यावज्जवलति नांगेषु हतः पञ्वेषु पावकः
हिंदी में भावार्थ-हृदय में विद्वता, कुलीनता और विवेक का प्रभाव तब तक ही रहता है जब तक ही जब तक कामना, वासना और इच्छा की अग्नि प्रज्जवलित नहीं हो उठती है। मन में लोभ और लालच का भाव आते ही सब सदगुण नष्ट हो जाते है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में मनुष्य के जीवन व्यतीत करने के दो ही मार्ग हैं-एक है ज्ञान मार्ग और दूसरा मोहमाया का मार्ग। मनुष्य तो अपने मन का दास है जैसे वह कहता है उसकी पांव वही चलते जाते है। यह उसका भ्रम है कि वह स्वयं चल रहा है। कुछ मनुष्य अपना जीवन ज्ञान के साथ व्यतीत करते हैं। वह सासंरिक कार्य करते हुए भी धन और मित्र के संग्रह में लोभ नहीं करते। जितना धन मिल गया उसी में संतुष्ट हो जाते हैं पर कुछ लोगों की लालच और लोभ का अंत ही नहीं है। वह धन और मित्र संग्रह से कभी संतुष्ट नहीं होते हैं और मोहमाया के मार्ग पर चलते जाते हैं।
हां, कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अधिक अवसर न मिल पाने की वजह से धन और मित्र संग्रह सीमित मात्रा में कर पाते हैं। वह तब खूब ज्ञान की बातें सुनते और करते हैं। उनकी बातों ये यह भ्रम भी हो जाता है कि वह संत या साधु प्रवृत्ति के हैं पर ऐसे लोगों को जब धन और मित्र बनाने के अधिक अवसर अचानक प्राप्त होते हैं तब वह सारा ज्ञान भूलकर उसका लाभ उठाते है।। तब उनका सारा ज्ञान एक तरह से बह जाता है। फिर वह पूरी तरह से धन संपदा और अपने निजी संबंधों के विस्तार पर अपना ध्यान केंद्रित कर देते हैं और उनके लिये पहले अर्जित ज्ञान निरर्थक हो जाता है। मन में जो आदमी अंदर इच्छाएं पैदा होती हैं उसका चिंतन करते हुए आदमी अपने गुणों पर दृष्टिपात नहीं करता और इसी वजह से उनका क्षय हो जाता है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://rajlekh.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। मेरे अन्य ब्लाग
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