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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Saturday, October 31, 2015

मोक्ष या स्वर्ग कहीं भौतिक रूप में निवास नहीं करते-अष्टावक्र गीता के आधार पर चिंत्तन लेख(Moksh ya Swarg kahin Niwas nahin karta-Hindi Spiritual Thoguht)

                                   हमारे देश में धर्म के नाम पर अनेक प्रकार के भ्रम फैलाये गये हैं। खासतौर से स्वर्ग और मोक्ष के नाम पर ऐसे प्रचारित किये गये हैं जैसे वह  देह त्यागने के बाद ही प्राप्त होते हैें।  श्रीमद्भागवतगीता के संदेशों का सीधी अर्थ समझें तो यही है कि जब तक देह है तभी तक इंसान अपने जीवन में स्वर्ग तथा मोक्ष की स्थिति प्राप्त कर सकता है। देह के बाद कोई जीवन है, इसे हमारा अध्यात्मिक दर्शन मनुष्य की सोच पर छोड़ता है। अगर माने तो ठीक न माने तो भी ठीक पर उसे अपनी इस देह में स्थित तत्वों को बेहतर उपयोग करने के लिये योग तथा भक्ति के माध्यम से प्रयास करने चाहिये-यही हमारे अध्यात्मिक दर्शन का मानना है।
अष्टावक्र गीता में कहा गया है कि
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मोक्षस्य न हि वासीऽस्ति न ग्राम्यान्तरमेव वा।
अज्ञानहृदयग्रन्थिनाशो मोक्ष इति स्मृतः।।
                                   हिन्दी में भावार्थ-मोक्ष का किसी लोक, गृह या ग्राम में निवास नहीं है किन्तु अज्ञानरूपी हृदयग्रंथि का नाश मोक्ष कहा गया है।
                                   जिस व्यक्ति को अपना जीवन सहजता, सरलता और आनंद से बिताना हो वह विषयों से वहीं तक संपर्क जहां तक उसकी दैहिक आवश्यकता पूरी होती है।  उससे अधिक चिंत्तन करने पर उसे कोई लाभ नहीं होता।  अगर अपनी आवश्यकताआयें सीमित रखें तथा अन्य लोगों से ईर्ष्या न करें तो स्वर्ग का आभास इस धरती पर ही किया जा सकता है। यही स्थिति मोक्ष की भी है।  जब मनुष्य संसार के विषयों से उदासीन होकर ध्यान या भक्ति में लीन में होने मोक्ष की स्थिति प्राप्त कर लेता है।  सीधी बात कहें तो लोक मेें देह रहते ही स्वर्ग तथा मोक्ष की स्थिति प्राप्त की जाती है-परलोक की बात कोई नहीं जानता।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

Wednesday, October 21, 2015

प्राचीन ग्रंथों के संदेश समझने के बात ही उस पर लिखें-हिन्दी चिंत्तन लेख(PrachinGranthon ke sandesh samjhane ka baat hi us par likhe-Hindi Spiritual thought article)

                                   
                                   अभी हाल ही में एक पत्रिका में वेदों के संदेशों के आधार पर यह संदेश प्रकाशित किया गया कि गाय को मारने या मांस खाने वाले को मार देना चाहिये।  इस पर बहुत विवाद हुआ। हमने ट्विटर, ब्लॉग और फेसबुक पर यह अनुरोध किया था कि उस वेद का श्लोक भी प्रस्तुत किया गया है जिसमें इस तरह की बात कही गयी है। चूंकि हम अव्यवसायिक लेखक हैं इसलिये पाठक अधिक न होने से  प्रचार माध्यमों तक हमारी बात नहीं पहंुंच पाती। बहरहाल हम अपनी कहते हैं जिसका प्रभाव देर बाद दिखाई भी देता है।
बहुत ढूंढने पर ही अथर्ववेद सि यह श्लोक मिला
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आ जिह्वाया मूरदेवान्ताभस्व क्रव्यादो वृष्टबापि धत्सवासन।
हिन्दी में भावार्थ-मूर्खों को अपनी जीभ रूपी ज्वाला से सुधार और बलवान होकर मांसाहारी हिसंकों को अपनी प्रवृत्ति से निवृत्त कर।
                                   हमें संस्कृति शुद्ध रूप से नहीं आती पर इतना ज्ञान है कि श्लोक और उसका हिन्दी अर्थ मिलाने का प्रयास करते हैं।  जहां तक हम समझ पाये हैं वेदों में प्रार्थनाऐं न कि निर्देश या आदेश दिये गये हैं।  उपरोक्त श्लोक का अर्थ हम इस तरह कर रहे हैं कि हमारी जीभ के मूढ़ता भाव को आग में भस्म से अंत कर। अपने बल से हिंसक भाव को सुला दे।
                                   हम फिर दोहराते हैं कि यह परमात्मा से प्रार्थना या याचना है कि मनुष्य को दिया गया आदेश। यह भी स्पष्ट कर दें कि यह श्लोक चार वेदों का पूर्ण अध्ययन कर नहीं वरन एक संक्षिप्त संग्रह से लिया गया है जिसमें यह बताया गया है कि यह चारो वेदों की प्रमुख सुक्तियां हैं।
                                   हम पिछले अनेक वर्षों से देख रहे हैं कि अनेक वेदों, पुराणों तथा अन्य ग्रंथों से संदेश लेकर कुछ कथित विद्वान ब्रह्मज्ञानी होने का प्रदर्शन करते हैं। अनेक प्रचार पाने के लिये धार्मिक ग्रंथों की आड़ में विवाद खड़ा करते हैं।  जिस तरह पाश्चात्य प्रचारक यह मानते हैं कि पुरस्कार या सम्मान प्राप्त करने वाला साहित्यकार मान जायेगा वैसे ही भारतीय प्रचारक भी यह मानते हैं कि गेरुए या सफेद वस्त्र पहनकर आश्रम में रहने वाले ही ज्ञानी है।  उनके अनुसार हम दोनों श्रेणी में नहीं आते पर सच यही है कि ग्रंथों का अध्ययन श्रद्धा करने पर ही ज्ञान मिलता है और वह प्रदर्शन का विषय नहीं वरनृ स्वयं पर अनुंसधान करने के लिये होता है। हमने लिखा था सामवेद में कहा गया है कि ब्रह्मद्विष आवजहि अर्थात ज्ञान से द्वेष करने वाले को परास्त कर। हमारा मानना है कि बिना ज्ञान के धर्म रक्षा करने के प्रयास विवाद ही खड़ा करते हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Sunday, October 11, 2015

विशेष रविवारीय दीपकबापू वाणी (Super Sundya Deepak Bapu Wani)



अपने साथी का मनोबल बढ़ायें, कमजोर कंघे भी बोझ उठा लेंगे।
दीपकबापूअहंकार में जीते, लोग संकट में क्यों भीड़ जुटा लेेंगे।
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कोई अंडा चबाये या खाये हलवा, पेशेवर जरूर करेंगे बलवा।
दीपकबापूशेर की खायें जूठन, शातिर भेड़िये पेलते जलवा।।
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लिख लिख कागज किये काले, दूजा तुलसी भया न कोय।
दीपकबापू पाया मान चाकरी से, इतराये जैसे महाकवि होय।।
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पकड़े जायें  नाम होता चोर, छुपे रहे तो कहलाते साहूकार।
दीपकबापूबदनाम डरते हैं, नामी कुकर्म कर भरें हुंकार।।
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भारत की आबादी है जवान, झेले हंसकर सट्टे नशे के बान।
दीपकबापू न रखें बुरा हिसाब, चिंता छोड़ सोयें चादर तान।।
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सड़ा सामान सभी खा रहे, शुद्धता गा गाना भी बजा रहे।
दीपकबापूतन मैला मन छैला, सोई सोच समाज जगा रहे।।
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जिंदगी में बहुत विषय हैं, समझते जिंदगी निकल जायेगी।
दीपकबापूकरें ओम जाप, समझदानी चमक चमक जायेगी।।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Friday, October 02, 2015

स्वच्छता अभियान के एक वर्ष पूर्ण होने पर आंकलन जरूरी(One Year complite of SwaChchhata Abhiyan-A Report)

                                   आज गांधी जयंती पर 25 सितंबर से प्रारंभ स्वच्छता सप्ताह  का समापन हो रहा है।  पिछले 2 अक्टूबर को जो स्वच्छता अभियान प्रारंभ हुआ था उसका आंकलन करें तो परिणाम ठीकठाक रहे हैं। कम से कम राज्य प्रबंध के  स्तर पर संस्थायें स्वच्छता को एक आवश्यक विषय मान रही हैं जबकि पहले उनमें अधिक जागरुकता नहीं थी।  लोगों में भी चेतना आयी है पर जितनी अपेक्षित थी नहीं दिखाई दे रही।
                                   हम जब स्वच्छता की बात करते हैं तो यह बता दें कि बाह्य तथा आंतरिक स्वच्छता जीवन का अभिन्न हिस्सा है।  एक योग साधक तथा गीता ज्ञानाभ्यासी होने पर अगर हम लिखने बैठें तो पूरा ग्रंथ लिख जायें पर उससे समाज लाभान्वित होगा इसकी संभावना नहीं है।  जब हमारी देह, मन और विचार में अस्वच्छता होती है उसे हम स्वयं नहीं देख पाते।  स्वयं की दुर्गंध अनुभूति मनुष्य के चेतनभाव से संपर्क नहंी कर पाती वरन् दूसरे परेशान होते हैं। श्रीमद्भागवत गीता में स्वच्छ स्थान का चयन करने वाला ज्ञानी माना गया है। अब ज्ञानी को स्वच्छ स्थान नहीं मिलेगा तो वह स्वयं तो करेगा ही वरना वह अपने अंतर्मन में  आत्मग्लानि के बोध से ग्रस्त होगा। ज्ञानी का यह भी काम है कि वह जहां गंदगी करे वहां सफाई भी करे।  उसे इस बात की परवाह नहीं करना चाहिये कि उसके परिश्रम का दूसरे को लाभ मिलेगा।
                                   हमने देखा है कि प्रातःकाल ही नहा धोकर पूजा पाठ करने वालों के चेहरे पर एक अजीब प्रकार का आत्मविश्वास दिखता है।  जबकि देर से उठने और नित्य क्रिया करने वालों में वैसी ऊर्जा नहीं दिखाई देती।  बड़े बड़े शहरों के अनेक आधुनिक इलाके जरूर चमकते हैं पर उनके दूरदराज के इलाके छोटे शहरों की अपेक्षा अत्यंत गंदे होते हैं।  अनेक बड़े शहरों में तो श्रमजीवी इतने गंदे इलाके में रहते हैं कि वहां स्वस्थ जीवन की कल्पना करना ही निरर्थक लगती है।  अभी दिल्ली में डेंगू बुखार की चर्चा हो रही है पर हमारा अनुमान है कि उससे कई गुना तो मलेरिया सहित अन्य मौसमी बीमारियों के लोगों की संख्या अधिक होगी जिनके कीटाणु गंदगी पर ही ज्यादा पनपते हैं।
                                   बहरहाल हमारा मानना है कि स्वच्छता अभियान में निरंतर सक्रियता जरूरी है और इसमें राजकीय लोगों से अधिक निजी रूप से जनता को चेतना के साथ गंदगी का निपटारा करना चाहिये।
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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
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