असतां च गतिः सन्तो न त्वसन्तः सतां गतिः।।
हिंदी में भावार्थ-मतिमान और गतिमान पुरुषों को सहारा देने वाले संत हैं। संतों को भी सहारा देने वाले संत हैं। असत्य पुरुषों को भी संत सहारा देते हैं पर दुष्ट लोग किसी को सहारा नहीं देते।
विद्यामदो धनमदस्तृतीयोऽभिजनो मदः।
मदा एतेऽवलिसानामेत एवं सतां दमः।।
हिंदी में भावार्थ-विद्या, धन, और अभिजातीय वर्ग होने का मद अहंकारी के लिए दोष तथा सज्जन पुरुषों के लिये शक्ति होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जैसे संसार भौतिकवादी होता जा रहा है वैसे मनुष्य की बुद्धि कुंठित होती जा रही है। शिक्षा और धन की अधिक उपलब्धता ने अभिजातीय वर्ग का दिमाग सातवें आसमान पर पहुंचा दिया है। लोग इस बात से संतुष्ट नहीं है कि उनके संपन्नता और प्रतिष्ठा है बल्कि वह उसका प्रमाणीकरण चाहते हैं। अपनी योग्यता से अधिक धन प्राप्त करने वाले लोगों का अहंकार तो देखते ही बनता है। समय ने ऐसी करवट ली है कि परिश्रम से काम करने वालों का सम्मान कम होता गया है और झूठ, अपराधी तथा ठगी से पैसा कमाने वालों को-उनके दोष जानते हुए भी-समाज के लोग इज्जतदार मानते हैं। ऐसे लोग किसी का भला करने से तो रहे। सच तो यह है कि अगर आप शिक्षित, धनी और अभिजात वर्ग के हैं तो तभी सज्जन माने जा सकते हैं जब अपने गुण से किसी अन्य की सहायता करें। शक्ति और गुण होने पर केवल उसका दिखावा करें तो अहंकारी कहलायेंगे।
भले आदमी का काम है सभी की अपने आसपास गरीब और बेसहारा की सहायता करे न कि मूंह फेरकर अपने अभिमान में चलता जाये। किसी की भी सहायता करने वाला व्यक्ति ही सज्जन कहलाता है और जो समर्थ होते हुए भी ऐसा नहीं करता उसे अहंकारी और दुष्ट कहा जाता है। जब हम यह कहते हैं कि मनुष्य को समाज की साथ चलना चाहिए तब यह भी जरूरी है कि समर्थ और ज्ञानी लोग निरीह आदमी के सहायता करें। यही मनुष्यता का प्रमाण है।
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1 comment:
bahut hi sundar bhavon se paripoorna........santon ki vajah se hi to ye prithvi tiki huyi hai.
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