मिला रहै और ना मिलै, तासों कहा बसाय
कविवर रहीम कहते हैं कि जब कोई हम कार्य करना चाहें और उसके विपरीत अनहोनी हो जाये तो क्या किया जा सकता है? उसी तरह जो व्यक्ति ऐसा हो जो मिलकर भी दूरी बनाये रखे उसे निर्वाह नहीं हो सकता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिंदगी में अनेक लोग मिलते हैं। कुछ तो पास ही रहते हैं पर वह एक मानसिक दूरी बनाये रखते हैं ऐसे भला उनसे आत्मीयता का भाव कैसे स्थापित हो सकता है। अपने शैक्षणिक, व्यवसायिक और आवासीय स्थानों में ऐसे अनेक लोग प्रतिदिन मिलते हैं जिनके प्रति हमारा झुकाव इसलिये हो जाता है कि क्योंकि उनसे नियमित संपर्क रहता है। ऐसे में यह वहम भी हो जाता है कि वह हमारे अपने हैं और समय पर काम आयेंगे-पर ऐसा होता नहीं है। दरअसल अपने स्वार्थ की वजह से हम और वह पास होते हैं पर हमारे अपने स्वार्थ ही होते हैं जो जोड़े रहते हैं इससे मानसिक एकात्मकता का पता नहीं लगता। अगर हम उनके साथ अपने संबंधों का विश्लेषण करें तो एक दूरी अनुभव होगी और तब लगेगा कि उनके अपने होने का वहम है।
इसके अलावा अपने नियमित संपर्क में आने वाले व्यक्ति को केवल इसलिये ही अच्छा नहीं मान लेना चाहिये कि हम उसे जानते हैं और वह मीठा बोलता है। उसके घरेलू इतिहास, संस्कार और आस्था का भी पता करना चाहिये क्योंकि अगर मानसिक धरातल पर कोई व्यक्ति हम जैसा और हम उस जैसे नहीं है तो आत्मीयता का भाव स्थापित नहीं किया जा सकता। अगर जबरन यह प्रयास किया जाता है तो बाद में पछतावा होता है। जब तक संस्कार, विचार, लक्ष्य और कार्यशैली में साम्यता नहीं है तब तक संबंध स्थाई नहीं हो पाते। तत्कालिक आकर्षण में स्थापित संबंध बाद में दुःखदायी साबित होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जिससे निर्वाह नहीं हो सकता उससे दूर हो जाना ही अच्छा है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.wordpress.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग ‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। मेरे अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख-पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्द योग
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