संसार के जिस आदमी ने मिलो यही कहता है कि ‘मै दुखी हूं’, क्योंकि सामान्य मनुष्य सुख तो चाहते हैं पर उसे पाने का कौशल बहुत कम लोग हैं। इसका कारण यह भी है कि संसार में अधिकांश मनुष्य दोहरे आचरण के मार्ग पर चलने वाले हैं। आदर्शों, सिद्धांतों और नैतिकता की दुहाई सभी लोग देते हैं पर व्यवहार में सात्विकता केवल ज्ञानियों में ही दिखाई देती है। ज्ञानी इस बात को जानते हैं कि दोगला व्यवहार हमेशा स्वयं के लिये ही कष्टकारक है। लोग किसी के मित्र नहीं है भले ही दावा करते हों कि उन्होंने ढेर सारे मित्रों से व्यवहार निभाया है। अपने ही आत्मीय जनों की पीठ पीछे निंदा करते हैं। इस बात को जाने बिना बिना कि एक कान से दूसरे कान में पहुंच ही जाती है। नतीजा यह है कि समाज में वैमनस्य भी बढ़ रहा है। हम जब यह कहते हैं कि आजकल समाज में वैसा सद्भाव नहीं है तो यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि उसके लिये स्वयं ही जिम्मेदार हैं।
सामवेद में कहा गया है कि
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मा ते रसस्य मत्सत द्वयाविनः।
‘‘दोहरा आचरण करने वाले आनंदित नहीं होते।’
ऋतस्य जिह्वा पवते मधु।
‘‘सच मनुष्य की जिह्वा से मधु टपकता है।’’
लोगों की वाणी, विचार तथा व्यवहार स्वार्थों के अनुसार मधुर और कठोर होता है। ताकतवर के आगे सिर झुकाते हैं तो कमजोर पर आग की तरह झपटते हैं। आपसी वार्तालाप में ऐसी पवित्र बातें करते हैं गोया कि महान धार्मिक हों पर व्यवहार में शुद्ध रूप से स्वार्थ दिखता है। ऐसे में संसार या समाज को बिगड़ने का दोष देकर आत्ममंथन से बचना एक दोगला प्रयास है। ऐसे प्रयासों के चलते कोई सुख या आनंद नहीं प्राप्त कर सकता। इसके विपरीत निराशा, तनाव, तथा मानसिक विकारों को मनुष्य शरीर में शासन स्थापित हो जाता है। इसलिये जहां तक हो सके आत्ममंथन कर अपने दोषों का निराकरण करना चाहिए। संसार या समाज के दूषित होने की बात करना व्यर्थ है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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1 comment:
आत्ममंथन को प्रेरित करती सार्थक पोस्ट!
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