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Friday, October 28, 2011

भर्तृहरि नीति शतक-धनी और निर्धन की कामनाऐं अलग अलग होती हैं (kamana ka roop garibi aur amiri ke ansuar-bharathari neeti shatak)

             मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह अगर धनार्जन करता है तो उसे व्यय के लिये भी तत्पर रहता है। जैसे जैसे उसके पास धन संपदा बढ़ती है अपना वैभव दिखाने के लिये वह उतना ही उतावला होता हैै। अगर कोई अल्पधनी अपनी मेहनत से धनवान हो जाता है तो उसे इस बात की प्रसन्नता कम होती है बल्कि वह इस चिंता को अधिक पाल लेता है कि वह अपने वैभव का प्रदर्शन समाज के सामने कर अपनी गरीब की छवि से मुक्ति पाये।
         नवधनाढ्य आदमी समाज के सामने अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने कें लिये अनेक पदार्थों का संचय करता है। अपनी चाल ढाल से वह यह सिद्ध करने का प्रयास करता है कि वह अब धनवान हो गया है। यही कारण है कि हमारे देश में धनवानों की बढ़ती संख्या के कारण भौतिक पदार्थों के संचय के साथ ही विलासिता का प्रदर्शन भी तेज हो गया है।
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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परिक्षीणः कश्चित्स्पृहयति यवानां प्रसृतये स पश्चात्सम्पूर्णः कलयति धरित्रीं तृणसमाम्।
अतश्चानैकान्त्याद् गुरु लघुतयाऽर्थेषु धनिनामवस्था वस्तुनि प्रथयति च संकोचयति च।।
         ‘‘जब मनुष्य गरीब होता है तब वह अपने रहने के लिये एक गज जमीन की चाहत करता है पर जब अमीर होने पर वही पूरे भूमंडल की कामना करने लगता है। इस संसार में अनेक पदार्थ हैं और अमीरी गरीबी के अनुसार उनको पाने की कामना बदलती रहती है। वस्तुओं का महत्व भी मनुष्य की आर्थिक स्थिति के अनुसार बदलता रहता है।"
            जहां तक धन कम या ज्यादा होने का सवाल है तो यह त्रिगुणमयी माया अपने रंग रूप इंसान को इस तरह दिखाती है कि वह उसी को ही सत्य मानकर उसके इर्दगिर्द घूमता रहता है। अपनी आत्मा और परमात्मा विषयक अध्यात्म ज्ञान उसके लिये सन्यासियों का विषय होता है। धन न होने पर आदमी अपने सांसरिक संघर्ष में निरंतर व्यस्त रहता है इसलिये सत्संग तथा ज्ञान चर्चा उसके लिये दूर की कौड़ी हो जाती है तो धन आने पर आदमी ऐसे सात्विक स्थानों पर भी अपने राजस भाव का प्रदर्शन बहुत उत्तेजना के साथ करता है जहां अध्यात्मिक विषयक विचार हो रहा है। मजे की बात यह है कि धनवान लोगों को यह भ्रम रहता है कि उनके पास अध्यात्मिक ज्ञान है वह उसका बखान भी करते हैं। यह अलग बात है कि उनकी वाणी के पीछे ज्ञान का नहीं  वरन् धन का ओज होता है। उनके सामने प्रस्तुत लोग ज्ञान बघारते समय भले कुछ न कहें पर पीठ पीछे  उन पर हंसते हैं। वजह साफ है, ज्ञान का प्रमाण भौतिक पदार्थों की उपलिब्ध नहीं वरन! उनका त्याग है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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