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Saturday, July 30, 2011

वेद शास्त्रों से-सृष्टि और कारीगर के कार्य नियम एक जैसे

        किसी भी कर्म का फल मिलता है उसमें देर सबेर हो सकती है। हालांकि यह कोई नियम नहीं है कि सभी कर्मों का फल कर्ता की इच्छानुसार प्राप्त हो। शायद यही कारण है कि हमारे यहां अध्यात्मिक दर्शन में सांसरिक कर्म में निष्काम कर्म की बात कही गयी है।
वेदांत दर्शन में कहा गया है कि
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उपलब्धिवदनियमः।
‘‘भोगों की प्रप्तियों की भांति कर्म करने में भी कोई नियम नहीं है।
यथा तक्षाभयथा।
इसके सिवाय जैसे कारीगर कभी काम करता है कभी नहीं करता है।
          वैसे फल की इच्छा करते हुए जब कर्म किया जाता है तो हमारा मन विचलित होने के साथ मस्तिष्क की एकाग्रता भंग होने की आशंका रहती है और कर्म उचित प्रकार से संपन्न नहीं हो पाता। दूसरी बात यह भी है कि जब कर्म के बाद फल प्राप्त नहीं होता या उसमें विलंब होता है तो व्यर्थ का तनाव पैदा होता है। हमें यह समझना चाहिए कि प्रकृति भी एक कारीगर की तरह है जो कभी कर्म करती है कभी नहीं करती है। मनुष्य का यह धर्म है कि वह अपना नियमित कर्म करे पर फल देने या न देने की का निर्णय प्रकृति पर छोड़ देना चाहिए।
        मूल बात यह है कि हमें अधिक अपेक्षायें, इच्छायें और कामनायें मन में नहीं रखना चाहिए। कालांतर में उनके पूर्ण होने पर सुख मिलता है और न मिलने पर दुःख होने लगता है। तत्वज्ञानी इसलिये ही सुख, दुख, प्रसन्नता, शोक तथा मान सम्मान से परे हो जाते हैं क्योंकि वह जानते है इस संसार में सभी चीजें नश्वर हैं। सत्य जहां सूक्ष्म और स्थिर है वहीं माया विस्तार पाने के साथ ही रूप बदलती है। उत्पन्न होकर नष्ट होना फिर प्रकट होना माया की सामान्य प्रकृति है। जिस तरह सत्य या परमात्मा अनंत है वैसे ही माया भी अनंत है। उसके नियम समझना भी कठिन है।
इसके विपरीत सामान्य मनुष्य माया को अपने वश करने कें लिये पूरी जिंदगी दाव पर लगा देता है पर हाथ उसके कुछ नहीं आता। खेलती माया है उसके नियम अज्ञात हैं फिर भी आदमी यही सोचता है कि वह अपने नियमों के अनुसार खेल रहा है। सृष्टि के अपने नियम हैं और वह अपने अनुसार चलती है। हमारे अनेक सांसरिक कार्य स्वतः होते है जबकि हम कर्ता होने के अहंकार में उनको अपने हाथ से संपन्न समझ लेते हैं।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
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Wednesday, July 27, 2011

पतंजलि योग विज्ञान-ध्यान ने पूरे शरीर की संरचना का ज्ञान हो जाता है(patanjali yoga scince-dhyan and man's body)

         भारतीय योग विज्ञान का अध्ययन किया जाये तो उसके व्यापक प्रभाव परिलक्षित होते हैं। इसमें वर्णित क्रियाओं का अभ्यास करने सें देह के स्वस्थ होने के साथ ही जहां मन में स्फृटित विचारों की धारा का प्रवाह तो होता ही है वहीं तमाम ऐसे विषयों और व्यक्तिों के बारे में ज्ञान होता है जो हमारे निकट नहीं होते। उनके दर्शन करते हुए उनके आचार विचार का अध्ययन ध्यान के माध्यम से भी किया जा सकता है। यह अलग बात है कि कुछ लोग अपने अंदर आयी स्फृटित धाराणाओं को सही अध्ययन नहीं कर पाते क्योंकि उनको योग विज्ञान के संपूर्ण सूत्रों का ज्ञान नहीं हो पाता।
              पतंजलि योग सूत्र में कहा गया है कि
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          नाभिचक्रे कायव्यूहज्ञानम्।
         ‘‘नाभिचक्र में संयम या ध्यान करने शरीर के व्यूह यानि पूर्ण संरचना का ज्ञान हो जाता है।’’
          कण्ठकूपे क्षत्पिपासानिवृत्तिः।।
        ‘‘कण्ठकूप में संयम या ध्यान करने से भूख और प्यास की निवृत्ति हो जाती है।’’
         कूर्मनाडयां स्थैर्यम्।।
        ‘‘कूर्माकार जिसे नाड़ी भी कहा जाता है में संयम या ध्यान करने से स्थिरता होती है।’’
        मूर्धज्योतिषि सिद्धदर्शनम्।।
        ‘‘मूर्धा की ज्योति में संयम या ध्यान करने से सिद्ध पुरुषों के दर्शन होते है।’’
          योग विज्ञान के ज्ञाता लोगों को तत्वज्ञान के लिये श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन करना चाहिए। उसमें भगवान श्रीकृष्ण ने योग के प्रभावों का विशद वर्णन किया है। ‘गुण ही गुणों में बरतते हैं’ और इंद्रियां ही इंद्रियों में बरतती है’ यह तो ऐसे सूत्र हैं जिनका योग विज्ञानियों को का अवश्य अध्ययन करना चाहिए। जहां योग विज्ञान में यह बात बताई गयी है कि किस तरह अपनी इंद्रियों पर ध्यान रखकर उनको संयमित किया जा सकता है वहीं श्रीमद्भागवत गीता में यह स्पष्ट किया गया है कि स्थिरप्रज्ञ मनुष्य ही जीवन का सबसे अधिक आनंद उठाता है। सामान्य लोग अपने चंचल मन के साथ इधर उधर भटकते हैं वहीं योग विज्ञानी एक ही जगह स्थिर रहकर संसार को अपनी अंतदृष्टि से देख लेते हैं।
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लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
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Saturday, July 23, 2011

संत कबीरदास का संदेश-धर्म का विचार अपने विवेक से करना चाहिए (sant kabir das ka sandesh-dharma ka vichar aur vivek)

          मूलतः भारतीय समाज प्रगतिवादी माना जाता है। हालांकि कुछ विदेशी भारतवासियों की धर्मभीरुता का मजाक उड़ाते हैं पर जिस तरह हमारा समाज समय के अनुसार नई शिक्षा, विज्ञान तथा साधनों के उपयोग की तरफ प्रवृत्त होता है उससे यह प्रमाणित होता है कि रूढ़ता का भाव उसमें नहीं है पर इसके बावजूद फिर भी धर्म के नाम पर अनेक कर्मकांड हैं जिसे लोग केवल सामाजिक दबाव में इसलिये अपनाते हैं कि लोग क्या कहेंगे। आधुनिक शिक्षा से जीवन में आगे बढ़े लोग भी अंधविश्वास और कर्मकांडों पर इसलिये विश्वास करते दिखते हैं क्योंकि उन पर कहीं न कहीं से दूसरे लोगो का दबाव होता है। स्थिति यह है कि अनेक धार्मिक ठेकेदार तो इन्हीं कर्मकांडों को ही धर्म का आधार कहकर प्रचारित करते हैं।
            इस विषय पर संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि 
            ‘कबीर’ मन फूल्या फिरै, करता हूं मैं ध्रंम।
                कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रम।।
          "आदमी अपने सिर पर कर्मकांडों का बोझ ढोते हुए फूलता है कि वह धर्म का निर्वाह कर रहा है। वह कभी अपने विवेक का उपयोग करते हुए इस बात का विचार नहीं करता कि यह उसका एक भ्रम है।"
              संत कबीरदास जी ने अपने समाज के अंधविश्वासों और कुरीतियों पर जमकर प्रहार किये हैं। कितने आश्चर्य की बात है कि अनेक संत और साधु उनके संदेशों को ग्रहण करने का उपदेश तो देते हैं पर समाज में फैले अंधविश्वास और कर्मकांडों पर खामोश रहते हैं। आदमी के जन्म से लेकर मृत्यु तक ढेर सारे ऐसे कर्मकांडों का प्रतिपादन किया गया है जिनका कोई वैज्ञानिक तथा तार्किक आधार नहीं है। इसके बावजूद बिना किसी तर्क के लोग उनका निर्वहन कर यह भ्रम पालते हैं कि वह धर्म का निर्वाह कर रहे हैं। किसी कर्मकांड को न करने पर अन्य लोग नरक का भय दिखाते हैं यह फिर धर्म भ्रष्ट घोषित कर देते हैं। इसीलिये कुछ आदमी अनचाहे तो कुछ लोग भ्रम में पड़कर ऐसा बोझा ढो रहे हैं जो उनके दैहिक जीवन को नरक बनाकर रख देता है। कोई भी स्वयं ज्ञान धारण नहीं करता बल्कि दूसरे की बात सुनकर अंधविश्वासों और रूढ़ियों का भार अपने सिर पर सभी उसे ढोते जा रहे हैं। इस आर्थिक युग में कई लोग तो ऋण लेकर ऐसी परंपराओं को निभाते हैं और फिर उसके बोझ तले आजीवन परेशान रहते हैं। इससे तो अच्छा है कि हम अपने अंदर भगवान के प्रति भक्ति का भाव रखते हुए केवल उसी कार्य को करें जो आवश्यक हो। अपना जीवन अपने विवेक से ही जीना चाहिए। कर्मकांडों को निभाना धर्म नहीं होता बल्कि इंसान के व्यवहार से दूसरे को लाभ तथा प्रसन्नता मिले वही सच्चा धर्म है, यह बात समझ लेना चाहिए।
लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',ग्वालियर
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Monday, July 18, 2011

मनुस्मृति-अपनी आंखों का पानी से आचमन करते रहना चाहिए (pani se ankhon ka achman-manu smriti)

          वायु तथा जल को न केवल जीवन का आधार माना गया है कि बल्कि उनको ओषधि भी कहा जाता है। जिस तरह प्रातः प्राणायाम से शुद्ध वायु के प्रवेश से शरीर और मन के आंतरिक विकार बाहर निकलते हैं उसी तरह नहाने के दौरान जल के उपयोग से बाहरी अंगों पर शुद्धता आती है। आधुनिक विज्ञान जल की उपयोगिता को लेकर अनेक अनुंसधान कर चुका है। हालांकि हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों में भी इस विषय पर अनेक बातें कही गयी है।
          मनु स्मृति में कहा गया है कि
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            कृत्वा मूत्रं पूरीपं वा खान्याचान्त उपस्पृशेत्।
            वेदमध्येध्माणश्च अन्नमश्नंश्च सर्वदा
       "मल मूत्र करने के बाद व्यक्ति को सदैव हाथ धोकर आचमन करने के साथ ही पानी का स्पर्श आंखों पर करना चाहिए। सदैव वेद पढ़ने तथा भोजन करने से पहले भी हाथ धोकर आचमन करना चाहिए।"
                आजकल कंप्यूटर का उपयोग बढ़ता जा रहा है पर उससे होने वाली हानियों से रोकने और बचने के उपाय बहुत कम  लोग जानते हैं। कुछ स्वास्थ्य विशेषज्ञ कहते हैं कि कंप्यूटर का उपयोग करने वालों को बीस मिनट से अधिक उस पर काम करने के बाद दो मिनट आंखें बंद रखना चाहिए। इसके अलावा कंप्यूटर से उठकर बाहर आसमान में ताकना चाहिए ताकि आंखों के उन सूक्ष्म तंतुओं का विस्तार होता है जो काम के दौरान सिकुड़ जाते है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कही गयी है कि कंप्यूटर पर काम करने वालों को अपनी आंखों में पानी की छींटें मारते रहना चाहिए। कंप्यूटर पर काम करते हुए आंखों में जल सूखने लगता है और आंखों में छींटे मारने से वहां ताजगी आती है। मनृस्मृति में भी कहा गया है कि वेद आदि का अध्ययन करने से पहले और बाद दोनों ही समय आंखों में जल का प्रवेश कराना चाहिए। यही बात हम कंप्यूटर पर काम करते समय भी लागू कर सकते हैं। ऐसे प्रयासों से बहुत सीमा तक कंप्यूटर से होने वाली हानियों से बचा जा सकता है।
लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',ग्वालियर
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Saturday, July 16, 2011

यजुर्वेद से संदेश-स्वार्थी मनुष्य ज्ञान की बकवास करते हैं (yajurved se sandesh-swarthi log gyan par bakte hain)

         हमारे देश का तत्वज्ञान प्रकृत्ति और जीवन के मूल सिद्धांतों पर आधारित एक विज्ञान है। इस संबंध में हमारे अनेक प्राचीन ग्रंथ पठनीय है। यह अलग बात है कि उनका रटा लगाने वाले अनेक लोग अपने आपको महान संत कहलाते हुए मायापति बन जाते हैं। उनके आश्रम घास फूस के होने की बजाय पत्थर और सीमेंट से बने होते हैं। उसमें फाइव स्टार होटलों जैसी सुविधायें होती हैं। गुरु लोग एक तरह से अपने महल में महाराज की तरह विराजमान होते हैं और भक्तों की दरबार को सत्संग कहते हैं। तत्वज्ञान का रट्टा लगाना उसे दूसरों को सुनाना एक अलग विषय है और उसे धारण करना एक अलग पक्रिया है।
               इस विषय पर यजुर्वेद में कहा गया है कि
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            नीहारेण प्रवृत्त जल्प्या चासुतृप उम्थ्शासरचरन्ति
‘‘जिन पर अज्ञान की छाया है जो केवल बातें बनाने के साथ ही अपनी देह की रक्षा के लिये तत्पर हैं वह तत्वज्ञान का प्रवचन बकवाद की तरह करते हैं।’’
        तत्वज्ञानी वह नहीं है जो दूसरे को सुनाता है बल्कि वह है जो उसे धारण करता है। किसी ने तत्वज्ञान धारण किया है या नहीं यह उसके आचरण, विचार तथा व्यवहार से पता चल जाता है। जो कभी प्रमाद नहीं करते, जो कभी किसी की बात पर उत्तेजित नहीं होते और सबसे बड़ी बात हमेशा ही दूसरे के काम के लिये तत्पर रहते हैं वही तत्वाज्ञानी हैं। सार्वजनिक कार्य के लिये वह बिना आमंत्रण के पहुंच कहीं भी मान सम्मान की परवाह किये बिना पहंच जाते हैं और अगर कहीं स्वयं कोई अभियान प्रारंभ करना है तो बिना किसी शोरशराबे के प्रारंभ कर देते हैं। लोग उनके सत्कर्म से प्रभावित होकर स्वयं ही उनके अनुयायी हो जाते हैं।
        इसके विपरीत अज्ञानी और स्वार्थी लोग तत्वज्ञान बघारते हैं पर उसे धारण करना तो दूर ऐसा सोचते भी नहीं है। किसी तरह अपने प्रवचन करते हुए आम लोगों को भ्रम में रखते हैं। वह उन कर्मकांडों को प्रोत्साहित करते हैं जो सकाम भक्ति का प्रमाण माने जाने के साथ ही फलहीन माने जाते हैं। अतः जिन लोगों को अध्यात्म में रुचि है उनको अज्ञानी और अज्ञानी की पहचान उस समय अवश्य करना चाहिए जब वह किसी को अपना गुरु बनाते हैं।

संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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Saturday, July 09, 2011

तीनों लोकों की संपदा घर आने की प्रतीक्षा व्यर्थ-संत कबीर वाणी

           प्रकृति में उत्पन्न समस्त जीवों में मनुष्य सबसे अधिक बुद्धिमान माना गया है और विचित्र बात यह है कि जहां अन्य जीव सीमित आवश्यकताओं के कारण अपना जीवन सामान्य रूप से गुजार लेते हैं जबकि मनुष्य असीम लालच और लोभ को अपने मन में स्थान देता है और सदैव संकट बुलाता है। संत कबीर दास जी ने अपने संदेशों में इसी तरफ इंगित किया है।
       कबीरा औंधी खोपड़ी, कबहूं धापै नाहिं
       तीन लोक की सम्पदा, कब आवै घर माहिं
          संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य की खोपड़ी उल्टी होती है क्योंकि वह कभी भी धन प्राप्ति से थकता नहीं है। वह अपना पूरा जीवन इस आशा में नष्ट कर देता है कि तीनों लोकों की संपदा उसके घर कब आयेगी।
            इस दुनिया में मनुष्य ही एक ऐसा जीवन जिसके पास बुद्धि में विवेक है इसलिये वह कुछ नया निर्माण कर सकता है। अपनी बुद्धि की वह से ही वह अच्छे और बुरे का निर्णय कर सकता है। सच तो यह कि परमात्मा ने उसे इस संसार पर राज्य करने के लिए ही बुद्धि दी है पर लालच और लोभ के वश में आदमी अपनी बुद्धि गुलाम रख देता है। वह कभी भी धन प्राप्ति के कार्य से थकता नहीं है। अगर हजार रुपये होता है तो दस हजार, दस हजार से लाख और लाख से दस लाख की चाहत करते हुए उसकी लालच का क्रम बढ़ जाता है। कई बार तो ऐसे लोग भी देखने में आ जाते है जिनके पेट में दर्द अपने खाने से नहीं दूसरे को खाते देखने से उठ खड़ा होता है।
         अनेक धनी लोग जिनको चिकित्सकों ने मधुमेह की वजह से खाने पर नियंत्रण रखने को कहा होता है वह गरीबों को खाता देख दुःखी होकर कहते भी हैं‘देखो गरीब होकर खा कैसे रहा है’। इतना ही नहीं कई जगह ऐसे अमीर हैं पर निर्धन लोगों की झग्गियों को उजाड़ कर वहां अपने महल खड़े करना चाहते हैं। आदमी एक तरह से विकास का गुलाम बन गया है। भक्ति भाव से पर आदमी बस माया के चक्कर लगाता है और वह परे होती चली जाती है। सौ रुपया पाया तो हजार का मोह आया, हजार से दस हजार, दस हजार से लाख और लाख से दस लाख के बढ़ते क्रम में आदमी चलता जाता है और कहता जाता है कि अभी मेरे पास कुछ नहीं है दूसरे के पास अधिक है। मतलब वह माया की सीढियां चढ़ता जाता है और वह दूर होती जाती है। इस तरह आदमी अपना पूरा जीवन नष्ट कर देता है।
       आजकल तो जिसे देखो उस पर विकास का भूत चढ़ा हुआ है। कहते हैं कि इस देश में शिक्षा की कमी है पर जिन्होने शिक्षा प्राप्त की है तो इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि उन्होंने ज्ञान भी प्राप्त कर लिया है। इसलिये शिक्षित आदमी तो और भी माया के चक्कर में पड़ जाता है और उसे तो बस विकास की पड़ी होती है पर उसका स्वरूप उसे भी पता नहीं होता। लोगों ने केवल भौतिक उपलब्धियों को ही सबकुछ मान लिया है और अध्यात्म से दूर हो गये हैं उसी का परिणाम है कि सामाजिक वैमनस्य तथा मानसिक तनाव बढ़ रहा है। अत: जितना हो सके उतना ही अपनी पर नियंत्रण रख्नना चाहिये।  मनुष्य को अपनी बुद्धि तथा मन को लेकर हमेशा आत्ममंथन करना चाहिए ताकि वह स्वयं भी अपने कर्म पर नियंत्रण रख सके 
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Wednesday, July 06, 2011

भर्तृहरि नीति शतक-दिल को हमेशा खुश रखना संभव नहीं (bhritri neiti shataka-dil ka hamesha khush rakhna sambhav nahin)

            मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति और कमजोरी उसकी देह में स्थित मन है। कहना तो यह चाहिये कि मन की इच्छा से चलने वाला ही जीव मनुष्य कहलाता है। यह मन बहुत विचित्र है। पहले एक चीज को पाने का मोह करता है तो उसके आते ही उससे विरक्त होकर दूसरी का मुख देखने लगता है। जो तत्व ज्ञानी नहीं होते वह अनाड़ी घुड़सवार की तरह इस बेेलगाम घोड़े की सवारी करते हैं जो द्रुत गति से चलता जाता है और फिर अपने स्वामी को नीचे पटक देता है। रुकता फिर भी नहीं बल्कि और तेज दौड़ता है। जमीन पर गिरा मनुष्य घायलावस्था में पड़ा है और सोचता है कि अब क्या करूं?
          आज के वैश्विक समाज में जीवन के विकास का मतलब केवल भौतिक उपलब्धियों की वृद्धि से ही माना जाता है। अध्यात्मिक विकास तो बुढ़ापे में ही आवश्यक है-यह सिद्धांत बताया जाता है। अध्यात्मिक विकास से मतलब सन्यास माना गया है। इस कारण हर मनुष्य जीवन में माया के पीछे भागे चला जा रहा है। एक लाख हैं तो दस लाख चाहिए और दस लाख हैं तो करोड़, करोड़ हैं तो दस करोड़, दस करोड़ हैं तो एक अरब-इस तरह उसके भौतिक विकास का अंतहीन लक्ष्य कभी पूरा नहीं होता और इधर देह वृद्धावस्था में पहुंच जाती है जहां शरीर की लाचारी मन को भी लाचार बना देती है। मन बीमार तो मनुष्य भी बीमार हो जाता है। अध्यात्मिक अभ्यास न होने की वजह से भक्ति होती नहीं तो जिंदगी से थके पांव सत्संग में जाने नहीं देते।
              इस विषय में भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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         दुराराध्याश्चामी तुरगचलचित्ताः क्षितिभुजो वयं तु स्थूलेच्छाः सुमहति फले बद्धमनसः।
        जरा देहं मृत्युर्हरति दयितं जीवितमिदं सखे नान्यच्छ्रेयो जगति विदुषेऽन्यत्र तपसः।।
         "राजाओं का चित तो घोड़े की गति से इधर उधर भागता इसलिये उनको भला कब तक प्रसन्न रखा जा सकता है। हमारे अंदर भी ऊंचे ऊंचे पद पाने की लालसा हैं। इधर शरीर को बुढ़ापा घेर रहा है। ऐसे में लगता है कि विवेकवान पुरुषों के लिये तप बल के अलावा अन्य कोई उद्धार का मार्ग नहीं है।"
         अगर हम थोड़ा चिंत्तन करें तो इस बात का आभास स्वतः होगा कि संसार का भौतिक चक्र तो त्रिगुणमयी माया के बंधने में होने के कारण स्वतः संचालित है। हमारी देह स्वाभाविक रूप से अपनी आवश्यकताओं के लिये सक्रिय रहनी ही है चाहे हम प्रयास करें या नहीं। इस देह में विद्यमान मन, बुद्धि तथा अहंकार ऐसी प्रकृतियां हैं जो अपनी सक्रियता का अहसास मनुष्य को कर्ता के रूप में कराती हैं जबकि यह सच नहीं है। ज्ञानी लोग इस बात को जानते हैं इसलिये सांसरिक कर्म में सक्रिय रहते हुए भी उसके फल में विरक्त भाव रखते हैं। ऐसी मानसिक नियंत्रण तप, स्वाध्याय, सत्संग, त्याग तथा भक्ति के अभ्यास से ही प्राप्त होता है। अत जहां तक हो सके समय मिलने पर योगसाधना तथा भक्ति करना चाहिए।

लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
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Friday, July 01, 2011

पतंजलि योग साहित्य-समाधि में सारे क्लशों का नाश होता है (patanjali yog sahitya-samadhi mein sare kleshoh ka nash)

           योग साधना भारतीय अध्यात्म दर्शन में महत्वपूर्ण स्थान रखती है।हम जानते हैं कि हमारे हिमालयीन क्षेत्रों में अनेक ऐसे तपस्वी रहते हैं जो वहां से कभी नीचे या बाहर नहीं आते। अक्सर कुछ लोग उन पर आक्षेप करते हैं कि अगर वह वाकई तपस्वी हैं तो वह क्यों नहीं समाज का नेतृत्व करने के लिये बाहर आते। उन पर पर अकर्मण्यता का आरोप भी लगाया जाता है। इसके बावजूद उनके भक्त और शिष्य उनके पास जाते हैं। इनमें से कुछ ऋषि तो अपने भक्तों तथा शिष्यों की सेवा को भी स्वीकार नहीं करते और इसकी उनको आवश्यकता भी नहीं होती क्योंकि वह ज्ञानी महात्मा आहार विहार तथा प्रचार के लोभ में नहीं फंसते।
          भले ही हमारे देश के कुछ अज्ञानी लोग उन पर आक्षेप करें पर सच यह है कि ऐसे लोग महान योगी होने के साथ महान तत्वज्ञानी भी होते हैं। हम लोग अक्सर ज्ञान की चरम सीमा यह समझते हैं कि उसे दूसरों को सुनाया जाये या उसका नकदीकरण हो। यह अल्पज्ञान के साथ ही अहंकार का भी प्रमाण हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में कहा भी है उनके ज्ञान का प्रचार केवल भक्तों में ही किया जाये जबकि हम देख रहे हैं कि व्यवसायिक प्रवचनकर्ता चाहे जहां उसे सुनाते रहते हैं। यह अलग बात है कि इसका प्रभाव कहीं परिलक्षित नहीं होता। दरअसल महाज्ञानी धर्ममेय समाधि में लीन रहते हैं जहां उनको मान पाने का लोभी नहीं होता। इस वजह से उनके सारे क्लेश भी समाप्त हो जाते हैं।
       पतंजलि योग में कहा गया है कि
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         प्रसंख्यानेऽप्यकुसीदस्य सर्वथा विवेक ख्यातेर्धर्ममेघः समाधिः।।
       ‘‘जिस योगी का तत्वज्ञान के महत्व में भी विरक्ति हो जाती है उसका विवेक और ज्ञान सर्वथा प्रकाशमान रहता है और उसे ही धर्ममेय समाधि कहा जाता है।
तत क्लेशकर्मनिवृत्तिः
         ‘‘उस समय उसके अंदर क्लेश और कर्मों का सर्वथा नाश हो जाता है।
        तद सर्वावरणमलापेतस्य ज्ञानस्यानन्त्याज्ज्ञेमल्पम्।।
      ‘उस समय उसके मन से सारे परदे और मल हट चुका होता है। ऐसा ज्ञान अनंत है इस कारण क्लेश पदार्थ कम हो जाते हैं।’
        देखा जाये तो हमारे अधिकतर संकट लोभ, लालच, तथा अहंकार की वजह से आते हैं। जब मनुष्य इससे विरक्त हो जाता है तब उसका जीवन शांति से बीतता है। ऐसा तभी संभव है कि जब कोई धर्ममेय समाधि में दक्षता प्राप्त कर लेता है।समाधि देह और मन के विकार रहित होने का सबसे बड़ा प्रतीक है।
लेखक एवं संपादक दीपक राज कुकरेजा भारतदीपग्वालियर
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