यह संसार परिवर्तनशील है। यहां दृश्यव्य हर पदार्थ का विकास और पतन कभी न कभी होता है। यह अलग बात है कि सभी की आयु अलग अलग होती है। इतना निश्चित है कि जीवन के साथ मृत्यु और उद्भव के साथ पराभव भी होता है। यह कभी नहीं भूलना चाहिए। सांसरिक पदार्थों का मोह ऐसा है कि हर आदमी उसे प्राप्त करना चाहता है। यह अलग बात है कि सभी का कर्म एक जैसा नहीं होता अतः उसका परिणाम भी भिन्न होता है। अनेक लोग अपने सामर्थ्य से अधिक लक्ष्य निर्धारित करते हैं तो अनेक ऐसे हैं जो सहज प्राप्य वस्तु को प्राप्त करना ही नहीं चाहते। कुछ लोग समय बीत जाने पर अपना अभियान प्रारंभ करते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि लोग अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार चलते हैं वैसे ही उनका जीवन भी चलता है। ज्ञानी लोग देशकाल और अपने सामर्थ्य के अनुसार किसी वस्तु या लक्ष्य की प्राप्ति के लिये अपना काम आरंभ करते हैं। भले ही वह अधिक धनवान न बने पर उनका जीवन शांति से गुजरता है। इसके विपरीत अनेक लोग लालच, लोभ और काम के वशीभूत होकर अपना काम प्रारंभ करते हैं। भाग्यवश किसी को सफलता मिल जाये तो अलग बात है वरना अधिकरत तो अपना पूरा जीवन ही अशांति में नष्ट कर देते हैं।
इसी तरह हमें अपने जीवन में भी व्यय करते हुए इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उससे हमें प्राप्त क्या हो रहा है। हम लोग अधिक धन होने पर अनेक संस्थाओं को दान आदि देते हैं इस विचार से कि उसका पुण्य मिलेगा पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सुपात्र को दिया गया दान ही फलीभूत होता है। उसी तरह जिन मदों पर व्यय करना विलासिता लगता है उनको कभी नहीं करना चाहिए। वैसे भी कहा जाता है कि लक्ष्मी चंचल है और कभी स्थिर नहीं रहती अतः सोच समझकर ही कहीं विनिवेश करना चाहिए।
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कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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मनुष्य युग्यापचयक्षयो हि हिरण्यधान्यावचयव्यस्तु।
तस्मादिमान्नैव विदग्धबुद्धिः क्षयव्ययायासकरीमुपेयात्।।
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मनुष्य युग्यापचयक्षयो हि हिरण्यधान्यावचयव्यस्तु।
तस्मादिमान्नैव विदग्धबुद्धिः क्षयव्ययायासकरीमुपेयात्।।
‘‘मनुष्य और पशु आदि जीवधारियों की देह का ह्रास ही क्षय है। सोने आदि भौतिक पदार्थों का नाश व्यय है। जिसमें दोनों प्रकार का क्षय दिखे वह कार्य या अभियान प्रारंभ न करें। राजा का कर्तव्य है कि वह विशेष संहार और व्यय कर भी फल न मिलने वाले कार्य को रोके।
वस्तुष्वशक्येषु समुद्यमश्वेच्छक्येषु मोहादसमुद्यमश्च।
शक्येषु कालेन समुद्यश्वश्व त्रिघैव कार्यव्यसनं वदन्ति।।
शक्येषु कालेन समुद्यश्वश्व त्रिघैव कार्यव्यसनं वदन्ति।।
"किसी भी कार्य के तीन व्यसन होते हैं। एक तो अपने सामर्थ्य से अधिक वस्तु की प्राप्ति करने का प्रयास करना दूसरा सहजता से प्राप्त वस्तु के लिये उद्यम करना। तीसरा समय बीत जाने पर किसी वस्तु को प्राप्त करने का प्रयास करना।
हमारी देह का ह्रास होता है तो स्वर्ण आदि भौतिक पदार्थों का व्यय भी करना पड़ता है। ऐसे में यह निश्चित कर कोई काम हाथ में लेना चाहिए जिसमें दोनों ही प्रकार की हानियों से बचा जा सके या फिर वह कम से कम हो। धन का सीधा नियम है कि जहां सें लाभ हो वहीं विनिवेश करें। राजनीति करने वालों के लिये यह नियम बहुत विचारपूर्ण है। अक्सर हम लोग देख रहे हैं कि सरकार के माध्यम से वितरित सहायता गरीब और निम्न वर्ग तक नहीं पहुंचती है। उस पर ढेर सारा व्यय हो रहा और देश के सभी शिखर पुरुष भी यह मानते हैं कि जनता तक वह सहायता नहीं पहुंच रही है। ऐसे में उस सहायता पर धन देने से क्या लाभ जिससे राज्य का लक्ष्य पूरा न होता हो। उल्टे इससे भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। इसी तरह हमें अपने जीवन में भी व्यय करते हुए इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उससे हमें प्राप्त क्या हो रहा है। हम लोग अधिक धन होने पर अनेक संस्थाओं को दान आदि देते हैं इस विचार से कि उसका पुण्य मिलेगा पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सुपात्र को दिया गया दान ही फलीभूत होता है। उसी तरह जिन मदों पर व्यय करना विलासिता लगता है उनको कभी नहीं करना चाहिए। वैसे भी कहा जाता है कि लक्ष्मी चंचल है और कभी स्थिर नहीं रहती अतः सोच समझकर ही कहीं विनिवेश करना चाहिए।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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