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Friday, April 29, 2011

दौलत मूर्खों के सिर पर चढ़कर बोलती है-कबीर के दोहे (money mind parsan is fool-kabir ke dohe)

               इस संसार में माया का खेल अत्यंत विचित्र है। जिसके पास कम है वह उसे बढ़ाने के लिये संघर्षरत है और जिसके पास है वह उसकी सुरक्षा को लेकर परेशान है। पैसा नहीं है तो दिन का चैन हराम है नहीं है तो उसके खोने, छिनने या लुटने के भय रात की नींद गायब है। पैसा मित्र जुटाकर देता है तो शत्रु भी पैदा करता है। जो लोग यह सोचकर धन का संचय करते हैं कि उनका परिवार तथा रिश्तेदार उसका उपयोग या उपभोग कर कृतज्ञ होंगे और समाज इज्जत करेगा पर जब अपने उसका अधिकार की तरह उपयोग करते हैं असामाजिक तत्व वक्र दृष्टि डालकर उसे लूटने के लिये योजनाऐं बनाते हैं तो आदमी हताश और भयभीत होकर जीवन गुजारता है।
                    इस विषय में संत कबीरदास जी कहते हैं कि
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          माया दासी संत की साकट की शिर ताज
          साकुट की सिर मानिनी, संतो सहेली लाज
         " माया तो संतों के लिए दासी की तरह होती है पर अज्ञानियों का ताज बन जाती है। अज्ञानी लोग का माया संचालन करती है जबकि संतों के सामने उसका भाव विनम्र होता है।"
         गुरू का चेला बीष दे, जो गांठी होय दाम
        पूत पिता को मारसी, ये माया के काम
           " शिष्य अगर गुरू के पास अधिक संपत्ति देखते हैं तो उसे विष देकर मार डालते है और पुत्र पिता की हत्या तक कर देता है।"
               माया तो सभी के पास आनी है। संत हो या मज़दूर सभी के पास माया अपनी अपनी नियति के अनुसार आती जाती है। सेठों के घर भी विराजती है तो डकैतों को भी भाती है। अलबत्ता संत उसके साथ दासी की तरह व्यवहार करते हैं मगर कुछ लोग हैं जो उसके मद में अंधे हो जाते हैं। वह ताज की तरह उनके मन मस्तिष्क पर राज करती है। स्थिति यह है कि अनेक धनपति जब वृद्ध हो जाते हैं तो उनके वही कुटुंबीजन उनकी मौत की कामना करते हैं। कहीं कहीं तो ऐसा भी होता है कि पिता के पाप के धन का उपयोग करते हुए पुत्र इतना पापाचारी हो जाता है कि वह अपने पिता की हत्या तक कर डालता है। कहीं कहीं शिष्य अपने ही गुरु को मार डालते हैं ताकि वह उसके बाद गुरु का पद और धन हड़प सकें। लब्बोलुआब कहने का यही है कि खेलती है माया और आदमी अपनी पूरी जिंदगी इस भ्रम में गुजार देता है कि वह खेल रहा है।
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लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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Wednesday, April 27, 2011

क्रोध बनता है स्वनाश का कारण-हिन्दी धार्मिक संदेश

             क्रोध मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। क्रोध की उत्पति अहंकार से होती है जो कि अज्ञानियों में कूटकुटकर भरा होता है। जीवन से लेकर मृत्यु तक के सफर को तत्वज्ञान की दृष्टि से देखने वाले जानते हैं कि यहां कुछ भी अच्छा या बुरा नहीं है। यह संसार त्रिगुणमयी माया से संचालित है और हर जीव अपने गुणों के वशीभूत होकर व्यवहार करता है। जिन लोगों का रहन सहन गलत स्थान और वातावरण में है उनसे सद्व्यवहार करने की आशा करना ही मूर्खता है। जिनके पास अध्यात्मिक ज्ञान नहीं है वह इस संसार को अपनी शक्ति से संचालित होने का भ्रम पालकर अपने कर्म का परिणाम सम्मान और दान के रूप में चाहते हैं। ऐसा न होने पर वह क्रोध का शिकार होकर हिंसा करते हैं और फिर अंततः उसका दुष्परिणाम भी उनके सामने आता है तब वह उन पलों को कोसते हैं जब उनको क्रोध आया था। आजकल की युवा पीढ़ी व्यसनों के साथ ही जुआ और सट्टे जैसे अपराधों के साथ जुड़ रही है। फिल्म और टीवी धारावाहिकों में मेकअप से सजे कृत्रिम सौंदर्य से उनकी बृद्धि दिग्भ्रमित हो जाती है और उनके अंदर यौन अपराध की वृत्तियां पनपती हैं। सब तरफ से निराश होने पर उनके अंदर क्रोध पैदा होता है और अंततः वह हिंसक मार्ग पर चल पड़ते हैं।
इस विषय पर मनुमहाराज कहते हैं कि
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                        परस्यं दण्डं नोद्यच्छेत्क्रुद्धोनैनं।
                     अन्यत्र पुत्राच्छिष्याद्वा शिष्टयर्थ ताडयेत्तु तौ।।
              "कभी क्रोध भी आये तब भी किसी अन्य मनुष्य को मारने के लिये डंडा नहीं उठाना चाहिये। मनुष्य केवल अपने पुत्र या शिष्य को ही पीटने का हक रखता है।"
                     ताडयित्त्वा तृपोनापि संरम्भान्मतिपूर्वकम्।
                   एकविंशतिमाजातोः पापयेनिषु जायसे।।
                "अपनी जाग्रतावस्था में जो व्यक्ति अपने गुरु या आचार्य को तिनका भी मारता है तो वह इक्कीस बार पाप योनियों में जन्म लेता है।"
              जिन लोगों ने क्रोधवश हिंसा की है और उसका परिणाम भोगा है, उनसे अगर अपने अपराध की चर्चा की जाये तो वह इस बात को मानते हैं कि उन्होंने आवेश में आकर ऐसा अपराध किया जिससे वह बच सकते थे। इसका सीधा मतलब यह है कि उनसे हुआ अपराध हालातों से नहीं बल्कि उनके स्वयं के अपने आवेश की वजह से हुआ था। अनेक जगह तो ऐसे झगड़े होते हैं जिनमें विषय इतना गौण होता है कि देखने और सुनने वाले हंसते हैं। क्रोध का शिकार होने वाले पीड़ित हों या अपराधी अपनी जान ऐसे विषय पर गंवाते हैं जिससे टाला जा सकता था। अंतः जब अपने अंदर क्रोध आये तो उस पर नियंत्रण करना चाहिए। इसका सीधा उपाय यह है कि जब हमें लगे कि निराशा और क्रोध हमारे अंदर आ रहा है तब ओम शब्द का जाप करें। अगर कोई दूसरा मंत्र जपते हैं तो उसका अधिक और नियमित     जाप आरंभ करें।
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लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
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Saturday, April 23, 2011

योगासन और प्राणायाम से व्यक्तित्व में निखार आता है-पतंजलि योग सूत्र (yogasan aur pranayam aur vyaktitva-patanjali yoga sootra)

          भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के पितृपुरुष योग साधना के जनक पतंजलि के साहित्य में योगासनों की चर्चा अधिक नहीं है पर प्राणायाम का महत्व उसमें बहुत प्रभावी ढंग से व्यक्त किया गया है। श्रीमद्भागवत् गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने आसनों से अधिक प्राणायाम की चर्चा की है। वास्तव में यह प्राणायाम एक तरह से तप है जिसके माध्यम से हमारे देश में अनेक ऋषियों, मुनियों तथा तपस्वियों ने साधना कर ज्ञानार्जन किया। उन्होंने अपने अनुभव को समाज के सामने रखा और उनके सृजन की वजह से ही हमारा देश पूरे विश्व में अध्यात्मिक गुरु की छवि बना सका है।
               इस विषय में पतंजलि योग में कहा गया है कि
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                प्राणायमाः ब्राहम्ण त्रयोऽपि विधिवत्कृताः।
                व्याहृति प्रणवैर्युक्ताः विज्ञेयं परमं तपः।।
              "किसी साधक द्वारा ओऽम तथा व्याहृति के साथ विधि के अनुसार किए गए तीन प्राणायामों को भी उसका तप ही मानना चाहिए।"
              दह्यान्ते ध्यायमानानां धालूनां हि यथा भलाः।
             तथेन्द्रियाणां दह्यान्ते दोषाः प्राणस्य निग्राहत्।।
            "अग्नि में सोना चादीए तथा अन्य धातुऐं डालने से जिस प्रकार उनकी अशुद्धता दूर होती है उसी प्राणायाम करने से इंद्रियों के सारे पाप तथा विकार नष्ट होते हैं।"
            प्राणायाम दो प्रकार से होता है। एक तो सांस अंदर कुछ देर रोकर फिर उसका विसर्जन किया जाता है दूसरा सांस बाहर निकालकर फिर उसे रोक दिया जाता है। कुछ देर बाद फिर तेजी से सांस ली जाती है। सामान्य दिखने वाला यह अभ्यास अत्यंत  तीक्ष्ण प्रभाव पैदा करने वाला होता है। इससे न केवल शरीर में बल बढ़ता है बल्कि व्यक्तित्व आकर्षक बनने के साथ ही मानसिक दृढ़ता भी आती है। मन, शरीर और विचार के विकार निकलने के साथ बुद्धि में तीक्ष्णता और चिंतन की शक्ति में वृद्धि होती है।
     प्राणायाम से जो शक्ति मिलती है उसका प्रमाण वही लोग जानते हैं जिन्होंने इसका अभ्यास किया है। जब आदमी निरंतर प्राणायाम करता है तक उसकी यह ऐसी आदत बन जाती है कि वह इसके बिना रह नहीं सकता। इसका एक ऐसा नशा हो जाता है जो सारे नशे भुला देता है। यही कारण है कि आज भी हमारे देश में अनेक लोग हैं जिन्होंने एक बार अगर योगासन और प्राणायाम करना प्रारंभ किया तो जीवन पर्यंत करते रहते हैं। 
लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
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Thursday, April 21, 2011

शोषकों की प्राणशक्ति क्षीण होती है-हिन्दू धार्मिक चिंत्तन (shoshk ki pranshakti kamjor hotee hai-hindu dharmik chittan)

      शरीरकर्षणात्प्राणाः क्षीयन्ते प्राणिनां यथा।
तथा राज्ञामपि प्राणाः क्षीयन्ते राष्ट्रकर्षणात्।।
          "जिस प्रकार शरीर को भोजन पानी न देकर उसका शोषण करने से उसकी प्राणशक्ति कमजोर हो जाती है उसी तरह राष्ट्र या प्रजा का शोषण करने से राजा की प्राणशक्ति कमजोर हो जाती है।"
                      जिन लोगों ने मनुस्मृति को नारी तथा निम्न जातियों के लोगों के लिये अपमानजनक बताकर इसको जलाया और अपमान किया वह लोग कौन थे? यह विचार करना जरूरी है।
यकीनन इनमें से कई लोग अपने अभियान को पूरा कर राजकीय पदों पर सुशोभित हुए। वह मनुस्मृति का दुष्प्रचार कर जनता में भेद डालकर आधुनिक लोकतंत्र के सहारे उसका मत लेकर राजसत्ता चाहते रहे होंगे। वह मिली और आधुनिक पदों के नाम से राजा भी वही लोग बने। वह डरते थे कि मनुस्मृति के अनेक संदेश उनकी आत्मा को रुलायेंगे, उनका सच कोई बतायेगा तो स्वयं का काला चेहरा ही अपने अंतर्मन के कांच में दिखाई देगा। सच से भागने वाले इसे सत्ता भोगियों ने मनृस्मृति से ही न केवल दूर रहने का फैसला किया बल्कि प्रजा को भी दूर रहने का प्रयास आरंभ किया।
                 हम आज देखें तो देश की क्या हालत है? घोटालों, भ्रष्टाचार तथा आतंक के साये में आम लोग जी रहे हैं। मनृस्मृति में नारी के लिये अपमाजनक टिप्पणियां दिखाने वाले विद्वान आज के युग में ही नारी की पहले से अधिक दुर्गति पर रोते हैं पर उसका हल नहीं बता पाते। वह विद्वान राज्य को दोष देते हैं पर उसी के सहारे उनकी दुकान चल रही है। ऐसा नहीं है कि इस देश में ईमानदार राज्य कर्मी या अधिकारी नहीं हैं पर कुछ लोगों ने अपना वर्चस्व इस तरह स्थापित कर लिया है कि राज्य का केंद्र बिंदु उनके इर्दगिर्द ही घूमता है और वह उसका गलत इस्तेमाल कर अपने लिये घर भरते हैं। इन भ्रष्ट लोगों के मन में बस जनता की शोषण करने की भयानक प्रवृत्ति है। इससे उनकी प्राणशक्ति कमजोर हो गयी है और भले ही वह जनता की रक्षा का कथित दावा करें पर कर नहीं  पाते।
                        कभी कभी तो प्रतीत होता  है कि आम और गरीब जनता के माध्यम से जो राजस्व आता है उसकी लूट के लिये एक तरह से बहुत सारे गिरोह बन गये हैं। कहीं न कहीं न वह सफेद चेहरा लेकर राज्य के निकट पहुंचकर वह अपना कालाचरित्र धन और पद के सफेद रंग से पोतकर उसे आकर्षक ढंग से सजा लेते हैं। ऐसे लोगों की प्राणशक्ति कमजोर होती है। बाहर से भले ही वह ढीठता दिखायें पर पर अंदर से वह अपने काले कारनामों की वजह से खौफ में जीते हैं। ऐसे में अगर कोई मनृस्मृति के राज्य से जुड़े अंश पढ़कर सुनायें तो उनको लगेगा कि कोई उनका सच ही उनके सामने बयान कर रहा है। प्राणशक्ति से क्षीण ऐसे लोग अज्ञानी पुरुष की तरह सत्य से छिपते और भागते हैं। एक बात याद रखना चाहिए कि समाज और राष्ट्र की सेवा वही कर सकते हैं जिनकी प्राणशक्ति प्रबल है और यह उनके लिये ही संभव है जो गलत काम नहीं  करते। ईमानदार और निष्ठावान लोगों की प्राणशक्ति मज़बूत होती है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
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Tuesday, April 19, 2011

प्रसिद्धि पाने के लिये अनुचित काम न करें-हिन्दू धार्मिक चिंत्तन (prasiddhi ke liye anuchit kam n karen-hindu dharmik chittan)

           आज समाज में नाम पाने के लिये कुछ भी कर गुजरने की मनोवृत्ति बढ़ती जा रही है।  प्रचार माध्यमों में नाम पाने का मोह लोगों को अंधा बना देता है। अपराधिक प्रवृत्ति के लोगों का नायक की तरह प्रचार देखकर कुछ युवा भ्रमित हो जाते हैं।  वैसे भी जनसामान्य को लगता है कि जो लोग अपनी हिंसक अपराधिक प्रवृत्ति की वजह से समाज में डर बनाये रहते हैं वह कोई दमदार आदमी हैं।  उनका रुतवा देखकर सब उनसे संपर्क रखते हैं पर प्रकृति का नियम है कि जो जैसा करेगा वैसा भरेगा।  जो लोग जनविरोधी काम करते हुए आतंक का वातावरण बनाते हैं वह दरअसल स्वयं ही अंदर से डरे रहते हैं। उनकी बदनामी को लोकप्रियता समझना मूर्खता है।  समाज में सम्मान तो केवल उसी आदमी को मिलता है जो जनहित का काम करता है। 
           हर मनुष्य में पूज्यता और अहंकार का भाव होता है। जब किसी को धन, पद और प्रतिष्ठा प्राप्त होती है तो फूलकर कुप्पा नहीं समाता और कई लोगों का तो मन ही विचलित हो जाता है। शक्ति आने पर ही अनेक लोग संतुष्ट नहीं होते बल्कि उसका प्रभाव समाज पर दृष्टिगोचर हो और वह डरे इसी उद्देश्य से कुछ लोग अपने बड़प्पन का दुरुपयोग करने लगते हैं। आजकल हम देख सकते है कि देश में अमीरों, उच्च पदस्थ तथा बाहूबली लोगों का आतंक पूरे समाज पर दिखाई देता है। शक्तिशाली वर्ग के लोग अपनी शक्ति से छोटों को संरक्षण देने की बजाय अपनी शक्ति का उपयोग उनको दबाकर आत्म संतुष्टि कर लेते हैं। यही कारण है कि समाज में वैमनस्य का भाव बढ़ रहा है।
           कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि 
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    आयत्याञ्प तदात्वे च यत्स्यादास्वादपेशलम्।
    तदेव तस्य कुर्वीत न लोकद्विष्टमाचरेत्।।
     "भविष्य की अच्छी संभावनाओं को देखते हुए बुद्धिसे जो कार्य करने में अच्छा लगे वही प्रारंभ करे परंतु कभी भी सफलता के लिये जनविरोधी काम न करें।"
    श्लाघ्या चानन्दनीया च महतामुफ्कारिता।
    करले कल्याणगायत्ते स्वल्पापि सुमहोदयम्।
"उच्च पुरुषों का उपकार कर्म अत्यंत प्रिय तथा आनंदमय लगता है वह अगर किसी का भी थोड़ा कल्याण करते हैं तो उसका महान उदय होता है।"
            हम अनेक लोगों का उनके धन, पद और बल की वजह से बड़ा मान लेते हैं पर सच यह है कि वह समाज का भला करना नहीं जानते। बड़े आदमी की थोड़ी कृपा से छोटे आदमी प्रसन्न हो सकत हैं पर इसको समझने की बजाय उसे कुचलकर अपने आप को खुश करना चाहते हैं।
           बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर, पंछी को न छाया मिले, पथिक को फल लागे अति दूर-यह कहावत अधिकतर बड़े लोगों पर लागू होती है। ऐसे लोगों को बड़ा मानना ही एक तरह से गलत है। बड़ा आदमी तो वह है जो लोकहित में अपनी शक्ति का उपयोग करता है न कि जनविरोधी काम करके अपने अहंकार की संतुष्टि! अतः धल, उच्च पद या बाहूबल होने पर छोटे और कमजोर आदमी को संरक्षण देना चाहिये ताकि समाज को एक नई दिशा मिल सके।
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Thursday, April 14, 2011

कामना रूप नदी राग और अनुराग जैसे मगरमच्छों से भरी पड़ी है-हिन्दू धार्मिक लेख (kamna roopg nadi mein rag aur anurag magarmachchh-hindu dharmik lekh)

विद्वान्  महाराज भर्तृहरि कहते हैं 
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आशा नाम नदी मनोरथजला तृष्णातरङगाकुला
रामग्राहवती वितर्कविहगा धैर्यद्रुमध्वंसिनी
मोहावर्तसुदुस्तराऽतिगहना प्रोत्तुङगचिन्तातटी
तस्याः पारगता विशुद्धमनसो नन्दन्ति योगश्वराः
''आशा एक नदी की भांति इसमे हमारी कामनाओं के रूप में जल भरा रहता है और तृष्णा रूपी लहरें ऊपर उठतीं है। यह नदी राग और अनुराग जैसे भयावह मगरमच्छों से भरी हुई हैं। तर्क वितर्क रूपी पंछी इस पर डेरा डाले रहते हैं। इसकी एक ही लहर मनुष्य के धैर्य रूपी वृक्ष को उखाड़ फैंकती है। मोह माया व्यक्ति को अज्ञान के रसातल में खींच ले जाती हैं, जहा चिंता रूपी चट्टानों से टकराता हैं। इस जीवन रूपी नदी को कोई शुद्ध हृदय वाला  योगी तपस्या, साधना और ध्यान से शक्ति अर्जित कर परमात्मा से संपर्क जोड़कर ही सहजता से पार कर पाता है।"
वर्त्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- कहते हैं कि ‘उम्मीद पर आसमान टिका है’।  यह उम्मीद और आशा यानि क्या? सांसरिक स्वार्थों की पूर्ति होने ही हमारी आशाओं का केंद्र है। भक्ति, सत्संग तथा तत्वज्ञान से दूर भटकता मनुष्य अपना पेट भरते भरते थक जाता है पर वह है कि भरता नहीं।  कभी कभी जीभ स्वाद बदलने के लालायित हो जाती है।  सच तो यह है कि मन की तृष्णायें ही आशा का निर्माण करती हैं।  भारत जो कभी एक शांत और प्राकृतिक रूप से संपन्न क्षेत्र था आज पर्यावरण से प्रदूषित हो गया है।  हमेशा यहां आक्रांता आये और साथ में लाये नयी रौशनी की कल्पित आशायें।  सिवाय ढोंग के और क्या रहा होगा?  कुछ मूर्ख लोग तो कहते हैं कि इन आक्रांताओं ने यहां नयी सभ्यता का निर्माण किया।  इस पर हंसा ही जा सकता है।  यह नयी सभ्यता कभी अपना पेट नहीं भर पाती। जीभ के स्वाद के लिये अपना धर्म तक छोड़ देती है। रोज नये भौतिक साधनों के उपयोग की तरफ बढ़ चुकी यह सभ्यता जड़ हो चुकी है।  आशायें हैं कि पूर्ण नहीं होती। होती है तो दूसरी जन्म लेती है।  यह क्रम कभी थमता नहीं।
इस सभ्यता में हर मनुष्य का सम्मान की बात कही जाती है।  यह एक नारा है। योग्यता, चरित्र और वैचारिक स्तर के आधार पर ही मनुष्य को सम्मान की आशा करना चाहिये मगर नयी सभ्यता के प्रतिपादक यहां जातीय और भाषाई भेदों का लाभ उठाकर यहां संघर्ष पैदा कर  मायावी दुनियां स्थापित करते रहे। भारतीय अध्यात्म ज्ञान में जहां मान सम्मान से परे रहकर अपनी तृष्णाओं पर नियंत्रण करने के लिये संदेश दिया जाता है। सभी के प्रति समदर्शिता का भाव रखने का आदेश दिया जाता है। वही नयी सभ्यता के प्रतिपादक अगड़ा पिछड़ा का भेद यहां खड़ा करते हुए बतलाते हैं कि जिन तबकों को पहले  सम्मान नहीं मिला अब उनकी पीढ़ियों को विशेष सम्मान दिया जाना चाहिए।  कथित पिछड़े तबकों को विशेष सम्मान की तृष्णा जगाकर वह दावा करते हैं कि हम यहां समाज में बदलाव ला रहे हैं।  कितने आश्चर्य की बात है कि जिन जातियों में अनेक महापुरुष और वीर योद्धा पैदा हुए उनको ही पिछड़ा बताकर सामाजिक वैमनस्य पैदा केवल इसी ‘विशेष सम्मान’ की आड़ में पैदा किया गया है। आज हालत यह है कि पहले से अधिक जातिपाति का  फैल गया है।
विकास, सम्मान और आर्थिक समृद्धि की आशाऐं जगाकर भारतीय अध्यात्म ज्ञान को ढंकने का प्रयास किया गया।  ऐसी आशायें जो कभी पूरी नहीं होती और अगर हो भी जायें तो उनसे किसी मनुष्य को तत्वज्ञान नहीं मिलता जिसके परिणाम स्वरूप समाज में आज रोगों का प्रकोप और तनाव का वातावरण बन गया है।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप',ग्वालियर 
writer and editorial-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep',Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
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Friday, April 08, 2011

प्रसन्नता देने वाला काम ही करें-हिन्दू धार्मिक चिंत्तन (khushi dene wala kam karen-hindu dharmik chinttan)

यत्कर्मकुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्म्न्ः।
तत्प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत्।।
"
जिस कार्य से मन को शांति तथा अंतरात्मा को खुशी हो वही करना चाहिये। जिस काम से मन को अशांति हो उसे न ही करें तो अच्छा।"

यद्यत्परवशं कर्म तत्तद्यलेन वर्जयेत्।
यद्यदात्मवशं तु स्यात्तत्तत्सेवेत यत्नतः।
"
जिस काम के लिये दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता है उनका त्याग कर देना चाहिये तथा अपने हाथ से ही संपन्न होने वाले अनुष्ठान करना चाहिए"
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में चाहे कोई भी कार्य हो उसे पूरा करने से पहले अपने सामर्थ्य, साधन तथा सहयोगियों की उपलब्धता पर विचार करना चाहिये। अनेक लोग किसी भी कार्य में परिणाम की अनिश्चितता के बावजूद उसे इस आशा से प्रारंभ करते हैं कि उनका ‘भाग्य’ साथ देगा या फिर ऊपर वाले की कृपा होगी-यह अंधेरे में तीर चलाने जैसा है। संभव है कुछ लोगों का निशाना लग जाये पर सभी को ऐसा सौभाग्य नहीं मिलता।
दूसरों से अपने काम में सहयोग मिलने की अपेक्षा करना व्यर्थ है। अगर करें तो भी तो यह भी देखें कि आपने किसी को कितना सहयोग दिया है। फिर यह भी देखें कि जिसका सहयोग किया है कि उसमें प्रत्युपकार की भावना है कि नहीं। कहने का अभिप्राय यह है कि दूसरों पर निर्भर रहने वाले काम को प्रारंभ ही न करें तो अच्छा है।
इसके अलावा ऐसे भी काम न करें जिससे मानसिक क्लेश बढ़ता हो। आजकल खानपान तथा रहन सहन की वजह से लोगों में असहिष्णुता के साथ ही अहंकार की भावना बढ़ गयी है। अतः जरा जरा सी बात पर लोग उत्तेजित होकर लड़ने लगते हैं। अगर हमारे अंदर तनाव झेलने की क्षमता नहीं है तो फिर चुपचाप रहकर अपना काम करना चाहिये। अगर कोई व्यक्ति गलत काम कर रहा है तो उसे अनदेखा करें। कोई गलत व्यवहार करता है तो उसकी उपेक्षा कर दें। ऐस कुछ पल जिंदगी में आते हैं-यह सोचकर आगे बढ़ जायें। अगर आपने प्रतिवाद किया तो सामने वाले की उग्रता अधिक बढ़ेगी तब वह अधिक तनाव दे सकता है। ऐसे में हमें दूसरे का व्यवहार नहीं   बल्कि अपनी मनस्थिति को देखना चाहिये जो तनाव नहीं झेल पाती।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा "भारतदीप",ग्वालियर 
writter and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep',Gwalior
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Sunday, April 03, 2011

सज्जन की मित्रता धीरे धीरे बढ़ती है-हिन्दू धार्मिक चिंतन (sajjan ki mitrata-hindu dharmik chittan)

दुर्जनः परिहर्तवयो विद्ययाऽलङ्कृतोऽपि सन्
मणिनाः भूषितः सर्पः किमसौ न भयंकर।।
"कोई दुर्जन व्यक्ति विद्वान भी हो  तो उसका साथ छोड़ देना चाहिए। विषधर में मणि होती है पर इससे उससे उसका भयंकर रूप प्रिय नहीं हो जाता।"
आरंभगुर्वी क्षयिणी क्रमेण लघ्वी पुरा वृद्धिमति च पश्चात्
दिनस्य पूर्वाद्र्धपराद्र्ध-भिन्ना छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्।।
"जिस तरह दिन की शुरूआत में छाया बढ़ती हुई जाती है और फिर उत्तरार्द्ध  में धीरे-धीरे कम होती जाती है। ठीक उसी तरह सज्जन और दुष्ट की मित्रता होती है।"
             सज्जन व्यक्तियों से मित्रता धीरे-धीरे बढ़ती है और स्थाई रहती है। सज्जन लोग अपना स्वार्थ न होने के कारण बहुत शीघ्र मित्रता नहीं करते पर जब वह धीरे-धीरे आपका स्वभाव समझने लगते हैं तो फिर स्थाई मित्र हो जाते हैं-उनकी मित्रता ऐसे ही बढ़ती है जैसे पूर्वाद्ध में सूर्य की छाया बढ़ती जाती है। इसके विपरीत दुर्जन लोग अपना स्वार्थ निकालने के लिए बहुत जल्दी मित्रता करते हैं और उसके होते ही उनकी मित्रता वैसे ही कम होने लगती है जैसे उत्तरार्द्ध  में सूर्य का प्रभाव कम होने लगता है। पड़ौस तथा कार्यस्थलों में हमारा संपर्क अनेक ऐसे लोगों से होता है जिनके प्रति हमारे हृदय में क्षणिक आत्मीय भाव पैदा हो जाता है। वह भी हमसे बहुत स्नेह करते हैं पर यह यह संपर्क नियमित संपर्क के कारण मौजूद हैं।  उन कारणों के परे होते ही-जैसे पड़ौस छोड़ गये या कार्य का स्थान बदल दिया तो-उनसे मानसिक रूप से दूरी पैदा हो जाती है।  इस तरह यह बदलने वाली मित्रता वास्तव में सत्य नहीं होती। मित्र तो वह है जो दैहिक रूप से दूर होते भी हमें स्मरण करता है और हम भी उसे नहीं भूलते। इतना ही नहीं समय पड़ने पर उनसे सहारे का आसरा मिलने की संभावना रहती है।  अतः स्थितियों का आंकलन कर ही किसी को मित्र मानकर उससे आशा करना चाहिये। जहां तक हो सके दुष्ट और स्वार्थी लोगों से मित्रता नहीं करना चाहिये जो कि कालांतर में घातक होती है। उसी तरह अपने व्यक्तित्व का भी निर्माण इसी तरह करना चाहिए कि वह दूसरों को प्रिय लगे।
        दूसरों से स्नेह तथा प्रेम पाने के लिये यह आवश्यक है कि निस्वार्थ भाव से सभी का काम करें और वार्तालाप में मधुर वचन का प्रयोग करें। एक बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि व्यक्तित्तव में सौम्यता तथा व्यवहार में नैतिकता बरतने से ही समाज में सम्मान बढ़ता है।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक  राज कुकरेजा "भारतदीप",ग्वालियर 
writer and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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