याहि भरोसै मति रहो, बूड़ों काली धार
संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि पत्थर का पुतला बनाकर आदमी उसे पूजने लगता है। उसे अपने इस आडम्बर के सहारे नहीं रहना चाहिए कि वह उसकी सहायता से उस पार पहुंच जायेगा। अगर कहीं उसके भरोसे रहे तो बीच धार में डूब जाओगे।
पाहन को क्या पूजिये, जो नहिं देय जवाब
अंधा नर आशा मुखी, यौ ही खौवे आब
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि उस पत्थर का पूजने से क्या लाभ जो उत्तर नहीं देता। ज्ञान रहित उसे पूजकर जीवन में प्रसन्नता चाहते हैं पर यह व्यर्थ है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मूर्तियां को पूजना बुरा नहीं है पर जिस तरह उसकी पूजा कर यह सामान्य लोग मान लेते हैं कि वह बहुत बड़े भक्त हो गये तो यह उनकी अज्ञानता है। ऐसा लगता है कि मूर्ति पूजा संभवतः इसलिये शुरू की गयी कि सामान्य आदमी के लिये एकदम निराकार और निर्गुण की उपासना संभव नहीं है और वह इन मूर्तियों के रूप को अपने ध्यान में रखकर भक्ति करते हुए निरंकार को अपने मन में धारण करे। हुआ उसके विपरीत! लोग मूर्तियों को पूजकर अपने आपको भक्त समझने लगते है। यह उनकी अज्ञानता और अविवेक का प्रतीक है। जब तक हृदय से निरंकार और निर्गुण की उपासना नहीं की जायेगी तब तक अपने अंदर स्थापित विकार बाहर नहीं निकल सकते।
जब तक तन,मन और विचारों के विकार अंदर हैं तब तक हम जीवन में तनाव से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकते। मूर्तिपूजा का मतलब केवल इतना ही है कि उसका स्वरूप हृदय में रखकर हम ध्यान लगायें जो मानसिक और शारीरिक रूप से बहुत लाभदायक होता है।
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1 comment:
पत्थर को पूजा जाय कि नहीं यह तो अपनी अपनी श्रद्धा है . जैसे किसी ने कबीर को पत्थर पूजने को विवश नहीं किया . वैसे ही कबीर जी को भी शिष्टाचार का पालन करते हुए . ये बातें नहीं करनी चाहिए . भई संवेदनशील मुद्दा है यह :)
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