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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Tuesday, February 17, 2015

भगवान शिव तो सत्य मार्ग पर विराजते हैं-महाशिवरात्रि पर विशेष हिन्दी लेख(bhagawan shiv to satya marga par virajte hain-A Special hindi article on mahashivratri)



         आज पूरे देश में महाशिवरात्रि का पर्व बड़े उल्लास से मनाया जा रहा है।  हमारे प्राचीन ग्रंथों में भगवान शिव की अनेक लीलायें वर्णित हैं।  श्रीमद्भागवत गीता में ब्रह्म के तीन रूप मान गये हैं-ब्रह्मा जन्म, विष्णु धारण-पालन तथा शिव या रुद्र सहंार के प्रतीक माने गये हैं।  हर मनुष्य में मृत्यु या संहार का भय रहता ही है इसलिये रुद्र या शिव के प्रति भी अनेक लोग अपनी श्रद्धा इस आशा से प्रकट करते हैं कि वह हमेशा प्र्रसन्न रहे।  वैसे भी उन्हें अत्यंत भोला माना जाता है जो नाम स्मरण से कृपा करने वाले हैं।
            धारणा तथा पालन के रूप भगवान विष्णु के अनेक अवतार माने जाते हैं पर भगवान शिव का एक ही रूप रहां है। यह अलग बात है कि हमारे यहां कथित अनेक बाबा उनके अवतार होने का दावा करते हैं। सबसे बड़ी महत्वपूर्ण बात यह कि हमने कहीं भी यह नहीं पढ़ा कि भगवान शिवजी भांग या नशे का सेवन करते थे जबकि देखा यह जाता है कि अनेक व्यसनी लोग तंबाकू, शराब, भांग, अफीम या मादक द्रव्य पदार्थों का सेवन करते हुए भगवान शिव का संदर्भ मजाक में देकर अपने को सही साबित करने का प्रयास करते हैं।  इतना ही नहीं कुछ लोग मादक पदार्थों के सेवन मदहोश होकर ऐसे व्यवहार करते हैं जैसे कि कोई विशिष्ट व्यक्तित्व के स्वामी हों।  पतंजलि योग साहित्य में औषधि से समाधि की बात कही गयी है यह सत्य है पर उसे कोई श्रेष्ठ नहीं कहा गया है।  श्रीमद्भागवत गीता और पतंजलि योग में किसी वस्तु, विषय या व्यक्ति को अच्छा या बुरा नहीं कहा गया है। इनमें तो इतना बताया गया है कि किसी भी कर्म की प्रकृत्ति के अनुसार परिणाम होता है, तय तो यह हमें करना है कि वह हमारे अनुकूल है या नहीं।  औषधियों का निंरतर सेवन दैहिक, मानसिक और वैचारिक से विकृतियां लाता है यह अंतिम सत्य है।  इसलिये व्यसनी धर्म के ठेकेदारों से परे ही रहना चाहिये।
            ब्रह्मा जन्म, विष्णु कर्म तथा शिव मोक्ष के रूप हैं।  हम प्रतिदिन इनके प्रभाव में रहते हैं।  प्रातः धर्म, दोपहर धर्म, सांय काम या मनोरंजन तथा रात्रि मोक्ष के लिये बनी है।  अगर हम यह चाहते हैं कि रात्रि को निद्रा सहजता से आये तो यह आवश्यक है कि हम पूरे दिन ऐसे काम करें जो हमारे अनुकूल परिणाम देने वाले हों। शिव सत्य का प्रतीक माना जाता है।  सात्विक लोगों को सत्य ही प्रिय होता है।  ऐसा नहीं है कि अध्यात्मिक ज्ञानी या सात्विक लोग सांसरिक विषयों को त्याग देते हैं वरन् वह उसमें पूर्ण लिप्तता का त्याग करते हैं।  अपनी भौतिक, सामाजिक तथा भौतिक उपलब्धियों को अपने मन पर सवार नहीं होते।  न ही भगवान के किसी भी रूप की आराधना से कोई भौतिक सफलता की आशा करते हैं।  उनका आशय पूजा या आराधना करन अपने मन की शुद्धि करना होता है। ही शुद्धि सत्य मार्ग पर ले जाती है जहां भगवान शिव विराजमान रहते हैं। 
       इस महाशिवरात्रि पर सभी ब्लॉग लेखक मित्रों, पाठकों तथा फेसबुक सहयोगियेां को हार्दिक बधाई।

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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Saturday, February 07, 2015

धन्य है वह लोग जो निष्कामभाव से समाज सेवा करते हैं-भर्तृहरि नीति शतक के आधार पर चिंत्तन लेख(dhanaya hain vah log jo nishkam bhav se samaj sewa kanrte hain-A Hindu hindi religion thought based on bhartrihari neeti shatak)




            आज के विज्ञापन युग में प्रचार माध्यम पैसा लेकर अनेक प्रतिष्ठित लोगों को देवता बना देते हैं।  इतना ही नहीं अब तो ऐसे कथित स्वयंभू समाजसेवी हो गये हैं जो धनिकों से चंदा लेकर गरीब तथा बेसहारा लोगों में दानवीर बन जाते हैं।  देश में अनेक अशासकीय स्वयंसेवी संगठन बन गये हैं जिनके शीर्ष पुरुष यह दावा करते हैं कि वह निष्काम भाव से समाज सेवा कर रहे हैं।  यह अलग बात है कि वह समाज सेवा के लिये प्राप्त धन से ही अपने गृह खर्च चलाते हैं। उससे ही समाज सेवा के लिये  यात्रायें करते हैं।  अपनी जेब से पैसा निकालकर खर्च करने की बात तो वह स्वयं  कहते भी नहीं है जो कि वास्तव में निष्काम भावी होने का प्रमाण होता है।  अगर हम ऐसे समाजसेवी संगठनों की संख्या देखें तो हमारे देश में गरीबो, मरीजों तथा बेसहारा लोगों की संख्या नगण्य रहना चाहिये पर आंकड़े इस को प्रमाणित नहीं करते। 

भर्तृहरि नीति शतक

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किं तेन हेमगिरिणा रजतांद्रिणा वा यत्राश्रिताश्च तरवस्तरवस्त एव।

मन्यामहे मलयमेव यदाश्रवेणा कङ्कोलनिन्बकुटजा अपि चन्दनाः स्यूः।।



            हिन्दी में भावार्थ-उस स्वर्ण पर्वत सुमेरु और रजत पर्वत हिमालय से भी क्या लाभ जहां के पेड़ तो पेड़  रहते है। हम तो उस मलय पेड़ को महान मानते हैं जिसके आश्रय में रहने वाले कंकोल, नीम और कुटज आदि वृक्ष चंदनमय हो जाते हैं।

            भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में अंधविश्वासों का कोई स्थान नहीं है यह अलग बात है कि पेशेवर धार्मिक ठेकेदारों ने कर्मकांडों के नाम पर अनेक प्रकार के अंधविश्वास समाज में स्थापित कर दिये हैं जिसे लोग चाहे अनचाहे उनका बोझ ढोते हैं।  इन अंधविश्वासों के विरुद्ध अनेक कथित विद्वान अभियान भी छेड़ देते हैं पर उनका प्रभाव इसलिये नहीं होता क्योंकि वह भारतीय अध्यात्म के तत्वज्ञान का अध्ययन नहीं करते।  उन्हें लगता है कि केवल नारे लगाने से लोग उनकी बात मान लेंगे।  ऐसे लोग भी अपने अभियान के लिये चंदा लेते हैं।  हमारी दृष्टि में तो अगर अंधविश्वास समाप्त करना है तो सत्य का विश्वास कायम करना चाहिये पर यह भी निश्चित है कि पेशेवर लोगों के लिये समाज में भावनात्मक परिवर्तन लाना सहज नहीं है।  भावनात्मक परिवर्तन के लिये हार्दिक प्रयास आवश्यक हैं जिसे आर्य अर्जन की भावना होने पर सहजता से नहीं किया जा सकता।
            ऐसे में धन्य है वह लोग जो प्रचार से परे होकर समाज में न केवल निष्काम भाव से सेवा करते हैं वरन् हार्दिक भाव से उनमें ज्ञान का प्रचार करते हैं।  इन्हीं लोगों की वजह से आज भी भारतीय समाज की पहचान विश्व में बनी हुई है।

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
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