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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Saturday, January 29, 2011

जातीय झगड़ों से बचना चाहिए-हिन्दी चिंत्तन लेख (jatpaat se bachen-hindi chinttan lekh)

हमारे देश में जाति पाति को लेकर झगड़ा बहुत पुरानी समस्या है।  दरअसल हम यह मानते हैं कि हर जाति दूसरी जाति पर शासन करना चाहती है और दूसरे को हेय मानती है।  वैसे देखा जाये तो जाति पाति न भी हो तो भी लोग अन्य प्रकार से समूहों में बंटकर एक दूसरे को दबाना चाहते हैं।  झूठे अहंकार की वजह से झगड़ा होता है पर यह समस्या अंततः आर्थिक असुरक्षा तथा भूमि संबंधी विवादों से उपजे तनाव का परिणाम है।  लोगों को जाति के नाम पर समूह बनाने में सुविधा होती है इसलिये वह अपने स्वाथों की पूर्ति के लिये एक समूह बनाकर दूसरे से अहंकारवश झगड़ा करते हैं। 
प्राचीनकाल में भारत में जाति पाति व्यवस्था थी पर उसकी वजह से समाज में कभी विघटन का वातावरण नहीं बनता था। कालांतर में विदेशी शासकों का आगमन हुआ तो उनके बौद्धिक रणनीतिकारों ने यहां फूट डालने के लिये इस जाति पाति की व्यवस्था को उभारा। इसके बाद मुगलकाल में जब विदेशी विचारधाराओं का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा था तब सभी समाज अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिये संगठित होते गये जिसकी वजह से उनमें रूढ़ता का भाव आया और जातीय समुदायों में आपसी वैमनस्य बढ़ा जिसकी वजह से मुगलकाल लंबे समय तक भारत में जमा रहा। अंग्रेजों के समय तो फूट डालो राज करो की स्पष्ट नीति बनी और बाद मेें उनके अनुज देसी वंशज इसी राह पर चले। यही कारण है कि देश में शिक्षा बढ़ने के साथ ही जाति पाति का भाव भी तेजी से बढ़ा है। जातीय समुदायों की आपसी लड़ाई का लाभ उठाकर अनेक लोग आर्थिक, सामजिक तथा धार्मिक शिखरों पर पहुंच जाते है। यह लोग बात तो जाति पाति मिटाने की करते हैं पर इसके साथ ही कथित रूप से जातियों के विकास की बात कर आपसी वैमनस्य भी बढ़ाते है।
भारत भूमि सदैव अध्यात्म ज्ञान की पोषक रही है। हर जाति में यहां महापुरुष हुए हैं और समाज उनको पूजता है, पर कथित शिखर पुरुष अपनी आने वाली पीढ़ियों को अपनी सत्ता विरासत में सौंपने के लिये समाज में फूट डालते हैं। जो जातीय विकास की बात करते हैं वह महान अज्ञानी है। उनको इस बात का आभास नहीं है कि यहां तो लोग केवल ईश्वर में विश्वास करते हैं और जातीय समूहों से बंधे रहना उनकी केवल सीमीत आवश्यकताओं की वजह से है।
जात पात पर गुरुग्रंथ साहिब में प्रभावपूर्ण उल्लेख मिलता है
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जाति का गरबु न करि मूरख गवारा।
इस गरब ते चलहि बहुतु विकारा।।
"
गुरुवाणी में मनुष्यों को संबोधित करते हुए कहा गया है कि ‘हे मूर्ख जाति पर गर्व न कर, इसके चलते बहुत सारे विकार पैदा होते हैं।"
‘हमरी जाति पाति गुरु सतिगुरु’
  "
गुरुग्रंथ साहिब में भारतीय समाज में व्याप्त जाति पाति का विरोध करते हुए कहा गया है कि हमारी जाति पाति तो केवल गुरु सत गुरु है।"
‘भै काहू को देत नहि नहि भै मानत आनि।
कहु नानक सुनि रे मना गिआनी ताहि बखानि।।’
"गुरुग्रंथ साहिब के अनुसार जो व्यक्ति न किसी को डराता है न स्वयं किसी से डरता है वही ज्ञानी कहलाने योग्य है।"

जातीय समूहों से आम लोगों के बंधे रहने की एक वजह यह है कि यहां सामूहिक हिंसा का प्रायोजन अनेक बार किया जाता है ताकि लोग अकेले होने से डरें। इस समय देश में बहुत कम ऐसे लोग होंगे जो अपने जातीय समुदायों के शिखर पुरुषों से खुश होंगे पर सामूहिक हिंसक घटनाओं की वजह से उनमें भय बना रहता है। आम आदमी में यह भय बनाये रखने के लिये निंरतर प्रयास होते हैं ताकि वह अपने जातीय शिखर पुरुषों की पकड़ में बने रहें ताकि उसका लाभ उससे ऊपर जमे लोगों को मिलता रहे। मुश्किल यह है कि आम आदमी में भी चेतना नहीं है और वह इन प्रयासों का शिकार हो जाता है। इसलिये सभी लोगों को यह समझना चाहिए कि यह जाति पाति बनाये रखकर हम केवल जातीय समुदायों के शिखर पुरुषों की सत्ता बचाते हैं जो दिखाने के लिये हमदर्द बनते हैं वरना वह तो सभी अज्ञानी है। अपने से बड़े से भय खाने और और अपने से छोटे को डराने वाले यह लोग महान अज्ञानी हैं और हमारे अज्ञान की वजह से हमारे सरताज बन जाते है।
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संकलक लेखक  एवं संपादक-दीपक भारतदीप
http://teradipak.blogspot.com

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Saturday, January 22, 2011

अक्षम और मूर्ख लोगों से दूर रहना ही बेहतर-हिन्दी अध्यात्मिक लेख (aksham aur murkhg logon se door rahe-hindi adhyamik lekh)

हमारे देश ही नहीं वरन् पूरे विश्व का वातावरण ऐसा हो गया है कि बड़े पदों पर बौने चरित्र के लोग विराजमान हो गये है।  लालचियों के पास धन आ गया है और यश मिल रहा है दुश्चरित्र लोगों को! ऐसे में सामान्य आदमी का मन भटकता है कि वह बुरा बने या बड़ों की चाटुकारिता कर अपना काम चलाये।  यही कारण है कि सामान्य लोग बड़े लोगों की चाटुकारिता में लग जाते हैं। कुछ लोग नाम और नाम दोनों पाते हैं पर सभी के भाग्य एक जैसे नहीं होते। अनेक लोगों को असफलता हाथ लगती है।
इस संसार में तीन प्रकार के लोग पाये जाते हैं-सात्विक, राजस और तामस! श्रेष्ठता का क्रम जैसे जैस नीचे जाता है वैसे ही गुणी लोगों की संख्या कम होती जाती है। कहने का अभिप्राय यह है कि तामस प्रवृत्ति की संख्या वाले लोग अधिक हैं। उनसे कम राजस तथा उनसे भी कम सात्विक होते हैं। धन का मद न आये ऐसे राजस और सात्विक तो देखने को भी नहीं मिलते। जिन लोगों को भगवान ने वाणी या जीभ दी है वह उससे केवल आत्मप्रवंचना या निंदा में नष्ट करते हैं। किसी को नीचा दिखाने में अधिकतर लोगों को मज़ा आता है। किसी की प्रशंसा कर उसे प्रसन्न करने वाले तो विरले ही होते हैं। इस संसार के वीभत्स सत्य को ज्ञानी जानते हैं इसलिये अपने कर्म में कभी अपना मन लिप्त नहीं करते।
पुण्यैर्मूलफलैस्तथा प्रणयिनीं वृत्तिं कुरुष्वाधुना
भूश्ययां नवपल्लवैरकृपणैरुत्तिष्ठ यावो वनम्।
क्षधद्राणामविवेकमूढ़मनसां यन्नश्वाराणां सदा
वित्तव्याधिविकार विह्व्लगिरां नामापि न श्रूयते।।
भर्तृहरि महाराज अपने प्रजाजनों से कहते हैं कि अब तुम लोग पवित्र फल फूलों खाकर जीवन यापन करो। सजे हुए बिस्तर छोड़कर प्रकृति की बनाई शय्या यानि धरती पर ही शयन करो। वृक्ष की छाल को ही वस्त्र बना लो लो। अब यहां से चले चलो क्योंकि वहां उन मूर्ख और संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों का नाम भी सुनाई नहीं देगा जो अपनी वाणी और संपत्ति से रोगी होने के कारण अपने वश में नहीं है।

 विलासिता  और अहंकार लिप्त इस संसार में में यह तो संभव नहीं है कि परिवार या अपने पेट पालने का दायित्व पूरा करने की बज़ाय वन में चले जायें, अलबत्ता अपने ऊपर नियंत्रण कर अपनी आवश्यकतायें सीमित करें और अनावश्यक लोगों से वार्तालाप न करें। उससे भी बड़ी बात यह कि परमार्थ का काम चुपचाप करें, क्योंकि उसका प्रचार करने पर लोग हंसी उड़ा सकते हैं। सन्यास का आशय जीवन का सामान्य व्यवहार त्यागना नहीं बल्कि उसमें मन के लिप्त न होने देने से हैं। अपनी आवश्यकतायें कम से कम करना भी श्रेयस्कर है ताकि हमें धन की कम से कम आवश्यकता पड़े। जहां तक हो सके अपने को स्वस्थ रखने का प्रयास करें ताकि दूसरे की सहायता की आवश्यकता न करे। इसके लिये योगासन, प्राणायाम तथा ध्यान करना एक अच्छा उपाय है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com

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Sunday, January 09, 2011

ज्ञान मद का भी काम करता है-हिन्दी चिंत्तन लेख (gyan aur mad-hindi chittan lekh)

ज्ञान मद का भी काम करता है। ऐसी बात केवल हमारे अध्यात्मिक दर्शन में भर्तृहरि महाराज जैसे लोग ही संदेश के रूप में दे सकते हैं। ज्ञान दो तरह का होता है एक जीवन तत्व का रहस्य तो दूसरा सांसरिक ज्ञान। जिन लोगों को तत्व ज्ञान है वह जीवन तत्व रहस्य को जान जाते हैं तब उनका जीवन सात्विकता की अग्रसर होता है और वही संत कहलाते हैं। उसी तरह जिनको यही तत्व ज्ञान-जो कि केवल सांसरिकता तक ही सीमित है-आक्रामक भी बना देता है। यह संसार और जीवन नश्वर है यह सोच होने पर अनेक लोग इस जीवन का जमकर उपभोग करना चाहते हैं। इसलिये वह अच्छे और बुरे के भाव से परे होकर ऐसे काम करने लगते हैं। जैसा कि सभी लोग जानते हैं कि रावण एक विद्वान था पर उसने यह मंतव्य धारण कर लिया था कि वह जीवन अपने अनुसार ही व्यतीत करेगा तब अपराध के रास्ते पर ही चला और भगवान श्री राम के बाणों से वध को प्राप्त हुआ।
हालांकि ऐसे अपवाद स्वरूप ही होता है क्योंकि तत्वज्ञान जीवन के प्रति ऐसा आत्मविश्वास देता है जिसे मनुष्य में सकारात्मकता का भाव आने के साथ ही आशाओं को भी संचार होता है। आज नहीं तो इस मायावी संसार में लक्ष्मी का चक्कर अपने घर भी लगेगा यही सोचकर ज्ञानी निष्काम भाव से अपने काम में लगे रहते हैं। वैसे अगर हम देखें तो आज भी अनेक लोग ऐसे हैं जो कहते हैं कि इस जीवन के बाद उनका क्या होगा इसलिये जो करना है वह अभी करेंगे। युवा पीढ़ी में यही सोचकर अंधाधुंध आनंद के लिये दौड़ती रहती है कि अगर यह अवस्था बीत गयी तो फिर तो कुछ लाभ नहीं है। विवाहोपरांत तो बस घर के झंझट ही उनका पूरा जीवन लील लेंगे। देखा जाये तो यह भी एक तरह से यह सीमित तत्व ज्ञान है जो जीवन में आक्रामक बना देता है। इस बारे में भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि-
ज्ञानं सतां मानमदादिनाशनं केषांचिदेतन्मदमानकारणम्
स्थानं विविक्तं यमिनां विमुक्तये कामातुराणामपिकामकरणम्।
"ज्ञान संतों के लिये मान और मद का काम करता है। उसी तरह वही ज्ञान दुष्टों के लिये अहंकार तो योगियों के लिये मोक्ष का कारण बनता है। इसके विपरीत कामी पुरुषों के काम को भी बढ़ा देता है।"
इसके विपरीत जो लोग अध्यात्मिक ज्ञान का पूर्ण अर्थ समझते हैं वह एकांत में बैठकर जीवन और उसके रहस्य का विचार करते हैं। इस सांसरिक जीवन के उतार चढ़ाव के उतार चढ़ाव पर दृष्टि रखते हैं। वह इस चिंतन से पैदा ज्ञान को धारण करते हुए जीवन में तनाव से मुक्ति पाते हैं। अगर अपने अंदर थोड़ा बहुत अध्यात्मिक ज्ञान है तो उस पर अहंकार नहीं करना चाहिये क्योंकि सत्य का कोई अंत नहीं है।  ज्ञान बघारने का  नहीं बल्कि धारण करने का विषय है। जितना अध्ययन करेंगे उतना ही मन शुद्ध होगा। बाहर बघारने से उसका क्षय होता है क्योंकि तब अपने ज्ञानी होने का अहंकार मन में आता है जो कि सहज जीवन का एक बहुत बड़ा शत्रु है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
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Saturday, January 08, 2011

योग्य लोग किसी की परवाह नहीं करते-हिन्दी चिंतन आलेख (yogya log parvah nahin karte-hindu chitan lekh)

इस संसार में कलुषित वाणी बोलने वालों की कमी नहीं है। उससे भी अधिक संख्या तो उन लोगों की है जो दूसरे के दुःख पर हंसते हैं। किसी की परेशानी आने पर उसका मजाक उड़ाते हैं। अगर हम देखें तो आम इंसान सबसे ज्यादा इसी बात पर चिंतित रहते हैं कि कहीं उनके पास दुःख न आये। इसलिये नहीं कि वह उससे लड़ नहीं सकते बल्कि कहीं अपने ही लोग उनका मजाक न उड़ायें यही चिंता उनको खाये जाती है।  इस विषय पर नीति विशारद विदुर कहते हैं कि
परश्चेदेनभिविध्येत वाणीमुंशं सुतीक्ष्यौरनलार्कदीप्तैः।
स विध्यमानोऽप्यतिदहृामानो विद्यात् कविः सुकृतं में दधाति।।
"विद्वान मनुष्य अन्य व्यक्ति के मुख से अपने प्रति वाग्बाण तथा कटुशब्दों से चोट पहुंचाने पर वेदना होने के बावजूद यह सोचकर मौन हो जाते हैं कि वह मेरे ही पुण्यों को पुष्ट कर रहा है।
यदि सन्तं सेवति यद्यसन्तं तपस्विनं यदि वा स्तेनमेव।"
वासो तथा रंगवशं प्रवानि तथा स तेषां वशमभ्युवैति।।
जिस तरह किसी कपड़े को रंगा जाये तो वह भी उसी रंग का हो जाता है। उसी तरह सज्जन पुरुष दुष्ट से संगत करने पर उस जैसा प्रभाव हो जाता है।
तत्वज्ञानी तथा जीवन रहस्य को समझने वाले विद्वान इस प्रकार के भय से मुक्त होते हैं। वह जानते हैं कि मनुष्य मन की यह स्थिति यह है कि वह अपने दुःख से कम दुखी बल्कि दूसरे के सुख से अधिक सुखी होता है। लोभ, लालच तथा अहंकार से भरा मनुष्य कभी संतुष्ट या सुखी नहीं रह सकता इसलिये वह दूसरे के दुःख तथा क्षोभ में अपने लिये संतोष ढूंढता है। इतना ही नहीं अनेक लोग तो दूसरों की रचनात्मक प्रवृत्तियों का भी उपहास उड़ाते हैं।
यही कारण है कि विद्वान तथा समझदार लोग दूसरों की आलोचना की परवाह तथा प्रशंसा का लोभ त्यागकर अपने सत्य पथ पर बढ़ते जाते हैं। उनको किसीके मन अपमान कि चिंता नहीं होती और वह अपने कर्म में लीन रहते हैं।
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संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
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