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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Wednesday, April 02, 2014

किसी की भी चाटुकारिता और चमचागिरी करना व्यर्थ-भर्तृहरि नीति शतक के आधार पर चिंत्तन लेख(kisi ki bhi chatukarita aur chamachagiri karna vyarth-a hindu religion thought on bhartirihari neeti shatak)



      दूसरों से प्रशंसा पाने की  महत्वाकांक्षा मनुष्य को हास्यास्पद स्थितियों में पहुंचा देती है।  चाटुकारिता और चमचागिरी जैसे शब्द हमारे समाज में प्रचलित हैं जो इस बात के द्योतक हैं कि हमारे बीच ऐसे लोग हैं जो अनावश्यक रूप से अपने स्वामी, अधिकारी अथवा उस व्यक्ति को प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं जिससे उनको थोड़े भी लाभ की आशा होती है।  स्वयं को श्रेष्ठ, वफादार, ईमानदार तथा कर्तव्यपरायण प्रमाणित करने के लिये अनेक लोग दूसरे की निंदा या शिकायत करते हैं।  जिन लोगों को अपने स्वामी या अधिकारी को प्रसन्न करना होता है वह उनके सामने हमेशा ही अपने ही सहयोगियों को नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं।  उनको यह  लगता है कि ऐसा कर वह अपने स्वामी या अधिकारी का विश्वास जीत लेंगे। दरअसल इस तरह की नीति उन लोगों की होती है जो अपने ही कर्म की शुद्धता के प्रति सशंकित  होते हैं। उनकी नीयत में ही खोट होता है आर तब वह अपने ही साथी की छवि खराब कर अपनी श्रेष्ठता का प्रचार करते हैं।
      हमारे यहां आधुनिक अंग्रेजी शिक्षा पद्धति, विदेशी राजकीय कार्यप्रणाली, पाश्चात्य आर्थिक तथा सामाजिक नीतियां तथा संस्कृति अपनाये जाने के बाद समाज में चाटुकारिता तथा चमचागिरी करने  की प्रवृत्ति बढ़ी है। इस पाश्चात्य संस्कृति का एक ही सिद्धांत हैं कि सामंत, स्वामी और साहब कभी गलत नहीं होते-यानि जिसके पास धन का बाहुल्य, उच्च पद और प्रतिष्ठा है उसे तो उसकी योग्यता के अभाव में भी सम्मानीय मानना चाहिये। आर्थिक उदारीकरण के चलते राजकीय क्षेत्र की बजाय निजी क्षेत्र में रोजगार या नौकरियां के अवसर बढ़े है जिस कारण समाज में त्रिवर्गीय समाज-उच्च, मध्यम और निम्न-की बजाय द्विवर्गीय समाज-साहब और गुलाम-में बदल रहा है। समाज में आर्थिक और सामजिक रूप से गुणात्मक अंतर स्पष्ट होने लगा है जिससे छोटे लोगों को अपने अस्तित्व बचाने के लिये कथित बड़े लोगों की जीहुजूरी करनी पड़ती है।

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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परेषां चेतांसि प्रतिदिवसमाराध्य बहुधा प्रसादं किं नेतुं विशसि हृदय क्लेशकलितम्।
प्रसन्ने त्वथ्यन्तः स्वयंमुदिरचिन्तामणिगणो विविक्तः सङ्कल्पः किमभिलषितं पुष्यति न ते।।
     हिन्दी में भावार्थ-हे मन! तू प्रतिदिन दूसरों के प्रसन्न करने का प्रयास क्यों करता है? अपने अंदर ही क्यों नहीं झांकता? जब तू अंतर्मन में झांकेगा तब सभी प्रकार के इच्छित फल देने वाले परमात्मा तेरे हृदय में प्रकट होगा तो क्या वह तेरी इच्छायें पूर्ति नहीं करेगा?

      एक तो सामान्य रूप से ही किसी को प्रसन्न करना वैसे  कठिन है और उस पर आजकल के सामंत, स्वामी और साहब का तो कहना ही क्या जो अपनी उपलिब्धयों के मद में लिप्त रहते हैं। कथित उदारीकरण ने मध्यम वर्ग को करीब करीब ध्वस्त कर दिया है ऐसे में उच्च वर्ग के लोगों को लगता है कि निम्म आय वर्ग वाला आदमी उनके सामने मानव रूप पशु ही है। उन पर अपने धन, पद और प्रतिष्ठा का अहंकार इतना रहता है कि अपनी आलोचना तो वह सहन ही नहीं कर सकते।  उनसे हित की कामना रखने वाला कोई व्यक्ति उनकी आलोचना कर जोखिम भी नहीं उठाता पर जिनको कोई उनसे अपेक्षा नहीं है वह उनकी छवि पर प्रतिकूल टिप्पणियां करने से बाज भी नहीं आते।  देखा जाये तो खरी या स्पष्ट बात कहने वाले लोगों की छवि अच्छी होने की बजाय समाज खराब ही मानता है।  स्पष्टवादी को अहंकारी तथा अपना ही शत्रु घोषित कर दिया जाता है।
      भारतीय अध्यात्म दर्शन के अनुसार सभी का दाता भगवान ही हैं उसने पेट बाद में दिया पहले ही अन्न के दानों पर नाम लिख दिया। इसलिये कभी भी किसी की चाटुकारिता अथवा चमचागिरी नहीं करना चाहिये।  यहां कोई भी मनुष्य असाधारण, उच्च अथवा निम्म नहीं है।  यह अलग बात है कि जो लोग हमसे उच्च स्थान होने पर हमसे परे हैं हमें देवता लगते हैं पर उनमें भी सामान्य मानवीय कमजोरियां होती हैं।  यह सत्य जानकर सभी से सामान्य और सम्माजनक व्यवहार करना चाहिये।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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