ज्यौं बन्दूक गोली बिना, भड़क न मरि आन।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि बिना अनुभव के ज्ञान देना, चावल की भूसी कूटने के समान है।
सुर नर मुनि सबको ठगै, मनहिं लिया औतार।
सुन जो कोई बाते बचै, तीन लोग ते न्यार।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि यह चंचल मन सामान्य मनुष्य हों या असाधारण सभी को ठगता है।
जग हटबारा स्वाद ठग, माया वेश्या लाय।
राम नाम गाढ़ा गहो, जनि जहु जन्म गंवा।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार के बाजार में स्वाद ही ठग और माया ही वैश्या की तरह व्यवहार करती है। इसलिये राम का नाम का दिल की गहराई से स्मरण करें वरना पूरा जीवन व्यर्थ चला जायेगा।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-टीवी चैनलों और पत्र पत्रिकाओं में किसी भी कंपनी का उत्पाद देखिये उसके समर्थन में प्रस्तुत विज्ञापन की भाषा बहुत आकर्षक और मन लुभावनी होती है। खाने पीने की वस्तुओं का विज्ञापन तो इस तरह होता है कि पढ़ते ही मूंह में पानी आ जाता है। यह सब आदमी के जेब से पैसे या माया निकालने की कला है जिसका नाम बाजार है। आदमी के जेब अगर पैसा या माया अधिक है तो उसकी बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाती है और वह उन चीजों को खरीदने चला जाता है।
अगर हम आज की उपभोक्ता संस्कृति का सूक्ष्म विश्लेषण करें तो अनुभव होगा कि कुछ लोगों के पास पैसा वाकई बहुत अधिक आ गया है वरना इतना सारा विज्ञापन जगत चल ही नहीं सकता। इसके अलावा खाने पीने की वस्तुओं में ऐसे पदार्थों का उपयोग बढ़ रहा है जो जीभ के लिये स्वादिष्ट हैं पर पेट के लिये पाचन योग्य नहीं। परिणाम स्वरूप नयी नयी बीमारियों की उत्पत्ति हो रही है और फिर उनके लिये दवा निर्माण के लिये नये कारखाने खुलते हैं फिर उनका विज्ञापन हमारे समक्ष प्रस्तुत होता है। यह बाजार और माया का चक्र में जिसके अंदर विज्ञापन आदमी को अपनी सवारी कर घुमाता है।
यह सब हमारे देश में अधिक हो रहा है क्योंकि यहां अब नये नये धनवान अधिक हो गये हैं और इसलिये जिन चीजों को पुराने अमीर देशों के लोगों ने त्याग कर दिया है उनको यहां ग्रहण किया जा रहा है। हमारे देश के प्राचीन अध्यात्मिक ज्ञान को एक तरफ उठाकर रख दिया गया है और अगर उसे कुछ लोग प्रस्तुत भी कर रहे हैं तो वह स्वयं के लिये धनार्जन और विज्ञापन के लिये। राम की चर्चा करते हैं पर माया का संग पाने की इच्छा के साथ। ऐसे लोग अध्यात्मिक ज्ञान की पुस्तकों के संदेश तो रट लेते हैं पर धारण करना उनके वश में भी नहीं होता।
सच बात तो यह है कि अगर हृदय से भगवान का स्मरण किया जाये तो मन में एक नयापन आता है जबकि उपभोक्ता वस्तुओं के प्रति आकर्षण अंततः मनोविकारों का कारण बनता है। भक्ति से जहां हमारे अंदर सकारात्मक भाव का निर्माण होता है वहीं मनोविकारों से मुक्ति मिलती है, वहीं जीवन स्वयमेव तनाव से मुक्त हो जाता है ।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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