आम मनुष्य की यह सामान्य आदत होती है कि वह अपनी भौतिक उपलब्धियों तथा गुणों का बखान करता है। ऐसा करते हुए हर मनुष्य भूल जाता है कि इससे वह अपने शत्रु ही अधिक बनाता है। इस तरह की आत्मप्रवंचना से जो हीन पुरुष होते हैं वह बलशाली मनुष्य से जलते हैं। महान नीति विशारद चाणक्य का भी कहना है कि अपना स्वास्थ्य दूसरों से छिपाकर रखें। इसके अलावा श्रीमद्भागवत में श्री कृष्ण भी कहते हैं कि उनके ज्ञान का केवल भक्तों में ही प्रसारण करना चाहिए। इसके पीछे संभवत कारण यह है कि समाज में अपने व्यसनों, विचारों और द्वेष की भावना से ओतप्रोत लोगों की संख्या सदैव अधिक रहती है। इसलिये उनको विकार घेरे रहते हैं जो कि अंततः उनके लिये अस्वास्थ्यकर होते हैं। इतना ही धन, स्वास्थ्य तथा ज्ञान से हीन मनुष्यों की कुंठा इतनी तीव्रतर होती है कि वह उनका नकारात्मक सोच हो जाता है और किसी की खुशी देखकर उनके मन में द्वेष पैदा होता है। ऐसे में अस्वस्थ, चरित्रहीन तथा धन के लालची निर्धन लोगों से संपर्क बनाना अपने लिये ही अहितकारी भी हो सकता है।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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न सन्धिच्छिद्धीनैश्च तत्र हेतुरसंशयः।
तस्य विश्रम्भामलभ्य प्रहरेत्तं गतस्मृहः।
न सन्धिच्छिद्धीनैश्च तत्र हेतुरसंशयः।
तस्य विश्रम्भामलभ्य प्रहरेत्तं गतस्मृहः।
‘‘हीन पुरुष के साथ कभी संधि न करें। इसमें संदेह नहीं है कि उसके साथ विश्वासपूर्वक बातचीत करने पर इस बात की संभावना प्रबल रहती है कि वह समय मिलने पर अवश्य हानि करेगा।’’
इसका यह आशय कदापि नही है कि निर्धन लोगों से धनियों को दूर रहना चाहिए। इतना अवश्य है कि धनिकों को चाहिए कि वह निर्धन लोगों के सामने अपने वैभव का प्रदर्शन करने की बजाय उनकी सहायता करें तो अच्छा है क्योंकि इसे समाज में सामंजस्य बना रहता है। हमारा मानना है कि धन का निर्धन, स्वास्थ्य का बीमार आदमी तथा अपने ज्ञान को मूर्ख के सामने प्रदर्शन करने से बचना चाहिए। ऐसा करने से हीन मनुष्य मन ही मन द्वेष करने लगता है जो कि अंततः समर्थशील मनुष्य के लिये कष्टकारी होता है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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