-----------------------------
त्रिदण्डमेतिन्निक्षप्य सर्वभूतेषु मानवः।
कामक्रोधी तु संयभ्य ततः सिद्धिं नियच्छति।।
हिन्दी में भावार्थ-जो मनुष्य सभी जीवों के साथ मन, शरीर वह वाणी तीनों प्रकार के दंडों का पालन करते हुए व्यवहार करता है वह किसी को पीड़ा नहीं देता। उसका काम व क्रोध के साथ ही अपने आचरण पर भी संयम रहता है जिसके कारण वह सिद्ध कहलाता है।
कामक्रोधी तु संयभ्य ततः सिद्धिं नियच्छति।।
हिन्दी में भावार्थ-जो मनुष्य सभी जीवों के साथ मन, शरीर वह वाणी तीनों प्रकार के दंडों का पालन करते हुए व्यवहार करता है वह किसी को पीड़ा नहीं देता। उसका काम व क्रोध के साथ ही अपने आचरण पर भी संयम रहता है जिसके कारण वह सिद्ध कहलाता है।
वाग्उण्डोऽडःकायादण्डस्तथैव च।
वसयैते निहिता बुद्धौ त्रिडण्डीति स उच्यते
हिन्दी में भावार्थ-जो मनुष्य सोच विचार कर वाणी का प्रयोग करते हुए देह और मन पर अपना नियंत्रण बनाये रखते हैं उसे त्रिदंडी कह जाता है।
ऐसा निरंकार मनुष्य मन, वचन और शरीर से संयम पूर्वक जीवन व्यतीत करता है और इससे न केवल वह अपना बल्कि दूसरे लोगों के जीवन का भी उद्धार करता है। इससे दूसरे लोग भी प्रसन्न होते हैं और उसका सिद्ध की उपाधि प्रदान करते हैं। जिन मनुष्यों के पास तत्व ज्ञान है वह अपने मुख से आत्मप्रचार कर अपने व्यवहार और आचरण से ही अपनी सिद्धि को प्रमाण करते है। जिनको ऐसा सिद्ध बनना है उनको चाहिये कि वह मन, वचन और देह के दंडों पर अभ्यास से नियंत्रण करें। ऐसी सिद्धि योगासन, प्राणायाम तथा ध्यान से प्राप्त कि जा सकती है।
-----------
संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप',ग्वालियर मध्य प्रदेशwriter and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep' Gwalior Madhya Pradesh
http://deepkraj.blogspot.com
-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
No comments:
Post a Comment