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Sunday, June 30, 2013

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-धनियों को बुद्धिमान से होड़ नहीं करना चाहिए (economics of kautilya hin hindi-rich man should not campairs with inteligent peson)


         मनुष्य में यह प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से दूसरों के साथ होड़ करने की प्रवृत्त् िहोती है। यही उसके दुःख का मूल कारण भी है।  सच बात तो यह है कि आज कोई भी सुखी नहीं है।  इसका कारण यह कतई नहीं है कि माया की कृपा का लोगों के  पास अभाव है वरन् वह दूसरों पर भी कृपा करती है इसको लेकर सभी लोग परेशान रहते हैं।  सभी लोग:तेरी कमीज  मेरी कमीज से सफेद कैसेकी तर्ज पर जीवन पथ पर चलते हुए चिंतायें पाल रहे हैं।  अनेक लोगों के पास बहुत सारी भौतिक सुविधायें हैं इससे उनको सुख नहीं मिलता बल्कि दूसरे के पास भी वैसे ही साधन हैं यह चीज सभी को परेशान करती है।
           उससे भी बड़ी समस्या यह है कि आधुनिक समय में ढेर सारे सुख सभी के पास हैं। कोई किसी से कम नहंी है इसलिये एक दूसरे की प्रशंसा करने का समय किसी के पास नहीं है।  न ही शब्द है न अभ्यास कि दूसरे की प्रशंसा कर उसका मनोबल बढ़ाया जाये।  इसके विपरीत सभी एक दूसरे को नीचा दिखाकर मनोबल गिराने का प्रयास करते हैं। जिनके पास धन, पद और प्रतिष्ठा है उनका अनुकरण वह लोग भी करना चाहते हैं जिनके पास अधिक धन, उच्च पद और प्रतिष्ठा का अभाव है।  परिणाम यह है कि समाज में स्वस्थ प्रतियोगिता की बजाय ईर्ष्या, वैमनस्य और घ्णा का वातावरण बन गया है।  उस पर प्रचार माध्यम भी क्रिकेट, फिल्म तथा राजनीति के शिखर पृरुषों का प्रचार इस तरह करते हैं कि वह समाज के प्रेरक बन जायें।  तय बात है कि उन जैसा स्तर आम आदमी के भाग्य मे नहीं होता पर सपने पालने के कारण वह तनाव झेलता है।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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वेषभाषा अनुकरणं न कुर्य्यात्प्थ्विीपतैः।
         सम्पन्नोऽपि हि मेघावी स्पर्द्धेत न च सद्गुणे।।
      हिन्दी में भावार्थ-राज के वेष तथा वार्तालाप की नकल नहीं करना चाहिये। उसी तरह स्वयं भले हीी धनी हों पर कभी बुद्धिमान के गुणों से स्पर्घा न करें।
      नीति विशारद चाणक्य यह स्पष्ट रूप से मानते  हैं कि धनी का पूरा समाज सम्मान करता है। यह बात स्वाभाविक है क्योंकि आपत्ति विपत्ति में कोई भी रुपये पैसे के लिये धनी से ही आशा करता है। भले ही कोई धनी पूरे समाज के निर्धनों को उधार या सहायता नहीं देता पर स्वभाविक रूप से  एक आशा तो सभी को बंधी रहती है। इससे अनेक धनी लोग अपने को देवता या भगवान समझते हुए अल्पधनी बुद्धिमान को भी हेय समझने लगते हैं।  वह मानते हैं कि उनके अंदर बुद्धिमानी के गुण स्वाभाविक रूप से होते हैं।  यह उनका भ्रम है।  जिस तरह बुद्धिमान व्यक्ति अपने पास अधिक धन न होने पर धनिकों की होड़ नहीं करते उसी तरह धनवानों को भी चाहिये कि वह बुद्धिमानों की होड़ करते हुए ऐसे काम न करे जिससे उनका धन जाता रहे। हो सके तो बुद्धिमानों से अपनी स्थिति पर चर्चा करते हुए उनसे सलाह  भी लेते रहना चाहिये।                      


संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Monday, June 24, 2013

चाणक्य नीति-अपने हाथ से काम करें तो शोभा बढ़ती है (chankya policy in hindi-apna hath jagannath)



              सांसरिक  विषयों में निरंतर लिप्तता मनुष्य को आत्ममंथन का समय नहीं देती। इस कारण मनुष्य विषयों में इतना आसक्त होता है कि उसका मन बेबस होकर उनमें ही बंधा रहता है। यह सांसरिक विषय मनुष्य की बुद्धि को बहिर्मुखी बना देते हैं। एक समय ऐसा आ जाता है कि मनुष्य की बुद्धि पराधीन हो जाती है और जब उसे कहीं एकांत मिलता है तब वह घबड़ा जाता है। वह तत्काल कोई ऐसा विषय ढूंढता है जिसमें वह व्यस्त होकर अपनी इस घबड़ाहट को मन से दूर कर सके।  यह अलग बात है कि वह निरंतर विषयों में लिप्त रहते हुए अपनी रचनात्मक शक्ति खो बैठता है जिससे उसमें कुछ नये करने की सोच नहीं बन पाती। हमारे देश ही नहीं वरन्  पूरे विश्व समाज में यही स्थिति है। यही कारण है कि सभी लोग पेशेवर मनोरंजन व्यवसायियों के जाल में फंसे हैं। इससे बाज़ार के सौदागर तथा उनके अनुयायी प्रचारक नित नये स्वांग रचकर मनुष्य समाज पर नियंत्रण किये हुए हैं।  क्रिकेट से आदमी बोर हो तो  टेनिस, उससे बोर हो तो फुटबाल और उससे भी उकता जाये तो फिर  बैटमिंटन का खेल सामने रख दिया जाता है। फिल्मों में यही स्थिति है। कभी स्टंट फिल्म तो कभी कॉमेडी कभी हारर कथानक पर फिल्म बनाकर लोगों की आंखों का चश्मा बदला जाता है।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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स्वहस्ग्रथिता माला स्वहस्तधृष्अच्नछन्म्।
स्वहस्तलिखितं स्तोत्रं शक्रस्यापि श्रियं हरेत्।।
      हिन्दी में भावार्थ-अपने हाथ से  गूंथी हुई माला, अपने हाथों से घिसा गया चंदन और अपने हाथ से लिखा हुए स्तोत्र का इतना मन पर प्रभाव होता है कि इंद्र की शोभा भी फीकी दिखाई देती है।
       इतने सारे स्वांग देखकर भी आदमी जब उकता जाये तो  उसके सामने अध्यात्कि चर्चा के नाम पर धार्मिक कथायें इस तरह सुनाई जाती हैं जिससे उसका मनोरंजन हो।  पेशेवर धार्मिक व्यवसायिों ने धर्म के नाम पर समाज को अपने बंधन में बांध रखा है।  प्रश्न यह है कि इस बंधन से कैसे छूटा जाये?
      इसका उपाय यह है कि हमें अपने हाथ से कोई ऐसा काम करना चाहिये जिससे पैसा हमें न मिले तो कोई बात नहीं पर मन को इस बात का अनुभव होना चाहिये कि हम कुछ अनोखा कर रहे हैं। आपने देखा होगा लेखक, कलाकार तथा गायक कलाकर कभी अपना जीवन नीरस होने की शिकायत नहीं करते।  पहले लोग अपने हाथ से माला जापकर या अपने हाथ घिसे हुए चंदन से स्वयं को अलंकृत करते थे।  माला जापने से किसी को भगवान भले ही नहीं मिला हो पर इससे अनेक लोगों ने अपने मन पर पूरे जीवन भर अपना नियंत्रण रखा।
       कहा भी जाता है कि अपनी घोल तो नशा होय।  हम अक्सर अनेक लोगों से कहते हैं कि इतना पैसा कमा कर क्या करोगे? हम अनेक लोगों के बारे में यह भी सोचते हैं कि  वह इतना पैसा कमाकर क्या करेंगे? दरअसल इस संसार में मन को बहलाने का सबसे आसान साधन पैसे कमाने में लग जाना है।  यही लोग सभी करते हैं। यह अलग बात है कि कालांतर में यह शौक भी दम तोड़ देता है।  उस समय मनुष्य को खालीपन लगने लगता है।  इसलिये अपने साथ कोई ऐसा शौक रखना चाहिये जो मायाजाल से मुक्त हो। सभी लोग लेखकर, चित्रकार या कलाकर नहीं कर सकते।  ऐसे में  अपने मुंह से भजन गाते या फिर बागवानी करते रहना इसका अच्छा उपाय हो सकता है।  कहनें का अभिप्राय यह है कि अपनी अभिव्यक्ति को निष्काम कर्म के माध्यम से बाहर आने देना चाहिये।  यह बचपन से ही स्वतः पड़ जाये तो भाग्य समझना चाहिये और यदि न हो तो युवावस्था में इस बात का प्रयास करना चाहिये कि अपने हाथ हमेशा ही जगन्नाथ बने और धर्म, साहित्य, या मनोरंजन के नाम कोई हमारे मन को बांध न सके।

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Saturday, June 22, 2013

चाणक्य नीति-अपने जीवन में आत्ममंथन करते रहना चाहिए (apna atma manthan karnaa chahiye)




           वर्तमान शिक्षा पद्धति आदमी को नौकरी तथा उपभोग की के तत्वों के अलावा कुछ अन्य का ज्ञान नहीं देती। अधिकतर शिक्षित युवक नौकरी कर एक सभ्य उपभोगीय प्रवृत्ति के समाज का सदस्य बनना चाहते हैं। अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव में सांसरिक विषयों को ही वह जीवन का सत्य समझते हैं। यह सब ठीक है पर यह उपभोगीय प्रवृत्ति मनुष्य की संघर्ष क्षमता का कम करती है।  जब तक समय ठीक है तभी तक सभी प्रसन्न दिखते हैं पर थोड़ी विपत्ति आने पर ऐसे लोगों की हवा निकल जाती है है जो केवल बौद्धिक प्रयासों से जिन्दा   है।  शारीरिक श्रम के अभाव में शिक्षित समाज की हवा जल्दी निकल जाती है।
       विदुर नीति नीति में कहा भी गया है कि धनिक लोगों की पाचन क्षमता कम होती है। तय बात है कि जब पाचन शक्ति कमजोर होगी तो मनुष्य में संघर्ष क्षमता की कम रहेगी।  यह सब अध्यात्मिक ज्ञान होने पर ही समझा जा सकता है। मुख्य बात यह कि जो व्यक्ति समय समय पर आत्म मंथन करेगा वही अपनी स्थिति तथा शक्ति को समझ पायेगा।  आत्ममंथन की प्रकिया से गुजरने के बाद आदमी अपनी शक्ति तथा साधनों में समन्वय स्थापित कर सकता है।  अगर मनुष्य आत्ममंथन नहीं करेगा तो वह हमेशा ही अपनी स्थिति के पतन के भय से ग्रसित रहेगा।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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कः कालः काति मित्राणि को देशः की व्ययाऽगमौ
कश्चाचाऽहं का च मे शक्त्रििति विनयंमुहुर्मुहुः।।
     हिन्दी में भावार्थ-हमारे मित्र कैसे है? समय कैसा है? हम किस क्षेत्र में रहे रहे हैं। हमारे आय व्यय कीस्थिति क्या है? हम कौन है तथा हमारी शक्त् िकितनी है? ऐसे प्रश्नों पर हमेशा विचार करते रहना चाहिये।
तावट् भयेष भेतव्यं यावद्भयमनागतम्।
आगतं तु भयं दृष्टवांर प्रहर्तव्यमङ्कसर।।
          हिन्दी में भावार्थ-अपने मन में किसी भय को स्थान नहीं देना चाहिये।  जब संकट आये तभी भय का विचार करना चाहिये। जब सेकट सामने हो तो उस पर पूरी शक्ति से प्रहार करना चाहिये।
            जब आदमी चिंत्तन और आत्मंथन की प्रक्रिया नहीं करेगा तो उसके अंदर हमेशा ही अपनी स्थिति से गिरने का भय व्याप्त होगा। ऐसे ऐसे भय पैदा होंगे जिनकी कल्पना तक नहीं की जा सकती। यह सभी भय कल्पित होते हैं। यह शक्तिहीन व्यक्ति की पहचान है जो कालांतर में कायर बन जाता है।  इसलिये जीवन में कोई काम सोच विचार करते हुए तो करना चाहिये पर परिणामों में

असफलता की आशंका कतई नहीं करना चाहिये।

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Saturday, June 15, 2013

तुलसीदास के दोहे-पानी बढ़ जाने पर गंगा हंसों को भगाकर बगुलों को जगह देती है (tulsi ke dohe-pani badh jane par ganga hanson ko bhagakar bagulon ko jagah detee hai)



              इस संसार में तीन प्रकार के लोग होते हैं-सात्विक, राजस और तामस।  योगी और ज्ञानी इस भेद को जानते हैं इसलिये कभी अपनी स्थिति से विचलित नहीं होते।  सात्विक पुरुष तो केवल अपनी भक्ति में लीन रहते हुए जीवन बिताते हैं जबकि राजस प्रवृत्ति वाले अनेक प्रकार के उपक्रम करते हैं ताकि उनको भौतिक लाभ मिलता रहे। तामसी प्रवृत्ति के लोग जहां जीवन में आलस्य के साथ प्रमाद में समय बिताते हैं वही उनके अंदर अनेक प्रकार का वैचारिक भ्रम भी रहता है। 
     हम यहां खासतौर से राजसी प्रवृत्ति के लोगों की चर्चा करना चाहेंगे। मुख्य रूप से राजस पुरुष ही संसार का संचालन करते हैं।  उनकी भूमिका समाज में  अत्यंत व्यापक होती है। इस प्रवृत्ति के लोगों में लोभ, अभिमान तथा क्रोध जैसे दुर्गुण स्वाभाविक रूप से विद्यमान होते हैं।  राजसी प्रवृत्ति के कर्मों को प्रारंभ कोई भी मनुष्य  बिना लाभ पाने की इच्छा के  नहीं करता।  यह अलग बात है कि ऐसा करने वाले अपने अंदर सात्विक प्रवृत्ति होने का दावा करते हैं।  ऐसे लोग  समाज के कल्याण और गरीब के उद्धार के कर्म में संलग्न होने का दावा इस तरह करते हैं जैसे कि परोपकार करना उनका व्यवसाय है।  उनके पास धन आता है। धन की अधिकता हमेशा ही अहंकार को जन्म देती है।  इससे कोई बच नहीं सकता।  उच्च पद, धन, और प्रतिष्ठा की उपलब्धि हमेशा ही मनुष्य को उसी तरह दिग्भ्रमित करती है जैसे कि वर्षा ऋतु में नदियों का जल धारा बाहर आकर अपने ही किनारे तोड़ते हुए वृक्षों को उजाड़ देती हैं।  परिणाम स्वरूप बाहर की गंदगी वापस लौटती धारा के साथ ही नदी के  पानी में समा जाती है।
संत प्रवर तुलसी दास जी कहते हैं कि
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तुलसीतोरत तीर तरु, बक हित हंस बिडारि।
विगत नलिन आनि मलिन जान, सुरसरिहु बढ़िआरि।।
         सामान्य हिन्दी भाषा में भावार्थ-गंगाजी में जब पानी बढ़ जाता है तब वह वृक्षों को तोड़कर हंसों को भगाने के साथ बगुलों के लिये  जगह बना देती है। उस समय गंगा कमल और भौरों से रहित और गंदे जल वाली बन जाती है।
    हमने आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा अन्य राजसी कर्मों में शिखर पर पहुंचे लोगों का पतन देखा होगा।  जब कोई मनुष्य राजसी शिखर पर पहुंचता है तब उसमें अहंकार आ ही जाता हैै।  पद, पैसे और प्रतिष्ठा की अधिकता किसी को नहीं पच पाती।  ऐसे लोगों से यह आशा करना ही बेकार है कि किसी के कड़वे सच को वह सहजता से सहन कर जायें।  परिणाम यह होता है कि सत्पुरुष उनसे दूर हो जाते हैं और चाटुकार और पाखंडी लोग उनकी सेवा में आ जाते हैं।  ज्ञानी और योगी लोग इसी कारण कभी भी राजसी पुरुषों के पास नहीं जाते क्योंकि वह जानते हैं कि कहीं वार्तालाप में उनके अहंकार पर आघात पहुंचा तो वह अपनी क्रूरता दिखाने से बाज नहीं आयेंगे।  यही कारण है कि राजसी पुरुषों के इर्दगिर्द झूठी प्रशंसा करने वाले लालची लोगों का जमघट हो जाता है। अंततः वही लोग उनके पतन का कारण भी बनते हैं जो केवल भौतिक साधना की खातिर उनके पास आते हैं।  

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Saturday, June 08, 2013

चाणक्य नीति के आधार पर चिंत्तन-जल भी देह के लिये दवा का काम करता है (watar medician for body-accortding chanakya policy)



   हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार जल, वायु, अग्नि, आकाश और प्रथ्वी इन पांच तत्वों से हर जीव  की देह बनी है और यही स्वास्थ्य खराब होने पर उसके लिये औषधि का काम करते हैं।  इनमें जल न केवल जीवनदायक है वरन स्वास्थ्य का निर्माण  भी करता है।  आजकल जब हम देख रहे हैं कि पूरे विश्व में खान पान तथा रहन सहन के तौर आधुनिक तरीकों से बीमारियों का प्रकोप बढ़ रहा है तब उनके निदान के लिये हमें प्राचीन उपायों पर दृष्टिपात अवश्य करना चाहिये। खासतौर से जल के उपयोग से हम किस तरह अच्छा स्वास्थ्य बनाये रख सकते हैं इस विषय पर अवश्य विचार करना चाहिये।  आजकल भारत में भी अंग्रेजी पद्धति से बीमारी का इलाज का प्रचलन गया है और बहुत कम लोग इलाज के देशी नुस्खों पर यकीन करते हैं।  महत्वपूर्ण बात यह है कि अंग्रेजी पद्धति वाले चिकित्सक दवा के साथ खान पान में परहेज की बात भी करते हैं। इसका सीधी मतलब यह है कि उनकी दवाईयां भी पूर्ण रूप से नियमानुसार खान पान न करने पर काम नहीं करती हैं। 
चाणक्य नीति में कहा गया है कि

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अजीर्णों भेषजं वारि जीर्णे वारि बलप्रदम्।

भोजने चामृतं वारि भोजनान्ते विषप्रदम्।।

     हिन्दी में भावार्थ-अपच होने पर जल दवा का काम करता है।  भोजन पच जाने पर जल का सेवन बल प्रदान करता है और भोजन के बीच भी जल अमृत का काम करता है।  भोजन के बाद जल का सेवन विष की तरह हानिकारक है।

        आधुनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ भी इस बात को स्वीकार कर चुके हैं कि भोजन तथा जल सेवन के उन नियमों का पालन किया जाये तो जो भारतीय जीवन पद्धति की देन हैं उससे बेहतर स्वास्थ्य बना रह सकता है। आमतौर सेे हमने देखा है कि लोग भोजन के बाद जल का सेवन बढ़ी मात्रा में करते हैं।  इससे उनके स्वास्थ्य पर असर बुरा पड़ता है।  अगर भोजन के दो घंटे नहीं तो  कम से कम एक घंटे बाद भी जल के सेवन का उपयोग किया जाये तो स्वास्थ्य का स्तर अच्छा बना रह सकता है। कहने का अभिप्राय यह है कि भोजन और जल के सेवन में नियमों का पालन कर भी प्रसन्न रह सकते हैं।  

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Saturday, June 01, 2013

चाणक्य नीति-धनियों को समाज में सम्मान मिलना स्वाभाविक (chankya neeti-dhanwan ko samaj mein samman swabhavik roop se milen)



       बहुत प्रयास करने के बाद भी जिन लोगों के पास धन बहुतायत मात्रा में नहीं आता वह अफसोस कर अपना खून जलाने की बजाय भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान का अध्ययन करें। उसके अध्ययन करने से  ज्ञान होने पर उन्हें धनवानों की सभा में प्रवेश करने की इच्छा से मुक्ति मिल जायेगी।  हमारे प्राचीन  नीति विशारद हमेशा ही योग्यता, विद्वता तथा परिश्रमी मनुष्य का ही  जीवन धन्य मानते रहे हैं पर समाज के लोग धनी आदमी में देवताओं जैसे गुण देखते हैं।  अल्पधनी, परिश्रमी तथा अध्यात्मिक ज्ञानी को समाज सामान्य दृष्टि से देखता है।  कोई धनी किसी को धन बिना स्वार्थ के धन देता नहीं है पर उसकी तरफ आशा से ताक रहे लोग उसके इर्दगिर्दं रौशनी के आगे पतंगे मंडराते  हैं।  धनी लोगों के पास भीड़ देखकर अल्पधनी और निर्धन दोनों ही यह सोचते हैं कि वह उनकी अपेक्षा अधिक सम्मानीय हैं।  इतना ही नहीं कुछ लोग तो अर्थोपार्जन में सफल लोगों को विद्वान भी मानते हैं।  ऐसे में अगर अल्पधन या निर्धनता के रहते किसी को सम्मान नहीं मिलता तो उसे चिंता नहीं करना चाहिये। 
नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि
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यस्याऽर्थास्तिस्य मित्राणि यस्याऽर्थास्तस्य बान्धवा।
यस्याऽर्थः स पुर्माल्लोकेयस्याऽर्थाः स च पंडितः।।
           हिन्दी में भावार्थ-जिस व्यक्ति के पास धन है लोग स्वतः ही उसके पास आकर मित्र बन जाते हैं। रिश्तेदार भी उसे सम्मान देते हैं। आधुनिक मानव समाज की दृष्टि में विद्वान और सम्मानित माना जाता है।
      सच बात तो यह है कि जहां से अर्थ प्राप्त की आशा मनुष्य  को रहती है वहीं वह जाता है। वह उन धनोत्पादक स्थानों पर अपना वर्चस्व कायम करने के साथ ही धनी लोगों से अपने मधुर संपर्क बनाना चाहता है।  इसलिये अर्थ स्तोत्रों पर मनुष्य समुदाय की बहुतायत होने पर हैरानी नहीं होना चाहिये। जिन स्थानों या व्यक्तियों के पास अधिक धन है उनकी प्रतिष्ठा भी इसी कारण से बढ़ती है क्योंकि वहां से मनुष्य अकेला या समूह बनाकर अपने अंदर अर्थ की भावना शांत करने के लिये सक्रियता के साथ वहां जाता है। इसलिये जिनके घरों या जेबों में धन अल्प मात्रा में है उन्हें धनिकों केा मिलने वाले सम्मान के प्रति ईर्ष्या भाव त्याग कर अपने काम में लगे रहना चाहिये। वह अपने विचार बदल सकते हैं पर चाणक्य ने जो समाज की सच्चाई बताई है उससे कोई इंकार नहीं कर सकता।
  

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