अक्सर लोग यह सवाल करते हैं कि जब परमात्मा ने हमें काम करने के लिये हाथ, चलने के लिये पैर, बोलने की लिये जीभ, सुनने के लिये कान, देखने के लिये आंख और सूंघने के लिये नाक देकर हमें अपने जीवन के लिये उत्तरदायित्वों के निर्वहन योग्य बना दिया है तो फिर उसका नाम लेकर समय खराब क्यों करें? कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि जब हम अपना कर्म शुद्ध हृदय से नित्य करते हैं तो भगवान का नाम लेने की आवश्यकता क्या है? कुछ लोग तो यह भी कहकर अपना ज्ञान बघारते हैं कि जीवन में चुपचाप अपना काम करना तथा कर्मकांड में लिप्त रहना ही धर्म है।
दरअसल हम भले ही अपना नित्य कर्म शुद्ध हृदय से करें पर जब तक हमें अपने अध्यात्म का ज्ञान नहीं होगा तब कभी सुख की अनुभूति नहीं हो सकती। इस तरह तो मानसिक और वैचारिक रूप से हम एक ही धारा में बहते जायेंगे तो यह पता ही नहीं चलेगा कि जीवन का रहस्य क्या है? वैसे भी मनोविज्ञानिक मानते हैं कि नियमित रूप से एक ही कर्म करते रहना या मस्तिष्क को एक ही राह पर जाकर एक ही जगह ध्यान लगाये रखना भी स्वास्थ्य के लिये ठीक नहंी है। जो बहुत बड़े ज्ञानी और ध्यानी हैं वह तो अपने अभ्यास से एक ही जगह खड़े रहकर भी नित्य पल नवीनता का अनुभव करते हुए जीवन का सुख और आनंद उठाते हैं पर सामान्य आदमी का मन उसे इधर उधर चलने के लिये प्रेरित करता है-इसी कारण हमारे समाज में फिल्म देखना, पिकनिक मनाना या किटी पार्टी करने जैसी परंपरा प्रारंभ हो गयी हैं जो कि कालांतर में अधिक दुखदायी होती हैं। इन पर व्यय होने के साथ ही शारीरिक तथा मानसिक परेशानियों का दौर भी प्रारंभ होता है। आमतौर से लोग मनोरंजन की राह पर चले जाते हैं जहां दूसरे मनुष्य मन के व्यापारी बनकर उनका दोहन करते हैं। अपने नियमित कर्म के बाद परमात्मा की भक्ति से भले ही कोई लाभ न हो पर एक नवीन सुखद अनुभूति अवश्य होती है।
यजुर्वेद में कहा गया है कि
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तत्सवितुर्वरेण्य भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो न प्रचोदयात!
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तत्सवितुर्वरेण्य भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो न प्रचोदयात!
‘‘जग नियंता, जगकर्ता, दिव्य गुण युक्त परमात्मा के शुद्ध स्वरूप का ध्यान हम करते हैं जो हमारी बुद्धि को श्रेष्ठ मार्ग पर लगाता है।’’
इसमें ओम भूर्भव स्वः शब्द जुड़ने से यह गायत्री मंत्र हो जाता है जो कि मंत्रों का राजा माना जाता है। इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि नाम स्मरण करने से मन की शुद्ध होती है और बुद्धि परिष्कृत होती है। हम अपने अध्यात्म ग्रंथों की बातों को भले ही न माने पर पश्चिमी विशेषज्ञों की इस धारणा को तो नहीं भुलाना चाहिए कि हमें अपनी नियमित दिनचर्या में एकरसता से बचना चाहिए।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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