हम अक्सर अपने भारतीय समाज के इतिहास को लेकर अनेक चर्चाऐं करते हैं। कहा जाता है कि भारतीय समाज मे जातिपाति का भेदभाव ही उसके पतन का कारण बन रहा है पर सच बात यह है कि ऐसा अपने अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव के कारण है। हमारे समाज में धन, जाति या भाषा के आधार पर किसी मनुष्य को हेय मानना अत्यंत अनुचित माना जाता है।
यह कहना कठिन है कि पूरी दुनियां में ही अहंकार के भाव का बोलबाला है या भारतीय समाज में ही यह विकट रूप में दिखाई देता है। अलबत्ता इतना अवश्य है कि भारतीय समाज में अपने अहंकार में आकर दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति कुछ अधिक ही दिखाई देती है। हम जैसे चिंत्तक तो मानते हैं कि भारत का अध्यात्मिक दर्शन इसलिये ही अधिक समृद्ध हुआ है क्योंकि ऋषियों और मुनियों को अपने आसपास अज्ञान में लिपटा एक बृहद समाज मिला जिसे सुधारने के लिये उन्होंने तत्वज्ञान स्थापित किया। इसके लिये उनको एक सहज जमीन मिल गयी जहां वह अनुसंधान, चिंत्तन, मनन और अध्ययन से अध्यात्मिक ज्ञान का सृजन करने के साथ ही उसे सार्वजनिक रूप से व्यक्त भी कर सके। अगर सभी ज्ञानी होते तो आखिर वह किस पर अनुसंधान कर रहस्यों का पता लगाते। उनकी बात कौन सुनता? एक ज्ञानी के रूप में कौन उनको प्रतिष्ठत करता? एक टांग वाले को लंगड़ा, एक आंख वाले को काना, अक्षरज्ञान से रहित को गंवार और और काले रंग वाले को कुरूप कहकर उनका मजाक उड़ाना तो आम बात है। इसके अलावा हर आदमी अपनी जाति को श्रेष्ठ बताकर दूसरी जाति का मजाक उड़ाता है। कभी कभी तो अपने प्रथक जाति वाले को नीच बताकर उसका अपमान किया जाता है। सच बात तो यह है कि कोई जाति नीच नहीं होती अलबत्ता जिनके पास धन, पद और बाहुबल है वह दूसरे की जाति को नीच बताते हैं। यह एक दम अधर्म और अज्ञान का प्रमाण है।
यह कहना कठिन है कि पूरी दुनियां में ही अहंकार के भाव का बोलबाला है या भारतीय समाज में ही यह विकट रूप में दिखाई देता है। अलबत्ता इतना अवश्य है कि भारतीय समाज में अपने अहंकार में आकर दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति कुछ अधिक ही दिखाई देती है। हम जैसे चिंत्तक तो मानते हैं कि भारत का अध्यात्मिक दर्शन इसलिये ही अधिक समृद्ध हुआ है क्योंकि ऋषियों और मुनियों को अपने आसपास अज्ञान में लिपटा एक बृहद समाज मिला जिसे सुधारने के लिये उन्होंने तत्वज्ञान स्थापित किया। इसके लिये उनको एक सहज जमीन मिल गयी जहां वह अनुसंधान, चिंत्तन, मनन और अध्ययन से अध्यात्मिक ज्ञान का सृजन करने के साथ ही उसे सार्वजनिक रूप से व्यक्त भी कर सके। अगर सभी ज्ञानी होते तो आखिर वह किस पर अनुसंधान कर रहस्यों का पता लगाते। उनकी बात कौन सुनता? एक ज्ञानी के रूप में कौन उनको प्रतिष्ठत करता? एक टांग वाले को लंगड़ा, एक आंख वाले को काना, अक्षरज्ञान से रहित को गंवार और और काले रंग वाले को कुरूप कहकर उनका मजाक उड़ाना तो आम बात है। इसके अलावा हर आदमी अपनी जाति को श्रेष्ठ बताकर दूसरी जाति का मजाक उड़ाता है। कभी कभी तो अपने प्रथक जाति वाले को नीच बताकर उसका अपमान किया जाता है। सच बात तो यह है कि कोई जाति नीच नहीं होती अलबत्ता जिनके पास धन, पद और बाहुबल है वह दूसरे की जाति को नीच बताते हैं। यह एक दम अधर्म और अज्ञान का प्रमाण है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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हीनांगनतिरिक्तांगहीनाव्योऽधिकान्।
रूपद्रव्यविहीनांश्च जातिहीनांश्च नाक्षिपेत्।।
‘‘ऐसे व्यक्तियों का मजाक उड़ाना या अपमानित करना निंदनीय है जो किसी अंग से हीन, अधिक अंग वाले, शिक्षा से रहित, आयु में बड़े, कुरूप, निर्धन तथा छोटी जाति या वर्ण के हों।’’
वैसे मनुमहाराज पर भारतीय समाज में जाति पांति स्थापित करने का आरोप लगता है। ऐसा लगता है कि आधुनिक शिक्षा से ओतप्रोत समाज नहीं चाहता कि भारत की प्राचीन शिक्षा का यहां प्रचार प्रसार हो। यही कारण एक तो वह लोग हैं जो मनुस्मृति के चंद उदाहरण देकर देश में उसे जातिपाति का प्रवर्तक मानते हैं बिना पढ़े ही उनका प्रतिकार यह कहते हुए करते हैं कि भारतीय समाज कभी उनके संदेशों के मार्ग पर नहीं चला। यह हैरानी की बात है कि इन्हीं मनुमहाराज ने अंगहीन, अशिक्षित, बूढ़े, असुंदर तथा जाति के आधार पर किसी के मजाक उड़ाने या अपमानित करने को वर्जित बताया है। लार्ड मैकाले की शिक्षा में रचेबसे आधुनिक बुद्धिजीवी चाहे वह जिस विचारधारा के हों मनुस्मृति का पूर्ण अध्ययन किये बिना ही अपना बौद्धिक ज्ञान बघारते हैं।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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