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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Saturday, December 29, 2012

विदुर नीति-छह दोष आदमी को सौ वर्ष से पहले मारते हैं (vidur neeti-chhah dosh aadmi ko sau varsh se pahle maarte hain)

           भारतीय दर्शन के अनुसर प्रकृति आधार पर  मनुष्य की आयु सौ वर्ष निर्धारित है।  ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि आखिर मनुष्य अपनी आयु पूरी क्यों नहीं कर पाता? इसका उत्तर यह है कि जिस बुद्धि की वजह से मनुष्य प्रकृत्ति के अन्य जीवों से अधिक विकसित माना जाता है वही उसकी शत्रु भी बन जाती है।  मनुष्य अपनी बुद्धि और मन को स्वच्छ रखने का कोई उपाय नहीं करता बल्कि संसार के उन लुभावने विषयों में पूरी तरह से लिप्त हो जाता है जो कालांतर में उसके अंदर मानसिक तथा दैहिक दोष उत्पन्न करते हैं।
     महाराज धृतराष्ट्र ने महात्मा विदुर से प्रश्न किया कि ‘‘जब परमात्मा ने मनुष्य की आयु कम से कम सौ वर्ष निर्धारित की है तो वह कम आयु में क्यों देह त्यागने को बाध्य होता है?’’
इसके उत्तर में महात्मा विदुर ने कहा कि
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अतिमानोऽतिवादश्च तथात्यागो नराधिप।
क्रोधश्चात्मविधित्सवा च मित्रद्रोहश्च तानि षट्।।
एत एवासयस्तीक्ष्णः कृन्तन्त्यायूँषि देहिनाम्।
एतानि मानवान् धनन्ति न मृत्युर्भद्रमस्तृ।।
           हिन्दी में भावार्थ-अत्यंत अहंकार, अधिक बोलना, त्याग न करना, क्रोध करना, केवल अपने स्वार्थ की पूर्ति की चिंता में रहना तथा मित्रों से द्रोह करना यह छह दुर्गुण मनुष्य की आयु का क्षरण करते हैं। दुर्गुण वाले मनुष्य का मृत्यु नहीं बल्कि अपने कर्मो के परिणाम ही मारते हैं।
      आदमी की सौ वर्ष से पहले मृत्यु हो जाने पर अनेक लोग यह सवाल करते हैं कि आखिर मनुष्य अपनी आयु क्यों होती है? दरअसल उसका मुख्य कारण यह है कि मनुष्य उपभोग में इतना व्यस्त रहता है कि उसे लगता ही नहीं कि यह संसार कभी वह छोड़ेगा, इसलिये वह शारीरिक और मानसिक विकार एकत्रित करता रहता है।  अगर हम देखें तो प्राचीन काल में लोग अधिक समय तक जीवित रहते थे।  आज भी ग्रामीण क्षेत्र में श्रम करने वाले अनेक लोग शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक आयु तक जीवित रहते हैं।  शहरी क्षेत्रों में जहां आधुनिक आदमी सुविधाभोगी दुषित वातावरण में सांस ले रहा समाज रोगों का प्राप्त होता है वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में मेहनतकश लोग स्वच्छ हवा में सांस लेकर उन राजरोगों से दूर रहते हैं।  शहरी क्षेतों में तो अब साठ  साल तक आदमी शारीरिक दृष्टि  से लाचारी की स्थिति में आ जाता है, जबकि अभी भी  गाँवों  में मेहनत  की वजह से लोग हष्ट पुष्ट दिखते  हैं। इसके अलावा शहरों में धन संपदा की वृद्धि ने लोगों के अंदर अहंकार, गद्दारी तथा अधिक बोलने की ऐसी बीमारियां भर दी हैं जो अंततः आयु का क्षरण करती हैं।
         महात्मा विदुर एक महान विद्वान थे।  सच्चा विद्वान वह है जो जीवन के रहस्यों को जानता हो। इसलिये हमें उनके वचनों का अध्ययन कर जीवन बिताने का प्रयास करना चाहिए।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Thursday, December 27, 2012

यजुर्वेद के आधार पर चिंत्तन-प्रगतिशील मनुष्य को सभी लोग मानते हैं (yajurved ke aadhar par chittan-pragatishil manushya ko sabhi log mante hain)

                 इस संसार में अनेक महान विद्वान लोग हुए हैं जिनका सम्मान आज का मानव समाज करता है।  उन विद्वानों, विचारकों और वैज्ञानिकों को मनुष्य समाज कभी नहीं भूलता जो उसके दैहिक तथा मानसिक विकास के संवाहक रहे हैं।  इस संसार में अनेक राजा महाराजा हो गये पर समाज केवल उन्हीं लोगों को याद करता है जिन्होंने इस समाज के लिये चिंत्तन करने के साथ ही ऐसे अनुसंधान किये जिनसे मनुष्य का शारीरिक तथा मानसिक विकास हुआ।
      हम अगर थोड़ा ज्ञान प्राप्त कर देखें तो पता चलेगा कि यहां बोलने वाले बहुत हैं पर उनमें ज्ञान कितना है यह वह प्रमाणित नहीं कर पाते।  दरअसल इस संसार में अधिकतर लोग कुछ भी बोलने को आतुर हैं पर कोई किसी की सुनना नहीं चाहता।  श्रीमद्भागवत गीता में कहा गया है कि इंद्रिया ही विषयों में बरतती हैं। यह ज्ञान बघारने वाले कदम कदम पर मिल जाते हैं पर इसके बावजूद छोटी छोटी बातों पर मुंहवाद होते होते हिंसक वारदातें हो जाती हैं।  अनेक बार तो ऐसा भी होता है कि भारी भरकम हिंसा के बाद पता चलता है कि विषय इतना गंभीर नहीं था जितना संघर्ष हुआ। संत कबीरदास जी कह गये हैं कि ‘सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठमलट्ठा’।
यजुर्वेद में  कहा गया है कि
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इष्टं वीतमभिगूर्त वर्षट्कुतं देवासः प्रतिगृभ्णन्त्यश्वम्।
हिन्दी में भावार्थ-परिश्रमी तथा प्रगतिशील होने के साथ ही सभी को प्रिय लगने वाले व्यक्ति के प्रति सभी मनुष्य हृदय  में आस्था रखते हैं।

धिया विप्रो अजायत।
हिन्दी में भावार्थ-विद्वान उत्तम बुद्धि से युक्त होता है।
      समाज में रहते हुए छोटे छोटे  विवादों में फंसने  से अच्छा है कि समय समय पर चिंत्तन और मनन अवश्य कर अपना बौद्धिक विकास करें । मानसिक  और वैचारिक शुद्धता के लिये अपने दिन का कुछ समय सत्संग और अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने में लगायें।  मंदिर जाकर ध्यान लगायें।  यह सही है कि सभी जगह पत्थर की मूर्तियां हैं पर हमारे हृदय का भक्ति भाव उनमें भगवान की अनुभूति करता है जिससे हम मानसिक रूप से दृढ़ होते है।  भगवान है या नहीं इस बात पर तो विचार ही नहीं करना चाहिये।  न ही इस पर किसी से विवाद करना चाहिये। वह है और हमारे हृदय के अंदर स्थित है यह धारणा दूसरों पर थोपने की बजाय अपनी मानसिक स्थिति पर नियंत्रण करने में उपयोग करना चाहिये।  जब आदमी अपने मन पर नियंत्रण कर लेता है तब वह विद्वान तथा पराक्रमी होकर अन्य लोगों के लिये प्रेरक बनता है।  निरर्थक वार्तालाप, घूमना फिरना तथा अधिक मनोरंजन में समय बिताना मनुष्य को अत्यंत आकर्षक लगने के साथ सहज भी लगता है पर इससे बौद्धिक क्षरण होता है। जबकि विद्वान, पराक्रमी और परोपकारी समाज का नेतृत्व करते है। अन्य लोग उनके जीवन तथा व्यवहार शैली को अनुकरणीय मानकर सम्मानित करते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Monday, December 24, 2012

मनुस्मृति-अहिंसा के भाव से मन एकाग्र होता है (manu smriti-ahinsa ke bhav se man ekagra hota hai)

            जीवन में सुख पाने का सीधा मार्ग यही है कि दूसरे को प्रसन्नता प्रदान करो। यह सिद्धांत न केवल मनुष्य बल्कि पशु पक्षियों के प्रति भी अपनाया जाना चाहिये।  एक बात याद रखें कि मनुष्यों के अलावा भी अन्य जीवों में  वैसी ही आत्मा होती है।  मनुष्य बोल सकता है पर अन्य जीव मूक भाव से हमारी तरफ देखते हैं।  कहा जाता है कि भोजन, काम, तथा अन्य संवेदनशील प्रवृत्तियाँ  पशु पक्षियों में भी होती है।  जिस तरह सताये जाने पर मनुष्य का मन रंज होता है वैसे ही पशु पक्षियों में निराशा, कातरता तथा क्रोध के भाव आते हैं।  सताये जाने पर वह आर्त भाव से मनुष्य की तरफ देखते हैं। इसलिये मनुष्य को न केवल मनुष्य  बल्कि पशु पक्षियों के प्रति भी अहिंसक भाव रखना चाहिए।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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ये बन्धन्वधक्लेशान्प्राणिनां न विकीर्शति।
स सर्वस्य हितप्रेप्सुः सुखामत्यन्तमश्नुते।।
               हिन्दी में भावार्थ- जो व्यक्ति दूसरे जीव को बांध कर नहीं रखता और न उसका वध करता है और नही किसी प्रकार की पीड़ा देता है वह सदा सुखी रहता है।
यद्ध्यायति यत्कुकते धृर्ति वध्नाति यत्र च।
तद्वाप्नोत्यत्नेन या हिनस्ति न किञ्चन।।
हिन्दी में भावार्थ-जो व्यक्ति अहिंसा धर्म में स्थित है वह जिस विषय पर चिंत्तन करता है उसमें सफलता प्राप्त कर लेता है। अहिसा भाव के कारण वह अपना ध्यान अपने कर्म में एकाग्रता से लगाता है इसलिये बिना विशेष प्रयास के लक्ष्य प्राप्त कर लेता है।
        जब कोई मनुष्य अपने हृदय में शुद्ध भाव धारण कर लेता है तब उसकी अध्यात्मिक शक्ति स्वतः बढ़ जाती है।  उसका  ध्यान अपने कर्म पर इतनी एकाग्रता से लगता है कि उसका लक्ष्य उसे बिना किसी विशेष प्रयास और किसी अन्य की सहायता लिये बिना प्राप्त हो जाता है।  इस संसार में ध्यान की शक्ति अत्यंत महत्वपूर्ण है। कहा जाता है कि चिड़िया अपने बच्चों को अपनी ध्यान शक्ति से ही पालती है।  अहिंसा के भाव में स्थित मनुष्य के मस्तिष्क में अच्छे सत्विचारों का केंद्र बिन्दु बन जाता है जिससे उसके अंदर नये नये कार्य करने के साथ ही समाज के लिये भी कुछ कर गुजरने का माद्दा पैदा होता है।  कहने का अभिप्राय यह है कि यह संसार हमारे संकल्प से बनता है और इसलिये ऐसे विषयों से संपर्क रखना ही श्रेयस्कर होगा जिनसे हमारी ध्यान शक्ति प्रबल हो।  यदि ध्यान भटकाने वाले विषयों से संपर्क कोई व्यक्ति बढ़ायेगा तो वह न केवल अपने कार्य में नाकाम होगा बल्कि समाज में निंदा का पात्र भी बनेगा।    
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Friday, December 21, 2012

अथर्ववेद से संदेश-शूरवीर की तरह सूर्योदय से पहले जागें (atharvved se sandesh-shurvir ki tarah prat:kal jagen)

           इस संसार में प्रत्येक मनुष्य को संघर्ष करना ही पड़ता है।  इस  संघर्ष में जय पराजय का आधार मनुष्य के अंदर विद्यमान शारीरिक और मानसिक क्षमतायें होती हैं।  जिनका संकल्प दृढ़ होने के साथ हृदय  में कर्म करने से प्रतिबद्धता है वह व्यक्ति हमेशा ही सफल होता है।  यह बात कहने में अत्यंत सहज लगती है पर इसका व्यवहारिक पहलू यह है कि हमें अपने जीवन में ऐसी दिनचर्या अपनाना चाहिये जो शारीरिक तथा मानसिक शक्ति में वृद्धि करने में सहायक  हो।  जीवन में न केवल शारीरिक शक्ति का होना आवश्यक है बल्कि उसके साथ मनुष्य को मानसिक रूप से भी शक्तिशाली होना चाहिए।
            हमारे अध्यात्मिक दर्शन में ब्रह्म मुहूर्त में उठना जीवन के लिये सबसे ज्यादा उत्तम माना जाता है।  हमारे महान पूर्वजों ने जिस अध्यात्मिक ज्ञान का संचय किया है वह सभी प्रातःकाल उठने को ईश्वर की सबसे बड़ी आराधना माना जाता है। इससे तन और मन में शुद्धता रहती है।  प्रातःकाल का समय धर्म का माना जाता है और इस दौरान योगासन, ध्यान और मंत्रजाप कर स्वयं को अध्यात्मिक रूप से दृढ़ बनाया जाना आवश्यक है। 
अथर्ववेद  में कहा गया है कि 
व्यार्त्या पवमानो वि शक्रः पाप हत्यथा।।
           हिन्दी में भावार्थ- तन और मन में शुद्धता रखने वाला मनुष्य पीड़ाओं से दूर रहता तो पुरुषार्थी दुष्कर्म करने से बचता है।
ओर्पसूर्यमन्यातस्वापाव्युषं जागृततादहमिन्द्र इवारिष्टो अक्षितः।
             हिन्दी में भावार्थ- दूसरे लोग भले ही सूर्योदय तक सोते रहें पर शूरवीर सदृश नाश और क्षय रहित होकर समय पर जागे।
      जब देह और मन में शुद्धता होती तब आदमी स्वयं ही सत्यकर्म के लिये प्रेरित होता है।  पुरुषार्थी मनुष्यों को सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि वह पाप कर्मों पर कभी नहीं विचार करते। आजकल हम समाज में जो अपराध की बढ़ती प्रवृत्ति देख रहे हैं उसके पीछे दो ही प्रकार के लोग जिम्मेदार दिखाई देते हैं। एक तो वह लोग जिनके पास कोई काम नहीं है यानि वह बेकार है दूसरे वह जिनको काम करने की आवश्यकता ही नहीं है यानि वह निकम्मे हैं।  यह बेकार और निकम्मे ही मिलकर अपराध करते हैं।  हम जब जब सभ्य समाज की बात करते हैं तो वह पुरुषार्थी लोगों के कंधों पर ही निर्भर करता है। हृदय में शुद्ध और देह में दृढ़ता होने पर कोई भी लक्ष्य आसानी से प्राप्त किया जा सकता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, December 15, 2012

सामवेद से सन्देश-देवता केवल कर्मशील मनुष्य को ही प्रेम करते हैं (dewta kewal karmshil manushya ko prem karte hain)

         ब्रह्मा ने जब सृष्टि की रचना की तो देवता तथा मनुष्यों की उत्पति हुई।  उन्होंने कहा कि मनुष्य देवताओं की आराधना करें तो देवता मनुष्य को उसका  फल देंगे। अध्यात्म और सांसरिक विषयों के बीच जीव की देह पुल का काम करती है। सांसरिक विषयों में सहजता से संबंध रखना आवश्यक है। इसलिये आवश्यक है कि उन विषयों से संबंधित कार्य करते हुए हृदय में शुद्धि हो। सांसरिक विषयों में फल की कामना का त्याग नहीं किया जा सकता  पर उसके लिये ऐसे गलत मार्ग का अनुसरण भी नहीं किया जाना चाहिए जिससे बाद में संकट का सामना करना पड़े।  दूसरी बात यह भी है कि अपने कर्म के परिणाम की आशा दूसरे का दायित्व नहीं मानते हुए आत्मनिर्भर बनने का प्रयास करना चाहिए।। 
सामवेद में कहा गया है कि
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देवाः स्वप्नाय न स्पृहन्ति।
 

हिन्दी में भावार्थ-देवता आलसी मनुष्य को प्रेम नहीं करते।
देवाः सुन्वन्तम् इच्छान्ति। 
हिन्दी में भावार्थ-देवता कर्मशील मनुष्य को ही  प्रेम  करते हैं।
           जीवन को सुचारु रूप से चलाने क्रे लिये कर्मशील होना आवश्यक है। आलस्य मनुष्य का शत्रु माना जाता है। देह से परिश्रम न करना ही आलस्य है यह सोचना गलत है वरन् मस्तिष्क को सोचने के ले कष्ट देने से बचना भी इसी श्रेणी में आता है। आधुनिक सुविधाभोगी जीवन ने आदमी की देह के साथ ही उसके मस्तिष्क की सक्रियता पर भी बुरा प्रभाव डाला है। लोग प्रमाद तथा व्यसन में अधिक रुचि इसलिये लेते हैं कि उनके मस्तिष्क को राहत मिले। यही राहत आलस्य का रूप है।  इससे बचना चाहिए। अध्यात्म ज्ञान प्राप्त करने यह आलस्य स्वमेव दूर होता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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