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Saturday, December 19, 2009

संत कबीरदास के दोहे-निच्छल हृदय बिना भक्ति नहीं होती (saf dil ke bina bhakti nahin hoti-kabir vani)

भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव
भक्ति भाव इक रूप है, दोअ एक सुभाव

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक हृदय में निच्छल और निर्मल भाव नहीं है तब तक इस जगत में भक्ति का भाव नहीं बन सकता है। भक्ति के भाव तो रूप एक है पर उसके दो प्रकार के स्वभाव हैं-एक सकाम भाव दूसरा निष्काम भाव।
भक्ति दुवारा सांकरा, राई दशवें भाव
मन मैंगल होम रहा, कैसे आये जाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि भक्ति का द्वार कि राई के दाने के दसवें भाग के बराबर संकरा होता है उसमें पागली हाथी की तरह मतवाला विशाल मन में कैसे प्रवेश कर सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भक्ति और ज्ञान का स्वरूप अत्यंत सूक्ष्म है। संत और साधु लोग प्रवचन देते हुए तमाम तरह की कहानियां और संस्मरण जोड़ देते हैं तो ऐसा लगता है कि ज्ञान का कोई बृहद स्वरूप है। अक्सर ऐसे संत लोग कहते हैं कि श्रीगीता का ज्ञान गूढ और रहस्यपूर्ण है पर यह उनका भी भ्रम है। श्रीगीता का ज्ञान सरल और सहज है पर प्रश्न यह है कि उसका अध्ययन और श्रवण करने वाला किस मार्ग पर स्थित है। जो भक्त सकाम भाव में स्थित हैं उसके लिये वह राई के बराबर है और वह उसमें प्रवेश नहीं कर सकता क्योंकि उसका मन तो अपने अंदर इच्छायें और आकांक्षाओं को पालकर मदमस्त हाथी हो जाता है। उसको निष्काम भक्ति का यह द्वार दिखाई ही नहीं देगा। जिसने निष्काम भाव अपनाते हुए श्रीगीता का अध्ययन और श्रवण किया वह सहजता से समझ सकता है।इसलिये श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन अवश्य करना चाहिए।
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