्प के साथ जुड़े हुए थे। इसलिये वह सफल व्यक्ति कहलाये।  सच बात तो यह है कि अनेक लोग अपने लक्ष्य तथा संकल्प बदलते रहते है। परिणामस्वरूप उनके हाथ कुछ नहीं आता।  इसके अलावा जो लोग  अपने लक्ष्य के साथ कामनाओं की संभावना अधिक ही मन में  रखते हैं, वह भी अधिकतर नाकाम ही होते हैं।  अधिकतर लोग किसी कार्य को पेट पालने या कमाने का लक्ष्य रखकर प्रारंभ करते हैं।  उनके लिये कमाना ही फल है।  ऐसे में उनकी बुद्धि संकीर्ण हो जाती है जिससे व्यापक रूप से कार्य करना संभव नहीं हो पाता।  पहले तो यह समझना चाहिये कि सबका दाता परमात्मा है।  दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम!  मनुष्य को अपना काम यह सोचकर करना चाहिये कि वह तो उसे करना ही है।  बिना काम किये शरीर जर्जर हो ंजाता है।  उस काम से जो उसे भौतिक उपलब्धि होती है वह कोई फल नहीं होता क्योंकि वह तो आगे के काम में व्यय हो जाती है।  नौकरी में वेतन मिले या व्यापार में लाभ हो वह कोई साथ नहीं रखता बल्कि परिवार और अपने पर खर्च करता है। यह उपलब्धि कर्म का विस्तार करती है न कि वह फल है। इसलिये काम अपने हृदय को संतोष देने के लिये करना चाहिये।
 ऋग्वेद में कहा गया है कि
---------------------
आकृतिः सत्या मनसो में असतु।
           हिन्दी में भावार्थ-मन के संकल्प और प्रार्थना सत्य हो।
समाना व आकृतिः  आकूतिः समाना हृदयान वः।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसह्यसति।।
            हिन्दी में भावार्थ-मनुष्यों  के संकल्प एक समान रहें और हृदय भी एक समान हों जिससे संगठित होने पर कार्य संपन्न होता है। जब संकल्प, मन और विचार का मेल होता है तब एकता स्वतः हो जाती है।
         दूसरी बात यह कि अपना मेल उन लोगों से करना चाहिये जिनका संकल्प, विचार तथा लक्ष्य समान हो। विपरीत यह प्रथक चाल चलन वाले से संबंध रखने से कोई लाभ नहीं होता।  समान विचाराधारा वाले के साथ चलने पर संगठन बनता है और कोई लक्ष्य आसानी से प्राप्त किया जा सकता है।  जीवन में संकल्प का अत्यंत महत्व है। जिस तरह का संकल्प हम करते हैं वैसा ही वातावरण हमारे सामने आता है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Saturday, March 23, 2013

पतंजलि योग विज्ञान-बुद्धि और आत्मा के प्रथक होने पर समाधि की अनुभूति (patanjali yoga scinse or vigyan-budhi aur man ke prathak hone kee anubhuti par samadhi)

    हमारी देह एक है पर उसमें तमाम तरह की हड्डियां और नसें है जो उसे धारण करने के साथ ही उसे संचालित भी करती है। देह को चलाने के लिये बुद्धि के साथ मन भी सक्रिय रहता हैं।  सबसे बड़ी बात यह कि इन सबको धारण करने वाला अदृश्य पुरुष या आत्मा है जो हम स्वयं होते हैं।  योगासन तथा प्राणायाम के बाद जब देह के साथ ही मन विकार रहित हो जाता है तब ध्यान के माध्यम से हम उस परम पुरुष के साथ अपने अंदर साक्षात्कार कर सकते हैं। जब उससे साक्षात्कार होता है तब  पता लगता है कि वह हम स्वयं हैं।  इसके बाद यह आभास होता है कि हमारी बुद्धि और मन प्रथक विषय हैं जिनकी चंचलता के गुण की समझ आने पर जीवन में भटकाव से बचा जा सकता है।  हमारा मन ही हमारी देह का संचालन कर रहा है। इस  तत्व ज्ञान स्थित होना ही समाधि का सर्वोत्म रूप है। जब किसी साधक को इस तरह की समाधि लगाने का अभ्यास हो जाता है तब वह अपने हृदय के भावों पर नियंत्रण कर लेता है। वह दृष्टा के रूप में जीवन में सक्रिय रहते हुए भी अपने अंदर कर्ता का अहंकार नहीं आने देता।
पतंजलि योग विज्ञान में कहा गया है कि
------------------------------------------------
सत्तवपुरुषमान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावधिष्ठातृत्वं सर्वज्ञातृत्वं च।।
     हिन्दी मे भावार्थ-बुद्धि और आत्मा के भिन्न होने की अनुभूति का ज्ञान जब समाधि में होता है तब योगी का सभी भावों पर नियंत्रण हो जाता है। वह सर्वज्ञ हो जाता है।
         भारतीय योग विद्या एक ऐसा विज्ञान है जिसका अभी विशद अध्ययन किया जाना आवश्यक है। देखा यह जा  रहा है कि कुछ योग शिक्षक अपने आपको ज्ञानी के रूप मे प्रस्तुत कर अध्यात्मिक गुरु के रूप में प्रतिष्ठित हो रहे हैं। उनका लक्ष्य केवल अपने व्यवसायिक हित साधना है। हमारा उद्देश्य उनकी आलोचना करना नहीं बल्कि यह बताना है कि योगासन, प्राणायाम और ध्यान का अभ्यास करने से हमें देह, बुद्धि और मन के शुद्धता की अनुभूति तो होती है पर उसके बाद अपने समय को उचित ढंग से व्यतीत करने का ज्ञान नहीं रहता।  इसके लिये यह जरूरी है कि पतंजलि योग विज्ञान  के आठों भागों का अध्ययन करने के साथ ही समय मिलने पर श्रीमद्भागवत गीता का भी अध्ययन करना चाहिये।  हमें योग विद्या में पारंगत होने के बाद सत्संग में शामिल होने के साथ ही अपने प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन भी अवश्य करें ताकि जिंदगी बुद्धिमानी से गुजरे न कि पेशेवर लोग हमें अध्यात्म के नाम पर बुद्ध बनायें।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Monday, March 11, 2013

यजुर्वेद से संदेश-ज्ञान के लिये विद्वान और रक्षा के लिये वीर की शरण लें

 हमारा जीवन हमारे अंदर स्थित तीन प्रकृतियों मन, बुद्धि और अहंकार  के अधीन ही होता है। हर मनुष्य देह में मन, बुद्धि और अहंकार की प्रकृत्तियां स्वाभाविक रूप से विराजमान रहती है।  सामान्य मनुष्य का मन हमेशा ही बहिर्मुखी होता है और वह अपनी आवश्यकता की पूर्ति के बाद यह भी चाहता है कि समाज में उसका अन्य लोग सम्मान करें।  वास्तव में यह उसके अंदर मौजूद अहंकार की प्रकृति का भोजन है मन उसे दूसरे से सम्मान कर उसे शांत करना चाहता है। जिन लोगों के पास धन, पद और बाहुबल है उनकी चाटुकारिता बहुत लोग करते हैं जिसे वह अपना सम्मान समझकर प्रसन्न होते हैं।  आमतौर से धन, पद और बाहुबल से संपन्न लोग किसी को कुछ देते नहीं है पर उनसे आकांक्षायें करने वाले लोग भविष्य की संभावनाओं के चलते उनके इर्दगिर्द मंडराते हैं।  जिनके पास धन, पद और दैहिक शक्ति नहीं है वह भी अपनी सक्रियता रखते तो केवल अपने स्वार्थ के इर्दगिर्द ही हैं मगर चाहते हैं कि उनका अन्य लोग सम्मान करे। इसके लिये वह अपनी ऐसी परोपकार वाली कल्पित  कथायें सुनाते हैं जिनके पात्र वह नहीं होते। पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के चलते हमारे सामाजिक आधार कमजोर हो चुके हैं ऐसे में लोग एकाकी जीवन का आनंद तो उठाते हैं पर कोई परमार्थ न करने की वजह से उनका सम्मान नहीं होता और उनकी अहंकार की भूख शांत नहीं होती। इसलिये चाहे कहीं भी सार्वजनिक वार्तालाप में चले जायें लोग आत्मप्रवंचना करते मिल जाते हैं।
                                                      यजुर्वेद में कहा गया है कि
                                                              -------------
                           इष्टं वीतमभिगूर्त वर्षट्कृतं तं देवासः प्रति गृभ्णन्त्यश्वम्।
  हिन्दी में भावार्थ-तेजस्वी तथा कठोर परिश्रमी तथा विकासशील मनुष्य को पूरा समाज अपना पथ प्रदर्शक मानकर उसका अनुसरण करता है।
                                           धिया विप्रो अजायत।
        हिन्दी में भावार्थ-विचारक उत्तम बुद्धि से युक्त होता है।
                                ब्रह्मणे ब्राह्मणं, क्षत्राय राजन्यम्।
        हिन्दी में भावार्थ-ज्ञान के लिये विद्वान और रक्षा के लिये वीर की संगत करें।
         लोगों के अंदर अज्ञान गहराई तक समा गया है। किसकी संगत करनी है और किसका त्याग करना है तय नहीं कर पाते।  आजकल तो हर कोई आदमी यह चाहता है कि उसकी पहुंच ऊंचे पदों तक बैठे लोगों से हो। वह नहीं हो पाये तो उनके चाटुकारों को ही अपना इष्ट मान लेते हैं।  अब समाज में किसी का आदर्श कोई अध्यात्मिक विद्वान भी तभी हो सकता है जब उसने भारी धन संग्रह किया हो।  तय बात है कि धन संग्रह करने वाले के पास रटारटाया ज्ञान हो सकता है जिसे सुनाने पर वह कमाई करता है पर वह किसी में धारणा शक्ति पैदा नहीं कर सकता।  वास्तव में ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं होता वरन् मनुष्य में धारण करने वाली  शक्ति भी होना चाहिये जिसके लिये ध्यान का अभ्यास होना आवश्यक है।   इसलिये ज्ञान के लिये त्यागी मनुष्यों के पास ही जाना चाहिये।  दूसरा यह भी देखा गया है कि लोग अपनी रक्षा के लिये असामाजिक तत्वों को संरक्षण देते हैं। उनको यह भ्रम रहता है कि वह वीर है।  सच बात तो यह है कि यह असामाजिक तत्व स्वयं की जान बचाने के लिये ही हमेशा प्रयत्नशील रहते हैं। कमजोर पर वह भी पीछे से वार करते हैं। उनको तो कायर मानना चाहिये। अगर अपनी रक्षा करनी है तो ऐसे वीरों की शरण लें तो वाकई दूसरों की रक्षा करने का मजबूत नैतिक आधार रखते हैं।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Saturday, March 09, 2013

क्रूर हृदय मनुष्य पशु सामान-हिंदू अध्यात्मिक चिंत्तन हिंदी


      हर मनुष्य जब कोई उपलब्धि प्राप्त करता है तो उसका श्रेय वह स्वयं को देता है पर जहां नाकामी हाथ आती है वहां दूसरों का दोष देखता है।  आत्ममंथन करने की प्रवृत्ति सामान्य मनुष्य नहीं होती  जबकि योग तथा ज्ञान साधक समय समय पर अपनी स्थिति पर विचार करते हुए कार्यक्रम बनाते हैं।   देखा तो यह जाता है कि दूसरों का काम बिगाड़ने वाले अपने पर आये संकट के लिये भाग्य को दोष देते हैं।  अपने दुष्कर्म का सही साबित करने के लिये तमाम तर्क ढूंढते हैं।  अपना पाखंड किसी को नहीं दिखता।  सबसे बड़ी बात यह कि इस संसार के अज्ञानी मनुष्य अपने दुःख  से दुःखी नहीं बल्कि  दूसरे के सुख से दुःखी और दूसरे के दुःख से सुखी होते हैं।  आत्मप्रवंचना में मनुष्य ऐसे सत्कर्मों का बखान करते हैं जो उन्होंने किये ही नहीं। ऐसे मनुष्य कभी भी मनुष्यता और पशुता का अंतर नहीं जानते।
परकार्यवहन्ता च दाम्भिकः स्वार्थसाधकः।
छली द्वेषी मृदृः क्रूरो विप्रो मार्जार उच्यते।।
       हिन्दी में भावार्थ-दूसरों के कार्य बिगाड़ने पाखंडी, अपना काम निकालने, दूसरों से छल करने, दूसरों की उन्नति देखकर मन में जलने तथा बाहर से कोमल पर अंदर से क्रूर हृदय रखने वाला मनुष्य पशु समान है।
वापी-कूप-तडागानामाराम-सुर-वेश्मनाम्।
उच्छेदने निराऽशङ्कः स विप्रो म्लेच्छ उच्यते।।
       हिन्दी में भावार्थ-बावड़ी, कुआं, तालाबों, वाटिकाओं और देवालयों में तोड़फोड़ करने वाला मनुष्य म्लेच्छ कहा जाता है।
         कुछ लोगों की आदत होती है कि वह दूसरों को हानि पहुंचाते हैं।  इतना ही नहीं अपने स्वार्थ की  पूर्ति के लिये बावड़ी, कुओं और तालाबों को समाप्त करते हैं। हमने देखा होगा कि अक्सर कहा जाता है कि नदियों, नहरों और सड़कों के किनारे अतिक्रमण हो जाता है। इतना ही नहीं कागजों पर कुऐं और बावड़ियां बन जाती हैं पर धरती पर उनका अस्तित्व होता ही नहीं है।  यह भ्रष्टाचार म्लेच्छ प्रवृत्ति का द्योतक है।  अनेक जगह हमने देखा है कि सर्वशक्तिमान के लिये स्थान बनाने के नाम पर जमीन पर अतिक्रमण कर उस पर दुकानें आदि बना दी जाती है।  वैसे तो अतिक्रमण कर धर्म के नाम पर स्थान बनाना भी एक तरह से अपराध है क्योंकि यह सर्वशक्तिमान के नाम का दुरुपयोग है। उस पर भी उनका व्यवसायिक उपयोग करना किसी भी प्रकार की आस्था को प्रमाणित नहीं करता।
   हमारा अध्यात्मिक दर्शन निरंकार परमात्मा के प्रति आस्था दिखाने का संदेश देता है। इसका वैज्ञानिक कारण भी है। निरंतर सांसरिक विषयों में उलझा मनुष्य स्वाभाविक रूप से ऊब जाता है। एक विषय से दूसरे विषय की तरफ जाता हुआ मनुष्य मन जब अध्यात्मिकता से परे होता है तब उसमें निराश तथा एकरसता का भाव आता है।  इस वजह से कुछ लोगों में विध्वंस की भावना आ जाती है। इससे बचने का यही उपाय है कि प्रातः जल्दी उठकर योग साधना, ध्यान और मंत्र का जाप कर अपने हृदय में प्रतिदिन नवीनता का भाव लाया जाये।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

अध्यात्मिक पत्रिकायें

वर्डप्रेस की संबद्ध पत्रिकायें

लोकप्रिय पत्रिकायें